......हम नहीं, बेकवर्ड तो आप हो

आज मुझे एक उलाहना मिला। इस उलाहने ने मेरे जाले झाड़ दिए। 

मैं खुद को प्रगतिशील मानता, कहता हूँ और यथासम्भव तदनुसार ही व्यवहार करने की कोशिश भी करता हूँ। किन्तु अवचेतन में जड़ें जमाए बैठी ग्रन्थियाँ शायद ही निर्मूल हो पाती हों। मैं भी इसका शिकार निकला और रंगे हाथों पकड़ा गया।


इन्दौर के सान्ध्य दैनिक ‘प्रभातकिरण’ का यह समाचार पढ़िए। मुझे यह अत्यधिक प्रेरक और प्रभावी लगा। मैं, भा. जी. बी. नि. अभिकर्ताओं के संगठन ‘लियाफी’ (लाइफ इंश्योरेंस एजेण्ट्स फेडरेशन ऑफ इण्डिया) का काम भी देखता हूँ। मैंने, पहली फरवरी की सुबह, मेरी शाखा के अभिकर्ताओं के वाट्स एप ग्रुप पर इस समाचार की कतरन लगाई और अभिकर्ता साथियों का आह्वान किया - ‘इन आदिवासियों से सीखो! बचना है, अपना हक हासिल करना है तो एकजुट रहो और एक साथ, एक बात बोलो।’

मेरा  सन्देश बहुत पसन्द किया गया। खूब प्रशंसा हुई। मुझे दूर-दूर से खबरें मिलीं कि अभिकर्ताओं के अनेक ग्रुपों में इसे साझा किया गया है। दो-एक दिन मैं इसी प्रशंसा की गुनगुनी धूप का आनन्द लेता रहा। लेकिन आज मुझ पर ओले बरस गए।

अपराह्न कोई तीन बजे मेरा मोबाइल घनघनाया। कोई अनजान नम्बर था। मैंने ‘हेलो’ किया। जवाब में नमस्कार के उत्तर के साथ जवाब आया - ‘सर! आप मुझे नहीं जानते। मैं भी आपको नहीं जानता। लेकिन आपका नाम खूब सुना है। जिस ग्रुप में मैं हूँ उसमें आपके ब्लॉग भी पढ़े हैं। बहुत अच्छे लगते हैं। लेकिन सर! आज आपका एक मेसेज पढ़ा तो मेरे मन में जो आपकी इमेज थी वह टूट गई। आप भी दूसरे लोगों की तरह बस बातें ही अच्छी करते हो। आप भी सर! दकियानूस ही हो।’ मैं अचकचा गया। काटो तो खून नहीं। उसकी बात खत्म होने से पहले ही मैं पस्त हो गया। हिम्मत करके पूछा - ‘आप कौन हैं? कहाँ से बोल रहे हैं? मैंने ऐसा क्या कर दिया?’ उसने जवाब दिया - ‘सर! आपके पड़ौस के झाबुआ जिले का हूँ। भील हूँ और ग्रेजुएट हूँ। मुझे नौकरी नहीं करनी। इसलिए एलआईसी की एजेंसी ली है। अभी दो वर्ष ही हुए हैं। बहुत छोटा एजेण्ट हूँ। लियाफी के बारे में सुना है और सुना है कि आप लियाफी के बड़े नेता हो। लेकिन सर! आज आपका वो इन आदिवासियों से सीखो वाला मेसेज देखा तो बहुत दुःख हुआ। अच्छा नहीं लगा सर। आप भी हम आदिवासियों को नासमझ, नादान ही समझते हो। आप हमें बेकवर्ड, बेवकूफ समझते हो। लेकिन ऐसा नहीं है सर! हम नासमझ, नादान, बेवकूफ नहीं हैं। आपने हम लोगों को दूर से ही देखा है और अखबारों, मैगजिनों में छपी बातों के सिवाय और कुछ नहीं जाना है। आप कभी हम लोगों के पास, हमारे बीच बैठो सर! हमसे बात करो, हमारी बात सुनो तो आपको मालूम होगा कि बेकवर्ड हम नहीं, आप लोग हो सर!’ 

वह मुझे बोलने का मौका नहीं दे रहा था। उसकी बात सुनते-सुनते मैं अपने सन्देश की इबारत याद करने की कोशिश करता रहा। मैंने टोका - ‘मैंने अपने मेसेज में आदिवासिों के बारे में ऐसा तो कुछ नहीं लिखा जैसा कि तुम कह रहे हो।’ तनिक भी विचलित, उत्तेजित हुए बिना वह बोला - ‘हर बात लिखी थोड़े ही जाती है सर? कई बातें तो बिना लिखे ही कह दी जाती हैं। अपने एक ब्लॉग में आपने ही लिखा है सर कि बिटविन द लाइन्स काफी कुछ कह दिया जाता है जिसे पढ़ा जाना चाहिए। मैंने आपके इस मेसेज में वही बिटविन द लाइन्स पढ़ा है सर।’ मैं हकला गया। मेरे बोल नहीं फूट रहे थे। मैं कुछ भी कहूँ, सच तो वही है जो उसने कहा था। अपने सन्देश में मैंने आदिवासियों को परोक्षतः नासमझ, नादान ही तो कहा था! मैंने घिघियाते हुए कहा - ‘मेरा इरादा ऐसा कुछ भी नहीं था भाई! यह सच में बिलकुल अनजाने में हो गया। मैं माफी माँगता हूँ। लेकिन आपने अब तक अपना नाम नहीं बताया।’ उसकी आवाज में ‘विजेता’ की खनक आ गई। बोला - ‘नाम क्या बताना सर! रतलाम से दो घण्टे की दूरी पर हूँ। आता-जाता रहता हूँ। अगली बार आऊँगा तो आपसे जरूर मिलूँगा। लेकिन आपने जिस तरह से फौरन माफी माँग ली सर, उसकी मुझे उम्मीद नहीं थी। आप उतने भी खराब नहीं हैं जितना मैंने वह मेसेज पढ़ कर मान लिया था। जल्दी ही मिलूँगा सर! थैंक्यू। नमस्ते।’ और उसने फोन बन्द कर दिया।  मैं कई क्षणों तक फोन कान से लगाए रहा। शायद फिर से उसकी ‘हेलो’ सुनाई पड़ जाए। लेकिन नहीं। वह फोन वास्तव में बन्द कर चुका था।

मैं संज्ञा शून्य की दशा में आ गया था। धीरे-धीरे अपने आसपास की दुनिया में लौटा तो सबसे पहले मुझे, यादव सा’ब के ‘अन्नपूर्णा दाल बाटी भण्डार’ पर काम करनेवाला वह आदिवासी युवक याद आया जो एक अपराह्न यह कह कर छुट्टी पर गया था कि उसे एक दाह संस्कार में उसके गाँव जाना है। यादव सा’ब ने मान लिया था कि अब वह अगले दिन नहीं आएगा। लेकिन वह रोज की तरह अगली सुबह, दुकान पर हाजिर था। यादव सा’ब ने पूछा तो उसने बताया कि दाह संस्कार रात को ही हो गया। रुक कर क्या करता? इसलिए सुबह लौट आया। यादव सा’ब ने पूछा - ‘रात को? सूर्यास्त के बाद तो मुर्दा नहीं जलाते!’ वह युवक बोला था - ‘वो तो आप लोग नहीं जलाते। हमारे तड़वी (मुखिया) का कहना है कि सूरज तो कभी अस्त नहीं होता। वो तो अटल है। अपनी धरती उसके सामने से हट जाती है। इसलिए रात हो जाती है। इसलिए हमारा सूरज तो बारहों महीने, सातों दिन, चौबीसों घण्टे उजासमान रहता है।’

इसके साथ ही साथ मुझे, यादव सा’ब की दूसरी दुकान,
‘शंकर स्वीट्स’ पर काम कर रहा ईश्वर सिंगाड़ याद आ गया। वह पास ही के गाँव में रहता है। अपनी ग्राम पंचायत का उप सरपंच भी रह चुका है। बात अभी-अभी ही की है। मल मास चल रहा था। मेरे कस्बे में त्रिवेणी मेला चल रहा था। उसने कहा कि वह अगले दिन काम पर नहीं आएगा। उसे एक विवाह में शरीक होने जाना है। विवाह त्रिवेणी मेले में ही होनेवाला था। मैं वहीं बैठा था। मैंने टोका - ‘मल मास में तो विवाह नहीं होते!’ ईश्वर ने सहज भाव से कहा - ‘हमारे में मल मास नहीं होता। हम तो इसी महीने में माँडा (विवाह) करते हैं और त्रिवेणी के मेले में ही करते हैं।’ मैंने पूछा - ‘त्रिवेणी मेले में ही क्यों?’ ईश्वर ने जवाब दिया था - ‘वो इसलिए बाबूजी कि यहाँ हमें कुछ नहीं करना पड़ता। सब कुछ तैयार, रेडीमेड मिलता है। लम्बा-चौड़ा मैदान, खूब सारे लोग, भोजन-भण्डारे की व्यवस्था। चाहे जितने लोग आओ, सबके लिए भोजन की व्यवस्था। हम लोग फालतू प्रपंच में नहीं पड़ते। हमें पण्डित भी नहीं चाहिए। हमारे यहाँ दूल्हे का जीजा माँडा करा देता है। दोनों तरफ के लोग आ जाते हैं। पाँचों पकवान जीमते हैं और हो गया माँडा।’ मैं और यादव सा’ब एक दूसरे का मुँह देखने लगे थे।

आज के उलाहने के चाबुक ने ये दोनों घटनाएँ याद दिला दी और याद आते ही मुझे मानना पड़ा कि ‘उसने’ सच ही कहा था। मैं अभी-अभी अपने छोटे बेटे का विवाह निपटा कर बैठा हूँ। यादव सा’ब के कुटुम्ब में एक विवाह दस्तक दे रहा है। मुझे क्या-क्या खटकरम नहीं करने पड़े? यादव सा’ब के यहाँ अभी विवाह की तारीख तय नहीं है लेकिन वे ही नहीं, उनका पूरा कुटुम्ब अभी से व्यस्त हो गया है। 

एक के बाद एक, बातें मन में आ रही हैं। एक जाती नहीं कि दूसरी आ धमक रही है। इस सबके बीच ‘उसकी’ आवाज कानों में गूँज रही है - ‘...... बेकवर्ड हम नहीं, आप लोग हो सर!’ 

मेरे अनजान, अनाम दोस्त! तुमने सच कहा। ‘बेकवर्ड’ तुम नहीं, हम ही हैं। बिना विचारे कही अपनी बात के लिए मैं माफी माँगता हूँ। केवल तुम से नहीं, तुम्हारे पूरे समुदाय से। तुम जल्दी रतलाम आओ। मुझसे मिलो ताकि मैं यह सब तुमसे रु-ब-रु कह सकूँ।
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यह सन्‍देश दिया था मैंने, अभिकर्ताओं के अपने वाट्स एप ग्रुप पर।

10 comments:

  1. सच जानने के लिये सही दृष्टि भी आवश्यक है - बिना किसी पूर्वाग्र के.


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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (17-02-2017) को "कूटनीति की बात" (चर्चा अंक-2883) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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    1. मेरी इस बात को आगे बढ़ाने के लिए कोटिशः धन्यवाद।

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  3. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन दादा साहेब फाल्के और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  4. खुशकिस्मत हैं आप!

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  5. बहुत ही उम्दा लेख प्रस्तुत किया.

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  6. Bahut hi behtareen post likhi hai.

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