आखिरी उम्र में सुधार

सीखने और सुधरने की कोई उम्र नहीं होती। यह बात कल, 02 अक्टूबर 2019 को मुझ पर लागू हो गई।

02 अक्टूबर जलजजी (डॉक्टर जयकुमारजी जलज) की जन्म तारीख है। कल वे 85 वर्ष के हो गए। उनके प्रति अपनी शुभ-कामनाएँ, सद्भावनाएँ प्रकट कर उन्हें बधाइयाँ देने, उनका अभिनन्दन करने के लिए हम कुछ लोग उनके निवास पर पहुँचे। जलजजी का कमरा, उनके मन जैसा बड़ा नहीं है। फलस्वरूप, उनका कमरा छोटा पड़ गया। हम कोई बीस-बाईस लोग थे। मेरे सिवाय बाकी सब, जलजजी के लिए ‘कुछ न कुछ’ लेकर पहुँचे थे। सब पहले जलजजी के पाँव पड़े और फिर टूट पड़े, अपना ‘कुछ न कुछ’ उन्हें अर्पित करने। ‘सबसे पहले मैं’ की होड़ लग गई। लगा, कमरे की दीवारें चार-चार फीट पीछे सरक जाएँगी। मैं बाहर निकल, आँगन में आ खड़ा हुआ। कुछ देर बाद कुछ लोग और बाहर आ गए। इनमें चाँदनीवालाजी, सूबेदारसिंहजी भी थे। बाहर खड़े हम सब फुरसत में थे। बिना बात की बात चल पड़ी। एक आवाज आई - ‘पता नहीं क्यों जलजजी ने ललितपुर की बजाय रतलाम पसन्द किया?’ जलजजी मूलतः ललितपुर (उत्तर प्रदेश) के ही हैं। सवाल मुझे समझ में नहीं आया। मैंने प्रतिप्रश्न किया - ‘क्यों ललितपुर में क्या खास बात है?’ जवाब दिया सूबेदारसिंहजी ने - ‘है ना खास बात! आपने वह कहावत नहीं सुनी?’ ‘कौन सी कहावत?’ मैंने पूछा। सूबेदारसिंहजी ने कहावत सुनाई -

झाँसी गले ही फाँसी,
दतिया गले का हार।
ललितपुर ना छोड़िए,
जब तक मिले उधार।।

सुनते ही मैंने कहा - ‘आप गलत कह रहे हैं। सही कहावत यह है -

झाँसी गले की फाँसी,
दतिया गले का हार।
लश्कर कभी ना छोड़िए,
जब तक मिले उधार।।’

मेरा यह कहना था कि एक के बाद एक कई लोग मुझ पर टूट पड़े। सूबेदारसिंहजी की जड़ें उत्तर प्रदेश में हैं। चाँदनीवालाजी दो बरस ललितपुर रह चुके हैं। कुछ और लोग ऐसे थे जो मूलतः उत्तर प्रदेश से थे। 

जलजजी का जन्मोत्सव तो एक तरफ रह गया और ‘ललितपुर-लश्कर’ की अच्छी खासी बहस छिड़ गई। मैं अकेला लश्कर पर अड़ा हुआ था और वे सब ललितपुर का नगाड़ा बजा रहे थे। किसी ने प्रेम से, किसी ने आदर से, किसी ने झल्लाते हुए तो किसी ने मेरी खिल्ली उड़ाते हुए मुझे समझाने की कोशिश की लेकिन मैं मानने को तैयार नहीं हुआ। नहीं माना सो नहीं ही माना।

इस बीच जलजजी सहित सब लोग आँगन में आ गए। अपनी-अपनी आवश्यकता और इच्छानुसार हम सबने जलजजी के साथ फोटू खिंचवाए। प्रीती भाभीजी ने सबका मुँह मीठा कराया और हम सब, एक बार फिर जलजजी को प्रणाम कर अपने-अपने मुकाम पर लौट आए।

लेकिन मैं अकेला नहीं लौटा। ललितपुर और लश्कर मेरे साथ-साथ चले आए। सब लोगों ने जिस तरह एक स्वर से कहावत में ललितपुर बताया था, उसने मेरे आत्म विश्वास को डगमगा दिया। मैं बरसों तक ग्वालियर, बुन्देलखण्ड, बघेलखण्ड जाता रहा हूँ। कभी एक दिन तो कभी दो दिन रुकता रहा हूँ। वहाँ भी यह कहावत कई बार सुनी लेकिन हर बार लश्कर ही सुना। कुछ मराठीभाषी मित्रों/परिचितों से बात हुई तो उन्होंने भी लश्कर की उल्लेखित किया। मैंने अपने जीवन में, इस कहावत में एक बार भी ललितपुर का नाम नहीं सुना। हर बार लश्कर ही सुना।

मैंने सबसे पहले वीरेन्द्रसिंहजी भदौरिया को फोन किया। वे ग्वालियर निवासी हैं। वे व्यस्त थे। बोले कि थोड़ी देर बाद फोन करेंगे। फिर मैंने महेन्द्र भाई कुशवाह को फोन लगाया। वे दो वर्ष तक भास्कर के ग्वालियर संस्करण के स्थानीय सम्पादक रह चुके हैं। उन्होंने हाथ खड़े कर दिए। मैंने बुन्देलखण्ड अंचल के अपने एजेण्ट मित्रों को फोन लगाया। जवाब ने मुझे धरती पर ला पटका। सबका एक ही जवाब था - ललितपुर। फिर मैंने गूगल खंगाला। वहाँ के सारे परिणामों में ललितपुर ही मिला। थोड़ी देर में भदौरियाजी का फोन आया। उन्होंने भी ललितपुर की ही पुष्टि की।

मुझे हैरत हुई। अपने गलत होने पर नहीं, इस बात पर हुई कि इस कहावत को मैंने कई बार, अलग-अलग जगहों पर प्रयुक्त किया और सुना। लेकिन एक बार भी किसी ने ललितपुर का नाम नहीं लिया नहीं। किसी ने मुझे नहीं टोका। क्या वे सब भी मेरी जैसी ही स्थिति में थे/हैं?

शाम को मैंने चाँदनीवालाजी को पत्र लिख कर धन्यवाद दिया कि उन्होंने मुझे सुधार दिया।

सच ही है - सीखने/सुधरने की कोई उम्र नहीं होती। मैं गवाह नहीं, उदाहरण हूँ।
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जलजजी और प्रीती भाभी के साथ हम लोग

जलजजी के साथ चाँदनीवालाजी

दोनों चित्र श्री नरेन्द्रसिंह पँवार के सौजन्य से। चित्र उन्हीं ने लिए इसलिए वे नजर नहीं आ रहे। 

3 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (04-10-2019) को   "नन्हा-सा पौधा तुलसी का"    (चर्चा अंक- 3478)     पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।  
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ 
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. वाह !! आदरणीय अहोभाग्य ऐसे सुंदर संस्मरण हम जैसे आम पाठकों के लिए अमृत के समान है। प्रबुद्धजनों का सरस वार्तालाप मन को छू गया। सादर आभार 🙏🙏🙏

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  3. सही बात है ये सीखने की कोई उम्र नहीं होती।
    सही कहावत ललितपुर वाली है।

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आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.