बीबीयों की सराय?

22 अगस्त की अपराह्न मैंने फेस बुक पर, अपनी दीवाल पर निम्नांकित टिप्पणी लिखी -

“आज ‘दूरदर्शन नेशनल’ पर दोपहर में, ‘बाम्बे टाकिज’ कार्यक्रम देखने का मौका मिला।

“कार्यक्रम की सूत्रधार देवीजी निश्चय ही ‘एंग्लो इण्डियन’ थीं। उन्हें हिन्दी बोलने में बड़ी तकलीफ हो रही थी। उनकी प्रस्तुति में अंगरेजी शब्दों की भरमार थी।

“ऐसे प्रस्तोताओं से बचा जाना चाहिए। ‘दूरदर्शन’ की पहुँच दूर-दराज के गाँवों तक है। सहज हिन्दी बोलनेवाले प्रस्तोता अधिक उपयोगी और प्रभावी होंगे।”

मेरी इस टिप्पणी पर, फेस बुक पर जो टिप्पणियाँ आईं वे तो अपनी जगह किन्तु 24 अगस्त की शाम तक मुझे दिल्ली से चार फोन आए। फोन करनेवाले चारों ही सज्जन किसी न किसी रूप में ‘दूरदर्शन’ से जुड़े थे। एक सज्जन तो सप्ताह में कम से कम चार बार ‘दूरदर्शन’ जाते ही हैं।

इन चारों से, प्रत्येक से लगभग पाँच-पाँच मिनिट बात हुई। चारों ने जो कुछ कहा उसने मुझे अचरज में ही डाला। लेकिन मैंने इन सबकी बातें एक कान से सुनीं और दूसरे कान से निकाल दीं।

किन्तु कल, शनिवार को आए एक फोन ने मेरा ध्यानाकर्षित किया। इन सज्जन ने कोई आठ मिनिट मुझसे बात की और आप बीती सुनाई। 

मुझे नहीं पता कि इन सबने जो कुछ कहा वह सब, वैसा ही सच है जैसा उन्होंने कहा या कि ‘दूरदर्शन’ में सब कुछ वैसा ही होता है। लेकिन ‘कुछ न कुछ’ नहीं हो तो भी ‘कुछ’ तो है ही। बिना आग के भला धुँआ होता है?

इन सबकी बातों का निष्कर्ष था कि ‘दूरदर्शन’, केन्द्र सरकार के अफसरों (खास कर आईएएस अफसरों) की बीबीयों का शरणस्थल या तो बन गया है या बनता जा रहा है। 

इनमें से तीन ने तो कुछ सम्वादों के नमूने दिए। जैसे - 

- मिसेस ने फाइन आर्ट्स में पीजी कर रखा है। उनके लिए थोड़ा स्पेस बनाइये ना! 

- मेडम से तो आपकी मुलाकातें होती रहती हैं। उनसे खूब डिस्कशन भी होता रहता है आपका। आपके यहाँ तो किसी न किसी टॉपिक पर डिस्कशन्स होते ही रहते हैं। उन्हें पेनेलिस्ट या प्रजेण्टर बनाने की आपने कभी सोचा ही नहीं। थिंक टू डू ए फेवर।

- मिसेस एस्थेटिक टेस्टवाली हैं। आर्ट, कल्चर और लिटरेचर में अच्छा-खासा दखल है। उनके लिए कुछ कीजिए भाई!

कभी-कभी उल्टा होता है। याने, किन्हीं खास अफसरों को खुश करने के लिए ‘दूरदर्शन’ के कुछ लोग उनकी सद्गृहस्थ पत्नियों को जबरिया प्रेजेण्टर बना देते हैं।

लेकिन कल आए फोन ने तो सब गड़बड़ ही कर दिया। फोन करनेवाले सज्जन केन्द्र एक सरकार के एक उपक्रम में पदस्थ हैं और अपने विषय के विशेषज्ञ की हैसियत रखते हैं। उनके विषय पर बात करने के लिए ‘दूरदर्शन’ ने उन्हें बुलाया था। वे तो पूरी तैयारी से पहुँचे थे किन्तु उनसे बात करनेवाली देवीजी का, कैमरे का सामना करने का यह पहला ही मौका था। ‘दूरदर्शन’ का सपोर्टिंग स्टाफ पसीना-पसीना हो गया लेकिन उनसे बोला ही नहीं जा रहा था। सवाल पूछना तो दूर रहा, उनसे तो सवाल पढ़े भी नहीं जा रहे थे। समय तेजी से बीत रहा था लेकिन होने के नाम पर कुछ भी नहीं हो रहा था।  इन विशेषज्ञजी का धीरज छूट गया। आगे जो हुआ, वह कुछ इस तरह था -

“मेरे पास बहुत ही सीमित समय था। अपने बाकी अपाइण्टमेण्ट निपटाने के लिए मुझे जल्दी लौटना था। लेकिन उधर देवीजी के बोल नहीं फूट रहे थे। आखिरकार मैंने रास्ता बताया। बोला कि देवीजी भले ही पूछ नहीं पा रही हैं लेकिन सवाल तो लिखे हुए हैं ही। उन सवालों के हिसाब से मेरे जवाब रेकार्ड कर लें और मुझे छुट्टी दे दें। बाद में इन देवीजी से सवाल रेकार्ड कर लें और बाकी काम सम्पादक पर छोड़ दें।

“प्रोड्यूसर को मेरी बात जँच गई। मेरे जवाब रेकार्ड कर लिए गए। मैं लौट आया। दो दिन बाद मुझे उस कार्यक्रम प्रसारण की सूचना मिली तो मैं धड़कते दिल से देखने बैठा - कहीं ऐसा न को कि सवाल कुछ हो और जवाब कुछ और। लेकिन सम्पादक ने सब कुछ सम्भाल लिया।”

अब, जब-जब भी ‘दूरदर्शन’ देखता हूँ तो मुझे ‘दूरदर्शन’ के प्रतीक चिह्न पर ‘दूरदर्शन’ के बजाय ‘बीबीयों की सराय’ लिखा नजर आता है।


लोक कल्याणकारी योजना का आतंक

प्रधानमन्त्री जन-धन योजनाका स्वरूप और अन्तिम लक्ष्य अभी तक स्पष्ट नहीं है किन्तु बैंकरों में इसका आतंक छाया हुआ है। प्रधानमन्त्री मोदी ने पन्द्रह अगस्त को लाल किले से दिए अपने भाषण में इस योजना की घोषणा की थी। इस योजना की विधिवत औपचारिक शुरुआत 28 अगस्त को हो रही है। अखबारों में जो विज्ञापन आए हैं उनमें भी कोई बहुत बड़ी बात नजर नहीं आती सिवाय इसके कि प्रत्येक परिवार को बैंकिंगसे जोड़ा जाए। लेकिन इसमें ऐसा कुछतो है जिसके लिए जीजान लगाकरभाग-दौड़ की जा रही है।
 
कल रविवार था किन्तु मेरे कस्बे के लगभग तमाम बैंक कल दिन भर और रात लगभग नौ बजे तक खुले रहे। इन्दौर में बसे, अधिकारी स्तर के कई लोग शनिवार को इन्दौर नहीं जा सके। उन्हें हड़काकररोक दिया गया। अधिकारी संवर्ग के कुछ लोग अपनी-अपनी बैंकों में बैठे थे तो कुछ लोग गाँवों में डेरा डाले हुए थे। प्रत्येक बैंक को उन गाँवों की सूची दे दी गई थी जहाँ के निवासियों के खाते खुलवाने थे। इन्हें कहा गया था कि ये गाँवों में जाएँ और लोगों के खाते खुलवाने की अपनी कोशिशों के प्रमाण भी प्रस्तुत करें। अखबारों में इनके समाचार भी छपवाएँ। लिहाजा ये बैंक अधिकारी अपने-अपने बैंक के बैनर साथ ले गए थे। इन्होंने वहाँ मजमा जमाया, लोगों को इकट्ठा किया और फोटू खिंचवाए।
 
प्रत्येक बैंक को खाते खुलवाने की न्यूनतम संख्या दे दी गई है। मेरे कस्बे में शुक्रवार, 22 अगस्त से ही विभिन्न बैंकों ने अपने-अपने दफ्तरों के बाहर बैनर सहित स्टाललगा दिए थे।
 
मुझे जब यह जानकारी मिली तो जानबूझकर बैंकों में गया। रविवार था लेकिन, जहाँ-जहाँ मैं गया, तमाम बैंक आबादतो थे लेकिन गुलजारनहीं थे। दहशत और गुस्सा और मातमी उदासी पसरी हुई थी। मालूम हुआ कि स्थानीय स्तर पर ही नहीं, लगभग प्रत्येक बैंक के उच्चाधिकारी भी हलकान हुए, ‘मानीटरिंगकर रहे हैं। फोन पर फोन आ रहे हैं। केवल खाते खोलने के लिए ही नहीं, ‘रविवार को भी खाते खोले गए हैंयह रेकार्ड पर जताना/बताना भी जरूरी है। लिपिकीय स्तर के कुछ निष्ठावान कर्मचारी भी जुटे हुए थे। उच्चाधिकारियों के निर्देश थे - दिन भर गाँवों में रह कर खाते खोलो और रात में तमाम नए खातों को कम्प्यूटर में दर्ज कर प्रोग्रेस रिपोर्टभेजने के बाद ही घर जाओ।
 
दो मजेदार नमूने इस अभियान के आतंककी कहानी अधिक प्रभावशीलता से कहते मिले। पहले नमूने में एक अधिकारी ने अपने भरोसे के एक कार्यकर्ताको, ‘प्रति खाता दस रुपयेके भाव से यह काम सौंप दिया। यह कार्यकर्ताभी उत्साही है। इसने रविवार को ही, एक ही गाँव के 73 लोगों के न केवल फार्म भरवा लिए हैं बल्कि फार्माें की औपचारिकताओं के लिए तमाम कागज भी जुटा लिए हैं। उसने भरोसा दिलाया है - आप बेफिकर रहो साब! आपका टारगेट पूरा कर दूँगा।अब स्थिति यह है कि उच्चाधिकारी इस बैंक के स्थानीय अधिकारी की मानीटरिंग कर रहे हैं और यह अधिकारी इस कार्यकर्ता की।
 
दूसरा नमूने को व्यंग्यभी कहा जा सकता है और कारुणिक विडम्बनाभी। अपराह्न चार बजे के आसपास मैं एक बैंक में पहुँचा तो शाखा प्रबन्धकजी ने असमंजसी मुद्रामें मेरी अगवानी की। मुझे कुछ पूछना नहीं पड़ा। उनकी शकल ही काफी-कुछ कह रही थी। मैंने पूछा - कैसा चल रहा है?’ बोले - आप ही बताओ कि मैं रोऊँ या हँसूँ? आर. एम. साहब कह रहे हैं - यार! तुम फार्म बाद में भरवाना। पहले कम्प्यूटर में सारे खाते खोल लो और फौरन जानकारी भेजो। ऊपरवाले साँस नहीं लेने दे रहे हैं।
एक बात मैंने तेजी से अनुभव की कि प्रायः सारे के सारे अधिकारी केवल अधिकाधिक खाते खोलने के ही दबवा में नहीं हैं, वे इस योजना के (अब तक) अघोषित लक्ष्य का अनुमान कर भयभीत हुए जा रहे हैं। इस योजना के विज्ञापन में ‘6 माह तक खाते के संतोषजनक परिचालन के बाद ओवरड्राफ्ट की सुविधा वाली बात से सभी बैंक अधिकारी भयभीत और नाखुश हैं। अलग-अलग चर्चाओं में सबने एक ही बात कही कि 6 महीनों के बाद प्रत्येक खाताधारक को रुपये 5,000/- के ओवर ड्राफ्ट की सुविधा दी जानी है। यह ऐसा उधार होगा जो कभी नहीं चुकाया जाएगा। एनपीए के विशाल आकार से जूझ रहे बैंकों के लिए यह ऐसा खतरा है जिसकी जानकारी उन्हें है तो सही किन्तु बचाव का कोई उपाय, इनमें से किसी के पास नहीं है। यही डर इन सबको खाए जा रहा है।
 

इस योजना के लक्ष्य तो 28 अगस्त को ही मालूम हो सकेंगे लेकिन यदि मेरे कस्बे को पैमाना बनाऊँ तो इस क्षण का निष्कर्ष तो यही है कि अन्धों का हाथीबनी इस योजना ने बैंक अधिकारियों का खाना-पीना-सोना हराम कर रखा है।
 

आम आदमी की ‘जीवन रक्षक’

अभी-अभी, 19 अगस्त 2014 को भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) ने ‘जीवन रक्षक’ (तालिका 827) नाम से नई बीमा योजना बाजार में प्रस्तुत की है। एलआईसी की मौजूदा बीमा योजनाओं के मुकाबले इसे ‘आम आदमी की बीमा पॉलिसी’ कहा जा सकता है।

इस पॉलिसी की प्रमुख बातें इस प्रकार है -

- अपनी आयु के 08 वर्ष पूर्ण कर चुके व्यक्तियों से लेकर 55 वर्ष तक की आयु के व्यक्ति यह पॉलिसी ले सकते हैं।
(यहाँ 55 वर्ष का अर्थ है, जिसकी आयु आज 55 वर्ष, 05 महीने और 29 दिन है।)

- इस पॉलिसी में पूर्व दिनांकन (बेक डेटिंग) की सुविधा भी उपलब्ध है। अर्थात् इस पॉलिसी को खरीदें भले ही आज किन्तु इसका प्रारम्भ दिनांक 01-04-2014 से भी लिया जा सकता है। इसका लाभ यह है कि जो आदमी आज 55 वर्ष 06 महीने से अधिक आयु का हो चुका है (ऐसा आदमी एलआईसी के हिसाब से 56 वर्ष का हो कर यह पॉलिसी लेने की पात्रता खो चुका है), वह भी उस पिछली तारीख से यह बीमा ले सकता है जिस तारीख को वह 55 वर्ष 05 माह 29 दिन की सीमा में आ जाता हो।

- पूर्व दिनांकन की सुविधा लेने पर प्रीमीयम की रकम पर 9.5 प्रतिशत की साधारण दर से ब्याज देय होगा।

 - पॉलिसी की अवधि न्यूनतम 10 वर्ष और अधिकतम 20 वर्ष होगी। 

इसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि इस पॉलिसी के अन्तर्गत एक व्यक्ति को अधिकतम 2,00,000/- रुपयों का ही बीमा मिल सकेगा। इस भ्रम मे बिलकुल न रहें कि दो-दो लाख की, एक से अधिक पॉलिसियाँ ली जा सकेंगी। अधिकतम बीमा धन की यह सीमा ‘प्रति जीवन’ है, ‘प्रति पॉलिसी’ नहीं। हमें बताया गया है कि इस आशय की सूचना, आपको जारी की जानेवाली रसीद पर भी अंकित होगी और पॉलिसी पर भी। यदि आपने जाने-अनजाने (किसी एजेण्ट की चूक से भी) इस योजना के तहत दो लाख रुपयों से अधिक का बीमा ले लिया तो भुगतान (यह भुगतान पॉलिसी पूरी होने पर मिलनेवाला हो या मृत्यु होने पर मिलनेवाला) केवल दो लाख रुपयों का (और पात्रता होने पर लॉयल्टी एडीशन) ही मिलेगा।

- प्रीमीयम का भुगतान पूरी पॉलिसी अवधि तक करना होगा। अर्थात्, जितने वर्षों के लिए पॉलिसी ली है, उतने वर्षाें तक प्रीमीयम चुकानी पड़ेगी।

- पॉलिसी की पूर्णावधि आयु 70 वर्ष है। अर्थात् आयु के 70 वर्ष तक के लिए ही यह पॉलिसी मिल सकेगी। अर्थात्, 55 वर्ष के व्यक्ति को अधिकतक 15 वर्ष की अवधि के लिए यह पॉलिसी मिल सकेगी।

- प्रीमीयम का भुगतान वार्षिक, अर्द्ध वार्षिक, तिमाही, वेतन से/ईसीएस से मासिक रूप से किया जा सकेगा।

- न्यूनतम बीमा धन 75,000/- रुपये तथा अधिकतक बीमा धन 2,00,000/- रुपये है। बीमा-धन, 5000/- रुपयों के गुणक में होगा। अर्थात् 75,000/- के बाद 80 हजार, 85 हजार आदि आदि।

- 50 पैसे प्रति हजार बीमा धन की दर से ‘दुर्घटना हित लाभ’ उपलब्ध है।

- तीन वर्षों की प्रीमीयम चुकाने के बाद इस पॉलिसी पर लोन लिया जा सकेगा, सरेण्डर भी किया जा सकेगा।

- इस पॉलिसी में वार्षिक बोनस का प्रावधान नहीं है। किन्तु पूर्णावधि पर ‘निष्ठा आधिक्य’ (लॉयल्टी एडीशन) का भुगतान किया जाएगा।

- पाँच वर्ष पूरे हो जाने के बाद (अर्थात् पाँच वर्षों की प्रीमीयम जमा करने के बाद) ही पॉलिसी को ‘निष्ठा आधिक्य’ की पात्रता प्राप्त होगी। 

- प्रीमीयम की रकम पर सेवा कर तथा सर चार्ज अलग से देय होगा। पहले वर्ष इनकी दर 3.09 प्रतिशत होगी। बाद के वर्षों में यह दर 1.545 प्रतिशत होगी।

- प्रीमीयम की रकम पर आय कर की धारा 80-सी के अन्तर्गत कर-छूट मिलेगी।

- सेवा कर तथा सर चार्ज की रकम पर आय-कर-छूट नहीं मिलेगी।

- पॉलिसी से मिलनेवाली रकम, आय कर अधिनियम की धारा 10 (10)-डी के अन्तर्गत कर-मुक्त होगी।

प्राप्तियाँ

पॉलिसी से मिलनेवाला भुगतान निम्नानुसार होगा -

- पूर्णावधि (अर्थात् पॉलिसी पूरी होने) पर बीमा धन तथा लायल्टी एडीशन की रकम मिलेगी।

- पॉलिसी अवधि पूरी होने से पहले मृत्यु की दशा में बीमा धन तथा लॉयल्टी एडीशन की रकम का भुगतान, नामित व्यक्ति (नामिनी) को किया जाएगा।

- दुर्घटना मृत्यु की दशा में बीमा धन की दोगुनी रकम तथा लॉयल्टी एडीशन की रकम का भुगतान, नामित व्यक्ति (नामिनी) को किया जाएगा। 

- किन्तु लॉयल्टी एडीशन की रकम का भुगतान तभी किया जा सकेगा जबकि पॉलिसी पाँच वर्ष चल चुकी होगी। क्योंकि जैसा कि पहले ही बताया जा चुका है, पॉलिसी को लॉयल्टी एडीशन की पात्रता, पॉलिसी के पाँच वर्ष पूरे करने के बाद ही प्राप्त होगी।

- अर्थात्, यदि किसी पॉलिसीधारक की मृत्यु, पॉलिसी के पाँच वर्ष पूरे होने से पहले होती है तो उसके नामिनी को केवल बीमा धन की रकम का भुगतान होगा और यदि मृत्यु दुर्घटना से हुई होगी तो यह भुगतान, बीमा धन की दोगुनी रकम के बराबर होगा।
विशेषता
- चूँकि इस पॉलिसी में वार्षिक बोनस का प्रावधान नहीं है इसलिए इसकी प्रीमीयम, एलआईसी की मौजूदा अन्य पॉलिसियों की प्रीमीयम की अपेक्षा उल्लेखनीय रूप से कम है।

- न्यूनतम बीमा धन 75,000/- रुपये होने से (और, जैसा कि कहा गया है,  प्रीमीयम भी कम होने से) वे लोग भी बीमा सुरक्षा प्राप्त कर सकेंगे जो अभी एलआईसी की कोई अन्य पॉलिसी नहीं ले पा रहे हैं। एलआईसी की मौजूदा तमाम पॉलिसियों में कम से कम 1,00,000/- का बीमा लेना अनिवार्य है और चूँकि उनमें वार्षिक बोनस का प्रावधान है, इसलिए उनकी प्रीमीयम अपेक्षया तनिक अधिक आती है। इन दो कारणों से ही इसे ‘आम आदमी की बीमा पॉलिसी’ कहा जा सकता है।

उदाहरण 

30 वर्ष की आयु वाले एक व्यक्ति ने 2,00,000/- रुपये बीमा धन की ‘जीवन रक्षक’ पालिसी ली।

- उसकी वार्षिक प्रीमीयम पहले वर्ष रुपये 7,058/- तथा अगले 19 वर्षों के लिए रुपये 6,952/- प्रति वर्ष होगी। इन दोनों ही रकमों में, सेवा कर तथा सर चार्ज की रकम शामिल है।

- पॉलिसी पूरी होने पर, मेरे हिसाब से मिलनेवाला सम्भावित भुगतान 2,50,000/- रुपये (2,00,000/- रुपये मूल बीमा धन तथा 50,000/- रुपये लॉयल्टी एडीशन) होगा।

- उपरोक्त रकम में बीमा धन 2,00,000/- का भुगतान सुनिश्चित है जबकि 50,000/- रुपयों का लॉयल्टी एडीशन का भुगतान अनुमानित है।

- हिसाब करें तो पायेंगे कि इस आदमी ने 20 वार्षिक किश्तों में कुल 1,40,046/- चुकाए। अर्थात् बीमा धन से 60 हजार रुपये कम (अर्थात् बीमा धन की 70 प्रतिशत रकम) दिए जबकि प्राप्तियाँ, जमा की गई रकम से लगभग एक लाख रुपये अधिक हो रही है।

- यदि, दुर्भाग्यवश इस आदमी की मृत्यु, पॉलिसी के पाँच वर्ष पूरे होने के बाद किसी भी समय होती है तो भी उसके नामिनी को लगभग इतनी ही रकम मिलेगी। और यह मृत्यु यदि दुर्घटना से हुई तो इसमे दो लाख रुपये और जुड़ जाएँगे।

- यदि यह मृत्यु, पॉलिसी के पाँच वर्ष पूरे होने से पहले हुई तो नामिनी को बीमा धन की रकम मिलेगी। दुर्घटना मृत्यु की दशा में, बीमा धन की दोगुनी रकम मिलेगी।

लॉयल्टी एडीशन की गणना

लॉयल्टी एडीशन की गणना मैंने अत्यधिक कंजूसी से की है। एलआईसी की, लॉयल्टी एडीशन के प्रावधानवाली मौजूदा पॉलिसियों में, 10 वर्ष की अवधिवाली पॉलिसियों के लिए 250 रुपये प्रति हजार बीमा धन के हिसाब से (अर्थात्, एक लाख रुपये बीमा धन पर 25,000/- रुपये के हिसाब से) लॉयल्टी एडीशन का भुगतान किया गया है। 20 वर्षों की अवधि के लिए यह दर 600-700 रुपयों तक (अर्थात् एक लाख की पॉलिसी पर 70 हजार रुपये) की दर से भुगतान का प्रावधान है। चूँकि मैं तनिक ‘भयभीत’ आदमी हूँ इसलिए, ऊँची-ऊँची तथा लम्बी-चौड़ी बातें करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। लेकिन तय मानिए कि लॉयल्टी एडीशन की रकम, मेरी बताई गई, 250 रुपये प्रति हजार बीमा धन से अधिक ही होगी और अच्छी-खासी अधिक होगी। किन्तु, कानूनी नुक्तों के मद-ए-नजर, मेरी बताई दर को भी ग्यारण्टी बिलकुल न मानें। हाँ, बीमा धन की रकम की ग्यारण्टी तो बराबर है।

मेरी (बिना माँगी) सलाह है कि यदि आप कम से कम भाव में ‘जोखिम सुरक्षा’ खरीदने में विश्वास करते हैं तो आपके लिए यह निश्चय ही ‘उपयुक्त पॉलिसी’ है। खुद के लिए, अपने परिजनों के लिए तो लीजिए ही, अपने परिचितों, मित्रों को भी इसके लिए प्रेरित और प्रोत्साहित करें। आपके संस्थान के और घरेलू कर्मचारियों के लिए भी यह आदर्श पॉलिसी है।

मैंने इसे ‘आम आदमी की बीमा पॉलिसी’ कहा है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि ‘खास आदमी‘ इसे नहीं ले सकते। वस्तुतः यह पॉलिसी आम-ओ-खास, सबके लिए समान रूप से आदर्श पॉलिसी भी है और समान रूप से उपलब्ध भी है। 

चील कह रही है - मैं गोश्त नहीं खाऊँगी

वक्त कटी की बातें ‘महज बातें’ नहीं होतीं और फुरसती लोग फालतू नहीं होते। तनिक ध्यान से देखें, सोचें-विचारे तो लगेगा, इनके जरिए हमारा ‘लोक’ बड़ी ही प्रभावशीलता से जीवन के कड़वे यथार्थ उजागर करता है। 

दोपहर की वेला। एलआईसी दफ्तर में भोजनावकाश। हाथ में काम कुछ खास नहीं। प्रीमीयम जमा करने के लिए आए दोे ‘रिटायर्डों’ से साबका पड़ गया। दोनों ही परिचित और परिहासप्रिय। प्रीमीयम जमा करने के बाद मुझसे पूछा - ‘चाय पीएगा या पिलाएगा?’ इतने अपनेपन और अधिकार से अब कौन बात करता है? मैं निहाल हो गया। बोला - ‘केवल चाय ही क्यों? साथ में और कुछ भी। आपने मुझे इस काबिल तो कर ही दिया कि आपकी सेवा कर सकूँ।’ दोनों खुश हो गए। एक ने मेरी पीठ पर धौल मारी और धकिया कर, दफ्तर के सामने, सड़क पार, मनोज की चाय की दुकान की ओर ले चले।

मनोज दुकान पर नहीं था। वह आए तो चाय बनाए। मनोज गैरहाजिर तो भला कोई ग्राहक क्यों हो? सो, हम तीन के तीन, सुनसान दुकान की बेंच पर बैठ गए।

‘और क्या चल रहा है?, मानसून दगा दे रहा है, भादों अभी आधे से ज्यादा बाकी है लेकिन अगहन सा तप रहा है’ जैसी रस्मी बातों से होते-होते ‘न खाऊँगा, न खाने दूँगा’ वाले जुमले पर बात आ गई। दोनों खूब हँसे। एक बोला - ‘स्साले! नेता! अपने सिवाय सबको बेवकूफ समझते हैं। नहीं खाएँगे। मासूम बन कर बात करते हैं और सोचते हैं सब उनकी बातों पर आँख मूँद कर भरोसा कर लेंगे।’ मैं चुप रहा। बोलने पर कुछ महत्वपूर्ण से वंचित हो जाने का खतरा था। मुझे सम्बोधित करते हुए एक बोला - ‘चील कह रही है, मेरे घोंसले में गोश्त सुरक्षित रहेगा। अरे! एक-एक रैली में लाखों-करोड़ों खर्च हुए हैं और कह रहे हैं न खाऊँगा और न ही खाने दूँगा। ऐसा कहीं होता है? कहनेवाला जानता है कि वह सच नहीं बोल रहा लेकिन सुननेवाला भी नासमझ नहीं है, इतना भी विचार नहीं रहता इन लोगों को।’

फिर उन दोनों ने अपना-अपना एक-एक किस्सा सुनाया।

पहला किस्सा इस तरह था।

एक बहुत ही ‘चालू’ अफसर, एक ‘गृह वित्त (हाउसिंग फायनेन्स) कम्पनी’ के एरिया मैनेजर बन गए। सुविधा के लिए उनका नाम नेकीरमजी मान लें। नेकीरामजी वो आदमी जो साँस भी न तो मुफ्त में ले और न लेने दे। कम्पनी अच्छी-खासी दमदार। रोज, अखबारों में पूरे-पूरे पन्ने के विज्ञापन देनेवाली। लोगों की रेलमपेल हो गई। लेकिन ताज्जुब की बात कि कोई भी भ्रष्टाचार की शिकायत नहीं कर रहा। क्या नेकीरामजी बदल गए?

सीधे-सीधे उन्हीं से पूछ लिया - ‘क्या बात है? तबीयत तो ठीक है?’ नेकीरामजी ठठा कर हँसे और खुलकर बोले - ‘पहले कौन सी खराब थी जो अब ठीक होने का सवाल उठे? अब तो पहले से सौ गुना ज्यादा ठीक।’ पूछताछ के जवाब में उन्होंने रहस्य उजागर किया - “इण्डिविज्युअल एप्लीकेण्ट (व्यक्तिगत रूप से लोन माँगनेवाले) की तरफ देखता भी नहीं लेकिन ‘क्लस्टर फायनेन्स’ में कस कर वसूली करता हूँ।” ‘क्लस्टर फायनेन्स’ का मतलब नेकीरामजी ने बताया - बहुमंजिला इमारतों (मल्टियों) के फ्लेटों को लोन देना। ऐसा लोन मंजूर करने में खुले हाथों बटोरते हैं। एक-एक आदमी से बात करो तो मेहनत और वक्त तो ज्यादा लगेगा ही, बदनामी भी ज्यादा होगी। मल्टियों के फ्लेटों का लोन आठ, बारह, सोलह फ्लेटों के हिसाब से एक साथ होता है। एक ही आदमी से बातचीत करनी होती है और लेन-देन भी एक से ही होता है। यह आदमी या तो बिल्डर खुद होता है या उसका आदमी। सो, बदनामी के खतरे की कोई बात नहीं। पहली बात तो यह कि बड़े धन्धेवाला सड़क पर चिल्लाता नहीं और यदि वह चिल्लाता है तो सब ‘इण्डिज्युअल एप्लीकेण्ट’ उसे झूठा कहेंगे। कहेंगे - ‘हमसे तो एक पैसा नहीं लिया।’ नेकीरामजी ने कहा - ‘तुम वाकई में सठिया गये हो। कोई छोड़ता है भला? मैं दोनों हाथों से माल बटोर रहा हूँ और ईमानदार का ईमानदार बना हुआ हूँ।’

दूसरे का सुनाया किस्सा भी लगभग ऐसा ही था। पहलेवाला किस्सा तो रतलाम से बाहर का था लेकिन यह दूसरा रतलाम का ही था।

यह किस्सा इस तरह है -

कोई बीस-बाईस बरस पहले की बात है यह। मेरे एक परिचित रतलाम नगर निगम के कमिश्नर बन कर आए। आते ही उन्होंने मुझे फोन किया। अपने आने की खबर दी और फौरन मिलने के लिए बुलाया। 

मिलते ही नाराज हुए - ‘मेरे आने की खबर मिलने के बाद भी मिलने नहीं आए! बुरी बात है। मिलना-जुलना न सही, इतना तो विचार करते कि नई जगह में मैं रोटी कहाँ खाऊँगा! चलो। कोई बात नहीं। मेरे, आज शाम के भोजन की व्यवस्था तुम्हारे जिम्मे।’

बातों ही बातों में नगर निगम में भ्रष्टाचार की बात चली। उनसे पूछा - “आपकी ‘स्ट्रेटेजी’ क्या होगी?” तपाक से बोले - “वेरी सिम्पल! ‘फोर फिगर्स’ से कम नहीं लूँगा।” उन्होंने भी वही राज बताया - “थ्री फिगर्स’ वाले ज्यादा हैं। उन्हें छोड़ूँगा। वे मेरा गुण-गान करेंगे। मेरी ईमानदारी का ढिंढोरा पीटेंगे। उनसे हुए नुकसान की भरपाई ‘फोर फिगर्स’ वालों से करूँगा। मोटा आसामी गहरा होता है। जबान पर नहीं आता। छोटा आसामी जल्दी खुश और जल्दी गुस्सा होता है। छोटा आसामी मेरी पहचान बनाएगा और मोटा आसामी मुझे ‘राजी-खुशी’ जिन्दा रखेगा।”

अपना-अपना किस्सा सुनाकर दोनों ‘हो-हो’ करते हुए देर तक हँसते रहे। हँसी रुकी तो एक बोला - ‘ये तेरा चायवाला कब आएगा? अब तो हमने मेहनत भी कर ली और तेरा मनोरंजन भी। उसे देर हो तो सैलाना बस स्टैण्ड चल कर, कालू की चाय पी लेते हैं। गरमागरम कचोरी भी मिल जाएगी।’ मुझे लगा - जो कुछ मुझे मिला है उसके बाद, दोनों की कचोरी तो बनती ही बनती है।

अब हम तीनों, सैलाना बस स्टैण्ड पर, कालू की दुकान की ओर जा रहे थे। 

यह फोन एलआईसी ने नहीं किया है

मेरा कस्बा रतलाम, पूरा भारत बना हुआ है। मध्य प्रदेश के कस्बों/शहरों से ही नहीं, मुम्बई, बेंगलुरु, पुणे, हैदराबाद, चैन्नई, अहमदाबाद आदि महानगरों से भी मेरे (मालवानिवासी) ग्राहकों/परिचितों के फोन आ रहे हैं। सबके सब, उन्हें आ रहे फोनों से परेशान हैं। कोई ताज्जुब नहीं कि आप (जो मेरे बीमा ग्राहक नहीं हैं) भी ऐसे ही फोनों से परेशान हों।

अचानक ही आपके फोन की घण्टी बजती है। एक अनजान/अपरिचित आवाज आपसे आपका नाम पूछती है। आप अपना नाम बताते हैं। उधर से सवाल आता है - “मैं एलआईसी कस्टमर केअर सेण्टर से बोल रहा/रही हूँ। आपने एलआईसी से जो पॉलिसी ले रखी है उस पर आपका पैंसठ हजार का (यह आँकड़ा कुछ भी हो सकता है) बोनस आपको भुगतान होने के लिए पेण्डिंग पड़ा है। आपको पता है?” आप मना करते हैं क्यों कि आपको सचमुच में पता नहीं। उसके बाद सामनेवाला शुरु हो जाता है - “आपकी फाइल मेरे सामने पड़ी है लेकिन कृपया अपना पॉलिसी नम्बर बताएँ ताकि कन्फर्म हो सके कि मैं सही आदमी से बात कर रहा/रही हूँ।” बस! यहीं से गड़बड़ होने की आशंका शुरु होती है। सामनेवाला/वाली लम्बी-चौड़ी बात करता/करती है और अन्ततः आपसे कहा जाता है - “अपना यह बोनस प्राप्त करने के लिए आपको सात हजार रुपये जमा कराने पड़ेंगे।” इसके बाद कुछ भी हो सकता है। क्या होगा? यह आप पर ही निर्भर है।

कभी कुछ दूसरे किस्म का सवाल आता है - “मैं आईआरडीए से बाल रहा/रही हूँ। आपने किसी प्रायवेट बीमा कम्पनी से कोई बीमा पॉलिसी ले रखी है?” आपका जवाब “हाँ” भी हो सकता है और “प्रायवेट कम्पनी से तो नहीं लेकिन एलआईसी से ले रखी है।” भी हो सकता है। उधर से आपकी चिन्ता की जाती है - “आपको इस बीमा कम्पनी से सर्विसिंग बराबर मिल रही है?” आप “हाँ” कहें या “नहीं”, उधर से अगला सवाल तो आना ही आना है जिसकी परिणति वही होती है - “आपको इतने रुपये जमा कराने पड़ेंगे।” 

यह सचमुच में सुखद है कि मेरे सारे के सारे ग्राहक सुरक्षित हैं। किसी का कोई नुकसान नहीं हुआ। किन्तु “पता नहीं कब, किसके साथ क्या हो जाए?” - यह आशंका मुझे बराबर घेरे रहती है। मैं अपनी ओर से यथासम्भव प्रत्येक ग्राहक से सम्पर्क कर, ऐसे फोनों से बचने के लिए कहता रहता हूँ।

निजी बीमा कम्पनियों की तो मुझे नहीं पता किन्तु आप खातरी रखिए कि एलआईसी ऐसी कोई पूछताछ इस तरह से बिलकुल नहीं करती। न तो अब तक की है और न ही भविष्य में कभी करेगी। आपकी पॉलिसियों पर अर्जित बोनस की जानकारी, इस तरह तो कभी नहीं देगी।एलआईसी अपने ग्राहकों से “अधिकृत और औपचारिक रूप से” सम्पर्क करती है। आपके किसी भी भुगतान के बारे में वह आपको पत्र द्वारा सूचित करेगी। यह सूचना भी केवल सूचना देने के लिए नहीं होगी - निश्चय ही कोई कागजी खानापूर्ति करने के लिए होगी। उस दशा में, पत्र के साथ सम्बन्धित/आवश्यक कागज आपको भेजेगी। जरूरी हुआ तो यह पत्र ‘रजिस्टर्ड’ या ‘स्पीड पोस्ट’ से भेजा जाएगा। आपकी ओर से कोई जवाब नहीं मिला तो सबसे पहले उस एजेण्ट को निर्देशित करेगी जिसने  आपको सम्बन्धित पॉलिसी बेची है। यदि उस एजेण्ट ने काम करना बन्द कर दिया है तो ही किसी अन्य एजेण्ट के जरिये आपसे सम्पर्क करेगी। लेकिन, आपका भुगतान करने के लिए आपसे किसी भी दशा में, किसी भी प्रकार का कोई भुगतान नहीं लिया जाएगा। इसके विपरीत, यदि आपका भुगतान समय पर न करने की चूक एलआईसी से हुई तो इस विलम्बित अवधि के लिए आप एलआईसी की निर्धारित दर से ब्याज प्राप्त करने के अधिकारी होंगे। किन्तु इसके लिए आपको लिखित (पत्र अथवा ई-मेल द्वारा) अनुरोध करना पड़ेगा। लेकिन भुगतान में विलम्ब यदि आपके कारण हुआ है तो यह आपको ही भुगतना पड़ेगा। ग्राहकों को उनके हक का भुगतान समय पर मिले, यह एलआईसी की पहली चिन्ता और पहली कोशिश होती है। इस सम्बन्ध में मेरी यह पोस्ट मेरी बात को अधिक प्रभावशीलता से स्पष्ट करती है।

एलआईसी या इरडा (आईआरडीए अर्थात् भारतीय बीमा विकास एवम् विनियामक प्राधिकरण), इस तरह से ग्राहकों से सम्पर्क नहीं करते। इरडा तो मेरे विचार से किसी भी ग्राहक से सीधा सम्पर्क नहीं करता। वह या तो बीमा कम्पनियों से सम्पर्क करता है या फिर विज्ञापनों के जरिए बीमाधारकों को अपना सन्देश पहुँचाता है। व्यक्तिगत रूप से वह उन्हीं ग्राहकों से सम्पर्क करता है जो अपनी किसी शिकायत या समस्या के निदान के लिए उससे सम्पर्क करता है।

ऐसे टेलिफोन प्रायः ही दिल्ली, नोएडा, गाजियाबाद से आते हैं। इन नम्बरों पर आप पलट कर फोन करें तो वे ‘नो रिप्लाय’ होंगे।

ऐसे टेलिफोनों से खुद भी बचें और अपने परिजनों, परिचितों, मित्रों को भी बचाएँ। अपनी कोई सूचना, कोई आँकड़ा, कोई नम्बर, कोई तारीख बिलकुल ही नहीं बताएँ - अपनी जन्म तारीख भी नहीं। अपना समय नष्ट न करें। हाँ, गृहिणियाँ इनकी सबसे आसान शिकार होती हैं। शायद, ‘अपनी गृहस्थी’ को आर्थिक रूप से अधिकाधिक शक्तिशाली और खुशहाल देखने के मोह में वे जल्दी लालच में आ जाती हैं। इसलिए अपनी-अपनी गृहिणी-उत्तमार्द्धों को विस्तार से समझा कर आगाह कर दें। अधिक अच्छा होगा कि आप खुद और आपकी उत्तमार्द्ध, ऐसे फोनों के जवाब में धमकी दें कि आपने सामनेवाले का नम्बर देख लिया है और आप पुलिस में रिपोर्ट करने जा रहे हैं।

एक कहावत है - “जब तक एक भी मूर्ख मौजूद है, हजार धूर्त भूखे नहीं मरेंगे।”

मैं, एलआईसी का एक बहुत ही छोटा अभिकर्ता हूँ। एलआईसी की ओर से बात करने के लिए अधिकृत बिलकुल ही नहीं हूँ। फिर भी यदि आपको लगे कि मैं आपके लिए उपयोगी हो सकता हूँ तो मुझे निस्संकोच और साधिकार मेरे मोबाइल नम्बर 098270 61799 पर सम्पर्क करें। आप मुझे मेरे ई-मेल bairagivishnu@gmail.com पर भी सन्देश दे सकते हैं। मैं अपनी सूझ-समझ और क्षमतानुसार आपकी सहायता करने की कोशिश करूँगा। 

हक से नावाकिफ











अपरिहार्य कारणों से मुझे यह पोस्‍ट हटानी पडी है।

ठगी का आतंक

हकीम लुकमान का कहा सब जानते और मानते हैं - ‘शक का कोई ईलाज नहीं होता।’ लेकिन जब इस शक से भय उपजे और वह आतंक में बदल जाए तब? तब वह शायद मनोविज्ञान के विद्यार्थियों के अध्ययन के लिए एक सुन्दर प्रकरण होगा।

वासु भाई गुरबानी से कल शाम सुने किस्से के बाद से ही मैं यह  सोच रहा हूँ।

किस्सा सौ टका सच है। केवल पात्रों के नामों और घटनास्थल में बदलाव कर दिया है।

यह कोई पैंतालीस-पचास बरस पहले की बात है। तब दशमलव प्रणाली शुरु तो हो चुकी थी लेकिन आना-पाई, गज, सेर-पाव-छटॉंक ही चलन में थे। एक हुआ करते थे कन्हैया सेठ। चोरी-चकारी का माल औने-पौने दामों में खरीदकर उसे ठीक-ठीक मुनाफा लेकर बेच देना उनका धन्धा था।

एक बार उनके हत्थे कपड़ों की एक गाँठ चढ़ गई। उसमें रेमण्ड के कट पीस थे तो देहातियों के परिधान की छींटों के कपड़े भी थे। रेमण्ड के कट पीस आसानी से बिकनेवाली चीज थे जबकि छींट के लिए ग्राहक मिलना तनिक मुश्किल। उन्हें मालूम हुआ कि नोलाईपुरा में मोहन नामका एक कारीगर है जो देहातियों/आदिवासियों के लिए कपड़े सिलता है।

एक थैली में छींट के कपड़ों के कुछ नमूने लेकर कन्हैया सेठ मोहन के पास पहुँचे। कपड़ा बताया। मोहन ने कहा कि कपड़ा अच्छा है। कन्हैया सेठ ने पूछा - ‘बाजार में क्या भाव से मिल जाता होगा?’ मोहन ने अनुमान बताया - ’यही कोई डेड़ रुपये गज के आसपास में मिल जाएगा।’ कन्हैया सेठ ने पूछा - ‘तेरे काम में आ जाएगा?’ मोहन ने एक बार फिर कपड़े को देखा। इस बार तनिक अधिक ध्यान से देखा, हाथ से उसका पोत टटोला और कहा - ‘हाँ। मेरे काम आ जाएगा।’ कन्हैया सेठ ने पूछा - ‘बोल खरीदेगा?’ जवाब आया - ‘हाँ। ले लूँगा।’ कन्हैया सेठ ने कहा - ‘बोल! क्या भाव लेगा?’ मोहन ने पल भर विचार किया और बोला - ‘एक रुपये छे आने।’ कन्हैया सेठ ने फौरन लापरवाही से कहा - ‘उठा ले।’ मोहन अचकचा गया। उसने घूर कर कन्हैया सेठ को देखा। पल भर ठिठका और बोला - ‘कपड़ा भाई को दिखाकर एक बार उससे पूछना पड़ेगा।’

मोहन गया और लौट कर बोला - ‘ भाई सवा रुपये बोल रहा है।’ कन्हैया सेठ ने उसी लापरवाही से कहा - ‘अच्छा। चल। सवा रुपये में उठा।’ मोहन पहले अचकचाया था, इस बार तनिक घबरा गया। उसने अविश्वासभरी नजरों से कन्हैया सेठ को देखा और बोला - ‘लेकिन भाई ने कहा है कि एक बार पिताजी से जरूर पूछ लेना।’

इस बार पिताजी से पूछ कर लौटे मोहन ने कहा - ‘पिताजी तो एक रुपया दो आने गज का भाव बता रहे हैं।’ अपनी लापरवाही और फुर्ती कायम रखते हुए कन्हैया सेठ ने कहा - ‘चल! एक रुपया दो आने में उठा।’ सुनकर मोहन मानो ढेर हो गया। उसकी साँस बढ़ गई। अविश्वास की जगह शक ने ले ली। हकलाते हुए बोला - ‘घर में थोड़ी पूछताछ और कर लूँ।’

और इस तरह एक के बाद एक, पूछताछ करते-करते मोहन, दस आना गज के भाव पर आ गया। कन्हैया सेठ ने फिर वही लापरवाही और फुर्ती बरती - ‘और कितना भाव-ताव करेगा यार मोहन! चल, दस आना गज में उठा।’ सुनकर मोहन मानो दहशत में आ गया। उसकी कनपटियों पर पसीना चुहचुहा आया, आँखें इतनी बड़ी-बड़ी हो गईं मानो फटकर बाहर ही आ जाएँगी। पहले तो हकला भी रहा था लेकिन अब तो उसकी बोलती बन्द हो गई - मालवी में जिसे ‘डिक्की बँधना’ (घिग्घी बँधना) कहते हैं, वही। मोहन मानो तन्द्रिल हो गया हो - मन्त्रबिद्ध, वशीभूत। अपनी जी-जान लगा कर जब बोला तो स्वरों के बजाय ‘गों-गों’ की आवाज सुनाई दी। बड़ी मुश्किल से उसने जो कहा वह था - ‘अभी पैसे नहीं हैं।’

पता नहीं कन्हैया सेठ सहज थे या गम्भीर या वे अब मोहन से खेल रहे थे। बोले - ‘तो घबराता क्यों है? पैसे कल दे देना। कल नहीं हो तो परसों दे देना।’ सुनकर मानो मोहन को रुलाई छूट आई हो, कुछ इस तरह से बोला - ‘नहीं सेठ! बात कुछ और ही है। मुझे कपड़ा नहीं खरीदना।’ कह कर अपनी दड़बेनुमा दुकान में, दोनों टाँगों के बीच ठुड्डी टिकाकर, उकड़ू बैठ, जोर-जोर से बीड़ी फूँकने लगा। उसकी नजर नीची और साँस की आवाज से मानो नोलाईपुरा गूँज जाएगा।

कन्हैया सेठ हैरत से मोहन को देखने लगे। चुपचाप। निःशब्द। मोहन को मानो कन्हैया सेठ की नजरें खुद पर चुभती लगीं। उसने सर उठाकर देखा। कन्हैया सेठ को अपनी ओर ताकते हुए देख, कुछ इस तरह मानो फाँसी की सजा को आजीवन कारावास में बदलने के लिए रिरिया रहा हो, हाथ जोड़कर, माथे तक ले जाते हुए बोला - ‘जाओ सेठ। माफ करो। मुझे छोड़ दो।’ कन्हैया सेठ कुछ नहीं बोले। उसी तरह, मोहन को हैरत से देखते हुए चले गए। उनके जाते ही मोहन में जान तो आ गई लेकिन हाथ-पाँव साथ नहीं दे रहे थे। बड़ी मुश्किल से उसने सामान का समेटा किया और भरी दुपहरी दुकान मंगल कर घर चला गया। सुनने में आया कि उसे रात भर तेज बुखार रहा। अगले दिन भी वह बहुत देर से दुकान पर आया लेकिन एकदम लस्त-पस्त। 

शाम होते-होते किस्सा पूरे नोलाईपुरा को मालूम हो गया। कोई मजे लेने के लिए तो कोई सचमुच में सहानुभूति जताते हुए जानना चाह रहा था कि आखिर ऐसा क्या हुआ कि एक रुपया छे आने से शुरु होकर दस आना गज तक आने के बाद भी मोहन ने कपड़ा क्यों नहीं खरीदा जबकि हर भाव उसी ने बताया और कन्हैया सेठ ने आँख मूँद कर माना। मोहन ने कहा - ‘आप ही बताओ। ऐसा भी कहीं होता है कि कोई व्यापारी एक बार भी भाव-ताव नहीं करे? जो भाव आप बताओ वह भाव झट से माने ले? कोई ऐसा करे तो बात साफ है कि सामनेवाला आपको ठगने पर तुला हुआ है। दस आना गज का भाव लेकर कन्हैया सेठ मुझे ठगना चाहता था। यह तो रामजी ने अकल दे दी और मैं बच गया।’

बाद में मालूम हुआ कि वही कपड़ा कन्हैया सेठ ने उसी दिन, एक रुपया दो आना गज के भाव से बेच दिया था।

मोहन ने सुना तो चहक कर बोला - ‘देखा! मैं तो बच गया लेकिन वो बेचारा तो ठगा गया। कन्हैया सेठ से भगवान बचाए।’

आज चिकने घड़ों की बातें कर ली जाये !

 
श्रीमुकेश नेमा का यह व्यंग्य मुझे आज सुबह वाट्स एप पर मिला। मुझे बहुत अच्छा लगा। लगा कि इसे अधिकाधिक लोगों तक पहुँचना चाहिए। मुकेश भाई से पूछा - “इसे मेरे ब्लॉग पर प्रकाशित करने की अनुमति देंगे?” अविलम्ब उत्तर मिला - “इसमें पूछना क्या है? आपका यह ‘सर्वाधिकार’ हमेशा सुरक्षित है।” मुकेश भाई वर्तमान में, मध्य प्रदेश शासन के आबकारी विभाग में उपायुक्त के पद पर ग्वालियर में पदस्थ हैं। चित्र में, अपनी ‘सदैव स्मिता’ उत्तमार्द्ध श्रीमती राजेश्वरी नेमा के साथ मुकेश भाई।


अब, घड़े तो आप और हम सब हैं ही। लेकिन घड़े होने का आनन्द ही तब है जब वो चिकना हो।

चिकने होने के सैकडों लाभ हैं। आप हर किसी की पकड़ से बाहर होते हैं, चिकना होना आपको फिसल जाने में मदद करता है, कोई आपका इस्तेमाल नहीं कर सकता पर आप जिस किसी की भी जेब से मनचाहा निकाल सकते हैं, आप इत्मीनान से बिना कुछ किये, तर माल सूँतते रह सकते हैं, बिना किसी के काम आये सबका इस्तेमाल कर सकते हैं और बिना हाथ पाँव हिलाये, मौज भरी चिकनाई के मज़े लेना आपके लिये खेल सा हो जाता है। आप और ज्यादा चिकने होते चले जाते हैं।

महाकवि भवानीप्रसाद मिश्र भले ही कह गये हों कि दुख आदमी को माँजता है लेकिन यह उक्ति चिकने घड़ों पर लागू नहीं होती। यहाँ सुख आपको माँजता है तथा और अधिक चिकने होने में आपकी मदद करता है। आपके व्यक्तित्व को एक ऐसी गरिमामय आभा प्रदान करता है कि लोगों को आपके बारे में काम का आदमी होने की गलतफहमी होने लगती है।

किन्तु इसका मतलब यह बिलकुल नहीं है कि चिकना घड़ा होना आसान है। ऐसा सोचना, गलती करना है। इस चिकनत्व को प्राप्त हो जाना बड़े-बड़े हठयोगियों के लिये भी अत्यन्त कठिन है। यह इतना ही आसान होता तो फिर हो चुके चिकने घड़ों को सेवादारों के टोटे पड़ सकते थे। इस श्रेणी में शामिल हो जाने के लिये भारी कोशिशों की दरकार होती है। 

चिकना घड़ा होने के लिये आपको अथक कोशिशेे करनी पड़ेंगी। सबसे पहले आप को इज्जत, मान-अपमान टाईप की फिज़ूल चीज की चिन्ता से अपने आपको दूर रखना होगा। किसी की मदद करना सख्त मना है। किसी की वाजिब बात मान लेना और भी बुरा हो सकता है। आपके दोनों कानों के बीच हाई-वे होना ही चाहिये ताकि ईमानदारी, सच्चाई, मेहनत, भलमनसाहत जैसै शब्द एक कान में पड़ते ही सरपट दूसरे कान से बाहर हो सकें। यह तय करके चलना होता है कि आसपास जो भी बिखरा पड़ा है वो हमारे बाप का माल है। आपकी हरकतें ऐसी होनी चाहिये कि लोग आपके बारे में यह तय करने में मजबूर हो जाये कि यार इससे कोई उम्मीद करना बेकार है। इसका कुछ नहीं किया जा सकता। आपकी बातचीत में कुछ ऐसा शनित्व होना होना चाहिये कि सुनने वाला फौरन इस नतीजे पर पहुँच जाये कि ये दुष्ट अपनी बात मनवाये बिना मानेगा नही और कुछ ले देकर इसकी बात मानकर इससे पिण्ड छुड़ा लेने में ही भलाई है।

वैसे कुछ भाग्यशाली घड़े जन्मजात भी चिकने होते हैं। ऐसा तब ही होता है जब आप सोने-चाँदी के घड़ों के खानदान से हों। मिट्टी मिली पैदाईश वाले घड़ों के लिये चिकना होना थोड़ा कठिन ही होता है। 

यदि आप जन्म से ही इस चिकनत्व को प्राप्त कर चुके हैं तो हृदय से मेरा अभिवादन स्वीकार करें। यदि नहीं हैं तो मन पक्का करके, थोड़ी कोशिशें करके, चिकनों के इस दिन दूने रात चौगुने फैलते पन्थ में अपनी जगह बना सकते हैं।

धारवाजी सड़क सुधार रहे हैं


गुड्डू (अक्षय छाजेड़) ने कही खेत की। मैंने सुनी खलिहान की। पहले गुड्डू ने और फिर मैंने, अपना-अपना माथा ठोका और हँसे। हमने हँसना नहीं चाहिए था। बात हँसने की नहीं, दुःखी होने की थी। लेकिन हम दोनों ही हँसे।

यह कल, रविवार अपराह्न लगभग साढ़े तीन बजे की बात है। राखी का दिन था। उत्तमार्द्धजी मायके गई हुई थीं। मैं घर में अकेला था। दूरदर्शन पर आ रही फिल्म ‘मैं कलाम हूँ’ देख रहा था। पड़ौस से गुड्डू आया और तनिक गम्भीर मुद्रा में बोला - “धारवाजी सड़क सुधार रहे हैं।” मैं चौंका। मुझे झटका लगा। धारवाजी को यह क्या सूझी?

धारवाजी मेरे पड़ौस में, बगलवाली गली में रहते हैं। सेवा निवृत्त शिक्षक हैं। अवस्था 75-80 बरस के आसपास है। थोड़ा कम सुनते हैं। वे मेरी सुबह का हिस्सा हैं। रोज सुबह उन्हें, स्नान कर, पण्डित शैलीवाली एकलंगी धोती पहने, उघड़े बदन पीपल को जल चढ़ाने जाते और लौटते हुए देखने से मेरा दिन शुरु होता है। सीधे आदमी हैं। न ऊधो का लेना, न माधो का देना। अपने रास्ते जाते हैं, अपने रास्ते आते हैं। न तो विवाद पैदा करते हैं और न ही किसी विवाद का हिस्सा बनते हैं। गए कुछ दिनों से वे नजर नहीं आ रहे। पूछताछ में मालूम हुआ कि उनकी तबीयत नरम-गरम चल रही है।

हमारे नगर निगम का  चाल-चलन भी देश के बाकी नगर निगमों जैसा ही है - अपने आप में मगन और नागरिक समस्याओं से बेपरवाह। लेकिन हमारी कॉलोनी की सड़कों की दशा यदि बेहतर नहीं तो ‘ठीक-ठीक’ तो है ही। ऐसी तो बिलकुल ही नहीं कि लोग परेशान हों और चिल्लाने लगें। फिर, धारवाजी तो नेतागिरी करते नहीं! उनका एक भतीजा भाजपा का एक ‘ठीक-ठीक असरवाला’ स्थानीय नेता है। यदि धारवाजी को कुछ ऐसा लगा तो भला इस उम्र में खुदा को गेंती-फावड़ा हाथ में लेने की क्या जरूरत आ पड़ी? अपने भतीजे का उपयोग कर लेते!

एक पल में ये सारी बातें मेरे दिल-दिमाग में घूम गईं। मैंने तनिक घबरा कर गुड्डू से कहा - ‘उन्हें रोको भाई! यह सब करने की उनकी उम्र नहीं है। और फिर वे बीमार भी चल रहे हैं। कहीं, कुछ हो गया तो खुद भी परेशान होंगे और परिवारवाले भी परेशान होंगे।’

मेरी बात सुनकर गुड्डू ने हैरत से मेरी ओर देखा। पूछा - ‘किस बात से रोकूँ?’ 

अब मैंने गुड्डू को हैरत से देखा और प्रति-प्रश्न किया - ‘किस बात से? अरे भाई! सड़क सुधारने से! अभी  तुमने कहा न कि धारवाजी सड़क सुधार रहे हैं!’ 

‘मैंने कब कहा कि धारवाजी सड़क सुधार रहे हैं?’ मेरे चेहरे पर समझदारी और सावधानी तलाशते हुए गुड्डू ने सवाल के जवाब में सवाल किया।

‘तो फिर क्या कहा तुमने?’

जैसा कि मैंने शुरु में ही कहा, गुड्डू ने माथा ठोक लिया। बोला - ‘मैंने क्या कहा और आपने क्या सुना! मैंने कहा कि धारवाजी स्वर्ग सिधार गए हैं।’

और जैसा कि मैंने शुरु में कहा, इस बार मैंने माथा ठोक लिया। पहले हँसी आई फिर झेंप। इससे पहले, मेरी दशा देख कर गुड्डू भी हँस चुका था।

गुड्डू तो संजीदा ही आया था। गड़बड़ मैंने ही कर दी थी। अपनी झेंप से उबर कर अगले ही पल मैं भी संजीदा हो गया। गुड्डू ने बताया - पाँच बजे अन्तिम यात्रा निकलेगी।

मुझे इस अन्तिम यात्रा में शरीक होना ही था। ‘राम नाम सत्य है’ के मद्धम स्वरों के बीच, अर्थी के पीछे-पीछे चलते हुए मुझे एक बार फिर ‘धारवाजी सड़क सुधार रहे हैं’ याद आ गया। मुझे फिर हँसी आ गई। इस बार झेंप नहीं आई। समानान्तर विचार मन में आया - धारवाजी ने अपनी सड़क सुधार ली। वे मुझे आगाह कर रहे हैं। कह रहे हैं कि मैं अपनी सड़क सुधार लूँ।

बहुत मुश्किल है कार से उतरना



अब सब कुछ सहज था और गुल्लू भैया बेलौस। अपनी रवानी को बरकरार रखते हुए उन्होंने अपनी बात आगे बढ़ाई -

“आजादी के फारन बाद का वह वक्त कुछ अलग ही किस्म का था। गाँधी-नेहरू ने हमें ‘सिविलियन’ बना दिया था लेकिन हम रियाया ही बने हुए थे। अंग्रेज जा चुके थे लेकिन उनके होने का अहसास मानो फिजाँ में घुला हुआ था। एक दौर जा रहा था और दूसरा आ रहा था। बदलाव की अजीब कसमसाहट पूरे माहौल में घुली हुई थी। समाजवाद अजूबा था लेकिन हर कोई उसका जिक्र करने को उतावला लगता था। इस सबके बीच जमींदारों/जागीरदारों की धमक और रईसों की ठसक वैसी की वैसी बनी हुई थी। कार तो बहुत बड़ी बात थी, ताँगा रखना भी रईसी की निशानी थी। निजी कारें और ताँगे अंगुलियों पर गिने जा सकते थे। 

“उन दिनों 12,000 रुपयों में नई फिएट कार आती थी। पौने दो रुपयों में एक गैलन, याने करीब पाँच लीटर पेट्रोल मिलता था। ढाई-तीन सौ रुपयों में कार मेण्टेन का जा सकती थी।

“लेकिन हमारे घर में कार नहीं थी। ताँगा था। मुझे अच्छी तरह अहसास था कि हम कार रख सकते हैं लेकिन वालिद ने इस बारे में कभी सोचा भी हो - ऐसा कभी नहीं लगा। इसके बरखिलाफ मेरी हसरत थी कि हमारी अपनी कार हो।

“अपनी इस हसरत को मैं ज्यादा दबा नहीं पाया। एक दिन मैंने अपने वालिद से कह ही दिया - ‘पप्पा! अपन कार क्यों नहीं खरीद लेते? ताँगे की वजह से बदबू भी आती है और चारे-चन्दी का कचरा भी होता है। सईस के नखरे उठाने पड़ते हैं। रख-रखाव में भी मुश्किल आती है। हिसाब-किताब करेंगे तो सब मिलाकर कार, ताँगे के मुकाबले अपने को सस्ती ही पड़ेगी।’

“मेरी बात सुनकर वालिद हँस दिए। बोले - ‘बात तो तू सही कह रहा है गुल्लू। ताँगे और कार का तेरा हिसाब भी ठीक है। अपन कार खरीद भी सकते हैं। आज ही खरीद सकते हैं। लेकिन एक ही बात मुझे रोकती है बेटा!’

“वालिद की बात ने मेरे कान खड़े कर दिए। वे कार खरीदने से इंकार नहीं कर रहे थे। मेरी बात की ताईद भी कर रहे थे। मुझे लगा, किसी बहुत ही मामूली बात को लेकर वालिद ने कार खरीदने का फैसला रोक रखा है। मैंने पूछा - ‘कौन सी बात पप्पा?’

“मेरी बात के जवाब में मेरे वालिद ने जो कहा, उसने मेरी आँखें खोल दीं, जिन्दगी जीने का सलीका और जिन्दगी के मायने समझा दिए। बहुत ही लाड़ से बोले - ‘बेटा! मेरी बात समझने की कोशिश करना। कार में चढ़ना, बैठना तो बहुत आसान है लेकिन उसमें से उतरना बहुत ही मुश्किल है।’

“कह कर वालिद अपने काम में लग गए। मेरी ओर देखा भी नहीं। उन्हें लगा होगा कि उनकी बात से मैं दुःखी, पेरशान हुआ हूँगा। लेकिन वे मुझे देखते तो यकीनन बेहद खुश होते। मेरी शकल मानो मेरी नहीं रह गई थी। कोई दूसरा ही चेहरा मेरे चेहरे पर चस्पा हो गया था जिसे मैं खुद देखता तो खुद को ही नहीं पहचान पाता। उस दिन उनका बेटा गुल्लू,  गुलाम हुसैन एक बार फिर पैदा हुआ। यह गुलाम हुसैन, पहलेवाले गुलाम हुसैन से एकदम जुदा, दूसरे ही मिजाज का, दूसरी ही रंगत का गुलाम हुसैन था। आज जो मैं आपके सामने हूँ, आपसे बात कर रहा हूँ, जिसकी बातों को आप डूब कर सुन रहे हैं, वह वही दूसरा गुलाम हुसैन हूँ।”

गुल्लू भैया एकदम चुप हो गए। कुछ इस तरह मानो, पुराने जमाने के किसी सिनेमा घर में, प्रोजेक्टर पर चल रही फिल्म एक झटके से टूट गई हो। कुछ पल सन्नाटा, अँधेरा। सिर्फ प्रोजेक्टर के चलने की घर्राहट। ऐसा झटका, जिसके लिए मैं कतई तैयार नहीं था। मैं वाकई में अकबका गया था।

वे तो अपने में ही थे। मुझे अपने में लौटने में कुछ क्षण लगे। गुल्लू भैया अपनी सहज हँसी हँस रहे थे। मेरे हाथ थपथपा कर बोले - “मैंने अपना काम कर दिया। आपका कर्ज चुका दिया। ‘नो ड्यूज सर्टिफिकेट’ दे दीजिए।”

मैंने कहा - ‘वो तो अब देना ही रहा लेकिन एक बात बताईए। आपने कार खरीदी या नहीं?’ गुल्लू भैया बोले - ‘हाँ, हाँ। खरीदी क्यों नहीं? खरीदी।’ मैंने पूछा - ‘कब खरीदी और कौन सी खरीदी? और खरीद रखी है तो आप तो मुझे कभी कार में नजर नहीं आए? हमेशा पैदल ही नजर आते हैं?’ गुल्लू भैया ने जवाब दिया - ‘यह तो याद नहीं कि कब खरीदी। रियाज बता देगा। एक सेकण्ड हेण्ड मारुति-800 खरीद रखी है। मुझे तो जरूरत पड़ती नहीं। आना-जाना ही कितना है? घर से दुकान और दुकान से घर। आप यूँ मान लें कि उतरने की जोखिम से बचने के लिए मैं कार में बैठने की जोखिम नहीं लेता। बच्चों को कभी-कभार जरूरत पड़ जाती है तो वापर लेते हैं।’

गुल्लू भैया मुझे अभी भी ‘अजूबा’ लग रहे थे। मैंने हिम्मत करके पूछा - ‘जमाना बदल गया है गुल्लू भैया। कहाँ से कहाँ पहुँच गया है। आपके वालिद की बातें आपके वालिद के साथ चली गईं। जरा ठाठ-बाट से रहिए।  लोग आपको कंजूस-मक्खीचूस समझते होंगे।’

जवाब में पहले तो गुल्लू भैया ख्ुालकर, ठठाकर हँसे। फिर तनिक रुककर, संजीदा होकर बोले - ‘मैं पहले ही कह चुका हूँ कि आप भी इस फिक्र को ताक पर रख दें कि लोग क्या कहेंगे। लोगों को जो समझना हो, समझें। जो कहना हो, कहें। आप क्या समझते हैं कि मैं नहीं जानता कि जमाना बदल गया है? हाँ बैरागीजी! जमाना बदल गया है। बहुत बदल गया है। पूरी तरह बदल गया है। एक शेर आज के बदले जमाने की हकीकत बयाँ करता है -

ऐ जौक-ए-इनकिसार कोई और मशगला।
कहने लगे हैं लोग शराफत को बुजदिली।’

इसके बाद क्या कहना रहा? क्या सुनना रहा?

इजाजत लेकर गुल्लू भैया के दफ्तर से लौटा तो मुझसे तनकर नहीं चला जा रहा था। मैं झुक कर चल रहा था। 




सूट को धक्के : लंगोटी की शाही अगवानी

अपने बेटों रियाज (बांये) और जफर(दाहिने) केसाथ गुल्‍लू भैया

‘चाय-पानी’ के बाद हम दोनों ही सामान्य और ताजादम हो चुके थे। भावावेग छँट चुका था और हम दोनों ही तैयार थेे - ‘कहने-सुनने’ के लिए। 

गुल्लू भैया को सुनते हुए मुझे एक अखबारी शीर्षक (शायद ‘जनसत्ता’ का) याद आता रहा - “बोले तो बहुत लेकिन कहा कुछ नहीं।” पल-पल लगता रहा कि गुल्लू भैया ने जो बोला, कहा उससे कहीं ज्यादा और वह भी ऐसा जो, जैसा कि मैंने शुरु में ही कहा, उतना ही जरूरी जितना कि पौधों-पत्तों के लिए क्लोरोफिल। 

“यह आजादी मिलने के बाद की बात है। रतलाम में एक क्लब बना था - सज्जन क्लब। रतलाम के महाराजा सज्जनसिंहजी के नाम पर यह क्लब उनकी बहन, रतलाम की राजकुमारी गुलाब कुँवरने स्थापित किया था। रेल्वे के और राज्य सरकार के राजस्व विभाग के अफसर ही सदस्य ही इसके सदस्य बन सकते थे। शहर के गिने-चुने, नामचीन लोगों को इसकी सदस्यता मिली थी। मेरे वालिद इस क्लब के संस्थापक सदस्य थे। 

वालिद के कारोबार का लेना-देना केवल रेल्वे से था लेकिन कलेक्टर समेत, राजस्व विभाग के तमाम आला अफसरों से भी वालिद का मेलजोल था। उस वक्त के कलेक्टर से उनकी दोस्ती भाईचारे की शकल ले चुकी थी।

“इन्हीं कलेक्टर साहब के तबादले की खबर आई ही थी कि उन्हीें दिनों बैरिस्टर साहब (रतलाम के पहले और तब से लेकर अब तक के एकमात्र ‘बैरिस्टर’, अब्बासी साहब) का मुम्बई जाने का कार्यक्रम बना। मुम्बई तक बॉम्बे हुआ करता था। अनेक विदेशी वस्तुओं पर प्रतिबन्ध लगा हुआ था। विदेशी कपड़े भी उनमें शरीक थे। मेरे वालिद कलेक्टर को कोई ‘अच्छी सी गिफ्ट’ देना चाहते थे। उन्होंने बैरिस्टर साहब से कहा कि मुमकिन तो वे, विदेशी कपड़े का (इंगलैण्ड/मेनचेस्टर का बना) कोई अच्छा सा ‘सूट पीस’ लेते आएँ।

“वालिद को, बैरिस्टर साहब से यह कहते हुए सुनकर मेरा भी जी हो आया। मैंने वालिद से कहा - ‘पप्पा! एक सूट पीस मेरे लिए भी मँगवा दीजिए।’ वालिद ने मुझे जिस नजर से देखा, वह मैं इस लमहे तक नहीं भूल पाया हूँ। वह नजर मझे अब तक अपने चेहरे पर बनी हुई लग रही है। तब भी नहीं समझ पाया था और इस पल तक नहीं समझ पा रहा हूँ कि उस नजर में क्या था - मुहब्बत, रहम, करुणा, फिक्र, निराशा, गुमान या झंुझलाहट? ये सब या इनमें से कोई एक? एक पल इसी नजर से मुझे देखा और मक्खन सी आवाज में बोले - ‘गुल्लू! बेटा! तूने माँगा तो भी क्या माँगा? एक सूट पीस। बस? तू तो मेरा बेटा है। मेरा खून है। तू तो मेरी उम्मीदों में से एक है। मेरा नाम रोशन करनेवाला। तेरे लिए एक सूट पीस कहाँ लगता है? जब मैं मुँहबोले भाई, कलेक्टर के लिए एक सूट पीस मँगवा सकता हूँ तो तेरे लिए नहीं मँगवा सकता?’

“मुझे लगा, वालिद ने मेरी बात मान ली है और अब मेरा सूट पीस पक्का। लेकिन हकीकत कुछ और ही थी। वालिद ने इसके बाद जो कुछ कहा, उसने जिन्दगी को लेकर मेरा नजरिया बदल दिया। मेरी जिन्दगी सँवार दी। अपने बेटे के आनेवाले कल को लेकर फिक्रमन्द एक बाप अपने बेटे को इससे बहेतरीन और क्या दे सकता है? सुन कर मुझे भी लगा, अपने आप पर झेंप भी आई कि यार! गुल्लू! तूने माँगा तो भी क्या माँगा - एक सूट पीस? बस! 

“वालिद ने कहा - ‘मन में से यह बात निकाल दे बेटा कि कपड़ों से आदमी की इज्जत, औकात बनती या बिगड़ती है या कि कम-ज्यादा होती है। सूट तो गाँधीजी ने भी पहना था। लेकिन हुआ क्या? जिसकी सल्तनत में सूरज नहीं डूबता था, उस सल्तनत की महारानी के, दो टके के नौकर ने गाँधीजी को रेल के डब्बे में से फेंक दिया था। अगर सूट की ही अहमियत होती तो ऐसा नहीं होना चाहिए था। लेकिन ऐसा ही हुआ। इसके बर-खिलाफ जब गाँधीजी ने कमीज पहननी छोड़ दी, धोती भी आधी ही कर ली तब उसी महारानी ने, खुद चलकर, लन्दन के हवाई अड्डे पर ऐसे, ‘अधनंगे’ गाँधी की अगवानी की। सूट ने, दो टके नौकरों से धक्के दिलवाए और खादी की लंगोटी ने महारानी को झुका दिया।’

“वालिद की यह बात सुनकर मुझे ध्यान आया कि मेरे वालिद ने भी लट्ठे का कमीज-पायजामा पहन रखा है और यही उनकी रोजमर्रा की ड्रेस भी है। जो आदमी, एक अफसर को मेनचेस्टर के कपड़े का सूट पीस गिफ्ट देने की बात कह रहा है, वह आदमी खुद लट्ठा पहने हुए है! मैं एक झटके से धरती पर आ गया। मेरे चेहरे पर एक रंग आ रहा था, दूसरा जा रहा था। पता नहीं यह खुद की बात पर पछतावा था या ऐसे ऊँचे खयालातवाले का बेटा होने का गुमान!

“लेकिन वालिद ने अभी आधी बात ही कही थी। बाकी आधी बात उन्होंने जो कही, वही मेरी जिन्दगी की बात बन कर रह गई। वालिद बोले - ‘बेटा! कपड़े या कहो तो ये सारी चीजें, ये सारी धन-दौलत तो आनी जानी है। इनसे यदि पहचाने जाओगे तो जब ये नहीं होंगी तो जाहिर है तब तुम्हें कोई नहीं पहचानेगा। तो हमने खुद में कोई ऐसी बात पैदा करनी चाहिए जो हमारी पहचान बने और ऐसी पहचान बने कि जो भी हम पहनें, उसकी इज्जत हो।’

“वह दिन और आज का दिन। पप्पा आज दुनिया में नहीं हैं। 1975 में, 84 बरस की उम्र में उनका इन्तकाल हुआ। तब मैं कोई 42 बरस का रहा होऊँगा। लेकिन इस वाकये के बाद, तब पप्पा की मौजूदगी में और 1975 से, उनकी गैर मौजूदगी में, मैं उनकी बात पर अमल करने की कोशिशें कर रहा हूँ। मैं खुद अपने बारे में क्या कहूँ? मुझे तो एक पल भी नहीं लगा कि मैं पप्पा की बात को हकीकत में बदल पाया हूँ। मुझे तो अपनी हर कोशिश नाकामयाब लगती है। मुझे दूर से देखनेवाले ही मेरी हकीकत जानते होंगे।”

गुल्लू भैया की बात रुकी तो मैंने पाया कि टेबल पर हम दोनों के हाथ गुँथे हुए हैं। पता नहीं कब उन्होंने मेरे हाथ, अपने हाथों में ले लिए थे। अपने आप में लौटने में हमें कुछ पल लगे। हमने अपने-अपने हाथ खींचे। उन्होंने सूनी लेकिन चश्म-ए-नम से मुझे देखा। 

मैं कुछ कहने की हालत में नहीं था। जी कर रहा था, कहूँ कि उनकी कोशिशों की कामयाबी न तो नाप सकता हूँ न ही गिन सकता हूँ। लेकिन कुछ तो ऐसा उन्होंने खुद में पैदा किया ही है जिसके चलते मैं उनसे यह सब सुनने के लिए उनसे इसरार कर रहा हूँ। उनकी आँखें मुझे सवालिया लग रही थीं। 

बमुश्किल मैंने कहा - “गुल्लू भैया! आपका शुक्रिया अदा करने के सिवाय मेरे पास कुछ नहीं है आपसे कहने के लिए। लेकिन यदि आपका इसरार है तो सुनी-सुनाई चार पंक्तियों  से शायद मेरे जजबात आप तक पहुँचें -

जिन्हें हम कह नहीं सकते,
जिन्हें तुम सुन नहीं सकते,
वही कहने की बातें हैं,
वही सुनने की बाते हैं।”

गुल्लू भैया खुश हो गए। बोले - “तो अब मेरी बाकी बातों पर भी ये सतरें लागू कर लीजिए और अपना वक्त जाया होने से बचा लीजिए।”

मैं घबरा गया। हड़बड़ा कर बोला - “क्या गजब कर रहे हैं आप? बेवकूफी का जवाब बेवकूफी नहीं होता। एक पैदायशी बैरागी आपके सामने बैठा है और आप अपने दरवाजे से उसे ऐसे का ऐसा बैरागी ही जाने देंगे? मेरी नहीं तो अपनी तो परवाह कीजिए! लोग क्या कहेंगे?”

गुल्लू भैया ठठा कर हँसे। उनके ठहाके ने सारा भारीपन, सारी नमी एक झटके में धो-पोंछ दी। बोले - “यह परवाह तो आप भी मत कीजिए कि लोग क्या कहेंगे। लेकिन बेफिकर रहिए। एक और बात कहने का आपका कर्जा मुझ पर है। कम से कम वह तो कहूँगा ही।”

मुझे तसल्ली हुई।

और उसके बाद मिला मुझे दूसरा जीवन सूत्र। लेकिन वह अगली कड़ी में। 

पार्टनरशिप डीड वो बनवाए जो चोर हो



मैं मुश्किल में हूँ। 

चाह रहा हूँ कि गुल्लू भैया की बातें उन्हीं की जबानी कहूँ। लेकिन गुल्लू भैया ने जो कुछ कहा, वह मुझे न तो शब्दशः याद है और न ही मैंने उनके नोट्स लिए, इसलिए ऐसा करना न तो सम्भव है और न ही उचित। लेकिन यदि मैं अपनी जबान में वह सब कहूँ तो मुझे खुद को लग रहा कि बात लम्बी भी हो जाएगी और शायद बनावटी भी। सो, गुल्लू भैया से माफी माँगते हुए और आप सबकी ‘जबरिया अनुमति’ लेते हुए, सुनी-सुनाई सारी बातों को गुल्लू भैया की जबानी ही पेश कर रहा हूँ।

जो कुछ गुल्लू भैया ने कहा, वह कुछ इस तरह था -

“जब से मैंने होश सम्हाला, अपने वालिद (अब स्वर्गीय श्री एहमद अली स्टेशनवाला) को रतलाम के ‘मुकाम और मरतबा  हासिल’ कारोबारियों में पाया। वे केवल रेलवे के ठेके लेते थे। स्टेशनवाले इलाके मे ही मिठाइयों की एक दुकान थी। बयाना (राजस्थान) के रहनेवाले गिरिराजजी शर्मा उसके मालिक थे। वे ‘गिरिराज महाराज’ के नाम से ही जाने और पुकारे जाते थे। वे मेरे वालिद के बेहद करीबी दोस्त थे।

“एक बार रेल्वे की कोयला चूरी का टेण्डर निकला। मेरे वालिद ने बातों ही बातों में गिरिराज महाराज से कहा कि यह ठेका लेना मुनाफे का सौदा होगा। यदि वे (गिरिराज महाराज) चाहें तो इसमें भागीदार बन जाएँ। वालिद ने तो एक मशवरा दिया था। लेकिन, पता नहीं महाराज ने क्या सुना, क्या समझा कि सीधे बयाना गए और वहाँ की अपनी सारी जमीन-जायदाद-दुकान वगैरह बेच कर स्थायी रूप से रतलाम आ गए। 

“खैर, वालिद की और गिरिराज महाराज की भागीदारी में काम शुरु हुआ और खुदा के करम से नतीजे उम्मीद के मुताबिक मिले। काम धीरे-धीरे बढ़ने लगा और इतना बढ़ा कि रतलाम से बाहर शामगढ़ (म.प्र.), कोटा, गंगापुर (दोनों राजस्थान) और आगरा तक एस्टिब्लिशमेण्ट कायम करने पड़े।

“लेकिन वालिद ने सब जगहों पर अकेले काम नहीं किया। जहाँ-जहाँ काम किया, वहाँ-वहाँ भागीदारी फर्म या कम्पनी बनाई और सब जगहों पर स्थानीय लोगों से भागीदारी की। इस तरह वालिद चार कम्पनियों में भागीदार रहे। कम्पनियों में भागीदारों की तादाद हालात और सहूलियत के मुताबिक रही। एक कम्पनी में सबसे ज्यादा 13 भागीदार रहे तो एक कम्पनी में सबसे कम चार।  

“इन भागीदारी कम्पनियों की दो बातें आज के जमाने में यकीन से परे लगेंगी। पहली बात यह कि चारों कम्पनियों में केवल वालिद ही दाउदी बोहरा थे। बाकी सबके सब हिन्दू भागीदार थे। और दूसरी बात इससे भी अधिक अहम, काबिले गौर और मुश्किल-यकीन वाली है। इन कम्पनियों की पार्टनरशिप डीडें तभी बनवाईं गईं जब कानूनी तौर पर (और खास कर इनकम टैक्स के लिए) जरूरी हुआ।

“एक वाकये से बात शायद ज्यादा साफ होगी।

“आजादी के बाद जब इनकम टैक्स लागू हुआ तो इन्दौर से पेण्डसे वकील साहब ने रतलाम आकर यहाँ, इन्दौर धर्मशाला में मुकाम जमाया। उन्होंने वालिद से मुलाकात की। सारी बातें समझाईं। जब कागज-पत्तर की बात आई तो पेण्डसे साहब ने पार्टनरशिप डीड की कॉपी माँगी। वालिद ने बताया कि पार्टनरशिप डीड न तो बनवाई गई है और न ही बनवाई जाएगी। पेण्डसे साहब ने कहा कि अब तक नहीं बनी है तो अब बनवानी पड़ेगी। पेण्डसे साहब की यह बात वालिद को अच्छी नहीं लगी। तुनक कर बोले - ‘जो चोर हो वो पार्टनरशिप डीड बनवाए। हम पार्टनरों में से कोई भी चोर नहीं है।’ वालिद की जिद के चलते अपनी बात समझाने में पेण्डसे साहब को काफी मुश्किल आई। उन्हें कहना पड़ा कि वे (मेरे वालिद) रतलाम के, अपने भरोसे के वकील से उनकी (पेण्डसे साहब की) बात की ताईद कर लें। आखिरकार वालिद को पार्टनरशिप डीड बनवानी ही पड़ी लेकिन यह काम करने में उन्हें बड़ी तकलीफ हुई।

“गिरिराज महाराज से वालिद की पार्टनरशिप, कहने भर को पार्टनरशिप थी। दोनों परिवारों की दोस्ती पूरे रतलाम में अजूबा थी। ‘स्टेशनवाला’ और ‘शर्मा’ सरनेम के कारण ही दोनों परिवार अलग थे लेकिन हालत यह थी कि दोनों ने एक ही कुटुम्ब बन कर व्यवहार किया। महाराज के यहाँ जब भी शादी-ब्याह का मौका आया तो समधियों की मिलनी-रस्म के लिए  महाराज ने सबसे पहले मेरे वालिद को पटले पर खड़ा किया। और हमारे यहाँ जब भी ऐसा मौका आया, तब गिरधारी महाराज को यही इज्जत दी गई।”

इन दोनों परिवारों की भागीदारी तीन पीढ़ियों तक चली। रियाज और जफर (रियाज को आप पहली कड़ी में जान चुके हैं। जफर, गुल्लू भैया का छोटा बेटा है।) बताते हैं कि गिरिराज महाराज के पोते और ये दोनों भाई (एहमदअली साहब के पोते) साथ-साथ भगीदार रहे। आज यह भागीदारी अस्तित्व में नहीं हैं लेकिन इसकी वजह कोई विवाद या असहमति नहीं। इस भागीदारी में जो कारोबार किया जाता था, वह कारोबार ही बन्द हो गया। लिहाजा, भागीदारी फर्म विसर्जित करनी पड़ी।

गुल्लू भैया बोलेे - “लेकिन खुदा का करम है कि दोनों परिवारों का नाता आज भी जस का तस बना हुआ है। आप भी दुआ कीजिए कि हमारा यह रिश्ता बना रहे और इसे किसी की नजर न लगे।”

इस मुकाम पर आते-आते गुल्लू भैया तनिक भावुक हो गए। जो कुछ सुना, वह मुझे भी भावाकुल कर गया। जानने-सुनने की मेरी प्यास, तलब की हदें छू रहीं थीं। लेकिन मुझे लगा, गुल्लू भैया कहीं इस दशा में न आ जाएँ कि मेरा मकसद अधूरा रह जाए। इसी स्वार्थ के चलते बोला - ‘अब थोड़ा रुकिए। मुझे एक ग्लास पानी पिलवाइए और चाय भी।’

गुल्लू भैया ‘नम हँसी’ हँस दिए। बोले - ‘मुझे सम्हाल रहे हैं? शुक्रिया।’ 

उन्होंने चाय-पानी के लिए रियाज को निर्देशित किया। हम दोनों के बीच खामोशी पसर गई थी। मुझे तो कुछ बोलना था ही नहीं। मैं चुप था। लेकिन गुल्लू भैया!  वे भी चुप थे। कुछ इस तरह मानो अगली बात कहने के लिए खुद को तैयार और ताजा दम कर रहे हों। 

यह चुप्पी टूटी तो मुझे मानो जीवन सूत्र मिल गए। 

क्या थे वे जीवन सूत्र? जी तो कर रहा है कि मैं बिना रुके अपनी बात कहूँ। लेकिन इस क्षण मैं भी सहज-सामान्य नहीं रह गया हूँ। 


गुल्लू भैया नहीं, उनकी बातें हैं जरूरी

ये हैं हमारे गुल्लू भैया। पूरा नाम गुलाम हुसैन स्टेशनवाला। बहत्तर बरस की उम्र में चल रहे इस आदमी को जानना हममें से किसी के लिए जरूरी नहीं। वक्त की बर्बादी ही होगी। लेकिन इनकी बातें सुनने के बाद यह तय है कि जो कुछ ये बताते हैं, उसे जानना हम सबके लिए जरूरी है। खास कर आज के हालात में उतना ही जरूरी जितना कि पौधों-पत्तों की हरियाली के लिए क्लोरोफिल।

गुल्लू भैया से मेरी दोस्ती तो कभी नहीं रही। जान-पहचान भी नहीं। बस! दुआ-सलाम का रिश्ता रहा। उनसे मिलना-जुलना भी बस इतना ही था जितना टाला जाना नामुमकिन होता। उनके बेड़े बेटे रियाज से मेरा मिलना-जुलना था। उससे मिलने जाता तो गुल्लू भैया से भी मिलना पड़ता - बिलकुल उसी तरह और उतना ही कि जिस तरह और जितना अपने मिलनेवाले के पिता से मिलना ही पड़ता है। मेरी मुश्किल यह कि उम्र में रियाज मुझसे छोटा और मैं गुल्लू भैया से। रियाज समझे कि मैं उसके पिता के मिलनेवालों में शरीक हूँ और गुल्लू भैया मुझे रियाज के मिलनेवालों में समझे।

कशमकशवाली मेरी इस दशा के बीच गुल्लू भैया मुझे हर बार, बार-बार, लगातार एक अबूझ पहेली लगते रहे। कारण रहा - उनकी आर्थिक हैसियत और उनके रहन-सहन में जमीन-आसमान का अन्तर। “खानदानी रईस” गुल्लू भैया कि आर्थिक हैसियत ऐसी कि मुझ जैसे सौ-पचास बैरागी एक झटके में खरीद लें (मेरी इस बात को मुहावरा ही समझा जाए। जानता हूँ कि मुझ जैसे एक भी बैरागी को खरीदने का ‘मूर्खतापूर्ण अपव्यय’ गुल्लू भैया तो क्या, कोई नासमझ भी नहीं करेगा)। (मैंने जब गुल्लू भैया से कहा कि मैं यह खरीदनेवाली बात लिखूँगा तो घबराकर, दोनों कान छूकर बोले - “अरे! अरे!! ऐसा गजब बिलकुल मत करना। मैं तो खुद अपने दीन-ओ-ईमान के हाथों बिका हुआ आदमी हूँ।”) लेकिन रहन-सहन ऐसा कि उनके सामने बैरागी भी बिड़ला लगे। मैंने उनको सदैव पैदल चलते ही देखा। कभी-कभार सायकिल पर। और बहुत हुआ तो भूले-भटके स्कूटर पर। कभी खुद चलाते हुए तो कभी अपने बेटे के पीछे बैठे हुए। उनका यह ‘चाल-चलन’ ही उन्हें अबूझ पहेली बनाता रहा मेरे लिए।

लेकिन जैसा कि हम सब कहते हैं - हर बात की एक हद होती है। सो, एक दिन मेरे धीरज ने अपनी हद छोड़ दी। लिहाज और तमीज को खूँटी पर टाँग कर, उन्हें रास्ते चलते रोक कर पूछ ही लिया - “यह क्या चक्कर है गुल्लू भैया?” मुझे यह देखकर ताज्जुब हुआ कि मेरे सवाल पर गुल्लू भैया को बिलकुल ही ताज्जुब नहीं हुआ। हँस दिए। कुछ इस तरह मानो बरसों से मेरे इस सवाल की प्रतीक्षा कर रहे थे। बोले - “यहीं, सड़क पर खड़े-खड़े जानना चाहेंगे या कहीं बैठकर, तसल्ली से बात करें?” मुझे राहत भी मिली और ताज्जुब भी हुआ। राहत इस बात से कि उन्हें मेरा सवाल बुरा, अटपटा नहीं लगा और ताज्जुब यह जानकर हुआ कि वे लिहाज करने की सीमा तक मेरा सम्मान करते हैं।

अब, जब जवाब गुल्लू भैया से हासिल करना था तो जाहिर है कि उनकी सुविधा ही पहली और आखिरी शर्त थी। बोले - “चलिए! दफ्तर चलते हैं। वहीं बैठकर बातें करते हैं। कोशिश करूँगा कि आपको तसल्ली हो जाए।” मैं स्कूटर पर था और गुल्लू भैया पैदल। मैंने कहा - “बैठिए।” उन्हें क्षण भर को उलझन हुई लेकिन बिना ना-नुकुर किए बैठ गए।

दफ्तर पहुँच कर हम दोनों ने अपनी-अपनी जगह ली। गुल्लू भैया बोले - “बात लम्बी हो सकती है। सब कुछ आज ही जानना चाहेंगे या किश्तों में?” फुरसत में तो हम दोनों ही नहीं थे लेकिन उस क्षण का सच यह था कि इधर मैं सब कुछ जानने के लिए अगली साँस भी लेने को तैयार नहीं तो उधर गुल्लू भैया भी मानो एक ही साँस में सब कुछ कह देने का तैयार हो गए हों। 

और गुल्लू भैया ने बोलना शुरु किया तो लगा वे वहाँ नहीं थे। उन्होंने बात शुरु तो की मेरी आँखों में आँखें डालकर। लेकिन कुछ ही पलों में मुझे लगा, मैं उनके सामने हूँ ही नहीं। वे, मानो मेरे आर-पार देखकर किसी और की बातें किसी और को सुना रहे हों।

वही सब ऐसा है जो आज के हालात में हम सबके लिए निहायत ही जरूरी है। बिलकुल उतना ही जरूरी जितना कि पौधों-पत्तों की हरियाली के लिए क्लोरोफिल। लेकिन आज सब कुछ कहने लगूँगा तो बात लम्बी हो जाएगी।

किन्तु गुल्लू भैया ने सब कुछ कहने की इजाजत नहीं दी। दो ही बातों की इजाजत दी। वे ही दो बातें कहूँँगा। लेकिन अभी नहीं।