tag:blogger.com,1999:blog-6032637659660002131.post4971748476777332239..comments2024-03-22T11:42:48.109+05:30Comments on एकोऽहम्: पहली श्रद्धांजलि मेरे लिएविष्णु बैरागीhttp://www.blogger.com/profile/07004437238267266555noreply@blogger.comBlogger9125tag:blogger.com,1999:blog-6032637659660002131.post-20146057585471055822009-08-22T20:18:18.960+05:302009-08-22T20:18:18.960+05:30दुखद लग रहा है विश्वनाथ जी के संदर्भ में।दुखद लग रहा है विश्वनाथ जी के संदर्भ में।Gyan Dutt Pandeyhttps://www.blogger.com/profile/05293412290435900116noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6032637659660002131.post-26760271726508901602009-08-22T14:21:56.297+05:302009-08-22T14:21:56.297+05:30यह टिप्पणी 21 अगस्त की दोपहर कर रहा था कि एकाएक कह...<i>यह टिप्पणी 21 अगस्त की दोपहर कर रहा था कि एकाएक कहीं जाना पड़ गया, सो आज</i><br /><br />इस बार द्विवेदी जी से मेरी असहमति है। विश्वनाथ जी ने जो कुछ किया वह एक तात्कालिक मानसिक उद्वेग था। ऐसे कार्य किसी योजना तहत नहीं किए जा सकते।<br /><br />जिन युवायों के संगठन की बात की जा रही, उन्हें आज के परिदृष्य में 'नैतिक पुलिस' कह परे कर दिया जाता है।<br /><br />बात निराशावाद की नहीं, सर पर कफन बांधने की है। युद्ध के मैदान में उतरा सैनिक निराशावाद ले कर नहीं उतरता, एक उद्देश्य ले कर उतरता है। <br /><br />ऐसे मामलों में अधिकतर वही आगे आते हैं जिन्होंने गृह्स्थ जीवन में प्रवेश नहीं किया होता या उन जिम्मेदारियों से मुक्त हो गए रहते हैं। शायद इसिलिए फौज में भर्ती के लिए अविवाहित होने की शर्त रहती है व कुछ वर्षों तक लागू भी रखी जाती है।<br /><br />पोस्ट की यह पंक्तियाँ सटीक हैं कि <br /><b>भारतीयता, धर्म, समाज, संस्कार, सदाचरण, पर-हित जैसे तमाम कारक हमारे जीवन से लुप्त होते जा रहे हैं। हम स्वार्थी और आत्मकेन्द्रित लोगों की भीड़ बन कर रह गए हैं। हम ‘समाज’ का नाम तब ही लेते हैं जब हमें अपना कोई हित साधना होता है या किसी से बदला लेना होता होता है या किसी को सफल होने से रोकना होता है।</b>Anonymousnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6032637659660002131.post-13975966636249539732009-08-21T21:33:18.444+05:302009-08-21T21:33:18.444+05:30सार्वजनिक क्षमा मांगिए वैरागी जी।
@मरी गायों को दु...सार्वजनिक क्षमा मांगिए वैरागी जी।<br />@मरी गायों को दुहने वाले <br /><br />"खबर मिलते ही विहिप और बजरंग दल के लोग मौके पर पहुँचे।"- और कोई क्यों नहीं पहुंचा? आगे आप ही लिखते हैं कि "बात सचमुच गंभीर और उत्तेजित करने वाली थी।" फिर नगर बंद से आपको एतराज क्यों?<br />दूसरे घटनाक्रम में आप कहते हैं कि "बाद में, सभी पक्षों की बैठक हुई जिसमें विहिप पदाधिकारियों ने गौ-शाला के लोगों को खूब फटकारा और पूछा कि यदि मृत गायों का अन्तिम संस्कार ढंग से नहीं कर सकते हैं तो गौ-शाला चलाने का क्या मतलब है?" अब आप या कोई और बताए कि फटकारा तो गलत किया कि सही? यहां आपकी बुिद््ध छोटे बच्चे की बुिद््ध को भी मात दे गई। अगर हम किसी गौशाला को दान न दें या वहां सेवा न करें तो इसका मतलब है कि वे वहां जो चाहें अत्याचार करें? <br />इस तर्क के अनुसार तो तस्कर पैसा देकर गउओं को ले जा रहे थे तो फिर वे मारे चाहे जो करें किसी को क्या? उन गायों के मालिक विहिप के लोग तो थे नहीं कि लगे चिल्ल-पों मचाने। आपको अपने लिखे के लिए सार्वजनिक रूप से माफी मांगनी चाहिए।वेद रत्न शुक्लhttps://www.blogger.com/profile/07181302813441650742noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6032637659660002131.post-81494318832311041322009-08-21T21:04:37.206+05:302009-08-21T21:04:37.206+05:30मुआफ करियेगा ये टिप्प्णी मेरी है। कृष्णा जी ने साइ...मुआफ करियेगा ये टिप्प्णी मेरी है। कृष्णा जी ने साइन आउट नहीं किया था तो उनके नाम से पब्लिश हो गई।वेद रत्न शुक्लhttps://www.blogger.com/profile/07181302813441650742noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6032637659660002131.post-84675387887028771112009-08-21T20:54:42.744+05:302009-08-21T20:54:42.744+05:30@ dwivediji
चलती बस में सिपाही कहां ढूंढते? अन्य य...@ dwivediji<br />चलती बस में सिपाही कहां ढूंढते? अन्य यत्रियों से कहते कि शोहदों से लोहा लो तो सबको सांप सूंघ जाता। इस रूट में ऐसा आये दिन होता है और एक चाकू देखकर पूरी बस में सन्नाटा छा जाता है। हत्यारे जरायमपेशा लोग थे। जिसमें से एक इलाके के एक गैंगेस्टर की हत्या के मामले में अभी हाल ही में जमानत पर बाहर आया था। ये लोग दिन भर आरटीवी और बस में सवार रहते हैं और पुलिस की मदद से जेबतराशी का काम करते हैं और शेष समय में स्मैक आदि का धंधा। अगर आप इन्हें रंगेहाथ पकड़ लें तो ये तुरंत उस्तरे से वार कर भाग जाते हैं। खून देखकर पूरी बस दहशत से भर जाती है और आइंदा के लिए मंत्र भी ले जाती है कि 'चुप रहना ही श्रेयष्कर है'। इनसे प्रतिवाद करने पर तीन इकट््ठा होकर गाली-गलौज करने लगते हैं और दो यात्री को समझाने लगते हैं कि जाने दो...। ये दर्श्ाते हैं कि ये अलग हैं लेकिन होते ये उसी गिरोह के सदस्य हैं। शेष बस मौन। <br />100 नं ृडायल करने पर पुलिस जब तक आती तब तक ये उतर जाते। दूसरी बात कि बस का नंबर तो याद करके चढे नहीं होंगे कि इस नंबर की आरटीवी जो इस समय इस जगह के आस-पास है यहां आ जाइए। डायल करने के बाद भी इनके ऊपर वार होता ही होता। इसके अलावा विश्वनाथजी भी एकदम से नहीं भिड़ गए होंगे। विरोध जताते हुए कहे होंगे कि क्या कर रहे हो। इसके बाद गुंडे बदतमीजी की सीमा पार कर गए होंगे। इसके बाद ज्योंही विश्वनाथ जी जरा सा सख्त हुए कि जानलेवा वार। अब आप ही बताइए इस घटनाक्रम के बाद लोगों का संगठन बनाने की जरूरत रह गई थी क्या? लोगों को तो खुद ही संगठित हो जाना चाहिए था।<br />निष्कर्ष्--- इसके लिए सिस्टम दोषी है। पुलिस जानती है कि यहां बसों में क्या होता है, कैसे होता है और कौन लोग करते हैं। लेकिन हर हफ्ते मिलने वाली मोटी रकम...। नृशंस हत्या होने की वजह से जब खूब हंगामा हुआ तो आनन-फानन में पकड़ कर कहा 'चल बेटा अंदर'। क्योंकि वे जानते थे कि यही लोग हैं। थोड़ी हल्की घटना हुई होती तो फाइन लगा देते और हौले से चपत लगाकर कहते थोड़ा ठीक से काम किया करो। <br />2- महानगर में हमारी कोई आइडेंटिटी नहीं है। वास्तव में हम अकेले हैं। यहां हमारा कोई गोल-गिरोह (संगी-साथी) तो है नहीं कि अगले कई दिन तक बस में इनको खोजें और सबक सिखाएं। दूसरी बात वैरागी जी ने लिख ही दी है कि "हम स्वार्थी और आत्मकेन्द्रित लोगों की भीड़ बन कर रह गए हैं।" अर्थात दुष्यंत कुमार के शब्दों में<br />हो कोई बारात या वारदात<br />अब यहां नहीं खुलतीं हैं खिड़कियां<br />(लंबी टिप्पणी के लिए मुआफी)K. Krishan Anandhttps://www.blogger.com/profile/10029627222714610836noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6032637659660002131.post-77501688046976351352009-08-21T11:47:16.232+05:302009-08-21T11:47:16.232+05:30no dont talk in depressing tomes please lets us fi...no dont talk in depressing tomes please lets us fight it out we may die but at least we will do our best before we dieAnonymousnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6032637659660002131.post-38074224606191497402009-08-21T11:25:36.812+05:302009-08-21T11:25:36.812+05:30बदलती सोच ,बदलते परिवेश का नतीजा है यह सब। दुःखद.....बदलती सोच ,बदलते परिवेश का नतीजा है यह सब। दुःखद.........anuradha srivastavhttps://www.blogger.com/profile/15152294502770313523noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6032637659660002131.post-78206579214616589472009-08-21T09:57:26.440+05:302009-08-21T09:57:26.440+05:30आप की इस परस्पर श्रद्धांजली की बात से घोर असहमति ह...आप की इस परस्पर श्रद्धांजली की बात से घोर असहमति है। यह निराशावाद है। यह सही है कि मौजूदा मुनाफाप्रधान व्यवस्था ने जो बड़े नगर खड़े किए हैं उन में व्यक्ति भीड़ में अकेला है। लेकिन ऐसा भी नहीं कि इस अकेलेपन को दूर न किया जा सके। विश्वनाथ जी ने संस्कारों के वशीभूत एक दुस्साहस किया था और उस का नतीजा भुगता। अकेले होंगे तो यही होगा। विश्वनाथ जी को वहाँ हस्तक्षेप करने के पहले लोगों को अपने साथ लेने का प्रयत्न नहीं किया। करते तो वे अल्पसंख्यक हो सकते थे लेकिन अकेले न होते। फिर वे 100 नंबर पर फोन कर सकते थे। आसपास किसी वर्दीधारी को तलाश करके उसे कुछ करने को कह सकते थे। विश्वनाथ जी ने अकेले ही भिड़ना तय किया। व्यवस्थाओं से अकेले नहीं भिड़ा जा सकता। उस के लिए संगठन करना होगा। जितने भी संस्कारी हैं, संगठन कार्य से पीछे क्यों हटते जा रहे हैं। जान ही देते हैं तो संगठन के काम में दें। <br /><br />आप यह काम कर सकते हैं। यदि आप संगठन नहीं कर सकते हैं तो आपने आस पास कुछ युवाओँ को जिन में यह क्षमता है प्रेरित कर सकते हैं कि वे ऐसे संगठन के काम में आगे आएँ।दिनेशराय द्विवेदीhttps://www.blogger.com/profile/00350808140545937113noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6032637659660002131.post-84038070117243019192009-08-21T09:50:11.335+05:302009-08-21T09:50:11.335+05:30विष्णु भैया अगला नम्बर मेरा,विष्णु भैया अगला नम्बर मेरा,Anil Pusadkarhttps://www.blogger.com/profile/02001201296763365195noreply@blogger.com