रामलीला का यह किस्सा मेरे गृहनगर मनासा का ही है।
गाँधी चौक में बने छोटे से मंच को, लकड़ी के तख्तों से विस्तारित किया गया था। उस रात लक्ष्मण-मूर्छा और हनुमान द्वारा संजीवनी बूटी लाने का प्रसंग मंचित होना था। मंच के सामने, बाँयी ओर, कोई तीस-पैंतीस फीट दूरी पर स्थित हरिवल्लभजी झँवर की दुकान के बाहर नीम का ऊँचा, घना पेड़ था। (आश करता हूँ कि अब भी हो।) उत्साही कार्यकर्ताओं ने तय किया कि संजीवनी बूटी लेकर हनुमानजी को इस पेड़ से सीधे मंच पर उतारा जाए।
योजना पर बारीकी से विचार किया गया। कलाकार की सुरक्षा सुनिश्चित की गई। खूब मोटा रस्सा तलाश कर एक छोर नीम की मजबूत डाली से और दूसरा छोर मंच के आगे वाले बड़े तख्ते के पाये से बाँध गया। हनुमान बने कलाकार के सीने पर ट्रक (के पहिये) की ट्यूब दुहरी-तिहरी कर बाँधी गई। कलाकार को एक हाथ में पहाड़ की प्रतिकृति और दूसरे में गदा लेकर, हवा में तैरते हुए, सीधे मंच पर आना था। इसलिए सन्तुलन और दिशा बनाए रखने के लिए मोटे पटियों पर रस्सी की मोटाई से अधिक गहरी नाली बनाई गई और रस्से से उसकी पकड़ न फिसलने के कड़े उपाय किए गए। कार्यकर्ताओं, कारीगरों और खुद अभिनेता ने सारे इन्तजाम देखे-भाले। छोटे से छोटे सन्देह को निर्मूल किया गया।
उन दिनों रामलीला में प्रस्तुत किए जानेवाले प्रसंगों का प्रचार करने के लिए मध्य पंक्ति के दो-चार अभिनेता विभिन्न स्वांग धर कर, प्रत्येक शाम पूरे कस्बे में घूम कर मुनादी किया करते थे। उस रात चूँकि अनूठा उपक्रम था, तो उसका विशेष प्रचार किया गया - ‘संजीवनी बूटी लेकर आकाश से उतरते हनुमानजी को देखिए।’ प्रचार ने उत्सुकता बढ़ाई। परिणामस्वरूप उस दिन दर्शकों की संख्या सामान्य दिनों से अधिक ही थी।
मंच के सामने की खुली जगह, रस्सी की सहायता से दो हिस्सों में बाँट दी गई थी - एक ओर पुरुष, दूसरी ओर स्त्रियाँ। स्त्रियोंवाला भाग झँवर सेठ की दुकान की तरफ था। रामलीला के कार्यकर्ता अतिरिक्त उत्साहित थे तो दर्शक अत्यधिक अधीर और जिज्ञासु। सब प्रतीक्षा कर रहे थे - कब लक्ष्मण मूर्छित हों और कब हनुमानजी संजीवनी बूटी लेकर आकाश मार्ग से उतरें।
रामलीला शुरु हुई। एक के बाद एक प्रसंग आने लगे। और लक्ष्मण के मूर्छित होने का क्षण आ गया। लक्ष्मण मूर्छित हुए। वैद्य सुशेन आए और घोषणा की - ‘इन्हें संजीवनी बूटी से जीवन मिल सकता है।’ तयशुदा संवाद हुए और हनुमानजी ‘जय श्रीराम!’ का उद्घोष कर संजीवनी बूटी लेने रवाना हुए।
हनुमानजी के रवाना होते ही भगवान रामजी ने ‘हा! लक्ष्मण! हा!! लक्ष्मण!! विलाप शुरु कर दिया। साजिन्दों और गायकों ने ‘न जाने किसने बिलमाए, पवनसुत अब तक नहीं आए’ गीत शुरु कर दिया। गीत के दौरान, हनुमान बने कलाकार को झँवर सेठ की दुकान के पतरों पर चढ़ा दिया गया। कलाकार ने नीम के पेड़ पर जाकर सारे इन्तजामों के मुताबिक खुद को तैयार किया कर ‘सिग्नल’ दिया और मंच से इशारा पाकर रस्से के सहारे मंच की ओर, नीचे सरकना शुरु किया। दर्शकों में उत्तेजना भरी प्रसन्नता छा गई। लोग तालियाँ बजाने लगे और जै-जैकार लगाने लगे।
कलाकार ने लगभग आधी दूरी पार की और रुक गया। रुक कर उसने जोर से ‘जय श्रीराम’ की हुँकार भरी। नीचे बैठे लोग साँसें रोक कर हनुमानजी को देख रहे थे और प्रतीक्षा कर रहे थे कि हनुमानजी ‘सर्र ऽ र ऽ र्र’ से, तेजी से मंच तक आएँ। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा था। कलाकार आधे रास्ते रुक ‘जय श्रीराम’ की हुँकार किए जा रहा था।
हनुमानजी के इस तरह रुकने को लीला का हिस्सा समझा जा रहा था। नीचे लोग जैकारे लगाए जा रहे थे और ऊपर, अधर में ठहरा कलाकार ‘जय श्रीराम’ हुँकार-हुँकार कर नीचे आने की कोशिश कर रहा था। कुछ ही पलों में उसने हुँकारे लगाने बन्द कर दिए और घबराहट में तेजी से हाथ-पाँव मारने लगा।
कुछ ही क्षणों में सबको समझ में आ गया कि ‘हनुमानजी’ फँस गए हैं। कार्यकर्ताओं को समझने में देर नहीं लगी कि व्यवस्था गड़बड़ा गई है। तीन-चार कार्यकर्ता झँवर सेठ की दुकान की ओर दौड़े। इधर, यह जानकर कि ‘हनुमानजी’ अधर में अटक गए हैं, दर्शक समुदाय ‘जामवन्त’ की तरह ‘हनुमानजी’ को उनकी शक्ति-सामर्थ्य की याद दिलाने के लिए जोर-जोर से ‘बजरंग बली की जय!’, ‘पवन पुत्र हनुमान की जय!’, ‘जय बजरंग बली, तोड़ दे दुश्मन की नली!’ जैसे जैकारे लगा-लगा कर हनुमानजी का उत्साहवर्धन कर रहा था। मंच पर चल रहा रामजी का विलाप और साजिन्दों-गायकों का गीत इस कोलाहल कहीं सुनाई नहीं दे रहा था। वातावरण में रोमांच और उत्तेजना अपने चरम पर थे। नीचे से कानफोड़ू जैकारे और ऊपर, उलझन से बचने के लिए छटपटाता, हाथ-पैर मार रहा कलाकार। उधर, कार्यकर्ता नीम के पेड़ पर चढ़ चुके थे। उन्होंने रस्सा हिला कर ‘हनुमानजी’ को गतिवान बनाने की कोशिश की लेकिन कामयाब नहीं हुए।
कार्यकर्ताओं को समझ में आ गया कि कलाकार का पूर्व नियोजित तरीके से मंच तक पहुँचना सम्भव नहीं है। उन्होंने अपनी बुद्धि और विवेकानुसार निर्णय लिया और रस्सा काट दिया। रस्सा कटते ही हनुमान बना कलाकार, लगभग बीस फीट की ऊँचाई से, धड़ाम् से, घुटनों और कोहनियों के बल, महिला दर्शकों वाले हिस्से में गिर पड़़ा। ‘हनुमानजी’ के गिरते ही महिलाओं में चीख-पुकार और भगदड़ मच गई। जो महिलाएँ थोड़ी ही देर पहले हाथ जोड़ कर, श्रद्धा भाव से, हनुमानजी के जैकारे लगा रही थीं वे अब ‘अरे! अरे! हट्! हट्! कई करे हे! दूरो रे!’ (अरे! हट! क्या करता है! दूर रह।) कह-कह कर ‘हनुमानजी’ को धकेल रही थीं। कलाकार गिनती की महिलाओं के बीच गिरा था। जो महिलाएँ अप्रभावित रहीं उनमें से कुछ ने इन महिलाओं को समझाने की कोशिश की - ‘अरे! यूँ कई करो हो दरी! ई तो आपणा हड़ुमानजी हे! आपणा भगवान हे!’ (अरे! ये क्या कर रही हो? ये तो अपने हनुमानजी हैं। अपने भगवान हैं।) समझाइश सुनकर प्रभावित महिलाओं में से एक, चिहुँक कर बोली - ‘भगवान हे तो अणीको मतलब कई छाती पर पड़े? भगवान हे तो भगवान की तरे रे।’ (भगवान है तो इसका मतलब क्या कि छाती पर आ गिरे? अरे! भगवान हैं तो भगवान की तरह रहें।) इधर महिलाएँ हनुमान बने कलाकार को दुरदुरा रही थीं उधर बेचारा कलाकार, कराहता हुआ, सहायता की आशा में अपने आसपास देखता हुआ, अपने लहू-लुहान घुटनों और कोहनियों को सहला रहा था।
इसके बाद क्या हुआ होगा - हनुमानजी संजीवनी लेकर सीधे मंच पर पहुँचे या नहीं? रामजी ने पवन-पुत्र की अगवानी की या नहीं? लक्ष्मणजी मूर्छा से बाहर आए या नहीं? उस दिन की लीला के शेष प्रसंग पूरे हुए या नहीं? इन (और ऐसे) सारे सवालों के जवाब आप खुद ही खुद से माँग लीजिए। बस! इस बात से खुश हो जाइए कि हनुमान बने कलाकार को कोई फ्रेक्चर नहीं हुआ। मामूली मरहम-पट्टी से काम चल गया। हाँ, रामलीला की शेष अवधि में वह दर्शक-कलाकार की भूमिका ही निभा सका।
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