नासमझी का सुख
हम अतीत की मरम्मत नहीं कर सकते । इसलिए समझदारी इसी में है कि उसे केवल यादों के झरोखों से ही देख जाए, उसे वर्तमान से जोड़ने की मूर्खता कर हम दुखी ही होंगे । यही सबक लेकर मैं अपने जन्म नगर मनासा से लौटा ।
एक विवाह में शरीक होने के लिए, पत्नी और नवोढ़ा बहू के साथ मनासा गया था । नगर प्रवेश के लिए टैक्सी ने जैसे ही मोड़ लिया, मैं तनिक अधीर हो उठा । मेरा हायर सेकेण्डरी स्कूल इसी रास्ते पर है । उसे देखने की अजीब सी अकुलाहट मन में ऐसे फूटी जैसे मूसलाधार बरसात के दौरान जंगल में बाँस का कोई अंकुर चट्टान का सीना फाड़ कर धरती पर उग आता है ।
जैसे-जैसे स्कूल पास आता जा रहा था, वैसे-वैसे मन विविधवर्णी होता जा रहा था । लग रहा था कि मैं टैक्सी में हूँ तो जरूर लेकिन वस्तुतः वहाँ हूँ ही नहीं । वहाँ होकर भी न होने की ऐसी अनुभूति मेरे लिए पहली बार थी सो अनूठी और अव्यक्त थी । मैं अपने हृदय की धड़कन की ‘धक्-धक्’ साफ-साफ सुन पा रहा था । कानों में सीटियाँ बजने रही थीं और शरीर पर मानो चींटियाँ रेंग रही थीं । ‘बेभान’ होने की यह दशा लगभग वैसी ही थी जैसी कि, राजस्थान-मालवा के गाँव-खेड़ों में देवी-देवता के ‘भाव’ आने वालों की दिखाई देती है ।
लेकिन यह क्या ? मेरी तन्द्रा भंग हो गई । टैक्सी अस्पताल को पार कर रही थी जबकि स्कूल तो अस्पताल से पहले था ! स्कूल कहाँ चला गया ? मैं ने टैक्सी रुकवाई और ड्रायवर से कहा - गाड़ी पीछे लो । पिछली सीट पर बैठी पत्नी की आँखें में उठा सवाल जबान तक नहीं आया । मेरे कहने पर ड्रायवर ने गाड़ी रिवर्स में ही ली, धीरे-धीरे । स्कूल फिर से निकल न जाए इसलिए आँखों को, जोर देकर खुली रखनी पड़ी । स्कूल बिल्डिंग कहीं नजर नहीं आ रही थी । ऐसे में, स्कूल के ‘गेट’ ने सहायता की । वह मानो ‘जीवाष्म’ बन कर खड़ा था - लगभग वैसा का वैसा जैसा कि मैं 1964 में छोड़ कर आया था ।
गाड़ी रूकवाई लेकिन नीचे उतरने की हिम्मत नहीं हुई । गेट की, लगभग पचीस-तीस फीट की चैड़ाई भर स्कूल नजर आ रहा था । सुन्दरता के लिए की गई टेड़ी-मेढ़ी घड़ावट वाले पत्थरों के डग्गरों के कुल जमा दो खम्भे ही नजर आ रहे थे । उनके पीछे आठ-दस फीट की चैड़ाई वाले बरामदे पर सुवाखेड़ा के चैकोर पत्थरों का फर्श साफ-साफ नजर आ रहा था और उसके बाद थी, पीडब्ल्यूडी द्वारा पोते गए चूने की सफेदी वाली दीवार । बस । इससे अधिक कुछ भी नहीं ।
मैं हतप्रभ था । यह तो मेरा स्कूल नहीं है ! ‘मेन गेट’ से कोई सौ-सवा सौ कदमों से पार किया जाने वाला मैदान और उसके बाद स्कूल का भवन । सब कुछ, मेंहदी की ऊँची बागड़ से घिरा हुआ । ऐसा लगता था, भूरे-मटमैले पत्थरों वाले खम्भों वाला बरामदा, बरामदे पर चढ़ने के लिए सीढ़ियाँ और स्कूल भवन मानो मेंहदी के पौधों की हरी-हरी फुनगियों के आधार पर टिके हुए हों । सड़्क के दूसरे किनारे से मुझे मेरा स्कूल किसी परी महल जैसा दिखता था । यह अलग बात थी कि वहाँ परियों के बजाय रूखा पाठ्यक्रम पढ़ाने वाले अध्यापक होते थे जिनमें से कुछ को हम बहुत चाहते थे थे तो किसी से बहुत ज्यादा चिढ़ते, घबराते और डरते थे । स्कूल का खेल मैदान इतना लम्बा-चैड़ा कि सारे मैदानी खेल एक साथ आयोजित कर लिए जाएँ । इस मैदान को समतल करने और उसे साफ-सुथरा बनाने के लिए बीसियों बार पूरे स्कूल के बच्चे लगा दिए जाते थे । यह मैदान हमें अपनी सम्पत्ति लगता था । लेकिन जब सजा के तौर पर इस मैदान का एक चक्कर लगाना पड़ता तो यही सम्पत्ति हमें दुखदायी लगती थी ।
लेकिन, स्कूल के मेन गेट के ठीक सामने खड़ी टैक्सी में से कुछ भी नजर नहीं आ रहा था । न तो मैदान, न किसी कमरे की खिड़की । स्कूल का, मुख्य सड़क वाला पूरा हिस्सा दुकानों से ढँका हुआ था । अजीब बात यह थी कि इन दुकानो में कापी-किताबों की दुकान अपवादस्वरूप ही थी । मैं अपना स्कूल देखना चाह रहा था, वहाँ की गई शरारतें, धृष्टताएँ, गेदरिंग की रोशनियाँ, प्राचार्य के खिलाफ निकाले गए जुलूस, वाद-विवाद प्रतियोगिताओं के लिए दिन-रात रट कर तैयार किए गए भाषण और उन पर बजती तालियों की आवाजें सुनना चाह रहा था लेकिन मुझे नजर आ रहे थे रेडीमेड शर्ट, जीन्स, साड़ियाँ, टाप, बरमूडा और सुनाई पड़ रही थी दुकानदारों-ग्राहकों द्वारा किए जा रहे मोल-भाव, आती-जाती बसों, कारों, फटफटियों के इंजनों की गुर्राहटें और हार्नों की, पिघलते सीसे जैसी आवाजें ।
मैं अकबका गया । कुछ भी सूझ नहीं पड़ रहा था । मेरी दशा, खिलौनों की दुकान के सामने खड़े उस बच्चे जैसी हो गई थी जो यह देखकर हताश था कि दुकान में उसके मनपसन्द खिलौने के सिवाय बाकी सारे खिलौने हैं । लग रहा था मानो मेरा सब कुछ लुट गया है या फिर जिस देवता से मैं सब कुछ माँगने आया था वह देवता ही मेरे सामने विवश-मूक खड़ा है । इतना विवश कि मुझसे अपनी असहायता भी व्यक्त नहीं कर पा रहा है । मेरी साँसें घुटने लगी थीं । मुझे रूलाई आ रही थी लेकिन ‘समझदारी’ आड़े आ रही थी । कुदरत और समझदारी के संघर्ष में दम इतना घुटने लगा था मानो मेरे प्राण ही निकल जाएँगे । मुझे कुछ भी सूझ नहीं पड़ रहा था । मेरी कल्पना का इन्द्रधनुष गुम था ।
या तो मेरा ध्यानाकर्षित करने के लिए या फिर सचमुच में किसी वाजिब वजह से ड्रायवर ने एक्सीलरेटर पर दाब बढ़ाकर रेज दी । एंजिन की, अचानक तेज हुई गुर्राहट ने मेरी तन्द्र भंग की । ऐसा लगा, एंजिन ही जीवित है और टैक्सी में बैठे हम सब निर्जीव । मेरे मँह से निकला ‘चलो । गाड़ी बढ़ाओ ।’ तीन शब्दों वाले ये दो वाक्य मानों किसी गहरे कुए की तलछट से, तैरते-तैरते मुँडेर पर आए थे ।
विवाह में शरीक होकर मैं लौट तो आया लेकिन मन अब तक स्कूल की तलाश में वही, सड़क पर खड़ा है । मेरा दिल वहीं है लेकिन दिमाग मुझ पर हँस रहा है । पूछ रहा है - ‘स्कूल वैसा का वैसा ही नजर आता तो क्या कर लेते ?’ कोई जवाब नहीं सूझ रहा इस सवाल का । जवाब नहीं मिले तो ही अच्छा है । क्या पता, जवाब और अधिक पीड़ा दे जाए ।
जीवन का आनन्द नासमझी में अधिकता से लिया जा सकता है । समझदार की मौत है ।
विष्णु जी आपके इस अनुभव को पढ़के अतीत में बहुत पीछे चले गये । मुझे याद है बहुत सालों बाद पिता के साथ अपने पैतृक गांव लौटे थे । बस गांव वाले उस स्कूल से सामने से गुजरती थी और पापा की उत्कंठा देखने लायक थी । वो खिड़की से झांककर एक नजर अपने स्कूल को देख लेना चाहते थे । फिर उन्होंने इतनी इतनी बातें बताईं अपने बचपन की-- जो उन्होंने पहले कभी नहीं बताईं थीं ।
ReplyDeleteसच यही है कि अब विकलता के साथ पैतृक गांव लौटना चाहता हूं । फिर से वो सब देखने के लिए
आह.. यूनुस भाई की पोस्ट पढ़ने के बाद बड़ी मुश्किल से बचपन की यादों से उबरने लगे थे, आपने एक बार फिर से स्कूल के दिन याद दिलवा दिये।
ReplyDeleteमैं भी जब भी गाँव जाता हूँ कोशिश करता हूँ कि एक बार स्कूल को देख आऊं क्या अब भी वह १९८८ में त्जा वैसा ही होगा?
पर हिम्मत ही नहीं होती।
बहुत ही बढ़िया पोस्ट..