कमरे में दुनिया और बाजार में अकेलापन

कल शाम जब उपाध्यायजी से मिलने गया तब तक कल्पना भी नहीं थी कि मैं यह सब लिखूँगा। नहीं, ‘लिखूँगा’ कह कर ठीक नहीं कर रहा। यहाँ ‘लिखना पड़ेगा’ लिखना चाहिए था मैंने। अब दुरुस्त कर लेता हूँ - उपाध्यायजी से मिलने तक कल्पना भी नहीं थी कि यह सब लिखना पड़ेगा।

उपाध्यायजी याने डॉक्टर प्रोफेसर प्रकाश उपाध्याय। मेरे रतलाम की यशस्वी पहचानों में से एक। मृदुभाषी, सुरुचिसम्पन्न उपाध्यायजी जाने-माने साहित्यकार हैं। कबीर पर साधिकार बात करते हैं। मालवी लोक जीवन के गहरे जानकार। एक सरकारी कॉलेज के प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। अच्छे-भले सामाजिक प्राणी हैं। कस्बे की अधिकांश गतिविधियों में उनकी मौजूदगी नजर आती है। घर-गृहस्थी के काम-काज निपटाते हुए यदा-कदा, आते-जाते दीख जाते हैं। जो भी देखता है, मान ही लेता है कि उपाध्यायजी उसे ही देखकर मुस्कुरा रहे हैं। मेरा उनसे नियमित मिलना तो नहीं होता किन्तु उनके बारे में इधर-उधर से जानकारी मिलती रहती है। उनसे मिलने का कोई मौका छोड़ता नहीं। उनसे मिलना और बतियाना सदैव ही सुखकर होता है। जब भी उनसे मिलता हूँ, समृद्ध होकर ही लौटता हूँ।

अभी, तीन दिन पहले, शनिवार को सुभाष भाई जैन के यहाँ बैठा था।  ओमजी (उपभोक्ता न्यायालय के नामित
न्यायाधीश) भी बैठे थे। बातों ही बातों में ओमजी ने बताया कि उपाध्यायजी की एंजियोप्लास्टी हुई है। सुनकर अच्छा नहीं लगा। साधु पुरुषों को ऐसी यन्त्रणा झेलनी पड़े, यह सूचना ही अपने आप में यन्त्रणादायी होती है। विश्वास नहीं हुआ। उपाध्यायजी की जिन्दगी सीधी लकीर की तरह है - नियमित, संयमित, अनुशासित। भला उन पर ईश्वर की यह कुदृष्टि क्यों? उसी क्षण तय किया कि जल्दी से जल्दी उपाध्यायजी से मिलना है।

कल, सोमवार की शाम को उनके घर पहुँच गया। पहले फोन कर दिया था। दरवाजा उपाध्यायजी ने ही खोला। बिलकुल सहज, सामान्य। सदैव की तरह ताजादम। चेहरे पर वही मोहिनी मुस्कान। रोग, पीड़ा की छोटी सी खरोंच भी चेहरे पर नहीं। लगा, ओमजी ने गलत जानकारी दे दी या फिर मैंने ही कुछ गलत सुन लिया।

मैं अधीर था। खुद को रोक नहीं पाया। बैठते-बैठते ही पूछ लिया - ‘सच्ची में आपकी एंजियोप्लास्टी हुई है?’ उपाध्यायजी की हँसी बिखर गई। बोले - ‘बैठिए तो! बताता हूँ।’ उसके बाद उपाध्यायजी ने जो कुछ सुनाया, उसी के कारण मुझे यह सब लिखना पड़ा।

उपाध्यायजी ने बताया, मई 2018 की एक शाम वे अपने स्कूटर पर बाजार जा रहे थे। एक नौजवान ने टक्कर मार दी। बाँये कन्धे में फ्रेक्चर हो गया। इलाज शुरु हुआ। उसी दौरान एक रात घबराहट हुई। सीधे सरकारी अस्पताल पहुँचे। वहाँ समाधान नहीं हुआ। एक निजी अस्पताल पहुँचे। वहाँ भी समाधान नहीं हुआ। डॉक्टर सुभेदार साहब के यहाँ पहुँचे। उन्होंने जल्दी से जल्दी इन्दौर जाने की सलाह दी। इन्दौर मेदान्ता में पहुँचे। जाँच का निष्कर्ष निकला - एंजियोप्लास्टी करनी पड़ेगी। दो स्टेण्ट लगाए। कुछ दिनों बाद रतलाम लौट आए। जिन्दगी पहले ही संयमित, नियमित थी। इसलिए डॉक्टर के निर्देश-पालन के लिए अतिरिक्त कुछ नहीं करना पड़ा। अब सब सामान्य है। ठीक-ठीक चल रहा है।

सुनकर तसल्ली तो हुई लेकिन यह सूचना मुझ तक पहुँचने में दस महीने लग गए! इसी बात ने मुझे विचार में डाल दिया। उपाध्यायजी घर-घुस्सू आदमी नहीं हैं। लोगों से मिलना-जुलना उन्हें अच्छा लगता है। किसी समागम में शामिल होने का, लोकाचार निभाने का मौका नहीं छोड़ते। रतलाम बहुत बड़ा कस्बा नहीं। अधिकाधिक पन्द्रह मिनिट में कस्बे के एक छोर से दूसरे छोर पर पहुँचा जा सकता है। मैं बीमा एजेण्ट हूँ। लगभग दिन भर घर से बाहर रहता हूँ। मुख्य बाजार हो या दूर-दराज का मुहल्ला, कस्बे के हर हिस्से में मेरा आना-जाना होता ही है। रोज ही दस-बीस लोगों से मिलता हूँ। कई लोग ऐसे हैं जो मेरे और उपाध्यायजी के सम्पर्क क्षेत्र में समान (कॉमन) हैं। लेकिन उपाध्यायजी की यह जानकारी मुझे कहीं नहीं मिली! इसी बात ने मुझे चौंकाया और विचार में डाल दिया।

हम कहाँ आ गए हैं? क्या हो गए हैं? उपाध्यायजी के और मेरे, समान (कॉमन) परिचितों से बात करते हुए हमने कभी किसी अपनेवाले के बारे में बात करने की जरूरत ही अनुभव नहीं की! अपनी और अपने काम की बातें करते रहे! अपने मतलब तक ही सिमटे रहे! हमारी बातों में किसी तीसरे, ‘अपनेवाले’ का जिक्र आया ही नहीं! इण्टरनेट ने हमें, अपने घर में बैठे, बन्द कमरे में होते हुए भी सारी दुनिया से जोड़ दिया लेकिन घर से बाहर, दुनिया के बीच बैठकर भी हम अपने आप में ही रहने लगे! दुनिया अंगुलियों की पोरों पर आ सिमटी है। कोई भी सूचना हो, कुछ ही पलों में हर-एक के पास पहुँच जाती है। लेकिन उपाध्यायजी की यह सूचना, गाँव की गाँव में मुझ तक दस महीनों में पहुँची! यह एकान्त हमने बुना या हम अनायास ही इस एकान्त के शिकार हो गए?

उपाध्यायजी से मिल कर लौटे हुए मुझे लगभग सोलह घण्टे हो गए हैं। लेकिन यह विचार पीछा नहीं छोड़ रहा। इस समय भी, जब मैं यह सब लिखने को विवश हुआ और लिख चुका।
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