......और रावण ने बन्दूक चला दी

यह घटना मैंने दादा के मुँह सुनी और अनेक बार सुनी।

दादा का वैवाहिक जीवन आधी सदी से अधिक का रहा। याने, यह घटना लगभग पचास बरस पुरानी है। दादा की बारात राजस्थान के गाँव केरी गई थी। बाद में उनके ससुरजी नीमच जिले की जावद तहसील के तारापुर में आ बसे। दादा के सुसराल पक्ष के कुछ परिवार जावद तहसील के ग्राम अठाना में थे। मुझे अब ठीक-ठीक याद नहीं कि घटना किस गाँव की है और इसके केन्द्रीय पुरुष रिश्ते में दादा के क्या लगते थे। लेकिन दादा जिस तरह से यह किस्सा सुनाते थे उससे अनुमान करता हूँ कि वे दादा के (सम्भवतः) ताया ससुरजी थे। उनका नाम भी अब याद नहीं। बस इतना याद है कि उनका कुल-नाम (सरनेम) देवमुरार था।

वे देवमुराजी अपने गाँव के हैसियतदार, कारोबारी आदमी थे। उस जमाने में उनके पास बारूद से चलनेवाली, टोपीदार लायसेंसी बन्दूक थी। गाँव के सामाजिक/सार्वजनिक मामलों मंे उनकी भूमिका निर्णायक हुआ करती थी। ऊँची कद-काठी और भरे-पूरे शरीर के धनी ये देवमुरारजी ‘विजया प्रेमी’ थे। साँझ ढलते ही उनके लिए भाँग छानने का उपक्रम शुरु हो जाता था।

गाँव में हर बरस रामलीला होती थी। देवमुरारीजी इस रामलीला के ‘परमानेण्ट रावण’ थे। इस भूमिका को वे राजसी रूआब से कुछ इस तरह निभाते कि लोगों को लगने लगता था कि लंका का रावण देवमुरारजी जैसा ही रहा होगा। लेकिन उनकी यह ‘रावणी वास्तविकता’ रामलीला तक ही सीमित होती थी। अपने दैनन्दिन व्यवहार से वे गाँव में समुचित आदर-सम्मान पाते थे।

नवरात्रि चल रही थी। रामलीला का मंचन शुरु हो चुका था। छायादार घने पेड़ों से घिरा, छोटा से मैदान रामलीला स्थल था। पेट्रोमेक्स (गैस) की रोशनी में मंच नहाया हुआ था। लगभग पूरा गाँव ही मैदान में मौजूद था। अधिकांश लोग मैदान में, बिछात पर बैठे थे। लेकिन, पीछे बैठने से बचनेवाले कई लोग आसपास के पेड़ों पर बैठे थे। 

उस दिन, पता नहीं विजया-प्रभाव की सान्द्रता रही या कोई और बात, देवमुराजी अड़ गए - ‘बन्दूक लेकर बैठूँगा।’ लोगों ने खूब समझाया - ‘रावण के जमाने में बन्दूक नहीं होती थी।’ देवमुरारजी ने राजसी रौब से जवाब दिया - ‘उस जमाने में जब बन्दूक थी ही नहीं तो रावण बन्दूक लेकर कैसे बैठता? लेकिन आज तो बन्दूक है! आज तो रावण बन्दूक लेकर ही बैठेगा।’ समझाइश के स्वर थोड़ी देर में अनुनय-विनय, याचना से होते हुए गिड़गिड़ाहट में बदल गए। लेकिन ‘लंकेश’ अपनी बात पर अटल रहे। लोगों ने हथियार डाल दिए और ईश्वर से, किसी अनजान, अकल्पनीय अनिष्ट से बचाने की प्रार्थना करते हुए पीछे हट गए।

रामलीला शुरु हुई। रावण दरबार का दृष्य  आया। कंधे पर भरी बन्दूक लटकाए, गहनों से लदे-फँदे देवमुरारजी राजसी वेशभूष में सिंहासनारूढ़ थे। प्रसंगानुसार सारे पात्र अपने-अपने संवाद बोल रहे थे, अपनी-अपनी भूमिकाएँ निभा रहे थे। देवमुरारजी की बारी आई। उन्हें अत्यधिक क्रोधित मुद्रा में, चुनौती देते हुए, ललकारते हुए अपने संवाद बोलने थे। बरसों का रियाज था। सो, संवाद तो भली प्रकार याद थे। लेकिन बन्दूक लेकर पहली बार बैठे थे। यदि बन्दूक का उपयोग नहीं किया तो फिर बन्दूक का मतलब ही क्या रहा? सो एक भारी-भरकम संवाद बोलते हुए (कल्पना कर लीजिए कि ‘आज तू लंकेश के हाथों मारा जाएगा।’ या ऐसा ही कोई संवाद रहा होगा) उन्होंने काँधे से बन्दूक उतारी, घोड़ा खींचा, ताँबे की टोपी चढ़ाई और आसमान की ओर नली करते हुए घोड़ा दबा दिया। 

बन्दूक बारूद से भरी हुई थी। घोड़ा दबते ही जोरदार धमाका हुआ। पूरा गाँव गूँज गया। आसपास के पेड़ों पर चढ़े आठ-दस लोग धरती पर टपक पड़े। मैदान में भगदड़ मच गई। जिसे जिधर जगह मिली, उधर भाग निकला। लोगों की चीखें गूँजने लगीं। मंच के कलाकार पता नहीं कब, कहाँ अन्तर्ध्यान हो गए। उधर, मंच पर तनी चाँदनी से लपटें उठने लगीं। बारूद से निकली लपटों का असर हो गया था। 

कुछ ही पलों में मैदान का नक्शा बदल गया। इसके समानान्तर (या कहिए कि बन्दूक का धमाका होते ही) एक बात और हुई - ‘भंग-भवानी’ ने देवमुरारजी की काया त्याग दी। देवमुरारजी एक झटके में ‘मिथ्या जगत’ की वास्तविकता में आ गए। आते ही उन्होंने देखा कि केवल मंच पर ही नहीं, पूरे मैदान मे वे अकेले खड़े हैं। अब वे ‘लंकापति’ न रह कर ‘वीराने के बादशाह’ बन गए हैं। उन्होंने आसपास नजरें दौड़ाई। कोई नहीं था। उन्होंने अपने रुतबे के मुताबिक भदेस गालियाँ देकर लोगों को कोसकर बुलाना चाहा लेकिन पाया कि उनके गले से आवाज ही नहीं निकल रही है। माहौल में ठण्डक थी लेकिन देवमुरारजी पसीने में नहाए हुए थे। 

गाँव यूँ तो छोटा ही था लेकिन आसपास के गाँवों से बड़ा था। इसलिए वहाँ पुलिस चौकी कायम थी। लोगों की तलाश में नजरें घुमा रहे देवमुरारजी ने देखा कि पुलिस के दो जवान चले आ रहे हैं। न तो जवानों ने कुछ पूछा न ही देवमुरारजी ने कुछ पूछा। तीनों चुपचाप चौकी पर चले आए। तब तक (जान बचाकर भागे हुए) लोग भी एक के बाद एक जुटने लगे। अब पुलिस चौकी आबाद और रोशन थी। 

काफी-कुछ हो सकता था। लेकिन कुछ नहीं हुआ। गर्जना करनेवाले देवमुरारजी के बोल नहीं फूट रहे थे। गाँव के लोग उनके बचाव में एकजुट हो गए थे। दोनों जवानों को भी उसी गाँव में रहना था। सबने मिलजुल कर गाँव की इज्जत बचा ली।

चौकी से बिदाई होने लगी तो रामलीला का संरक्षक देवमुरारजी के सामने खड़ा हो गया। हाथ जोड़कर बोला - ‘देखो महाराज! रामलीला के रावण तो आप ही बनोगे। लेकिन आज, गाँव के सामने, मेरे माथे पर हाथ रखकर, मेरे बच्चों की सौगन्ध खाओ कि रामलीला में बन्दूक लेकर नहीं बैठोगे।’ 

अब तक देवमुरारजी सहज हो चुके थे। सस्ते में छूट जाने का बोध भी उन्हें हो चुका था। लेकिन अपनी हैसियत और रुतबा भी याद रहा। घर का रास्ता नापते हुए बोले - ‘चल! मान लिया। नहीं बैठूँगा बन्दूक लेकर।’ रामलीला संरक्षक खुश हो गया। खुशी में रमकते हुए बोला - ‘और भाँग भी मत पीना।’

सुनकर देवमुरारजी रुक गए। आँखें तरेर कर बोले - ‘रावण के राज में बन्दूक जरूर नहीं थी। लेकिन भाँग तो थी।’
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3 comments:

  1. 😂😂😆
    मजेदार किस्सा।

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  2. अत्यंत रोचक प्रसंग 🙏🙏🌹

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  3. कमाल की याददस्त है आपकी ,उतनी ही सुंदर प्रस्तुति ..

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