यूलिप पॉलिसियों पर ‘सेबी’ और ‘इरडा’( भारतीय बीमा विनिमायक एवम् विकास प्राधिकरण अर्थात् आई आर डी ए) के बीच मचे द्वन्द्व में कौन सही है और कौन गलत, इससे परे हटकर, यूलिप पॉलिसियों की संरचना और इनकी सामाजिक-आर्थिक भूमिका पर विचार करने का यह ठीक प्रसंग और अवसर है।
बीमा क्षेत्र में निजी कम्पनियों के आगमन से पहले यूलिप पॉलिसियाँ इतनी प्रचारित और चर्चित नहीं थीं। तब केवल भारतीय यूनिट ट्रस्ट ही ‘यूलिप’ नाम से अपनी एक योजना बेचा करता था। किन्तु बीमा क्षेत्र में आई निजी कम्पनियों ने समूचा परिदृश्य ही बदल दिया। इन कम्पनियों ने भारतीय जीवन बीमा निगम द्वारा बेची जा रही पारम्परिक जीवन बीमा योजनाओं को परे धकेल पर यूलिप पॉलिसियों का बोलबाला कायम कर दिया। ‘यूलिप’ में निवेशित राशि दो भागों में बँटती है। एक भाग होता है जीवन बीमा प्रीमीयम वाला जो नाम मात्र का होता है। शेष बड़ा भाग स्टॉक मार्केट में निवेश किया जाता है। मोटे तौर पर ‘यूलिप’ पूरी तरह से स्टॉक मार्केट आधारित और केन्द्रित होती हैं। इन पॉलिसियों के इसी ‘चरित्र’ के आधार पर सेबी ने इन पर प्रतिबन्ध लगाया।
इन पॉलिसियों के निवेशित राशि पर बाजार की जोखिम सदैव हावी रहती है जिसे ग्राहक वहन करता है, बीमा कम्पनियों की कोई जवाबदारी नहीं रहती। वे तो ग्राहक से पैसा लेकर उसे उसकी ओर से बाजार में लगा देती हैं। किन्तु कम्पनियाँ यह काम मुत में नहीं करतीं। इस काम के लिए वे फण्ड प्रबन्धन शुल्क, पॉलिसी प्रबन्धन शुल्क, फण्ड आबण्टन शुल्क जैसे विभिन्न शुल्क ग्राहक से वसूल करती हैं। इसके अतिरिक्त एजेण्ट को दिया जाने वाला कमीशन और निवेशित रकम को एक फण्ड से दूसरे फण्ड में स्थानान्तरित करने (स्विच ओव्हर) का शुल्क भी ग्राहक की जेब से ही जाता है। इनमें से कुछ शुल्कों की दर तो प्रति पॉलिसी के आधार पर होती है और कुछ की दर फण्ड की रकम के प्रतिशत के मान से। अधिकांश शुल्कों की रकम प्रथम वर्ष में सर्वाधिक, दूसरे और तीसरे वर्ष में उससे तनिक कम तथा चैथे वर्ष से लेकर शेष पॉलिसी अवधि तक उससे भी कम (अर्थात् सबसे कम) होती है। इसे यूँ समझा जा सकता है कि दस हजार रुपये निवेश करनेवाले ग्राहक की रकम में से पहले वर्ष लगभग तीन हजार रुपये काट लिए जाते हैं और शेष सात हजार रुपये ही निवेश के लिए उपलब्ध रहते हैं। ग्राहक दस हजार की गणित में रहता है जबकि वास्तविकता सात हजार की रह जाती है। जाहिर है कि ग्राहक की रकम में से प्रथम तीन वर्षों में सर्वाधिक कटौती होती है।
यूलिप पॉलिसियों के आक्रामक विपणन प्रचार के कारण, पॉलिसी शर्तों के मुताबिक न्यूनतम रकम निवेश करनेवाले औसत मध्यमवर्गीय लोग सर्वाधिक आकर्षित होते हैं। बीमा कम्पनियों के आँकड़े ही बता देंगे कि दस-दस हजार रुपये वाले निवेशक करोड़ों में और लाखों रुपये वाले निवेशक लाखों में होंगे। बीमा कम्पनियाँ जो आँकड़े प्रचारित करती हैं, वे लाखों के निवेशवाले होते हैं। दस-दस हजार रुपये लगानेवाला औसत मध्यमवर्गीय ग्राहक मान लेता है कि उसे बड़े ग्राहक के आनुपातिक लाभ मिलेंगे। वह रातों रात लखपति/करोड़पति बनने का सपना पाल लेता है। उस समय उसे पता ही नहीं होता कि विभिन्न शुल्कों के नाम पर उसके दस हजार रुपयों में से जितनी रकम काटी जाएगी, उतनी ही रकम एक लाख रुपये लगानेवाले ग्राहक से भी काटी जाएगी। इसके अतिरिक्त प्रति वर्ष बीमा प्रीमीयम भी काटी जाएगी जो निवेशक की बढ़ती उम्र के कारण प्रति वर्ष बढ़ती जाएगी। याने, स्टॉक मार्केट में लगाने के लिए छोटे निवेशक की रकम कम और बड़े निवेशक की रकम अधिक उपलब्ध रहेगी। इसी पेंच के कारण छोटा निवेशक सदैव मात खाता रहता है। बीमा एजेण्ट भी ग्राहकों को यह पेंच पूरी तरह नहीं समझाते। शायद वे खुद भी नहीं जानते हों। इस प्रकार यूलिप पॉलिसियाँ ‘पैसा पैसे को खींचता है’ पाली लोकोक्ति को ही साबित करती हैं।
किसी भी पॉलिसी को तीन वर्ष बाद बन्द कर ग्राहक अपना पैसा वापस ले सकता है। बीमा एजेण्ट इस स्थिति को अतिरिक्त आकर्षण के रूप में प्रस्तुत करते हैं। ग्राहक को लगता है कि उसे तो कुल तीन वर्ष तक ही रकम जमा करनी है। तीन वर्ष पूरे होते ही जब वह अपनी रकम लेने पहुँचता है तो उसके पैरों से जमीन खिसक जाती है जब उसे मालूम होता है कि उसे उसकी मूल रकम भी नहीं नहीं मिल पा रही है। प्रथम तीन वर्षों की शुल्क कटौती इतनी अधिक होती है कि ग्राहक की मूल पूँजी भी उसे मिल जाए तो गनीमत। वस्तुतः यूलिप पॉलिसियों का पूर्ण लाभ लेने के लिए ग्राहक को 6 से 9 वर्ष की अवधि का धैर्य रखना चाहिए। किन्तु इन पॉलिसियों की बिक्री ही तीन वर्षों की अवधि बताकर की जाती है। जबकि यूलिप पॉलिसियों का आधारभूत ‘फण्डा’ होता है - अपेक्षित लाभ लेने के लिए अधिक रकम, अधिक समय तक रखें और धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करें।
बीमा कम्पनियों को और सरकार को यूलिप पॉलिसियाँ सदैव ही अनुकूल रहती हैं। चूँकि सारी जोखिम ग्राहक ही वहन करता है सो कम्पनियाँ बेफिक्र रहती हैं। वे अपना स्थापना खर्च (अधिकारियों/कर्मचारियों के भारी भरकम पेकेज की रकम, वेतन-भत्ते) निकालने के बाद वाला लाभांश ही ग्राहक को देती हैं। इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि इन कम्पनियों के अधिकारियों/कर्मचारियों के लाखों के पेकेज का भुगतान दस-दस हजार रुपये लगानेवाले छोटे निवेशक करते हैं। सरकार भी इन पाॅलिसियों को भरपूर प्रोत्साहित करती है क्यों कि इन पॉलिसियों का पैसा स्टाॅक मार्केट में लगता है और हम देख रहे हैं कि 1991 से लागू की गई ‘एलपीजी’ वाली हमारी आर्थिक नीतियाँ केवल बाजार को पोषित-पल्लवित कर रही हैं और बाजार पर ही निर्भर हैं। गोया, ‘धनवान अधिक धनवान और गरीब अधिक गरीब’ की अवधारण के तहत पूरे देश को बाजार में बदलने की सरकारी नीतियों का खर्चा देश के छोटे निवेशकों से वसूल किया जा रहा है।
यूलिप पॉलिसियों के लाभ-हानि का आकलन करने पर स्थिति बहुत उत्साहित करनेवाली नहीं लगती। इनके छोटे निवेशकों को लाभ कम और नुकसान अधिक मिलते दिखाई देते हैं। ये लोगों को रोतों रात लखपति बनने का सपना दिखाकर उन्हें लालची, सट्टेबाज और अकर्मण्य बनाती दिखती हैं। इनका सबसे बड़ा नुकसान यह है कि ये बीमा की मूलभूत अवधारण को ही निरस्त करती हैं जो कि किसी भी बीमा कम्पनी की प्रारम्भिक, मुख्य और एकमात्र गतिविधि होनी चाहिए। तीन वर्ष बाद अपनी रकम निकालने के लालच में ग्राहक बीमा सुरक्षा से वंचित हो जाता है। जब वह नई पॉलिसी लेता है तो उसकी उम्र बढ़ जाने के कारण उसकी बीमा प्रीमीयम भी बढ़ जाती है और तीन साल बाद पॉलिसी बन्द करने के क्रम के चलते एक स्थिति यह आ जाती है कि ग्राहक को बीमा मिलना ही सम्भव नहीं रह जाता।
तीन वर्ष बाद पॉलिसी बन्द कराने की सुविधा का उपयोग बीमा कम्पनियाँ प्रायः ही अपने पक्ष में करती रहती हैं। उनके पास पूरा रेकार्ड रहता है कि किस ग्राहक की पॉलिसी को तीन वर्ष पूरे हो रहे हैं। वे अपने एजेण्टों को ऐसे ग्राहकों के पास भेज कर उन्हें प्रेरित करती हैं कि ग्राहक अपनी मौजूदा पॉलिसी बन्द कर यही पैसा किसी नई यूलिप योजना में लगा दे। पॉलिसी की संरचना और चरित्र से अनजान ग्राहक अपने एजेण्ट पर भरोसा कर वैसा ही कर लेता है। ऐसे में कम्पनी को न तो नया ग्राहक मिला और न ही नया निवेश किन्तु उसकी बिक्री के आँकड़े बढ़ गए और एजेण्ट को पूरा कमीशन मिल गया। ग्राहक को तो पता ही नहीं चलता कि वह इस खेल में आर्थिक मोहरे के रूप में प्रयुक्त कर लिया गया है। बीमा क्षेत्रों में इसे ‘रिसायकलिंग’ (पुनर्निवेश) कहा जाता है। यदि इन कम्पनियों से आँकड़े लिए जाएँ तो मालूम पड़ेगा कि अस्सी प्रतिशत यूलिप पॉलिसियाँ इस प्रकार ‘रिसायकल’ (पुनर्निवेशित)कर दी गई हैं।
यूलिप पॉलिसियों की बिक्री के लिए बीमा कम्पनियाँ केवल इरडा के अधीन ही रहें या उन्हें सेबी से भी पंजीयन लेना पड़ेगा, इससे परे हटकर इन पॉलिसियों के सामाजिक प्रभाव और लोगों को बीमित किए जाने की मूल अवधारणा के परिप्रेक्ष्य में अवश्य ही विशद् विवेचन किया जाना चाहिए।
-----
आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।
यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.
बहुत सार्थक लेख है। मुझे लगता है कि अधिकतर एजेन्ट वही करते हैं जो उनके व कम्पनी के हित में होता है। अधिकतर ग्राहक पॉलिसी को समझ ही नहीं पाते।
ReplyDeleteघुघूती बासूती