कल ‘उन्होंने’ अनायास ही श्रद्धेय शरद भाई (स्वर्गीय शरद जोशी) की बात याद दिला दी।
‘वे’ मेरे कस्बे के, मझौले स्तर के ठीक-ठीक व्यापारी हैं। लिखने-पढ़ने के शौकीन हैं। प्रबुद्ध श्रेणी में गिने जाते हैं। अखबारों में, सम्पादक के नाम उनके पत्र नियमित रूप से छपते रहते हैं। भाजपा और राष्ट्रीय स्वयम् सेवक संघ के समर्थक हैं, सो उनके लगभग सारे के सारे पत्र, काँग्रेस, काँग्रेसी मन्त्रियों और काँग्रेसी सरकारों के विंसगत, विरोधाभासी आचरण, जन-विरोधी निर्णयों आदि पर केन्द्रित होते हैं। यह सम्भवतः उनकी ‘प्रतिबद्धता आधारित मानसिकता’ के अधीन ही होता है कि प्रतिपक्ष की जो बातें उन्हें अनुचित लगती हैं, अपनों की वे ही बातें उनसे अनदेखी रह जाती हैं। जैसे कि काँग्रेसी अगुवाईवाली मौजूदा केन्द्र सरकार और काँग्रस शासित किसी राज्य सरकार की जो बात उन्हें जन विरोधी लगती है, भाजपा शासित राज्य सरकार की वही बात उन्हें वाजिब लगती है। किसी काँग्रेसी नेता की जो बात उन्हें देश के लिए घातक लगती है, भाजपा नेता की वही बात उन्हें राष्ट्र-हित लगती है। मेरे कस्बे के पत्र लेखकों में उन्होंने अपना अलग स्थान बनाया हुआ है। दुकानदार-व्यापारियों से जुड़े, श्रम-कानूनों, गुमाश्ता कानून जैसे कुछ महत्वपूर्ण कानूनों पर उनकी अच्छी पकड़ है-किसी ‘विषय विशेषज्ञ’ जैसी। दुकान-व्यापारियों से जुड़ी व्यावाहारिक और वास्तविक समस्याओं/उलझनों पर केन्द्रित उनके पत्र, कुछ अवसरों पर, दुकानदारों और जिला प्रशासकीय तन्त्र के लिए ‘मध्यस्थ’ की तरह, परिणामदायी-उपयोगी साबित हुए हैं।
पूर्व सूचना देकर कल वे मिले तो तनिक असन्तुष्ट और दुःखी थे। उन्हें शिकायत थी कि वे इतने पत्र लिखते हैं, जनहित से जुड़े इतने मुद्दे उठाते हैं लेकिन कोई बात ही नहीं करता। और तो और, खुद उनकी पार्टी के लोग ही उनदेखी करते हैं। धन्यवाद और बधाई देना तो दूर, यह तक नहीं कहते कि उनका कोई पत्र आज फलाँ अखबार में छपा है। चूँकि वे सक्रिय राजनीति या कि पद प्राप्ति की दौड़ में नहीं हैं इसलिए वे किसी के लिए नुकसानदायक बिलकुल नहीं हैं। ऐसे में, अपनी इस अनदेखी, उपेक्षा से वे न केवल चकित अपितु आहत, क्षुब्ध, खिन्न, आक्रोशित और उत्तेजित थे। वे मुझसे जानना चाहते थे कि उनके साथ ऐसा क्यों हो रहा है। मुझे आश्चर्य हुआ। हम दोनों भली प्रकार जानते हैं कि हम दोनों परस्पर स्थायी असहमत हैं।
उनकी ‘व्यथा-कथा’ का पूर्वानुमान मुझे था तो सही किन्तु उनकी पूरी बात सुनने से पहले कुछ भी कहना मुझे उचित नहीं लगा। सुनकर लगा, उन्होंने वही सब कहा जो मैं पहले से ही न केवल जानता था अपितु उनसे अधिक तथा उनसे बेहतर जानता था। मैंने अधिकार भाव से कहा कि अपनी इस (दुः)दशा के लिए वे ही जिम्मेदार हैं। यदि उनका लेखन, अपनी राजनीतिक वैचारिकता के प्रति समर्पण भाव से किया गया सेवा-अनुष्ठान है तो उन्होंने किसी प्रशंसा, शाबासी की अपेक्षा बिलकुल नहीं करनी चाहिए। जिनकी वे आलोचना कर रहे हैं, जो उनसे असहमत हैं, वे उनकी प्रशंसा भला क्यों करेंगे? और उनकी पार्टी के लोगों के हिसाब से वे नया और अनोखा कुछ भी नहीं कर रहे हैं। वही तो कर रहे हैं जो एक पार्टी-सेवक को करना चाहिए! इसलिए वे आपका नोटिस नहीं लेंगे और इसीलिए न तो धन्यवाद देंगे और न ही प्रशंसा करेंगे। लोगों पर भी उनकी बातों का असर इसलिए नहीं होता कि वे जानते हैं कि आपने क्या लिखा है और क्यों लिखा है। लोग जानते हैं कि आपने लोगों की चिन्ता में नहीं, अपने विरोधियों की आलोचना करने के लिए यह सब लिखा है। आप जब पक्ष बन जाते हैं तो न केवल प्रतिपक्ष अपितु खुद आपका ही पक्ष आपकी उपेक्षा करेगा। सार्वजनिक स्वीकार, प्रशंसा, सराहना केवल निरपेक्ष जन पक्षधरता को ही मिल पाती है और उसके लिए भी भरपूर समय लगता है।
मेरी बात सुनकर वे कुछ नहीं बोले। हाँ, मेरी बातों का प्रतिवाद भी नहीं किया। चुपचाप सुनते रहे। चुपचाप चाय पी। और चुपचाप ही लौट भी गए। अन्तर केवल इतना ही रहा कि आए थे तब व्यग्र और मुखर थे। जाते समय गम्भीर, विचार मग्न और निःशब्द।
उनके जाते ही मुझे शरद भाई याद आए।
यह सम्भवतः सत्तर के दशक की बात होगी। उन दिनों लेखकीय प्रतिबद्धता को लेकर देश व्यापी बहस चली थी। उसी दौर में किसी पत्रकार ने, इस मुद्दे शरद भाई से उनकी राय पूछी थी। अब, इस समय मुझे शब्दशः तो सब कुछ याद नहीं किन्तु तब शरद भाई ने कुछ ऐसा कहा था कि उनकी प्रतिबद्धता केवल लिखने के प्रति है। लिखने के बाद जब लोगों के सामने जाएगा तब लोग खुद ही उनके (शरद भाई के) लेखन की प्रतिबद्धता समझ भी जाएँगे और तय भी कर लेंगे। उनका काम केवल लिखना है। यह तय करके नहीं लिखना है कि वे किसके लिए, किसके पक्ष में, किसके विरोध में लिख रहे हैं। जो बात लिखने के लिए बेचैन कर दे, वह बात लिखनी ही है।
शरद भाई ने आज मुझे अचानक ही हमारे एक बड़े संकट का कारण समझा दिया। हमारे बुद्धिजीवियों की बातें इसीलिए असरकारी नहीं हो रही हैं। सबके सब अपनी-अपनी प्रतिबद्धता के अधीन बात कर रहे हैं। निरपेक्ष भाव तिरोहित होता लग रहा है। कोई बुद्धिजीवी कुछ कहे, उससे पहले ही उसकी बात का अनुमान हो जाता है। लगता है, मानो प्रत्येक समन्दर खुद को तालाब बना रहा है। उनकी कथनी और करनी का अन्तर इस संकट को और अधिक विकराल तथा गम्भीर बनाता है। वे सपेक्षिक रह कर निरपेक्ष प्रतिसाद चाहते हैं। ‘खोटी मुद्र्रा, अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है’ वाला अर्थशास्त्र का नियम हमारे बुद्धिजीवियों पर भी तो लागू नहीं हो गया? सापेक्षिक बुद्धिजीवियों ने हमारे निरपेक्ष बुद्धिजीवियों को नेपथ्य में तो नहीं धकेल दिया? परिदृष्य पर सक्रिय और मुखर बुद्धिजीवी हमें रास्ता दिखाते अनुभव नहीं होते। उन पर, उनकी बातों पर विश्वास करने का साहस नहीं होता।
नहीं जान पा रहा कि मैं ठीक सोच रहा हूँ या नहीं। किन्तु कल से मुझे शरद भाई याद आ रहे हैं। बहुत याद आ रहे हैं। वे होते तो वही कहते जो आजकी जरूरत है।
सच कहा आपने, हम प्रभावित अवश्य रहते हैं, पर बद्ध न रहें। अपना स्वतन्त्र लेखन ही प्रतिबद्धता रहे।
ReplyDeleteव्यंग्य लेखन का यह योद्धा भाषा के मैदान में शब्दों का सार्थक खेल प्रतिदिन खेलता रहा . साहित्य के अखाड़े में भले ही कुछ आयोजकों ने परहेज किया हो लेकिन उस एकलव्य ने कभी किसी प्रतियोगिता में उतरने की चाह नहीं रखी. जहाँ भी विसंगति का कुत्ता भोंकता नजर आया उसने अपना तरकश खाली कर दिया. नए शब्द, नए मुहावरे गढने की ललक उनमे सदैव दिखती रहीआज हमारे बीच शरद जी नहीं हैं इसीलिए हमें भ्रष्टाचार के कारण मंत्रियों के जेल जाने की प्रक्रिया तथा जेल जाने पर अचानक ह्रदय रोग होने की बीमारी के लिए उचित शब्द नहीं मिल पा रहे हैं. शरद जी के बाद व्यंग्य में भी नए शब्दों के निर्माण पर मंदी की छाया स्पष्ट दिखाई दे रही है.
ReplyDeleteआपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार 22/1/13 को राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी आपका वहां स्वागत है
ReplyDelete‘खोटी मुद्र्रा, अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है’ वाला अर्थशास्त्र का नियम हमारे बुद्धिजीवियों पर भी तो लागू नहीं हो गया? सापेक्षिक बुद्धिजीवियों ने हमारे निरपेक्ष बुद्धिजीवियों को नेपथ्य में तो नहीं धकेल दिया? परिदृष्य पर सक्रिय और मुखर बुद्धिजीवी हमें रास्ता दिखाते अनुभव नहीं होते। उन पर, उनकी बातों पर विश्वास करने का साहस नहीं होता।
ReplyDeleteबैरागी भाई साहब अब आपकी लेखनी में फिर वही धार दिखलाई पड़ रही है आनंद आ गया
ऐसा ही हो रहा है और जमकर हो रहा है
ReplyDeleteये 'शरद ऋतु' में हमको यूं 'शरद' का याद आना,
ReplyDelete'प्रतिबद्ध' जो नही था , उस मरद* का याद आना, [*मर्द]
मधु मक्खियों का हमने निस्वार्थ रूप देखा,
उस परोपकारिता ही के शहद का याद आना .
http://aatm-manthan.com
कुछ परिणाम की अपेक्षा मे लिखा गया लेख स्वांत दुखाय /सुखाय होता है । सब शरद भाई नही हो सकते ।
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