राजा व्यापारी (तो) प्रजा भिखारी

मेरी स्थायी शिकायत है -‘लोग नहीं बोलते। चुपचाप सब सह लेते हैं।’ लेकिन कल लगा, मुझे अपनी शिकायत पर पुनर्विचार करना चाहिए। लोग भले ही न बोलते हों किन्तु ‘लोक’ बोलता है।

यह कल सुबह कोई साढ़े दस, पौने ग्यारह बजे की बात है। पाँच डिग्री से भी कम तापमान में ठिठुर रहे मेरे कस्बे का बाजार मानो अभी भी रजाई में ही पड़ा हुआ था। नाम मात्र की दुकानें खुली थीं। शकर और पिण्ड खजूर लेने के लिए मैं पारस भाई पोरवाल की दुकान पर पहुँचा। दो ग्राहक पहले से ही वहाँ बैठे थे। दुकान खुली ही खुली थी। पारस भाई, मुझसे पहलेवाले ग्राहकों के सामान की सूची बना तो रहे थे किन्तु कुछ इस तरह कि ‘यार! कहाँ सुबह-सुबह चले आए?’ दुकान के कर्मचारियों के काम की गति पर भी ठण्ड का जोरदार असर था। सो, कुल मिलाकर ठण्ड के मारे हम ग्राहक और खुद पारस भाई मानो जबरिया फुरसत में आ गए थे।

‘फुरसतिया चिन्तन’ की शुरुआत ही मँहगाई से हुई। बीएसएनएल वाले नारलेजी बोले - ‘यहाँ सर्दी जान ले रही है और उधर चीजों की कीमतों में आग लगी हुई है। पता नहीं, यह मँहगाई कहाँ जाकर रुकेगी?’

पारस भाई ने बात इस तरह लपकी मानो ऐसे सवाल की प्रतीक्षा ही कर रहे हों। मानो मुझसे सवाल पूछ रहे हों, इस तरह, मेरी ओर देखते हुए तपाक से बोले - ‘नहीं रुकेगी। और रुकेगी भी क्यों? जिसके जिम्मे जो काम किया था, वह उस काम के सिवाय बाकी सब काम कर रहा है! ऐसे में मँहगाई क्यों रुके और कैसे रुके?’

पारस भाई प्रबुद्ध व्यापारी हैं। मैंने प्रायः ही अनुभव किया है कि बाजार की बातें करते समय वे बाजार की मूल प्रवृत्ति को प्रभावित करनेवाले तत्वों और तथ्यों पर बहुत ही सटीक टिप्पणियाँ करते हैं। उनके पास जब भी जाता हूँ, किराना सामान के अतिरिक्त भी कुछ न कुछ लेकर ही लौटता हूँ। मुझसे सवाल कर मानो उन्होंने मुझे मौका दे दिया। तनिक अधिक लालची होकर मैंने प्रति प्रश्न किया - ‘क्या मतलब?’

पारस भाई ने ऐसी गर्मजोशी से बोलना शुरु किया कि लुड़के पारे को भी गर्माहट आ गई। बोले - ‘मतलब यह कि जैसे अपने शरद पँवार को ही लो। उन्हें काम दिया था कि हमारी खेती-बाड़ी की और किसानों की फिकर करें। लेकिन वे लग गए दूसरे कामों में। उन्हें क्रिकेट भी खेलनी है, पास्को (यह शायद कोई विराट् औद्योगिक परियोजना है) भी चलानी है, शुगर मिलों की चेयरमेनशिप और डायरेक्टरशिप भी करनी है, अपनी बेटी और भतीजे का राजनीतिक भविष्य भी मजबूत करना है। इन सबसे उन्हें उस काम के लिए फुरसत ही नहीं मिल रही है जिसके लिए उन्हें मनमोहन सिंह ने बैठाया है। ऐसे में मँहगाई क्यों नहीं बढ़े?’

नारलेजी चूँकि बीएसएनएल से जुड़े हैं सो बात ए. राजा पर आने में पल भर भी नहीं लगा। नारलेजी और पारस भाई का निष्कर्ष था कि राजा तो बेवकूफ बन गया। उसने तो सोचा कि वह सरकार को खूब कमाई करवा रहा है लेकिन टाटा जैसे व्यापारियों ने उसे और सरकार को मूर्ख बना लिया। सरकार को और राजा को कितना क्या मिला यह तो गया भाड़ में, असल खेल तो व्यापारियों ने खेला। अकेले टाटा ने ही हजारों करोड़ रुपये कमा लिए और राजा तथा सरकार का मुँह काला हो गया और दोनों ही आज कटघरे में खड़े हैं।

प्रधान मन्त्री मनमोहन सिंह अब तक बचे हुए थे। लेकिन कब तक बचते? हमारा ‘लोक’ तो अच्छे-अच्छों को निपटा देता है। उसे तो मौका मिलना चाहिए! इन्दिरा गाँधी और अटल बिहारी वाजपेयी तक को एक-एक बार कूड़े में फेंक चुका है। सो, मनमोहन सिंह के लिए सर्वसम्मत राय आई - ‘उन्हें शासन करना था किन्तु वे धृतराष्ट्र बन गए हैं। उनकी उपस्थिति में द्रौपदी का चीर हरण हो रहा है और वे अपनी ईमानदारी को बचाने की चिन्ता में चुप बैठे हैं। उन्हें चाहिए कि वे शरद पवार और दूसरे मन्त्रियों पर अंकुश लगाएँ।’

और इसके बाद पारस भाई ने जो कुछ कहा, उसने मानो हमारे ‘लोक’ के सुस्पष्ट चिन्तन और परिपक्वता का परचम फहरा दिया। बोले - ‘इन्हें राज करना था। लोगों की बेहतरी, खुशहाली की चिन्ता करनी थी। लेकिन ये तो वायदे के सौदे कराने लगे! राजा का काम है, राज करना। लेकिन ये तो व्यापार करने लगे! ऐसे में वही होगा जो अभी हो रहा है। राजा व्यापारी तो प्रजा भिखारी।’

मैं या नारलेजी कुछ कहते उससे पहले ही पारस भाई के कर्मचारी ने, नारलेजी का सामान बाँध देने की सूचना दी। पारस भाई, सूची से मिलान और रकम का मीजान करने लगे। कर्मचारी ने मुझसे मेरे सामान की सूची माँगी। मुझे तो दो ही चीजें लेनी थीं। जबानी ही कह दी। पारस भाई, नारलेजी का हिसाब करते उससे पहले ही मैं निपट गया था।

अपना सामान लेकर चला तो पारस भाई की कही उक्ति - ‘राजा व्यापारी तो प्रजा भिखारी’ भी मेरे सामान की पोटली में बँधी थी। मुझे अच्छा लगा। भरोसा हुआ। लोग भले ही नहीं बोलते किन्तु ‘लोक’ तो बोलता है। और केवल बोलता ही नहीं, मौका मिलते ही अच्छे-अच्छों को निपटा भी देता है।
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3 comments:

  1. सच कहा आपने, यदि कोई समझे कि उसकी कारस्तानियाँ लोग जानते नहीं, तो वह महाभ्रम में है। ये पब्लिक है सब जानती है।

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  2. बहुत सुंदर चर्चा लगी आप की ओर हम सहमत हे जी पारस भई की बातो से, धन्यवाद

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  3. आदरणीय विष्णु बैरागी जी
    नमस्कार !
    सार्थक प्रस्तुति ।
    आभार।

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