.............. राजा माँगे ईमानदार प्रजा

विभिन्न देशों को, भारत सरकार द्वारा दिए उपहारों का ब्यौरा बताने से सरकार ने इंकार कर दिया है। कारण?  इससे उन देशों के साथ हमारे सम्बन्ध खराब हो सकते हैं। गोया, दुनिया के देश, भारत की प्रेमिकाएँ हैं जो अपनी सौतन को मिले उपहार से जल-भुन कर हमसे बेवफाई कर लेंगे। यह जानकारी ‘सूचना के अधिकार’ के तहत माँगी गई थी। इस तर्क की हकीकत समझी जा सकती है। लेकिन सरकार की अपनी सोच है। जरूरी नहीं कि लोगों की सोच और सरकार की सोच एक जैसी हो। लेकिन ऐसे इंकार लोगों की जिज्ञासा और बढ़ा देते हैं। 

सरकार ने ऐसा इंकार पहली बार नहीं किया। प्रधान मन्त्री की विदेश यात्राओं के खर्च का ब्यौरा देने से भी इंकार कर दिया। क्योंकि यह खर्च उजागर करना देशहित में नहीं है। सरकारी यात्राओं के, एयर इण्डिया के कितने बिलों की कितनी रकम की देनदारी सरकार के माथे है, यह बताने से भी इंकार कर दिया गया। क्योंकि यह बताना व्यापक हितों के विरुद्ध होगा। यहाँ यह जानना महत्वपूर्ण है कि अत्यधिक आर्थिक भार से एयर इण्डिया की कमर टूटी जा रही है और इसी कारण सरकार इसके विनिवेश पर विचार कर रही है। कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकार की तरफ एयर इण्डिया की देनदारी इतनी हो कि यदि सरकार चुका दे तो एयर इण्डिया के विनिवेश की जरूरत ही नहीं रहे? 

अपने खर्चों का ब्यौरा देने में सरकारों की रुचि नहीं होती। वे इससे बचना चाहती हैं। मन्त्रियों-सांसदों के वेतन-भत्तों, उनकी विलासितापूर्ण सुख-सविधाओं, सरकार का पूरा खर्चा आम आदमी चलाता है। लेकिन उसे ही जानने का अधिकार नहीं कि उसकी कमाई का उपयोग कैसे हो रहा है। लेकिन हिसाब-किताब न देने की यह सुविधा जनसामान्य को नहीं है। वेतन भोगियों की आय तो सरकार की सीधी नजर में रहती है। उन्हें तो वित्तीय वर्ष पूरा होत-होते ही अपना पूरा-पूरा आय कर चुका देना होता है। उद्यमियों, व्यापारियों, व्यवसायियों के लिए भी अपने आय-व्यय का ब्यौरा देने और आय कर चुकाने के लिए समय सीमा निर्धारित है। इसका उल्लंघन करने पर न्यूनतम दण्ड का प्रावधान है। 

जीएसटी लागू होने के बाद व्यापार का भट्टा बैठ गया है। छोटे दुकानदार और असंगठित क्षेत्र के अनगिनत लोग बेकार हो गए हैं। छोटे और मझोले व्यपारियों के लिए व्यापार करना आसान नहीं रह गया है। इसी पहली अप्रेल से लागू हुए एक प्रावधान ने रोजमर्रा की कठिनाई और बढ़ा दी है। अब कोई भी व्यापारी एक दिन में दस हजार या उससे अधिक का नगदी लेन-देन नहीं कर सकता है। गैर व्यापारियों (याने ग्राहकों/उपभोक्ताओं) के लिए यह सीमा बीस हजार रुपये है। इसका मतलब यह हुआ कि यदि मैं अपने कस्बे से बाहर खरीददारी करता हूँ तो मुझे चेक देना पड़ेगा। बाहर का दुकानदार मेरा चेक स्वीकार करने की जोखिम उठाएगा या नहीं? याने ग्राहक/उपभोक्ता को अपने कस्बे/शहर में ही खरीददारी करनी है। मेरा कस्बा रतलाम सोने के आभूषणों के लिए विख्यात है। वैवाहिक तथा अन्य विभिन्न प्रसंगों के लिए आभूषण खरीदने के लिए, देश के कोने-कोने से लोग यहाँ आते हैं। पहले नगद खरीदी कर लेते थे। अब नहीं कर सकते। कोई ताज्जुब नहीं कि रतलाम के आभूषण व्यापार पर नकारात्मक असर हो। अन्य कस्बों/शहरों पर भी यह बात लागू होगी। याने, आम आदमी, उद्यमी, व्यापारी, व्यवसायी को अपनी साँस-साँस का हिसाब देना है,  आर्थिक सुस्पष्टता और पारदर्शिता बरतनी है। लेकिन इन सबके द्वारा चुनी गई सरकारें, अपने चयनकर्ताओं को अपना हिसाब देने को तैयार नहीं। 

मौजूदा व्यवस्था का रूपक यदि रचा जाए तो कह सकते हैं कि हमारी सरकारें (और राजनीतिक पार्टियाँ) पारम्परिक, देहाती महिलाओं की तरह, लम्बे, अपारदर्शी घूँघट में अपनी शकल छिपाए रखती हैं और शेष देश को पारदर्शिता बरतने का न केवल उपदेश देती हैं अपितु उस पर सख्ती से अमल भी कराती हैं।

हमारी राजनीतिक पार्टियों के चन्दे को ‘सूचना का अधिकार’ में शामिल करने के लिए अनेक समूह बरसों से लगे हुए हैं। लेकिन सारे राजनीतिक दल गिरोहबन्दी कर इसे असफल किए हुए हैं। मँहगे चुनाव भ्रष्टाचार का सबसे बड़ा कारण है। चुनाव लड़ने के लिए उम्मीदवारों की अधिकतम खर्च सीमा, लोक सभा के लिए सत्तर लाख रुपये और विधान सभा के लिए 28 लाख रुपये है। लेकिन मौजूदा चुनावी चलन में एक भी माई का लाल इस सीमा में रहकर चुनाव नहीं जीत सकता। चुने हुए लोग कभी-कभी उत्साह के आवेग में टीवी के पर्दे पर जो आँकड़े बताते हैं, वे सदैव ही करोड़ों में होते हैं। 

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफार्म्स (एडीआर) के एक अध्ययन के अनुसार 2014 के चुनावों में जीतकर सांसद बननेवालों ने 13,575 करोड़ रुपये खर्च किए। पार्टियों का और हारनेवालों का खर्च अलग है। सेण्टर ऑफ मीडिया के अध्ययन के अनुसार 2014 के लोक सभा चुनावों का कुल खर्च 30,000 करोड़ रुपये रहा। 

सरकारें और राजनीतिक दल अपना हिसाब देने से न केवल बचते हैं बल्कि बचे रहने के सुनिश्चित प्रावधान भी कर/करवा लेते हैं। अभी-अभी ऐसे ही दो प्रावधान सबने ‘प्रसन्नतापूर्वक मिलजुलकर’ किए हैं। पहला - इलेक्टोरल बॉण्ड। दुनिया में यह ऐसी पहली व्यवस्था है जिसमें सफेद धन को काले धन में बदलने की व्यवस्था की गई है। इसमें खरीदनेवाला चेक से खरीदेगा। यह खरीदी, खरीदनेवाले के खर्च में शामिल कर उसे आय-कर की छूट दी जाएगी। लेकिन यह बॉण्ड उसने किस पार्टी को दिया, यह जानकारी उसके सिवाय किसी और को नहीं होगी। यह बॉण्ड वह अपनी मनपसन्द पार्टी के बैंक खाते में सीधे जमा करवा सकता है, बन्द लिफाफे में पार्टी दफ्तर पहुँचा सकता है। पार्टी के लिए यह ‘गुप्त दान’ होगा - किसी के नाम की रसीद नहीं कटेगी। दूसरा - 1976 के बाद से मिले विदेशी चन्दे के बारे में किसी पार्टी से कोई पूछताछ नहीं की जा सकेगी।  ये दोनों प्रावधान ईमानदारी, शुचिता, नैतिकता, पारदर्शिता जैसे नैतिक मूल्यों को ठेंगा भी दिखाते हैं और उनकी खिल्ली भी उड़ाते हैं। ताज्जुब की बात तो यह कि इसके बाद भी तमाम नेता भ्रष्टाचार समाप्त करने का बीड़ा उठाते हैं।

पार्टियों को मिली ऐसी छूटें सारे गड़बड़झाले की जड़ हैं। सब कुछ साफ-सुथरा बनाने के लिए लॉ कमीशन ने 2015 से दो सुझाव दे रखे हैं। पहला - तमाम राजनीतिक दल अपना ऑडिटेड हिसाब पेश करें जिसे सीएजी भी जाँच सके। दूसरा - यदि 20,000 रुपयों से कम चन्दे की कुल रकम, बीस करोड़ रुपयों से अधिक हो तो इस रकम का स्रोत अनिवार्यतः बताया जाए। पार्टियाँ भला ऐसे आत्मघाती सुझाव कैसे मान लें? 

यह सब देख-देख कर कहने को जी करता है कि अपनी प्रजा को सम्पूर्ण रूप से ईमानदार बनाने में लगा राजा खुद ईमानदार बनने बनने को तैयार नहीं।

स्कूली दिनों में ‘फूलो का फ्राक’ शीर्षक कहानी पढ़ी थी। कम उम्र फूलो की सगाई कर दी जाती है। उसे निरन्तर समझाया जाता है कि ससुराल के लोगों से पर्दा करे। अपना चेहरा न दिखाए। एक दिन उसके ससुरजी, बिना खबर दिए, अचानक ही आ जाते हैं और अचानक ही फूलो उनके सामने आ जाती है। समझाइश का पालन करते हुए फूलो फ्राक उठाकर अपना चेहरा छुपा लेती है। यह देख ससुरजी हो-हो कर हँसते हुए उसे गोद में उठा लेते हैं।

कहानी की फूलो तो बाल सुलभता में फ्राक उठाकर चेहरा छुपाती है। लेकिन हमारी सरकारें और पार्टियाँ खूब सोच-समझ कर, सीनाजोरी से अपनी-अपनी फ्राकें उठा रही हैं। फूलो लिहाज पाल रही थी। ये सब लिहाज नहीं पाल रहे। अपनी निरावृतता बता रहे हैं। लोग भौंचक हैं और ये गर्व कर रहे हैं।
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‘सुबह सवेरे’, भोपाल, 05 अप्रेल 2018

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (06-04-2017) को "ग्रीष्म गुलमोहर हुई" (चर्चा अंक-2932) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. सत्ता नशी हर सरकार की यही मज़बूरी रहती है । सत्ता नशी कोई भी जो,सबका कांग्रेसीकरण हो जाता है ।

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