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‘बर्लिन से बब्बू को’ - चौथा पत्र: पहला हिस्सा


चौथा पत्र

बर्लिन से
21 सितम्बर 1976

प्रिय बब्बू,

सुखी रहो,

राम जाने तुम्हें मेरे पहले वालेे पत्र मिलेे भी होंगे या नहीं। मैं यही मानकर निरन्तर तुम्हें लिखता जा रहा हूँ कि मेरे सभी पत्र तुझे बराबर मिल रहे होंगे।


आज बर्लिन आये हम लोगों को पूरा हफ्ता हो गया है। इस हफ्ते में हम लोग बहुत व्यस्त रहे और बर्लिन को खूब घूम फिर कर देखा। आसपास के इलाकों में भी हम लोग गये और कई संस्थानों, संस्थाओं और कारखानों में हम लोग घूमते फिरते रहे, मिलते रहे और इस देश को निकट से देखते रहे। अब मेरे पास लिखने को बहुत है, तो भी मैं जानता हूँ कि मैं उतना सब नहीं लिख पाऊँगा जितना कि लिखा जाना चाहिये। इन पत्राेंं के द्वारा मेरा उद्देश्य इस देश के बारे में नीरस आँकड़े लिख कर किसी तरह का प्रचार करना नहीं है। मैं तो उन बातों पर विशेष जोर दे रहा हूँ जो लगती बहुत छोटी हैं पर जिनके अर्थ कहीं गहरे होते हैं। जैसे आज अठारह दिन हो गये हम लोगों ने इतने भ्रमण के बावजूद इस देश में एक भी बच्चा रोता हुआ नहीं देखा। एक भी कार, बस या ट्रक या ट्रेक्टर का हॉर्न नहीं सुना। भौंकता हुआ कुत्ता नहीं देखा, हाथापाई करते हुए आदमी नजर नहीं आए और व्यर्थ की बहस या निकम्मी गपशप किसी रेस्तराँ या चौराहे पर होते नहीं देखी। न कोई ऊलजलूल नारेबाजी, न कोई अनचाही भीड़, न कोई धक्का-मुक्की। ये सारी  बातें बहुत छोटी हैं पर किसी देश के चरित्र से इन बातों का बहुत गहरा सम्बन्ध है। काश! मैंने कहीं भी एक भी क्यू टूटता हुआ देखा होता। कोई आदमी क्यू को तोड़ने की कल्पना भी नहीं कर सकता। गलत जगह से सड़क पार करते हुए किसी को नहीं देखने पर हम लोगों को न जाने कैसा लगता रहा है। क्या तुम विश्वास करोगे कि इतना घूमने फिरने के बाद भी हम लोगों ने मुश्किल से दस महिलाएँ गर्भवती देखी होंगी? मेरे पाठक इस बात पर शायद मेरी आलोचना करेंगे कि मैं वहाँ क्या यही सब देखने  गया था? पर बब्बू! मुझे बहुत आनन्द हो रहा है यह लिखने में कि कितनी कम आबादी बाला देश होते हुए भी जी. डी. आर. परिवार नियोजन के प्रति बिना किसी आन्दोलन के अत्यन्त सजग है। अनावश्यक बच्चे पैदा करना इस देश की फितरत नहीं है।

सैक्स: शरीर की निकम्मी भूख नहीं

जब बात गर्भवती महिला की आती है तो मुझे यह लिखकर बहुत सुख मिल रहा है कि इस देश में ज्यों ही साढ़े तीन महीने से ऊपर का गर्भ हुआ कि उस महिला को एक विशेष तरह का वस्त्र पहनना होता है जो एप्रीन की तरह का होता है। दूर से ही पता चल जाता है कि सामने वाली महिला गर्भवती है। बात यहीं समाप्त नहीं होती। उस महिला को एक विशेष टोकन या कार्ड दे दिया जाता है, जिसे बताने मात्र से उसे फिर किसी क्यू में खड़ा नहीं होना पड़ता। वह भीड़ से बचायी  जाती है और सर्वत्र प्राथमिकता के आधार पर बैठने का स्थान पाती है। उसकी समुचित देखभाल का पूरा जिम्मा सरकार का होता है। जच्चा और बच्चा दोनों की सारी देखभाल डाक्टरों के जिम्मे हो जाती है। उसे भरपूर निर्वाह का पैसा मिलता है और जब बच्चा पैदा हो जाता है तो उसके साल भर बाद तक उसे पर्याप्त रुपया अपने खर्च के लिए घर बैठे मिलता रहता है। साल भर के बाद वह महिला इत्मीनान से अपने काम पर लौट सकती है और अपने पुराने स्थान पर निश्चिन्त होकर काम कर सकती है। लेकिन वहाँ इतने (आर्थिक) आकर्षण के बावजूद  बच्चे कम पैदा किये जाते हैं। एक गोष्ठी में मैने वहाँ के एक जिम्मेदार व्यक्ति से जब यह पूछा कि आखिर आपके देश में बच्चे कम क्यों पैदा किये जाते हैं? तो उन महाशय ने मुझे उत्तर दिया कि जब स्त्री और पुरुष सबेरे आठ बजे से रात को साढ़े आठ बजे तक कठोर परिश्रम करें और अत्यन्त व्यस्त दिनचर्या जियें तो बच्चा पैदा करने की शारीरिक स्थिति कैसी होती होगी, इसका अनुमान आप खुद लगा सकते हैं। बात मेरे गले उतर गई। सेक्स इस देश में विलास नहीं है, वह शरीर की निकम्मी भूख भी नहीं है।

यूसाडेल से बर्लिन लौटने के दिन हम एक ट्रेड यूनियन के दफ्तर में खाना खाने गये और जब उस ट्रेड यूनियन के विशाल हाली-डे-होम  में घूम रहे थे तब मैंने उसे एप्रीन के आधान पर पहचान लिया कि जो लड़की इस समय हमारी गाईड है, वह गर्भवती है। मैंने उससे पूछा कि आपको इससे पहले कितने बच्चे हैं, उसका निस्संकोच उत्तर था, जी यह मेरा पहला गर्भ है। मैंने और हमारे सभी मित्रों ने बारीकी से देखा कि इस प्रश्न और उत्तर के समय उसकी आॅंंख में कोई झिझक या व्यर्थ की लज्जा नहीं थी। वह सन्तुलित थी, पर उसका अतिरेक एकाएक उस समय फूट पड़ा, जब मैंने उससे कहा- आपके प्रथम पुत्र के जन्म के उपलक्ष में मेरा हार्दिक अभिवादन स्वीकार करें और यदि सम्भव हो तो उस बच्चे को पहला चुम्बन भारत की ओर से दें। मेरा यह कथन सुनते ही उसकी आँखें बरबस बह चलीं और वह सब कुछ भूल कर मुझसे लिपट सी गई। पहले गर्भ से उसे पुत्र होगा, यह शुभकामना मात्र ही उसके लिए आनन्ददायक थी। होता यह है कि हम दुभाषियों के माध्यम से बात कर रहे होते हैं, तब भावों का सम्प्रेषण, वाक्य समाप्त होते ही नहीं हो जाता है। पर माँ अन्ततः माँ होती है। नारी केवल नारी होती है। व्यवस्था और वातावरण उसकी कोमलता को नष्ट नहीं कर पाते। इसका प्रमाण यह छोटी सी घटना है। भगवान उस कन्या को पुत्र ही प्रदान करे।


3 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (11-07-2018) को "चक्र है आवागमन का" (चर्चा अंक-3029) पर भी होगी।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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  2. बेशकीमती पत्र हैं ये,धरोहर हैं। साझा करने हेतु सादर धन्यवाद।

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  3. बढ़िया पत्र. पर जर्मनी और यूरोप बहुत आगे निकल चुके हैं. हमारी बुनयादी ज़रूरते ही अभी पूरी नहीं हुई.

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