धर्म-शास्त्रधारी, ज्ञान सागर, विद्यावाहक का महाप्रयाण

सत्यमित्रानन्दजी नहीं रहे। 

सुबह-सुबह यही खबर सबसे पहले मिली। खबर मिलते ही मेरी यादों की पोटली खुल गई। बहुत ज्यादा तो नहीं लेकिन कुछ यादें हैं मेरी पोटली में। खट्टी-मीठी भी और कड़वी-कसैली भी।

यह सत्तर के दशक के शुरुआती बरस थे। मेरा कस्बा मनासा मानो ‘सत्यमित्रानन्दमय’ हो गया था। उनका आना भी त्यौहार होता था और जाना भी। लोग उमड़-घुमड़ कर उनकी अगवानी करते। उन्हें खूब सुनते और जब विदाई का दिन आता तो बिना किसी दुःख, क्लेश के, भरपूर आशावाद के साथ विदा करते - यह सोचते हुए कि जाएँगे नहीं तो फिर आएँगे कैसे? गोया उनकी विदाई हकीकतन उनकी अगली अगवानी की भूमिका होती थी। तब मनासा की आबादी कोई बारह-पन्द्रह हजार रही होगी। मुहावरों की भाषा में कहूँ तो मनासा के घर-घर में सत्यमित्रानन्दजी का चित्र लगा हुआ था जिस पर प्रतिदिन ताजा फूलों की माला चढ़ी नजर आती थी। वे घर-घर में पूजे जाते थे। मनासा के सैंकड़ों लोग उनके कण्ठी-बद्ध शिष्य थे जिनमें मेरे दादा-भाभी भी शरीक थे।

सत्यमित्रानन्दजी को देखना ही अपने आप में रोमांचक और उत्तेजक होता था। भरपूर कद-काठी, गोरा रंग, भव्य भाल, उन्नत ललाट, तीखी नाक, चमकती-लुभाती आँखें और इन सबको परास्त करती उनकी भुवन मोहिनी मुस्कान। हर किसी को लगता, स्वामीजी उसे ही देख कर मुस्कुरा रहे हैं। भगवा वेश में, हाथ में दण्ड धारण किए वे चलते तो पूरा मनासा उनके साथ चल रहा होता। लोग उनके चरण स्पर्श करना चाहते लेकिन उनका सस्मित प्रसन्न-वदन देखकर मानो मन्त्र-बिद्ध हो, पाँव छूना भूल, जड़वत खड़े रह जाते। सत्यमित्रानन्दजी का सम्मोहन पूरे कस्बे पर तारी रहता था। उनके प्रवचन सुनने के लिए लोग अपने हाथ के काम छोड़ कर चले आते थे। सत्यमित्रानन्दजी थे ही ऐसे। 

यह चित्र मनासा से श्री बृज मोहन समदानी के सौजन्य से मिला है। चित्र 18 फरवरी 2019 का है। श्री अशोक गुलाटी के घर पर लिए गए इस चित्र में बाँए से खड़े हुए कैलाश सोनी, प्रसन्न राघव शास्त्री, कुर्सी पर बैठे सत्यमित्रानन्दजी और खड़े हुए बृज मोहन समदानी। प्रसन्न राघव मेरा कक्षापाठी है। मैंने बरसों बाद प्रसन्न राघव की शकल देखी - इस चित्र के माध्यम से।

मैं उन दिनों हायर सेकेण्डरी का विद्यार्थी था। एक दिन हमें सूचित किया गया - ‘कल सत्यमित्रानन्दजी अपने स्कूल में आएँगे और विद्यार्थियों को सम्बोधित करेंगे।’ खबर सुनने के बाद सारे पीरीयड बिना किसी घोषणा के स्वतः ही निरस्त हो गए। पूरे स्कूल में मानो त्यौहार का उल्लास छा गया। 

अगला दिन बड़ी देर से आया।

हम सब बच्चे समय से बहुत पहले स्कूल पहुँच गए थे। उन दिनों ताम-झाम वाले सजीले मंच तो होते नहीं थे। ऐसी सभाओं के लिए तख्तों का चलन था। मझौले आकार का एक तख्ता सादगी से सजाया गया था। उस पर रेशमी शाल से ढकी एक कुर्सी लगी थी। सामने माइक। तख्ते के एक ओर अध्यापकों के लिए कुर्सियाँ लगी थीं और सामने बिछी दरी पर, स्कूल के हम तमाम छात्र बैठे थे। स्वामीजी के आगमन की प्रतीक्षा में हम सबके दिल बेतरह धड़क रहे थे। उस दिन हमें चुप रहने के लिए किसी भी अध्यापक को नहीं कहना पड़ा। हम सब मानो आवेशित (चार्ज्ड) हो, चुपचाप बैठे थे।

तय समय पर स्वामीजी आए तो हम सबकी साँसें रुक गईं। पलकों ने झपकने से इंकार कर दिया। स्वामीजी को ‘ज्यादा से ज्यादा’ देख लेने की कोशिश में हम सब घुटनों के बल उठंगे हो आए थे। हम सब उन्हें नख-शिख देख लेना चाहते थे ताकि बाद में शेखी बघार सकें - ‘मैंने स्वामीजी को सबसे ज्यादा देखा।’

हमारे प्रचार्य एस. डी. वैद्य साहब ने स्वामीजी का स्वागत किया। अपनी भावनाएँ प्रकट कीं और उद्बोधन के लिए स्वामीजी को आमन्त्रित किया। प्रभु स्मरण और गुरु नमन से स्वामीजी ने अपनी बात शुरु की। कहा कि वे तीस मिनिट बोलेंगे। उनकी बात सुनकर हमने उनके हाथों पर नजरें घुमाईं - घड़ी देखने के लिए। स्वामीजी ने घड़ी नहीं पहनी थी। हमें लगा, स्वामीजी खूब देर तक बोलेंगे। तीस मिनिट वाली बात उन्होंने केवल कहने के लिए कही होगी। 

स्वामीजी ने अपना उद्बोधन शुरु किया। उन्होंने किस विषय पर, क्या कहा, यह मुझे अब कुछ भी याद नहीं। केवल एक श्लोक याद रहा जिसमें उन्होंने ‘विद्यार्थी’ के लक्षण गिनवाए थे -

काक चेष्टा, बको ध्यानम्, श्वान निद्रा तथैव च।
अल्पाहारी, गृहत्यागी, विद्यार्थीनाम पंच लक्षणा।।

यह श्लोक मैंने पहली बार सुना था। मुझे, तब से लेकर अब तक, जब मैं यह सब लिख रहा हूँ तब तक, ताज्जुब है कि मुझे यह श्लोक कैसे याद रह गया। या तो स्वामीजी ने अपनी सम्पूर्णता से कहा होगा या फिर मैंने अपनी सम्पूर्णता से सुना होगा।

स्वामीजी को सुनना तो अनूठा अनुभव होता ही था लेकिन उन्हें बोलते हुए देखना अद्भुत अनुभव होता था। खनकती आवाज, सधा हुआ स्वर, सुस्पष्ट उच्चारण, संस्कृतनिष्ठ प्रांजल भाषा, मोतियों जैसी खनकती शब्दावली और मुक्ताहार जैसा वाक्य विन्यास। तिस पर, बोलने की गति ऐसी मानो वल्गा-मुक्त कुरंग अन्तरिक्ष में कुलाँचें भर रहा हो। वैसा धाराप्रवाह, विरल, अविराम वक्तव्य उसके बाद मैंने आज नहीं देखा-सुना। लगता था, साँस लेने की विवशता न हो तो स्वामीजी की आवाज रुके ही नहीं। स्वामीजी मानो स्वामीजी न रह कर ‘जबान के जादूगर’ हो गए थे जिसने वातावरण को सम्मोहन से ढक दिया हो। श्रोता भी निहाल और दर्शक भी निहाल।

इसी धाराप्रवहता में स्वामीजी ने अपना उद्बोधन समाप्त करने की सूचना देकर अपने प्रिय भजन ‘अब सौंप दिया इस जीवन का भार तुम्हारे हाथों में’ में सबको समवेत होने का आग्रह किया तो सबकी तन्द्रा टूटी। सबसे पहले हमारे प्राचार्य वैद्य साहब ने अपनी घड़ी देखी। उन्होंने अपनी घड़ी देखी और हम सबने उनकी चकित मुख-मुद्रा देखी। वैद्य साहब ने अपना बाँया हाथ उठाकर अपनी घड़ी के डायल का काच ठोक कर सबका ध्यानाकर्षित किया - सचमुच में तीसवें मिनिट में स्वामीजी ने अपना उद्बोधन पूरा कर दिया था। सब चकित थे।

इस उद्बोधन के बाद स्वामीजी के कुछ और प्रवचन सुनने के मौके मिले। उनका प्रत्येक श्रोता हर बार समृद्ध होकर ही लौटता था।

तब से लेकर अब मैं अपनी धारणाओं पर कायम हूँ कि, सत्यमित्रानन्दजी धर्म-शास्त्रधारी, ज्ञान सागर, विद्यावाहक थे। वे चुम्बकीय वक्ता और वशीकरण के सिद्धहस्त शिल्पी थे। समय पर उनका प्रभावी नियन्त्रण था। वे अद्भुत स्मरण शक्ति के धनी थे। मनासा के अपने प्रायः प्रत्येक अनुयायी को नाम और शकल से जानते-पहचानते थे और पहले नाम से ही सम्बोधित करते थे। 

पता नहीं, सत्यमित्रानन्दजी के अवसान की खबर का असर मनासा के लोगों पर क्या हुआ होगा। क्योंकि दलगत राजनीति की चपेट में आकर सत्यमित्रानन्दजी ने अपने अनेक शिष्य, अनुयायी खो दिए। स्थिति यह हुई कि उनके चित्र गटरों में नजर आए। ऐसे अमिट लोकोपवाद के विजित हुए कि उन्हें भानपुरा शंकरचार्य पीठ से विदा लेनी पड़ी। यह मर्मान्तक पीड़ादायक प्रसंग फिर कभी। लेकिन फिर भी मुझे पक्का विश्वास है कि मनासा के सौ-पचास लोगों ने आज अपना काम बन्द रखा होगा।

और स्वामीजी? हरिद्वार में लोग भले ही उन्हें समाधी दे रहे होंगे लेकिन स्वामीजी देवलोक में अब तक अपने प्रवचन शुरु कर चुके होंगे और श्रोताओं से, अपने प्रिय भजन ‘अब सौंप दिया सब भार तुम्हारे चरणों में’  में समवेत होेने का आह्वान कर रहे होंगे।
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