दैन्य द्वापर का

 




श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘शीलवती आग’ की चौबीसवीं कविता 





दैन्य द्वापर का

सूर्य ने स्याही उगल कर
कर दिया आकाश फिर काला
चलो माँजो गगन को
रक्तवर्णी पीढ़ियों पर
फिर वही दायित्व आया है।
हो सके तो फिर नया सूरज उगाओ
किस कदर हर साँस पर
अंधियार छाया है।
देश में इतना अँधेरा आज से पहिले
कभी था ही नहीं
पीढ़ियाँ ऐसी कभी भटकी नहीं थीं।
द्वार, तोरण और वन्दनवार के
उलझाव में
आत्मा आराध्य की ऐसी कभी
अटकी नहीं थी।
देव का आसन
जिसे अभिषिक्त अपने रक्त से
तुमने किया था
आज उस पर दैत्य सादर
जम गए हैं शान से
शील मिट्टी का सरासर भग्न है
और हम सब जी रहे हैं
पाण्डु पुत्रों की तरह अभिमान से। 
दैन्य द्वापर का सतत् साकार है
शौर्य जड़वत् मौन है चुपचाप है
हाय! ऐसी जड़ समाजी चेतना का
कवि कहाना
दैव है, दुर्देंव है या फिर किसी का श्राप है!
अभिशप्त-सा संतप्त-सा
पत्थरों के देश में
आकाश भर अँधियार में भी गा रहा हूँ
दे चुकी तुमको तुम्हारी भोर ही
उजला दगा।
मैं तुम्हारे नाम पर
निश्छल सुबह फिर ला रहा हूँ।
तुम उठो! माँजो गगन को
रक्तवर्णी पढ़ियों पर
फिर वही दायित्व आया है
तुम चलो तो!
पत्थरों को चेतना का स्पर्श दो
पंछियों तक ने
परों को फड़फड़ाया है।
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संग्रह के ब्यौरे
शीलवती आग (कविता संग्रह)
कवि: बालकवि बैरागी
प्रकाशक: राष्ट्रीय प्रकाशन मन्दिर, मोतिया पार्क, भोपाल (म.प्र.)
प्रथम संस्करण: नवम्बर 1980
कॉपीराइट: लेखक
मूल्य: पच्चीस रुपये 
मुद्रक: सम्मेलन मुद्रणालय, प्रयाग




यह  संग्रह  हम  सबकी  ‘रूना’  ने  उपलब्ध  कराया  है। ‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।



रूना के पास उपलब्ध, ‘शीलवती आग’ की प्रति के कुछ पन्ने गायब थे। संग्रह अधूरा था। कृपावन्त राधेश्यामजी शर्मा ने गुम पन्ने उपलब्ध करा कर यह अधूरापन दूर किया। राधेश्यामजी, दादा श्री बालकवि बैरागी के परम् प्रशंसक हैं। वे नीमच के शासकीय मॉडल उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में व्याख्याता हैं। उनका पता एलआईजी 64, इन्दिरा नगर, नीमच-458441 तथा मोबाइल नम्बर 88891 27214 है। 














3 comments:

  1. बहुत-बहुत धन्‍यवाद।

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  2. बहुत सुंदर कविता बैरागी जी की।
    सार्थक प्रयास, सराहनीय।

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    1. टिप्‍पणी करने के लिए बहुत-बहुत धन्‍यवाद।

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