चिपलूनकरजी के बहाने
'सोनिया गाँधी वाले चिट्ठे पर उठते सवाल-जवाब' शीर्षक से चिपलूनकरजी
ने जो सफाई दी है, वह तर्क, कुतर्क से काफी आगे बढकर जिम्मेदारी से बचने की आश्चर्यजनक और बचकानी कोशिश्ा है । चिट्ठा जगत में मैं अभी 'दुध मुँहा' हूँ लेकिन जितने भी चिट्ठे मैं पढ-देख रहा हूँ, उन सबमें जिम्मेदारी लेने से बचने की कोशिश कहीं नजर नहीं आती । यह बहुत बडी बात है । यही बात लिखने वाले या प्रस्तोता को विश्वसनीय बनाती है । मेरी नजर में यह पहली ऐसी प्रस्तुति है जिसमें प्रस्तोता अपनी करनी से बचने की विचित्र कोशिश कर रहा है । चिट्ठा जगत में यह परम्परा यदि पहले से ही चली आ रही है तब तो मुझे कुछ नहीं कहना है । लेकिन यदि यह शुरूआत है है तो चिट्ठा जगत के हरावलों-पुराधाओं से मेरा विनम्र आग्रह है कि कृपया इस दुनिया को इस विकृति से बचाने में फौरन जुट जाऍं ।
किसी भी पार्टी से या उसके विचार से जुडना न तो शर्मिन्दगी वाली बात होती है और न ही गर्व करने वाली । विचार केवल विचार है, उससे सहमत या असहमत हुआ जा सकता है । किसी विचार से सहमत होने का यह अर्थ कदापि नहीं होता कि उसके वाहकों के आचरण से भी सहमत हुआ ही जाए या कि उनका समर्थन किया ही जाए । इसलिए, यदि चिपलूनकरजी संघ या भाजपा से सामीप्य अनुभव करते हों तो इस पर न तो उन्हें संकोच होना चाहिए और न ही किसी को आपत्ति । लेकिन विचार के समर्थन में यदि कोई बात प्रस्तुत की जाती है तो उसकी जिम्मेदारी भी ली जानी चाहिए । यदि ऐसा नहीं होता है तो, विचार-वाहकों के इस गैरजिम्मेदाराना व्यवहार के कारण समूचा विचार बदनमाम होता है और इसीलिए विचार-वाहकों के आचरण को ही विचार मान लिया जाने लगता है ।
चिपलूनकरजी का कहना बिलकुल सही है कि उन्होंने जो कुछ परोसा है उसमें उनका अपना कुछ भी नहीं है । लेकिन सवाल यह उठता है कि किसके निवेदन अथवा आदेश पर उन्होंने यह यह सब परोसा है ? किसी पाठक ने अनुरोध किया है या खुद खानसामा ने कहा है ? यदि दोनों में से कोई बात नहीं है और आप स्वेच्छा से परोस रहे हैं तो जाहिर है कि यह न केवल आपकी पसन्द है बल्कि इसे आपकी सहमति, सहयोग और संरक्षण आपकी सम्पूर्ण वैचारिकता और मानसिकता से प्राप्त है । आप उसके 'कण्टेण्ट' और 'इण्टेंशन' से पूरी तरह सहमत हैं । ऐसे में यह परोसा हुआ आपकी ही ऐसी 'डिश' है जो बेशक आपने खुद नहीं बनाई लेकिन आपके आचरण के कारण वह आपकी ही है ।
चिपलूनकरजी यदि अपनी इस प्रस्तुति से सहमति या असहमति नहीं जता रहे और फिर भी प्रस्तुति का औचित्य सिध्द क रने की कोशिश्ा कर रहे हैं तो जाहिर है कि वे गुड तो खा रहे हैं लेकिन गुलगुलों से परहेज करते दिखाई दे रहे हैं ।
क्या यह सचमुच में अचरज वाली बात नहीं है कि आप कोई विचार तो प्रस्तुत कर दें, उसकी जिम्मेदारी भी न लें और यह भी नहीं बताऍं कि मूल खानसामे तक कैसे पहँचा जाए ? इसके मायने क्या हैं ? चिपलूनकरजी मालवा निवासी हैं इसलिए उन्हें वह मालवी कहावत याद दिलाने का दुस्साहस कर रहा हूँ - या तो बाप का नाम बताओ या श्राध्द करो । यदि दोनों में से कोई काम नहीं किया जा रहा है तो फिर 'भुस में आग लगा कर बन्नो दूर खडी' वाली कहावत को साकार किया जा रहा है और ऐसा केवल, कोई सुनिश्चित (राजनीतिक) मकसद हासिल करने के लिए किया जाता है ।
फर्जी ई-मेलों पर आपत्ति जताने वाला, चिपलूनकरजी का तर्क खुद उन पर भी लागू होता है । फर्जी ई-मेल भेजने वाले भी जिम्मेदारी लेने से बच रहे हैं और चिपलूनकरजी भी, बिना किसी के मांगे, बिना किसी के कहे, अपने मनपसन्द खानसामे की, अपनी मनपसन्द 'डिश' जमाने को परोस रहे हैं और उसकी जिम्मेदारी लेने से बच रहे हैं । दोनों में आखिर फर्क ही क्या है ?
मेरी बात को पढते समय यह याद रखने का उपकार कीजिएगा कि मैं चिपलूनकरजी की बातों पर कोई टिप्पणी नहीं कर रहा हूँ । वह तो मैं उनके चिट्ठे पर ही कर चुका हूँ । मैं उस मानसिकता पर अपनी असहमति जता रहा हूँ जो इस प्रस्तुति में मुझे अनुभव हुई है । मैं भली प्रकार जानता हूँ कि मेरी बातें न तो अन्तिम हैं और न ही सर्वमान्य ।
मेरी चिन्ता के केन्द्र में समूची 'चिट्ठा विधा' है और उसी की चिन्ता करते हुए, अपनी सम्पूर्ण सदाशयता से यह 'प्रलाप' किया है । चिपलूनकरजी यदि इसे खुद के खिलाफ मानें तो यह मेरे दुर्भाग्य के सिवाय और कुछ नहीं होगा - वे मुझे क्षमा कर दें ।
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