पाप मन्त्री का, दण्ड राजा को

मेरे एक व्यंग्यकार मित्र अन्ध-समर्थकों से बहुत चकित होते, चिढ़ते और गुस्सा होते थे। उन्हें चुन-चुन कर विशेषणों और उपमाओं से विभूषित करते थे। फिर भी क्षुब्ध ही बने रहते थे। लम्बे समय बाद उन्हें समझ पड़ी कि गलती तो उन्हीं की थी। वे अन्ध समर्थकों से नाहक ही, विवेकवान व्यक्ति की तरह व्यवहार करने की अपेक्षा किए बैठे थे। अब वे उन पर न तो चिढ़ते हैं न ही गुस्सा होते हैं। चकित तो बिलकुल ही नहीं होते। आनन्द लेते हैं। हाँ, उपमाएँ और विशेषण देना जारी रखे हुए हैं। कुछ दिनों पहले तक वे उन्हें ‘मतवाले’ कहा करते थे। अब कुछ दिनों से ‘मसखरे’ कहते हैं।

मैंने टोका। मेरे तईं, ‘मसखरा’ का पर्याय ‘विदूषक’ और ‘जोकर’ है। मेरी जानकारी के अनुसार, मसखरा या विदूषक होना इतना आसान नहीं है। कोई बुद्धिमान, विवेकवान, प्रतिभावान व्यक्ति ही यह दरजा हासिल कर सकता है। विदूषकों को तो भारतीय राजदरबारों में जगह मिलती रही है। राज-विदूषक के नाम पर सबसे पहले गोपाल भाँड का नाम मन में उभरता है। वे, अठारहवीं शताब्दी में, नादिया नरेश कृष्णचन्द्र (1710-1783) के दरबारी थे। वे किसी की खिल्ली नहीं उड़ाते थे। हास्य और करुणा से सनी अपनी टिप्पणियों से न केवल राजा और दरबार का मनोरंजन करते थे अपितु नागरिकों के प्रति राजा और राज्य के उत्तरदायित्वों, उचित-अनुचित का भान भी कराते रहते थे। उनकी प्रतिभा और अनूठे विचारों के कारण राजा कृष्णचन्द्र ने उन्हें अपने नवरत्नों में शामिल किया था। गोपाल भाँड से जुड़ी अनगिनत लोक कथाएँ आज भी सुनी जाती हैं।

दूसरा नाम मुझे याद आया गोनू झा का। परिहास का पुट लिए प्रत्युत्पन्नमति या कि हाजिरजवाबी इनकी पहचान है। ये भी किसी की खिल्ली नहीं उड़ाते थे। अपनी और अपने नायक की प्रतिष्ठा, छवि की रक्षा और उसमें बढ़ोतरी इनका लक्ष्य होता था। ये दोनों काम प्रतिभा और कौशल से ही सम्भव होते हैं, अन्ध समर्थन से नहीं। मुझे नहीं पता कि ये राज दरबार में थे या नहीं। लेकिन मैथिली में कही-सुनी जानेवाली इनकी अधिकांश लोक कथाएँ मिथिला के राजा हरिसिंह से जुड़ी हैं। 

इनके बाद मुझे तेनाली राम याद आते हैं। इनका वास्तविक नाम तेनाली रामकृष्ण था। ये विजयनगर के राजा कृष्णदेव राय के दरबारी थे। किन्तु विदूषक या मसखरा नहीं थे। उद्भट विद्वान तेनाली राम को ‘विकटकवि’  कहा जाता था और ये राज दरबार के ‘अष्टदिग्गज’ कवियों में शामिल थे। लेकिन इनकी लोक पहचान ‘परिहास प्रिय संकटमोचक’ की बनी हुई है। राजा के अत्यधिक विश्वस्त और प्रिय पात्र होने के कारण अन्य दरबारी इनसे ईर्ष्या करते थे और इन्हें नीचा दिखाने, इनका रुतबा कम करने के निरन्तर प्रयास करते थे और मुँह की खाते थे। अपने राजा पर आए बौद्धिक, राजनीतिक संकट को दूर करने की जिम्मेदारी तेनालीराम ही उठाते थे। राजा कृष्णदेवराय और तेनाली राम की जोड़ी के किस्से सुनते हुए अकबर-बीरबल के किस्से बरबस ही याद आने लगते हैं।

अन्ध समर्थक और मसखरे या कि विदूषक में कोई साम्य तलाश करना समझदारी नहीं है। ‘मसखरा’ लोक रंजक की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभाता है। वह किसी की अवमानना नहीं करता। किसी को नीचा नहीं दिखाता, किसी का उपहास नहीं करता। अपने नायक के लिए यह सब करते हुए वह दो बातों का ध्यान रखता है। पहली - उसकी किसी भी बात या हरकत से उसके नायक की छवि, प्रतिष्ठा पर खरोंच न आए, कोई लोकोपवाद न हो। दूसरी - वह सदैव अपने नायक को सर्वोच्च वरीयता दे। ऐसा न हो कि वह खुद को नायक से आगे और नायक से बेहतर साबित करता लगे। अन्ध समर्थकों के लिए ये दोनों बातें अर्थहीन होती हैं। अपने नायक की प्रत्येक बात, प्रत्येक क्रिया का औचित्य साबित करने के लिए बिना सोचे-विचारे प्रतिक्रियाएँ देने लगते हैं। वफादारी जताने की होड़ में अंग्रेजी कहावत ‘मोअर लॉयल टू द किंग देन हिम सेल्फ’ (राजा के प्रति खुद राजा से भी अधिक वफादार) को साकार कर देते हैं। ऐसा करते हुए वे प्रायः ही अपने नायक को हास्यास्पद स्थिति में ला खड़े करते हैं। तब अन्ध समर्थक, अपने नायक के लिए बोझ बन जाते हैं।

बातें चल रही थीं। अचानक ही व्यंग्यकार मित्र ने पूछा - ‘ऐसे अन्ध समर्थक दरबारी बन जाएँं या बना दिए जाएँ तब?’ में अचकचा गया। इस सवाल के लिए बिलकुल ही तैयार नहीं था। अचानक ही मुझे देवाचार्य स्वामी राजेन्द्रदासजी महाराज याद आ गए। मैं और मेरी अर्द्धांगिनीजी उनके प्रवचन बड़े चाव से सुनते हैं। श्रीमतीजी धार्मिकता के अधीन सुनती हैं। मैं शब्द सम्पदा के लालच में। मुझे वे, एकमात्र ऐसे प्रवचनकार अनुभव हुए हैं जो ‘शब्द’ को महत्व देते हुए उसका वैयाकरणिक विवेचन करते हैं। कथा सन्दर्भों में उनकी विद्वत्ता और अध्ययन अद्भुत है। मानो, सारे ग्रन्थ उनके जिह्वाग्र पर विराजमान हैं। कोई भी सन्दर्भ या उद्धरण देने के लिए उन्हें निमिष भर भी विचार नहीं करना पड़ता। उनके श्रीमुख से सब कुछ सहजता और स्वाभाविकता से आता है।

इन्हीं राजेन्द्रदासजी महाराज की, ग्वालियर की एक रेकार्डिंग प्रसारित हो रही थी। प्रसंग तो याद नहीं आ रहा किन्तु बात ‘पाप-दण्ड’ से जुड़ी थी। स्कन्द पुराण के हवाले से राजेन्द्रदासजी महाराज ने गुरु, पति और राजा को मिलनेवाले पाप दण्डों का उल्लेख किया। शिष्य के पाप का दण्ड गुरु को भुगतना ही पड़ता है कि उसने अपात्र को शिष्य बनाया। पत्नी के पाप का दण्ड पति को भगुतना पड़ता है कि उसने पति (स्वामी) धर्म का निर्वहन नहीं किया और पत्नी को पाप कर्म की ओर प्रवृत्त होने की स्थितियाँ बनने दीं। मन्त्री के पाप का दण्ड राजा को भुगतना ही पड़ता कि उसने अयोग्य को मन्त्री बनाया। व्यंग्यकार मित्र से मैंने कहा - ‘राजेन्द्रदासजी महाराज के जरिए यदि स्कन्द पुराण की मानें तो ऐसे अन्ध समर्थक के दरबारी बन जाने या बना दिए जाने पर दण्ड का भागी खुद राजा ही होगा।’

मित्र को अब या तो आनन्द आने लगा था या वे मेरे मजे लेने के मूड में आ गए थे। पूछा - ‘चलो! ये तो समझ में आ गया। लेकिन यदि राजा, अपने ऐसे दरबारी को, ऐसा पाप कर्म करने के बाद भी दण्डित न करे। न केवल चुप रह कर उसे क्षमा कर दे, उसके पाप कर्म का समर्थन करे उल्टे उसे ऐसे पाप कर्म करने के लिए निरन्तर प्रोत्साहित करे तो?’ 

अब मेरी बोलती बन्द हो गई। यह तो राजा द्वारा खुद ही प्रत्यक्ष पाप कर्म करना हुआ! इस बारे में न तो राजेन्द्रदासजी महाराज ने कुछ कहा था न ही मैंने सोचा था। जवाब देने  की खानापूर्ति करते हुए मैंने कहा - ‘जब अपने मन्त्री के पाप कर्म का दण्ड उसे मिलेगा तो खुद के पाप कर्म का दण्ड तो उससे पहले मिलेगा ही! ’ मित्र ने चुटकी ली - ‘कितना?’ मैं क्या बताता? जवाब दिया - ‘मुझे नहीं मालूम। कभी राजेन्द्रदासजी महाराज के प्रत्यक्ष दर्शन का सौभाग्य मिला तो पूछूँगा।’ मानो मित्र को मुझ पर दया आ गई हो और वे मुझे गिरफ्त से छोड़ रहे हों, इस तरह बोले - ‘जरूर पूछिएगा और मुझे बताइएगा। आप पर मेरा कर्जा रहा।’

मित्र जाने के लिए उठे। मैंने कहा - ‘ईश्वर मुझे आपके कर्ज से मुक्त होने का अवसर दे। लेकिन ध्यान रखिएगा! अन्ध समर्थकों को मसखरा मत कहिएगा। यह मसखरों का अपमान है। कूढ़ मगज, बट्ठर दिमाग लोग मसखरे नहीं हो पाते। उसके लिए आदमी को सभ्य, सुसंस्कृत, शालीन, विवेकवान और विनम्र होना पड़ता है।’

वे मान गए। अन्ध समर्थकों को अब मसखरा नहीं कहेंगे।
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दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल, 03 मई 2018


4 comments:

  1. अन्ध समर्थक,अपने निर्णय को सही ठहराने के लिये और अधिक अन्ध भक्त हो जाते है । आसाराम और राम रहीम के भक्तों को कोर्ट कचहरी के निर्णय मान्य नहीं होते है ।

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  2. बिल्कुल सही कहा रवि।

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  3. एक बात तो निश्चित है कि अंध भक्तों के पास अक्ल का खजाना नही होता.
    इनकी अपनी सोच नही होती...राहत जी का एक शेर याद आया है कि

    "ये लोग पांव नहीं जेहन से अपाहिज हैं
    उधर चलेंगे जिधर रहनुमा चलाता है"

    आदमी के निजी विचार भी होने चाहिए
    स्वागत है आपका खैर 

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  4. शीघ्रतम अपनी पहचान बनाने और अमरबेल की तरह लाभान्वित होने वाले अंध भक्त बनते जिनका खुद का कोई वजूद नही होता ।

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