गुस्सा कविता नहीं बन पा रहा है : सरोजकुमार

मेरा गुस्सा नहीं बदल पा रहा है
कविता में!
कविता की नस-नस में
व्याप जाए लावा
कविता की धड़कनों में
खड़कने लगे शंखध्वनि-
तब तो बात बने!
शायद मेरे बस का नहीं
कि लपलपाता गुस्सा
उतार सकूँ कविता में!


लोग वाह-वाह करें
और गुस्सा उन्हें उबाल न पाए,
यह मुझे बरदाश्त नहीं!
क्विता पहले और गुस्सा बाद में
मुझसे नहीं होगा!


मैं पालकी का नहीं
प्रतिमा का जुलूस चाहता हूँ!


आखिर गुस्सा लेकर
मुझे कविता में
घुसना ही क्यों चाहिए,
यह भी सोचता हूँ!
गुस्से के कपड़ों में
पगलाती कविता के
गाल लाल हो जाते हैं
भुजाएँ फड़कने लगती हैं
आँखें बरसाती हैं अंगारे
पर
उन्हें सुनकर
श्रोता मजा लेने लगते हैं
वीर रस का!


और-और मजा चाहते हुए
वंस मोर, वंस मो चीखते हैं
पर खलनायकों के खिलाफ
खड़े होते नहीं दीखते हैं!


कविता को छोड़कर
क्या शस्त्रागार में घुसना
ठीक होगा?
पर वहाँ इन दिनों
योग की कक्षाएँ लग रही हैं!


गुस्सा कविता नहीं बन पा रहा है,
और मेरे पास
कविता के अलावा कोई शस्त्रागार
नहीं है!

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‘शब्द तो कुली हैं’ कविता संग्रह की इस कविता को अन्यत्र छापने/प्रसारित करने से पहले सरोज भाई से अवश्य पूछ लें।
 
सरोजकुमार : इन्दौर (1938) में जन्म। एम.ए., एल.एल.बी., पी-एच.डी. की पढ़ाई-लिखाई। इसी कालखण्ड में जागरण (इन्दौर) में साहित्य सम्पादक। लम्बे समय तक महाविद्यालय एवम् विश्व विद्यालय में प्राध्यापन। म. प्र. उच्च शिक्षा अनुदान आयोग (भोपाल), एन. सी. ई. आर. टी. (नई दिल्ली), भारतीय भाषा संस्थान (हैदराबाद), म. प्र. लोक सेवा आयोग (इन्दौर) से सम्बन्धित अनेक सक्रियताएँ। काव्यरचना के साथ-साथ काव्यपाठ में प्रारम्भ से रुचि। देश, विदेश (आस्ट्रेलिया एवम् अमेरीका) में अनेक नगरों में काव्यपाठ।
 
पहले कविता-संग्रह ‘लौटती है नदी’ में प्रारम्भिक दौर की कविताएँ संकलित। ‘नई दुनिया’ (इन्दौर) में प्रति शुक्रवार, दस वर्षों तक (आठवें दशक में) चर्चित कविता स्तम्भ ‘स्वान्तः दुखाय’। ‘सरोजकुमार की कुछ कविताएँ’ एवम् ‘नमोस्तु’ दो बड़े कविता ब्रोशर प्रकाशित। लम्बी कविता ‘शहर’ इन्दौर विश्व विद्यालय के बी. ए. (द्वितीय वर्ष) के पाठ्यक्रम में एवम् ‘जड़ें’ सीबीएसई की कक्षा आठवीं की पुस्तक ‘नवतारा’ में सम्मिलित। कविताओं के नाट्य-मंचन। रंगकर्म से गहरा जुड़ाव। ‘नई दुनिया’ में वर्षों से साहित्य सम्पादन।
 
अनेक सम्मानों में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ट्रस्ट का ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ (’93), ‘अखिल भारतीय काका हाथरसी व्यंग्य सम्मान’ (’96), हिन्दी समाज, सिडनी (आस्ट्रेलिया) द्वारा अभिनन्दन (’96), ‘मधुवन’ भोपाल का ‘श्रेष्ठ कलागुरु सम्मान’ (2001), ‘दिनकर सोनवलकर स्मृति सम्मान’ (2002), जागृति जनता मंच, इन्दौर द्वारा सार्वजनिक सम्मान (2003), म. प्र. लेखक संघ, भोपाल द्वारा ‘माणिक वर्मा व्यंग्य सम्मान’ (2009), ‘पं. रामानन्द तिवारी प्रतिष्ठा सम्मान’ (2010) आदि।
 
पता - ‘मनोरम’, 37 पत्रकार कॉलोनी, इन्दौर - 452018. फोन - (0731) 2561919.

7 comments:

  1. क्या करे कविता अंगार नहीं छोड़ पाती..

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  2. कविता ने सत्ता के तख्ते पलट दिये हैं .... क्रोध तो झलकना ही चाहिए .... आक्रोशित मन से लिखी अच्छी प्रस्तुति

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  3. जरूरी है ये आक्रोश भी

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  4. प्रभावित करती कविता .

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  5. क्रोध और प्यार एक ही सिक्के के दो पहलू हैं लगता है क्रोध उपज पाता है?

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  6. कई बार चाह कर भी अपने अहसासों में अंगार नही ला सकते.. बहुत सुन्दर...

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  7. http://bulletinofblog.blogspot.in/2012/11/blog-post.html

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