लोकतन्त्र का बीज और सार है लोगों के सवाल

पहले एक कथा।

ऋषि उद्दालक का बेटा श्वेतकेतु ज्ञान-क्षुधा ग्रस्त था। एक दिन ऋषि ने उससे वट वृक्ष का फल मँगाया। श्वेतकेतु फल ले आया। ऋषि ने कहा - ‘तोड़कर देखो और बताओ, इसमें क्या है?’ आज्ञापालन कर श्वेतकेतु ने कहा है - ‘बीज है।’ ऋषि ने कहा - ‘एक बीज तोड़कर देखो और परिणाम बताओ।’ श्वेतकेतु ने कहा - ‘कुछ भी नहीं।’ सुनकर ऋषि कहा - “जिस बीज में तुम्हें ‘कुछ नहीं’ दिखाई दे रहा है, उसी बीज से वह विशाल वट वृक्ष उगा है। यह, जिसे तुम ‘कुछ नहीं’ कह रहे हो, यह ‘कुछ नहीं’ ही सब चीजों का सार है। यही सर्वोच्च वास्तविकता है।”

इस कथा को यहीं छोड़िए। आगे काम आएगी। 

लोग अब खुलकर बोलने लगे हैं। अपने नेताओं से आमने-सामने हिसाब माँगने लगे हैं। सफाई में, बहाने बनाने में नेताओं को पसीना आने लगा है। वे रास्ते बदलने लगे हैं। पीछा छुड़ा कर भागने लगे हैं। जावद विधायक ओम प्रकाश सकलेचा को उनके मतदाताओं ने बोलने नहीं दिया। सवालों से पीछा छुड़ाने के लिए उन्हें भागना पड़ा। उनके ड्रायवर ने खेतों-मेड़ों के रास्ते गाड़ी निकाल कर उन्हें घर पहुँचाया। सकलेचा को अपने मतदाताओं से जान का खतरा नहीं था। उनके पास अपने मतदाताओं के सवालों के जवाब नहीं थे। वे लोगों को हाँकना चाह रहे थे और लोग हँकने को तैयार नहीं थे। मन्त्री बालकृष्ण पाटीदार को, रतलाम में, महिलाओं के सवालों का सामना करना पड़ा। वे बोलते रहे, महिलाओं ने एक न सुनी। वे लगातार अपनी बात कहती रहीं और सवाल पूछती रहीं। मन्त्री ने क्या कहा, यह अखबारों में नहीं छपा। केवल महिलाओं के सवाल छपे। ऐसे समाचार पढ़-पढ़कर लोग मजे लेते हैं। मुझे सन्तोष होता है। यह ‘देर आयद, दुरुस्त आयद’ है। जो काम पहले आम चुनाव के ठीक बाद से ही हो जाना चाहिए था, अब हो रहा है। बहुत देर से।

ऐसे तमाम मामलों को नेता, अपने विरोधियों की साजिश कह कर खारिज कर अपनी जग हँसाई कराते हैं।  सवाल पूछनेवाले लोग या तो सत्तारूढ़ पार्टी के ही कार्यकर्ता थे या पीड़ित जनसामान्य। इन्हें मन्त्री या अपने नेता से कोई निजी दुश्मनी नहीं थी। गुस्साए हुए ये तमाम लोग, अपनी समस्याओं से मुक्ति पाने की प्रतीक्षा से उकताए, नाउम्मीद हो चुके, निराश, हताश लोग थे। आश्वासनों के ‘चिर कौमार्य’ ने इनका धैर्य छीन लिया।

नेता और जनता का रिश्ता आज ‘भेड़ और गड़रिया’ बन कर रह गया है। गड़रिया हर पाँचवे बरस भेड़ों के पास जाता है। उन्हें ठण्ड में कम्बल देने का भरोसा दिलाता है। भेड़ें खुश हो कर, अगली भेड़ के पिछवाड़े में अपना सर गड़ाए, एक के पीछे एक, रेवड़ बन कर चल देती हैं। कम्बल बनाने के लिए गड़रिया उनकी ऊन कतरता है। कम्बल भी बनाता है लेकिन ये कम्बल भेड़ों को नहीं, चुनावी चन्दा देनेवाले अपने पूँजीपति रहनुमाओं को दे देता है। उसे पता है, भेड़ों को तो ऊन देनी ही है। उसे नहीं तो उसके जैसे किसी दूसरे गड़रिए को देंगी। इसीलिए वह भेड़ों के पास तब ही जाता है जब उसे ऊन की जरूरत होती है। नेता खुद को ‘जन सेवक’ कहता है और ‘जन सेवित’ की, विलासी जिन्दगी जीता है। 

अपने क्षेत्र की बलात्कृत अबोध बच्ची के हालचाल पूछने सांसद सुधीर गुप्ता इन्दौर अस्पताल जाते हैं। बच्ची का बाप निःशब्द, अवाक् स्थिति में उनके सामने खड़ा है। सुधीर के पास खड़े, इन्दौर के विधायक सुदर्शन गुप्ता उससे कहते हैं - ‘सांसदजी सुबह चार बजे चलकर तुम्हारे पास आए हैं। उन्हें धन्यवाद तो दे दो।’ लाचार बाप के बोल नहीं फूटते। वह हाथ जोड़ देता है। लेकिन सांसद सुधीर गुप्ता, विधायक सुदर्शन गुप्ता को औपचारिकता के नाते भी नहीं टोकते - ‘नहीं! ऐसा मत कहिए। ये मेरे मतदाता हैं। मैं इनका सेवक हूँ।’ चुप रहकर वे सुदर्शन गुप्ता से सहमति जताते हैं। अपेक्षा करते हैं कि मौत से जूझ रही अपनी बेटी को देख रहा वह असहाय बाप खुद को, सांसद के प्रति कृतज्ञ अनुभव करे। यह रिश्ता हो गया है आज नेता और मतदाता का!

सच तो यह है कि अपने मतदाताओं से नेता का सम्पर्क शून्यप्रायः हो गया है। आम आदमी अब ‘प्राणवान वोट’ से एक सीढ़ी नीचे उतर कर ‘वोट देनेवाली निष्प्राण मशीन’ में बदल गया है। नेता को अब उसकी परवाह नहीं। इसका छोटा सा प्रमाण यह है कि विभिन्न निकायों, संस्थाओं के लिए तो वह अपने प्रतिनिधि की नियुक्ति करता है (जहाँ नेता की और प्रतिनिधि की ‘झाँकी’ जमती है, दोनों का रौब जमता है) लेकिन अपने मतदाताओं से सम्पर्क के लिए किसी भी स्तर पर, किसी भी प्रतिनिधि की नियुक्ति नहीं करता। लोगों की क्या परवाह करना! वे तो हमेशा ही रोते-गाते रहते हैं।

लेकिन अब तस्वीर बदलती नजर आ  रही है। वह वही शकल ले रही है जो आजादी के बाद, अगले ही दिन से होनी चाहिए थी। बढ़ती शिक्षा, इससे उपजी सजगता, सूचना प्रौद्योगिकी के विस्फोट के चलते बढ़ती पारदर्शिता जैसी बातों के चलते अब सड़कछाप आदमी भी समझने लगा है कि नेता उसका वेतनभोगी प्रतिनिधि है, उसका मालिक, उसका भगवान नहीं। केवल  संस्कारवश ही उसे वह भगवान का दर्जा दिए बैठा है। नेता इसे ही सच मानने लगा है। आम आदमी सवाल पूछ कर, हिसाब-किताब माँग कर अपने नेता का यही भ्रम दूर करने लगा है। नेता को असुविधा होने लगी है। उसे उपदेश देने की, भाषण झाड़ने की आदत है। सवाल सुनने और जवाब देने की नहीं।

सतह का परिदृष्य चीख-चीख कर नेताओं को चेतावनी दे रहा है - ‘सम्हल जाओ! वर्ना कहीं के नहीं रहोगे।’ वह जमाना गया जब नेता बिना सोचे-विचारे कुछ तो भी बोल देता था, हवाई वादे कर दिया करता था और भूल जाया करता था। अब लोग याद ही नहीं रखते, उनके आडियो-वीडियो भी रखते हैं और जैसे ही नेता बात को टालने की या अपनी बात से पलटने की कोशिश करता है, आईना लेकर उसके सामने खड़े हो जाते हैं। नेता को शर्मिन्दा होना चाहिए। लेकिन नहीं होता। उल्टे, गुस्सा हो जाता है। 

यह सही समय है जब नेता और राजनीतिक दल अपनी गरेबान में झाँकें। वही वादे करें जिन्हें पूरा कर सकें। अपने बोले हुए पर कायम रहें। पलटी न मारें। इसके लिए उन्हें खुद या अपने जिम्मेदार प्रतिनिधियों के जरिए अपने मतदाताओं से जीवित सम्पर्क बनाए रखना पड़ेगा। लोगों की जरूरतें, उनकी मुश्किलें, उनकी आवश्यकताएँ जाननी पड़ेंगी। उन्हें अपने मतदाताओं से एक कदम आगे रहना पड़ेगा। 

यह काम पार्टियों को संगठन स्तर भी करना चाहिए। प्रतिपक्षी उन्हें आईना दिखाएँ, उससे पहले वे खुद ही अपने घर पर, अपने आदमी पर नजर रखें, उसे नियन्त्रित करें और उसे दुरुस्त करें। वे खुद ही अपना राजनीतिक ऑडिट करें। लोगों के सवालों पर खीझें, झल्लाए नहीं। उनके सवालों को खारिज नहीं करें। 

लोगों के जिन सवालों को ‘कुछ नहीं’, ‘फालतू की बातें’, विरोधियों की चाल’ कह कर खारिज किया जाता है वे सवाल ही हमारे लोकतन्त्र के जीवित, गतिशील और विकासशील होने का प्रमाण भी है और पोषक तत्व भी। ये सवाल ही हमारे लोकतन्त्र का विशाल वट वृक्ष हैं। बिलकुल वैसे ही जैसे कि ऋषि उद्दालक ने श्वेतकेतु से कहा था - “यह, जिसे तुम ‘कुछ नहीं’ कह रहे हो, यह ‘कुछ नहीं’ ही सब चीजों का सार है। यही सर्वोच्च वास्तविकता है।”

लोगों के सवालों से चिढ़िए मत! उन्हें धन्यवाद दीजिए। आभार और कृतज्ञता प्रकट कीजिए। उनके सवाल ही हमारे लोकतन्त्र का बीज, लोकतन्त्र का सार हैं।
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दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल, 12 जुलाई 2018

4 comments:

  1. Aapko padhna bada sukh dayak hota hai.

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  2. आलमपनाह! खतरनाक है, इस तरह/लोकतन्त्र में सवाल/ बचो!हर सवाल से बचो /रचो नया इंद्रजाल रचो!!

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