उन्होंने अनुचित का समर्थन किया


नीमच जाने के लिए मैं इन्दौर-उदयपुर रेल में यात्रा कर रहा था। मन्दसौर में ‘उन्हें’ अपने डिब्बे में चढ़ता देख तबीयत खुश हो गई। ‘वे’ मेरे आदरणीय तो हैं ही, समूचे मालवांचल के ख्यात और सुपरिचित पत्र लेखक हैं। कोई दिन ऐसा नहीं जाता जब ‘उनका’ कोई न कोई पत्र, किसी न किसी अखबार में न छपता हो। ‘वे’ लोहिया के परम् भक्त, प्रखर समाजवादी और गाँधी के अनुयायी हैं। देश के मौजूदा सारे संकटों का हल ‘वे’ गाँधी में ही अनुभव करते हैं। अनुचित सहन करना ‘उनके’ स्वभाव में नहीं रहा। नौकरी करते हुए ऐसे पचासों मौके आए जब अनुचित के प्रतिकार के कारण ‘उनकी’ नौकरी पर बन आई। ऐसे प्रत्येक अवसर पर ‘उनके’ मित्रों, शुभ-चिन्तकों ने ‘उनकी’ सहायता की। ‘उनके’ प्रशंसक वे लोग भी हैं जिनकी मुखर और मुक्त-कण्ठ आलोचना ‘वे’ करते रहते हैं। हर कोई जानता है कि ‘उनकी’ शब्दावली कैसी भी हो, ‘उनकी’ नियत में खोट नहीं है।


मैं लपक कर दरवाजे तक गया और ‘उन्हें’ लिवा लाया। अपनीवाली बर्थ पर बैठाया। वहाँ पहले हम तीन थे। अब चार बैठे थे। रेल हमारी अपेक्षा से अधिक देर तक मन्दसौर स्टेशन पर खड़ी हुई थी। ‘अरे वाह! खूब मिला! कैसा है? घर में सब राजी-खुशी तो हैं?’ से ‘उन्होंने’ बात शुरु की। औपचारिकता तो हम दोनों के बीच कभी रही ही नहीं। सो, जितनी सहजता से रेल, पटरियों पर दौड़ती है, उससे भी अधिक सहजता से हम बातों में मशगूल हो गए। हमारी बर्थ पर बैठा दम्पति महू से आ रहा था और सामने बैठी माँ-बेटी, मेरे साथ ही रतलाम से बैठी थीं। सहयात्री दम्पति के जरिए ‘उन्होंने’ महू की अपनी यादें ताजा कर लीं। सामने बैठी युवती ने मुझे पहचान लिया। वे दोनों माँ-बेटी मेरे परिचित की बेटी और नातिन निकलीं। साइड बर्थ पर एक दम्पति अपने लगभग एक वर्ष के बेटे के साथ बैठा था।


हम सब सहज भाव से बातें कर ही रहे थे कि एक हिंजड़ा डिब्बे में घुस आया और पठानी वसूली की मुद्रा और शैली में भीख माँगने लगा। हम लोगों ने ध्यान नहीं दिया तो वह जोर-जोर से तालियाँ बजा-बजा कर, वसूली के लिए चिल्ला-चिल्ला कर बोलने लगा। एक तो हमारी चर्चाओं में व्यवधान, दूसरे उसका दादागिरीवाला तरीका तीसरा उसका लगातार चिल्लाना और तालियाँ बजाना, सब कुछ मुझे असहज करने लगा। मैंने उसे आगे जाने को कहा तो वह मुझे हड़काने लगा। मुझे अच्छा नहीं लगा। मैंने कहा कि वह यदि नहीं हटा तो मैं पुलिस को आवाज लगाऊँगा। मेरी बात ने मानो उसकी ‘मर्दानगी’ को ललकार दिया। वह अपने हिंजड़ा होने की दुहाई देकर, कपड़े उठाकर नंगा होने की धमकी देने लगा। मुझे तैश आ गया। मेरी आवाज भी ऊँची हो गई। यह देख ‘वे’ मुझे समझाने लगे। मुझे हैरत हुई। लेकिन उनसे कुछ कहने के बजाय मैंने हिंजड़े से निपटने को प्राथमिकता दी। मेरी बातों के जवाब में वह और अधिक जोर से तालियाँ फटकारते हुए, चिल्ला-चिल्ला मुझे श्राप देने लगा। श्रापों की तो खैर मुझे कोई चिन्ता नहीं थी किन्तु उसकी हरकतों से मुझे और तैश आ गया। रेल यद्यपि स्टेशन पर खड़ी थी तदपि मैंने रेल रोकनेवाली जंजीर खींचने के लिए, उठकर, हाथ बढ़ाया किन्तु मैं छोटा पड़ गया। मेरा हाथ वहाँ तक पहुँचा ही नहीं। यह देख कर हिंजड़े को मजा आ गया। अब वह मुझे श्राप देने के साथ-साथ मेरी खिल्ली भी उड़ाने लगा। यह सब देख ‘वे’ घबरा गए। पकड़ कर मुझे बैठाकर मुझे समझाइश देने लगे कि मैं चुप रहूँ, हिंजड़े के मुँह नहीं लगूँ। तब तक साइड बर्थ पर बैठे दम्पति ने हिंजड़े को दस का नोट थमा दिया। हिंजड़ा उनके बेटे को असीसता हुआ और मुझे कोसता-श्राप देता हुआ वहाँ से चला गया।


उसके जाते ही ‘वे’ तनिक कुपित होकर फिर से मुझे समझाने लगे। समझा क्या रहे थे, मेरी सामान्य बुद्धि पर तरस खाते हुए मुझे प्रताड़ित ही कर रहे थे। मुझे हैरत हुई। मैंने जानना चाहा कि मेरी गलती क्या थी। ‘वे’ बोले कि मेरी गलती तो बिलकुल नहीं थी किन्तु ऐसे लोगों से बहस करने का क्या मतलब? मैंने पूछा कि हम दोनों (हिंजड़े में और मुझमें) में से अनुचित कौन था। ‘उन्होंने’ उत्तर दिया - ‘यह भी कोई पूछने, बतानेवाली बात है? अनुचित तो हिंजड़ा ही था।’ मैंने पूछा - ‘अनुचित का प्रतिकार कर मैंने कुछ गलत किया?’ ‘वे’ बोले - ‘बिलकुल नहीं।’ मैंने पूछा - ‘फिर आपने हिंजड़े का समर्थन क्यों किया?’ वे मानने को तैयार नहीं हुए कि ‘उन्होंने’ हिंजड़े का समर्थन किया। बोले - ‘मैं तो तेरी चिन्ता कर रहा था।’ तब मैंने तनिक क्रुद्ध होकर कहा - ‘आप ऐसा बिलकुल नहीं कर रहे थे। आप हिंजड़े को डाँटने, भगाने के बजाय उसके सामने ही मुझे समझा रहे थे। यह उसका समर्थन नहीं तो और क्या था?’ उन्होंने कुछ कहना चाहा किन्तु बोल नहीं पाए। पल भर बाद बोले - ‘तू मेरी बात समझ नहीं पा रहा है।’ मैंने तनिक कठोर हो कर कहा - ‘मैं तब भी आपकी बात भली प्रकार समझ रहा था और अभी भी समझ रहा हूँ। तब आप हिंजड़े की उपस्थिति में मेरे विरुद्ध उसका समर्थन कर रहे थे और अभी, उसके जाने के बाद उसके प्रतिनिधि बन कर मेरा विरोध कर रहे हैं। उसमें और आपमें क्या फर्क रहा? वह तो चला गया किन्तु आप अभी भी उसकी अनुचित हरकतों का समर्थन किए जा रहे हैं।’ इस बार वे चुप हो गए। उनके चुप होते ही सामने बैठी बच्ची अपनी माँ से बोली - ‘अंकल ने बिलकुल ठीक किया। पापा होते तो वे अंकल को सपोर्ट करते और उसे भगा देते।’ सुनकर उसकी माँ झेंप कर असहज हो गई।


रेल सरकी तो डिब्बे के हमारेवाले हिस्से में सन्नाटा छा गया। वातावरण भारी हो गया था। कोई, कुछ नहीं बोल रहा था। मैं साफ-साफ देख रहा था कि ‘वे’ मुझसे नजरें चुरा रहे थे। ‘उनके’ चेहरे पर अपराध-बोध छाया हुआ था। ‘उनकी’ आँखें नम हो आई थीं।


नीमच अभी कम से कम पचास किलोमीटर दूर था। याने, लगभग सवा-डेड़ घण्टे की यात्रा शेष थी। ‘ऐसे सन्नाटे, ऐसे भारीपन के साथ यह समय कैसे कटेगा?’ यह विचार मन में आते ही मुझे घबराहट होने लगी। मैंने तड़ाक् से पूछा - ‘आप चुप क्यों हैं?’ बड़ी मुश्किल से ‘वे’ बोले -‘तेरी बात सच है। किन्तु यह भी सच है कि मैं तेरी ही चिन्ता कर रहा था। नहीं चाहता था कि वह हिंजड़ा तेरे साथ हुज्जत करे। किन्तु तू इसे, हिंजड़े का समर्थन मान रहा है। तू भी गलत नहीं है। उसके बजाय तुझे रोक-टोककर उसका ही हौसला बढ़ाया मैंने। लेकिन अब यह हो तो गया है। अब क्या कर सकता हूँ?’


अपने आदरणीय पर मुझे दया आ गई। उनकी दशा देखकर और मनोदशा अनुभव कर मुझे रोना आ गया। बड़ी मुश्किल से खुद पर काबू कर बोला - ‘हिंजड़े ने मेरी फजीहत की उसकी मुझे कोई चिन्ता नहीं। सब जानते हैं कि वह गलत था और मैं सही। किन्तु आपने ही तो सिखाया है कि अनुचित का प्रतिकार करना चाहिए। ऐसा न करने पर हम खुद अनुचित करने के अपराधी बन जाते हैं। मैं आपकी सीख पर अमल कर रहा था और आप मुझे रोक रहे थे। मुझे हिंजड़े की हरकत अजीब नहीं लगी क्योंकि वह तो वही सब करने के लिए डिब्बे में आया था। किन्तु आप? आपने यह क्या किया? आपने वह किया जो आपने नहीं करना चाहिए था और वह तो किया ही नहीं जो आपने करना चाहिए था।’


मेरी बात ने मानो करण्ट का काम किया। वे चिहुँक कर बोले - ‘तेरा मतलब है, हिंजड़े ने तो अपना काम किया और मैंने अपना काम नहीं किया?’ मैं बोला - ‘मैंने शब्दशः तो ऐसा नहीं कहा किन्तु कहा तो यही है। यही मैं कहना भी चाहता था। आप मेरे आदर्श हैं और मेरे लिए यह मर्मान्तक पीड़ादायक है कि मेरा आदर्श अपने आचरण से स्खलित हुआ।’


‘वे’ फिर चुप हो गए। शेष यात्रा में उन्होंने बातचीत की तो अवश्य किन्तु उनकी आवाज की जिन्दादिली और खनक गायब थी। ऐसे बात कर रहे थे मानो बात न करने पर एक और अपराध कर लेंगे।


रेल नीमच पहुँची। ‘उन्हें’ स्टेशन के पास ही जाना था और मुझे शहर में। सो, हम लोगों ने स्टेशन पर ही एक दूसरे से विदा ली। मैंने नमस्कार किया। ‘उन्होंने’ मुझे असीसा और कहा - ‘पत्र लिखना।’ मैंने हाँ की मुद्रा में गरदन हिलाई और चल दिया। चार कदम भी नहीं चला था कि उन्होंने आवाज दी। मैं पलट कर उनके पास गया। वे बोलना चाह रहे थे किन्तु बोल नहीं पा रहे थे। अन्ततः, तनिक कठिनाई से, भर्राए गले से बोले - ‘तूने ठीक कहा। हिंजड़े ने अपना काम किया और मैंने अपना काम नहीं किया। माफ कर देना।’


और मैं कुछ कहता उससे पहले ही वे पीठ फेरकर, तेज-तेज कदमों से, मानों भागना चाह रहे हों, चले गए।


मुझे कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था। प्‍लेटफार्म का कोलाहल मानो ‘म्यूट’ हो गया हो। मुझे उनकी पीठ दिखाई दे रही थी।


और हाँ, उन्होंने अपनी बाँह से अपनी आँखें पोंछी, यह भी मैंने देखा।
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4 comments:

  1. मुझे लगता है कभी कभी अपना और उस का मोह हमें गलत की तरफ प्रोत्साहित करता है।

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  2. बड़ा बह कर लिखते हैं आप और बहा ले जाते हैं.

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  3. बहुत प्रेरक रहा यह संस्मरण. मेरा अनुभव भी यही है कि सत्य के मार्ग पर आने वाली किसी भी अड़चन से बचने के लिए लोग सही (और विनम्र/शालीन को रोकने/टोकने का) सहजमार्ग अपनाकर सत्य का सत्यानाश करते हुए भी अपनी "भले आदमी" की छवि पकड़कर बैठे रहते हैं.

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  4. आप की धाराप्रवाह शैली और विश्लेषण बहुत ही पसंद आता है।

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