शहंशाह से नटवरलाल
- प्रकाश पुरोहित
जिस 'शराबी' की नजाकत, नफासत, अद्भुत अभिनय, विनम्रता, अखलाक, सभ्यता, सच्चाई और साफ-सुथरे विचारों की पूरा देश कद्र करता था, जिसने केबीसी के जरिए करोडों लोगों के दिलों पर राज किया, आज उसे उन्हीं के दिलों में रहने के लिए जोर लगाना पड रहा है । फैजाबाद की कमिश्नरी अदालत ने अमिताभ के किसान होने के दावे को खारिज कर दिया है । जिस 'कालिया' की छींक भी खबर हुआ करती थी, उसीके लिए अब 'नटवरलाल' जैसी हेडिंग सजाई जा रही है । इससे समझा जा सकता है कि उनकी क्या गत हो गई है । लेकिन इसके लिए खुद 'नटवरलाल' ही जिम्मेदार हैं ।
इसकी शुरूआत तो तब ही हो गई थी जब उन्होंने पुत्र प्रेम में आकर प्रचार के लिए सीमाओं को तोडा था । इसी प्यार में वे शाहरूख से लडे और कइयों से लालची गठबन्धन भी किया । फिर, जिसके पास अमरसिंह जैसे दोस्त हों, उसे जलील होने के लिए दुश्मनों की क्या जरूरत । अहसानों से गले-गले दबे 'आजाद' से अमरसिंह ने अपने अहसानों की दिल खोल कर कीमत वसूल की, यूं कहें कि वसूल रहे हैं तो ठीक रहेगा, जिससे 'मर्द' जान कर भी अनजान बना हुआ है । अमरसिंह को दोस्त बनाने से पहले 'लावारिस' को समझ लेना था कि बेवकूफ दोस्त से समझदार दुश्मन अच्छा होता है ।
अभिषेक की शादी से 'विजय' को बहू तो मिली लेकिन यह शादी 'विजय' से उसका काफी कुछ छीन ले गई । न्यौतों को लेकर विवाद हुआ, गैरतमन्द कलाकारों ने मिठाई लौटा दी और बताया कि वे जिस यार के याराना पर फख्र करते थे, जिसकी दावतें बेमिसाल होती थीं, वह कहीं गुम हो गया है । अब जो दीख रहा है वह लालची बाप और अहसानों से दबा मजबूर दोस्त है जिसमें अच्छे-बुरे में फर्क करने की तमीज खत्म हो गई है । इसी शादी में मीडिया से उनकी लडाई भी हुई और वजह बने अमरसिंह के गार्ड । याने मैं नहीं तो मेरे गार्ड ही सही । इस लडाई का असर 'शूट आउट एट लोखण्डवाला'और 'चीनी कम' के प्रीमीयर में देखने को मिला,जब फोटोग्राफरों ने अमिताभ और अभिषेक के फोटो लेने से इंकार कर दिया । आखिरकार 'शहंशाह' को मीडिया से माफी मांगनी पडी ।
रही सही कसर उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनावों ने पूरी कर दी । उन्होंने दिल खोल कर मुलायमसिंह यादव का साथ दिया लेकिन मायावती की आंधी उन्हें ले उडी । मायावती ने सिंहासन पर बैठते ही 'शंहशाह' को 'नटवरलाल' बनाने की कोशिशें शुरू कर दीं और नतीजा फैजाबाद की कमिश्नरी अदालत के फैसले के तौर पर सामने आ गया है । अमिताभ ने जिस मेहनत के बाद अपनी जबरदस्त सलाहियत के दम पर जो मकाम बनाया था, उसे वे अपनी ही नादानियों से बिखेरने में लगे नजर आ रहे हैं ।
(इन्दौर से प्रकाशित सांध्य दैनिक 'प्रभातकिरण' से साभार)
अपने आप में मस्त एक सफल आदमी
सफलता के नुस्खे बांटने वालों में शिव खेडा का नाम सबसे पहले लिया जाता है । सफलता हासिल करने के गुर बताने वाली उनकी कुछ पुस्तकें अपने समय में 'बेस्ट सेलर' का खिताब पा चुकी हैं । दिल्ली से प्रकाशित होने वाले दैनिकों में उनके नीति वाक्यों के छोटे-छोटे विज्ञापन स्थायी स्तम्भ की तरह नजर आते थे । यह अलग बात है कि सारी दुनिया को कामयाबी के शर्तिया नुस्खे बांटने वाला यह 'जगत्गुरू' खुद विधान सभा चुनाव में बुरी तरह से हार गया । इन्हीं शिव खेडा की एक पुस्तक के कवर पेज पर छपा था कि सफल लोग बडे काम नहीं करते, वे काम को विशेष ढंग से करते हैं । अन्दर एक अध्याय में इसका मतलब बताते हुए खेडाजी ने कहा था - विशेष ढंग से याने व्यवस्थित और अनुशासित ढंग से ।
ऐसा एक स फल आदमी बरसों से मेरे आसपास है, यह प्रतीती मुझे अचानक ही हुई । इसका नाम है - बब्बू । यह दसका असली नाम नहीं है । माता-पिता ने इसका नाम 'लक्ष्मीनारायण' रखा था लेकिन साढे छ: अक्षरों वाले नाम पर ढाई अक्षरों वाला नाम इस कदर घटाटोप छा गया है कि अपना असली नाम याद करने में खुद उसे भी मेहनत करनी पडती होगी ।
सज्जन मील मार्ग पर, राम मन्दिर की दुकानों में से एक दुकान में उसका हेयर कटिंग सेलून चलता है । मुझे प्रति आठ-दस दिनों में उसके पास जाना ही पडता है, अपनी दाढी-मूंछों की छंटाई के लिए । मैं जब-जब भी गया, मुझे उससे ईर्ष्या हुई । मैं एक बीमा एजेण्ट हूं और हर कोई जानता है कि लोग बीमा एजेण्ट के नाम से ही कैसे बिचकते हैं । जाहिर है कि न केवल बीमा बेच लेना बल्कि उससे पहले ग्राहक तलाश करना ही मेरे लिए दुरूह काम है । लेकिन मैं जब-जब भी बब्बू की दुकान पर गया, हर बार ग्राहकों को उसकी प्रतीक्षा करता पाया । मैं परिहास करते हुए उससे कहता हूं कि ईश्वर उसके जैसा भाग्य सबको दे, खास करके मुझे जरूर दे ताकि मुझे भी ग्राहक प्रतीक्षा करते मिलें । वह हर बार मेरे इस परिहास पर ससंकोच मुस्कुरा कर चुप रह जाता है । बहुत हुआ तो 'बाबूजी की बाते हैं' जैसा रस्मी जुमला कह कर अपने काम में लग जाता है ।
मैं जब-जब भी अपनी गरज से उसके पास जाता हूं तो हर बार कम से कम एक बार तो उससे कहा-सुनी हो ही जाती है । मुझे निपटाने में उसे कभी भी दस-बारह मिनिट से अधिक नहीं लगते । लेकिन ये कुछ मिनिट भी मुझे बहुत भारी लगते हैं । उर्दू का यह शेर 'हमारे और उनके सोचने में बस फर्क है इतना, इधर तो जल्दी-जल्दी है उधर आहिस्ता-आहिस्ता' साकार होने लगता है । मैं हर बार कहता हूं - 'बब्बू, जरा जल्दी ।' दाढी-मूंछों की छंटाई करने के बाद जब पह बारीक कैंची से एक-एक बाल छांटता है तो मेरा धैर्य छूटने लगता है । मैं उसे समझाने की कोशिश करता हूं कि मेरी उम्र साठ साल की हो गई है और अब इस उम्र में इतनी 'फिनिशिंग' का कोई मतलब नहीं है । अब मेरी ओर देखने की फुरसत और जरूरत किसी को नहीं रह गई है । मेरी इस बात का उस पर कोई असर नहीं होता । तन्मयतापूर्वक अपना काम करते हुए वह कहता है - 'आपको भले ही अपनी परवाह नहीं हो लेकिन मुझे तो अपनी और अपनी दुकान की परवाह है । थोडी सी भी कसर रह गई तो लोग आपको कुछ नहीं कहेंगे । सब जानते हैं कि आप मेरी दुकान पर आते हो । मैं किस किस को जवाब दूंगा देता फिरूंगा । इसलिए आप अपना काम करो, मुझे अपना काम करने दो ।' उसकी बात सुन कर मुझे हर बार चुप रह जाना पडता है ।
बब्बू की इसी बात ने मेरा ध्यानाकर्षण किया । उसे इससे कोई मतलब नहीं कि उसका काम कितना छोटा या बडा है । वह तो खुश हो सकता है कि जब ग्राहक खुद जल्दी कर रहा तो उसे अपना हाथ फौरन खींचने में सुविधा होगी । वह अगले ग्राहक को कुछ मिनिट जल्दी बुला सकता है । लेकिन उसने एक बार भी मेरी जल्दी पर ध्यान नहीं दिया । उसके लिए खुद की तसल्ली सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है । वह बिना किसी भेद भाव के, प्रत्येक ग्राहक पर समान रूप से ध्यान देता है और ग्राहक की तसल्ली से ज्यादा चिन्ता अपनी तसल्ली की करता है । ग्राहक उसकी प्रतीक्षा क्यों करते हैं, यह मुझे अब समझ आया । और यह समझ आते ही मुझे शिव खेडा का 'सफलता का गुर' याद आ गया ।
बब्बू का काम काज बहुत बडा नहीं है । उसका सैलून तडक-भडक से कोसों दूर है । बिजली बन्द होने पर उसकी दुकान में लोगों को पसीने छूटने लगते हैं । कोई तीस पैंतीस बरस से वह अपनी दुकान न केवल भली प्रकार चला रहा है बल्कि उसके एक भी ग्राहक ने किसी दूसरी दुकान का रूख नहीं किया । उसके ग्राहकों की संख्या में शनै-शनै बढोतरी हो रही है । जब भी उसके बाहर होने के कारण उसकी दुकान बन्द रहती है तो ग्राहक उसके आने की प्रतीक्षा में दो-चार दिन रूक जाते हैं ।
जो लोग केवल आर्थिक पैमानों लोगों को आंकते हैं वे भले ही बब्बू की अनदेखी कर लें लेकिन मैं बब्बू को कामयाब और बडा व्यवसायी तथा उससे भी पहले 'बडा आदमी' मानता हूं । गला काट प्रतियोगिता के इस विकट दौर में, जब परम्परागत काम-धन्धे दम तोड रहे हैं, लोग अपने खानदानी पेशे से नजरें चुरा रहे हैं, बब्बू अपने पूरे दम-खम से बाजार में डटा हुआ है और न केवल 'एलपीजी' को मुंह चिढा रहा है बल्कि साबित भी कर रहा है कि यदि खुद से अधिक चिन्ता ग्राहक की जाए तो दुकानदार को ग्राहक की प्रतीक्षा नहीं करनी पडती, ग्राहक ही दुकानदार की प्रतीक्षा करता मिलेगा ।
मैं बब्बू को मुझ से अधिक कामयाब व्यवसायी मानता हूं और उसके नक्श-ए-कदम पर चलने की तैयारी कर रहा हूं ताकि मेरे व्यवसाय में भी ग्राहक मेरी प्रतीक्षा करें ।
विष्णु बैरागी ने लिखा 3 जून 2007 को
मेरा भारत महान
यह समाचार पढ कर तबीयत खुश हो गई कि जल्दी ही देश के प्रत्येक नागरिक को ई-मेल आई डी मिल जाएगी । जाहिर है कि मेरे मुल्क की जरूरतें और प्राथमिकताएं बदल रही हैं और यकीनन तरक्की के फायदे दूरदराज बैठे, बिना सिफारिश वाले आदमी को भी मिल कर ही रहेंगे ।
यह समाचार पढ कर शम्सी मीनाई का शेर याद आ गया -
सब कुछ है मेरे देश में रोटी नहीं तो क्या
वादा लपेट लो जो लंगोटी नहीं तो क्या
इस शेर में 'वादा' की जगह 'ई-मेल आईडी' लिखने की इच्छा जोर मार रही है ।
विष्णु बैरागी ने लिखा 3 जून 2007 को ।
जिस 'शराबी' की नजाकत, नफासत, अद्भुत अभिनय, विनम्रता, अखलाक, सभ्यता, सच्चाई और साफ-सुथरे विचारों की पूरा देश कद्र करता था, जिसने केबीसी के जरिए करोडों लोगों के दिलों पर राज किया, आज उसे उन्हीं के दिलों में रहने के लिए जोर लगाना पड रहा है । फैजाबाद की कमिश्नरी अदालत ने अमिताभ के किसान होने के दावे को खारिज कर दिया है । जिस 'कालिया' की छींक भी खबर हुआ करती थी, उसीके लिए अब 'नटवरलाल' जैसी हेडिंग सजाई जा रही है । इससे समझा जा सकता है कि उनकी क्या गत हो गई है । लेकिन इसके लिए खुद 'नटवरलाल' ही जिम्मेदार हैं ।
इसकी शुरूआत तो तब ही हो गई थी जब उन्होंने पुत्र प्रेम में आकर प्रचार के लिए सीमाओं को तोडा था । इसी प्यार में वे शाहरूख से लडे और कइयों से लालची गठबन्धन भी किया । फिर, जिसके पास अमरसिंह जैसे दोस्त हों, उसे जलील होने के लिए दुश्मनों की क्या जरूरत । अहसानों से गले-गले दबे 'आजाद' से अमरसिंह ने अपने अहसानों की दिल खोल कर कीमत वसूल की, यूं कहें कि वसूल रहे हैं तो ठीक रहेगा, जिससे 'मर्द' जान कर भी अनजान बना हुआ है । अमरसिंह को दोस्त बनाने से पहले 'लावारिस' को समझ लेना था कि बेवकूफ दोस्त से समझदार दुश्मन अच्छा होता है ।
अभिषेक की शादी से 'विजय' को बहू तो मिली लेकिन यह शादी 'विजय' से उसका काफी कुछ छीन ले गई । न्यौतों को लेकर विवाद हुआ, गैरतमन्द कलाकारों ने मिठाई लौटा दी और बताया कि वे जिस यार के याराना पर फख्र करते थे, जिसकी दावतें बेमिसाल होती थीं, वह कहीं गुम हो गया है । अब जो दीख रहा है वह लालची बाप और अहसानों से दबा मजबूर दोस्त है जिसमें अच्छे-बुरे में फर्क करने की तमीज खत्म हो गई है । इसी शादी में मीडिया से उनकी लडाई भी हुई और वजह बने अमरसिंह के गार्ड । याने मैं नहीं तो मेरे गार्ड ही सही । इस लडाई का असर 'शूट आउट एट लोखण्डवाला'और 'चीनी कम' के प्रीमीयर में देखने को मिला,जब फोटोग्राफरों ने अमिताभ और अभिषेक के फोटो लेने से इंकार कर दिया । आखिरकार 'शहंशाह' को मीडिया से माफी मांगनी पडी ।
रही सही कसर उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनावों ने पूरी कर दी । उन्होंने दिल खोल कर मुलायमसिंह यादव का साथ दिया लेकिन मायावती की आंधी उन्हें ले उडी । मायावती ने सिंहासन पर बैठते ही 'शंहशाह' को 'नटवरलाल' बनाने की कोशिशें शुरू कर दीं और नतीजा फैजाबाद की कमिश्नरी अदालत के फैसले के तौर पर सामने आ गया है । अमिताभ ने जिस मेहनत के बाद अपनी जबरदस्त सलाहियत के दम पर जो मकाम बनाया था, उसे वे अपनी ही नादानियों से बिखेरने में लगे नजर आ रहे हैं ।
(इन्दौर से प्रकाशित सांध्य दैनिक 'प्रभातकिरण' से साभार)
अपने आप में मस्त एक सफल आदमी
सफलता के नुस्खे बांटने वालों में शिव खेडा का नाम सबसे पहले लिया जाता है । सफलता हासिल करने के गुर बताने वाली उनकी कुछ पुस्तकें अपने समय में 'बेस्ट सेलर' का खिताब पा चुकी हैं । दिल्ली से प्रकाशित होने वाले दैनिकों में उनके नीति वाक्यों के छोटे-छोटे विज्ञापन स्थायी स्तम्भ की तरह नजर आते थे । यह अलग बात है कि सारी दुनिया को कामयाबी के शर्तिया नुस्खे बांटने वाला यह 'जगत्गुरू' खुद विधान सभा चुनाव में बुरी तरह से हार गया । इन्हीं शिव खेडा की एक पुस्तक के कवर पेज पर छपा था कि सफल लोग बडे काम नहीं करते, वे काम को विशेष ढंग से करते हैं । अन्दर एक अध्याय में इसका मतलब बताते हुए खेडाजी ने कहा था - विशेष ढंग से याने व्यवस्थित और अनुशासित ढंग से ।
ऐसा एक स फल आदमी बरसों से मेरे आसपास है, यह प्रतीती मुझे अचानक ही हुई । इसका नाम है - बब्बू । यह दसका असली नाम नहीं है । माता-पिता ने इसका नाम 'लक्ष्मीनारायण' रखा था लेकिन साढे छ: अक्षरों वाले नाम पर ढाई अक्षरों वाला नाम इस कदर घटाटोप छा गया है कि अपना असली नाम याद करने में खुद उसे भी मेहनत करनी पडती होगी ।
सज्जन मील मार्ग पर, राम मन्दिर की दुकानों में से एक दुकान में उसका हेयर कटिंग सेलून चलता है । मुझे प्रति आठ-दस दिनों में उसके पास जाना ही पडता है, अपनी दाढी-मूंछों की छंटाई के लिए । मैं जब-जब भी गया, मुझे उससे ईर्ष्या हुई । मैं एक बीमा एजेण्ट हूं और हर कोई जानता है कि लोग बीमा एजेण्ट के नाम से ही कैसे बिचकते हैं । जाहिर है कि न केवल बीमा बेच लेना बल्कि उससे पहले ग्राहक तलाश करना ही मेरे लिए दुरूह काम है । लेकिन मैं जब-जब भी बब्बू की दुकान पर गया, हर बार ग्राहकों को उसकी प्रतीक्षा करता पाया । मैं परिहास करते हुए उससे कहता हूं कि ईश्वर उसके जैसा भाग्य सबको दे, खास करके मुझे जरूर दे ताकि मुझे भी ग्राहक प्रतीक्षा करते मिलें । वह हर बार मेरे इस परिहास पर ससंकोच मुस्कुरा कर चुप रह जाता है । बहुत हुआ तो 'बाबूजी की बाते हैं' जैसा रस्मी जुमला कह कर अपने काम में लग जाता है ।
मैं जब-जब भी अपनी गरज से उसके पास जाता हूं तो हर बार कम से कम एक बार तो उससे कहा-सुनी हो ही जाती है । मुझे निपटाने में उसे कभी भी दस-बारह मिनिट से अधिक नहीं लगते । लेकिन ये कुछ मिनिट भी मुझे बहुत भारी लगते हैं । उर्दू का यह शेर 'हमारे और उनके सोचने में बस फर्क है इतना, इधर तो जल्दी-जल्दी है उधर आहिस्ता-आहिस्ता' साकार होने लगता है । मैं हर बार कहता हूं - 'बब्बू, जरा जल्दी ।' दाढी-मूंछों की छंटाई करने के बाद जब पह बारीक कैंची से एक-एक बाल छांटता है तो मेरा धैर्य छूटने लगता है । मैं उसे समझाने की कोशिश करता हूं कि मेरी उम्र साठ साल की हो गई है और अब इस उम्र में इतनी 'फिनिशिंग' का कोई मतलब नहीं है । अब मेरी ओर देखने की फुरसत और जरूरत किसी को नहीं रह गई है । मेरी इस बात का उस पर कोई असर नहीं होता । तन्मयतापूर्वक अपना काम करते हुए वह कहता है - 'आपको भले ही अपनी परवाह नहीं हो लेकिन मुझे तो अपनी और अपनी दुकान की परवाह है । थोडी सी भी कसर रह गई तो लोग आपको कुछ नहीं कहेंगे । सब जानते हैं कि आप मेरी दुकान पर आते हो । मैं किस किस को जवाब दूंगा देता फिरूंगा । इसलिए आप अपना काम करो, मुझे अपना काम करने दो ।' उसकी बात सुन कर मुझे हर बार चुप रह जाना पडता है ।
बब्बू की इसी बात ने मेरा ध्यानाकर्षण किया । उसे इससे कोई मतलब नहीं कि उसका काम कितना छोटा या बडा है । वह तो खुश हो सकता है कि जब ग्राहक खुद जल्दी कर रहा तो उसे अपना हाथ फौरन खींचने में सुविधा होगी । वह अगले ग्राहक को कुछ मिनिट जल्दी बुला सकता है । लेकिन उसने एक बार भी मेरी जल्दी पर ध्यान नहीं दिया । उसके लिए खुद की तसल्ली सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है । वह बिना किसी भेद भाव के, प्रत्येक ग्राहक पर समान रूप से ध्यान देता है और ग्राहक की तसल्ली से ज्यादा चिन्ता अपनी तसल्ली की करता है । ग्राहक उसकी प्रतीक्षा क्यों करते हैं, यह मुझे अब समझ आया । और यह समझ आते ही मुझे शिव खेडा का 'सफलता का गुर' याद आ गया ।
बब्बू का काम काज बहुत बडा नहीं है । उसका सैलून तडक-भडक से कोसों दूर है । बिजली बन्द होने पर उसकी दुकान में लोगों को पसीने छूटने लगते हैं । कोई तीस पैंतीस बरस से वह अपनी दुकान न केवल भली प्रकार चला रहा है बल्कि उसके एक भी ग्राहक ने किसी दूसरी दुकान का रूख नहीं किया । उसके ग्राहकों की संख्या में शनै-शनै बढोतरी हो रही है । जब भी उसके बाहर होने के कारण उसकी दुकान बन्द रहती है तो ग्राहक उसके आने की प्रतीक्षा में दो-चार दिन रूक जाते हैं ।
जो लोग केवल आर्थिक पैमानों लोगों को आंकते हैं वे भले ही बब्बू की अनदेखी कर लें लेकिन मैं बब्बू को कामयाब और बडा व्यवसायी तथा उससे भी पहले 'बडा आदमी' मानता हूं । गला काट प्रतियोगिता के इस विकट दौर में, जब परम्परागत काम-धन्धे दम तोड रहे हैं, लोग अपने खानदानी पेशे से नजरें चुरा रहे हैं, बब्बू अपने पूरे दम-खम से बाजार में डटा हुआ है और न केवल 'एलपीजी' को मुंह चिढा रहा है बल्कि साबित भी कर रहा है कि यदि खुद से अधिक चिन्ता ग्राहक की जाए तो दुकानदार को ग्राहक की प्रतीक्षा नहीं करनी पडती, ग्राहक ही दुकानदार की प्रतीक्षा करता मिलेगा ।
मैं बब्बू को मुझ से अधिक कामयाब व्यवसायी मानता हूं और उसके नक्श-ए-कदम पर चलने की तैयारी कर रहा हूं ताकि मेरे व्यवसाय में भी ग्राहक मेरी प्रतीक्षा करें ।
विष्णु बैरागी ने लिखा 3 जून 2007 को
मेरा भारत महान
यह समाचार पढ कर तबीयत खुश हो गई कि जल्दी ही देश के प्रत्येक नागरिक को ई-मेल आई डी मिल जाएगी । जाहिर है कि मेरे मुल्क की जरूरतें और प्राथमिकताएं बदल रही हैं और यकीनन तरक्की के फायदे दूरदराज बैठे, बिना सिफारिश वाले आदमी को भी मिल कर ही रहेंगे ।
यह समाचार पढ कर शम्सी मीनाई का शेर याद आ गया -
सब कुछ है मेरे देश में रोटी नहीं तो क्या
वादा लपेट लो जो लंगोटी नहीं तो क्या
इस शेर में 'वादा' की जगह 'ई-मेल आईडी' लिखने की इच्छा जोर मार रही है ।
विष्णु बैरागी ने लिखा 3 जून 2007 को ।