यह काम कर सकते हैं राहुल गॉंधी


लगा था कि हरयाणा और महाराष्ट्र के चुनावी परिणामों के बाद राहुल गाँधी समाचारों-समीक्षाओं के केन्द्र में आ जाएँगे। शुरुआती दो-तीन दिनों तक ऐसा हुआ भी लेकिन दोनों राज्यों में सरकारें बनाने को लेकर हुई उठापटक ने राहुल गाँधी को नेपथ्य में धकेल दिया। लेकिन भारतीय राजनीति पर पोलेण्ड की वह कहावत शब्दशः लागू होती है जिसमें कहा गया है कि मेंढक जब भी पैदा होता है, सात औंस वजन का ही होता है। आदमी आज भले ही विस्मृति के अँधेरे गोदाम में फेंक दिया जाए। लेकिन यदि वह सशरीर जीवित है तो कभी भी सम्पूर्ण प्रभावशीलता से मंच पर केन्द्रीय भूमिका में नजर आ सकता है। 

राहुल गाँधी के प्रशंसक बड़ी संख्या में मिल जाएँगे किन्तु उन पर राजनीतिक भरोसा करनेवालों की संख्या उसके मुकाबले बहुत छोटी होगी। वे ऐसे राजनेता हैं जिसमें लोग (काँग्रेस से बाहर के भी) केन्द्रीय सत्ता के शीर्ष-पुरुष होने की सम्भावना देखते हैं। लेकिन खुद राहुल गाँधी इसके लिए तैयार नजर नहीं आते। चूँकि ईश्वर ने यह व्यवस्था नहीं की कि हम किसी के मन की बात जान सकें (अच्छा ही किया वर्ना हम, चौबीसों घण्टे एक-दूसरे को तमाचे मारते ही नजर आते) इसलिए हम सब अपने-अपने अनुमान ही लगा सकते हैं। ये अनुमान भी हम अपनी पसन्द, अपनी सुविधा और अपनी मनोदशा के अनुसार ही लगाते हैं। इस तरह अनुमान लगाते समय मोटे तौर पर हम खुद को सामनेवाले की जगह पर रखकर सोचते हैं। मैं भी कुछ इसी तरह कुछ अनुमान लगा रहा हूँ।

मुझे लगता है, राहुल महत्वाकांक्षी नहीं हैं। महत्वाकांक्षी व्यक्ति अवसरों की प्रतीक्षा नहीं करता। वह या मुश्किलों में अवसर खोज लेता है या अवसर झपट लेता है। अपने प्रतिद्वन्द्वी के अवसर हड़पने में न तो देर करता है न ही लोक-लिहाज पालता है। सत्ता की राजनीति में तो इसे ही कौशल माना जाता है। राहुल गाँधी को तो खूब अवसर मिले, बार-बार मिले, लगातार मिले, तश्तरी में रखे गए गुलाबजामुनों की तरह मिले। लेकिन राहुल गाँधी ने अत्यन्त निस्पृहता (इसे ‘अनिच्छा’ कहना अधिक समीचीन लग रहा है मुझे) से अपनी भूमिका निभाई।

आगे मुझे लगता है, राहुल गाँधी में या तो समुचित आत्म विश्वास की कमी है या फिर वे जोखिम लेने में हिचकिचाते हैं। ‘नो रिस्क, नो गेन्स। मोअर रिस्क, मोअर गेन्स’ वाली अंग्रेजी कहावत राजनीति पर ही नहीं, जिन्दगी की हर साँस पर लागू होती है। लगता है, राहुल को सब कुछ रेडीमेड चाहिए। एक राजनेता के रूप में उन्होंने ऐसा कोई उद्वेलन, आन्दोलन नहीं किया जो जन-मन को मथ सके। मैं इसी बात को यूँ कहना चाहूँगा कि उन्हें मिले अवसरों को अनुकूल राजनीति परिणामों में बदलने का कौशल अब भी उनमें विकसित नहीं हो पाया है।

और आगे मुझे लगता है, राहुल गाँधी खुद को लेकर अस्पष्ट या कि हिचकिचाहट से ग्रस्त हैं। वे तय नहीं कर पा रहे हैं कि वे सादगी, शुचिता से परिपूर्ण लोक-राजनीति करें या सत्ता की राजनीति। मनमोहनसिहं ने उन्हें मन्त्री पद प्रस्तुत किया था किन्तु उन्होंने मना कर दिया। इसके विपरीत, उन्हें जब-जब प्रधान मन्त्री के रूप में उल्लेखित किया तब-तब उन्होंने कभी प्रभावी प्रतिवाद नहीं किया। 

अगली बात मेरा अनुमान नहीं, सुनिश्चित धारणा है। सत्ता की राजनीति करनेवाले नेता में जो लोक रंजक वाक्पटुता, आक्रामकता-चतुराई (जिसे अंग्रेजी में ‘कनिंगनेस’ कहते हैं), अपनी बात से (बेशर्मी से) पलट जाने जैसे ‘गुणों’ का जो न्यूनतम प्रतिशत अनिवार्य होता है, वह राहुल गाँधी में नहीं है। उनकी यह विशेषता, उनकी सबसे बड़ा बाधा है। वे ‘भद्र-लोक’ बनकर साफसुथरी राजनीति करना चाहते हैं जो हमारे गले नहीं उतरती। हम वह विचित्र और पाखण्डी समाज हैं जो राजनीति में ईमानदार और भले लोगों की अनुपस्थिति की मुक्त-कण्ठ आलोचना करते हैं और भले-ईमानदार उम्मीदवार को कभी वोट नहीं देते। जब भला-ईमानदार आदमी वोट माँगने आता है तो हम उसके प्रति दया और सहानुभूति जताते हुए, उसके मुँह पर ही कहते हैं - ‘अरे! आप तो भले आदमी हैं। आप हमारे काम कैसे करवाएँगे?’ (यह बात मैंने अनुमान से नहीं लिखी है। इन्दौर के सुपरिचित साहित्यकार सदाशिव कौतुक एक बार निगम पार्षद का चुनाव लड़े थे। तब उन्हें अपने मतदाताओं से यह बात कई बार सुननी पड़ी थी। कौतुकजी को ‘भला आदमी’ का प्रमाण-पत्र देनेवाले मतदाताओं ने कौतुकजी की जमानत जप्त करवा दी थी।)

तो क्या राहुल गाँधी राजनीति में ‘मिसफिट’ हैं? उन्हें राजनीति छोड़ देनी चाहिए? इसका निर्णायक जवाब तो राहुल गाँधी ही दे सकते हैं किन्तु मुझे लगता है, राहुल गाँधी चाहें तो भी ऐसा नहीं कर सकेंगे। उनकी हालत ‘बाबाजी तो कम्बल छोड़ना चाहते हैं लेकिन कम्बल बाबाजी को नहीं छोड़ रहा’ वाली है। आत्मविश्वासविहीन हो चुके, सत्ता की गुड़भेली के काँग्रेसी चींटे उन्हें ऐसा नहीं करने देंगे। उनके पास राष्ट्रीय स्तर पर ‘वोट अपील’ वाला कोई चेहरा नहीं है। राहुल गाँधी को काँग्रेस की राजनीति में बनाए रखना उनकी लाचारी है और वहाँ बने रहना राहुल गाँधी की ‘कृतज्ञता भरी विवशता’ है। लेकिन हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनावी परिणामों ने यह भी साबित कर दिया है कि राहुल की पसन्द के लोग चुनावी सफलताएँ दिलाने में सर्वथा नाकामयाब रहे। दोनों राज्यों के स्थापित क्षत्रपों ने ही काँग्रेस की वापसी कराई है। जाहिर है, सांगठानिक बदलाव की रणनीति के लिहाज से राहुल गाँधी विफल ही रहे हैं।

तो क्या, राहुल अब काँग्रेस के लिए अनुपयोगी हो गए हैं? मुझे लगता है, ऐसा बिलकुल नहीं है। आज की काँग्रेस वह काँग्रेस है ही नहीं जिसने देश को आजादी दिलाई थी। वह काँग्रेस तो कपूर हो गई। आज तो उसकी छाया मात्र है। ऐसे में, परिदृष्य पर राहुल गाँधी की कार्यशैली, व्यवहार और मिजाज को देखते हुए लगता है, राहुल गाँधी काँग्रेस को फिर से काँग्रेस बना सकते हैं। आज के काँग्रेेसियों को पता ही नहीं है कि काँग्रेस क्या है। उन्हें काँग्रेस का इतिहास ही पता नहीं। वे केवल उस काँग्रेस को जानते और मानते हैं जो कुर्सी दिलाती है। आजादी के आन्दोलन में काँग्रेस की भूमिका, भारत विभाजन में काँग्रेस और गाँधी-नेहरू-सरदार की भूमिका, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, अमर शहीद भगत सिंह जैसे क्रान्तिकारियों से काँग्रेस के अन्तर्सम्बन्ध जैसे संवेदनशील और महत्वपूर्ण विषयों पर सामान्य स्तर के काँग्रेसियों की घिग्घी बँध जाती है। धारा 370 को लेकर काँग्रेसियों की दुविधा जगहँसाई कराती है। काँग्रेस और काँग्रेसियों की वर्तमान दशा कुबेर सम्पदा वाले निर्धन वंशजों जैसी है। राहुल गाँधी, काँग्रेसियों को काँग्रेस से मिलवाने का यही आधारभूत काम कर सकते हैं।

काँग्रेस के शुरुआती समय में सेवादल ने लोगों को काँग्रेस से और वस्तुतः राष्ट्रीय एकता से जोड़ने का काम किया था। राहुल गाँधी उसी सेवादल को पुनर्जीवित कर शुरु से शुरुआत कर सकते हैं। प्रबुद्ध लोगों से कांग्रेस पूरी तरह कट चुकी है। उनसे जुड़ना चाहिए। गाँव-गाँव में चौराहों पर छोटी-छोटी गोष्ठियों के जरिए लोगों तक पहुँचने की शुरुआत दूरगामी और स्थायी नतीजे दे सकती है। 

एक बात और। राहुल गाँधी आज भी भारत की आत्मा से दूर ही लगते हैं। वे यायावर की तरह गाँवों में जाएँ, लोगों के बीच रहें और भारत को जानें-समझें। उन्हें दिल्ली और केमरों का मोह छोड़ कर भूखे-नंगे लोगों की पीड़ा अनुभव करनी चाहिए। देश के हालात कमोबेश 1947 से पहलेवाले बनते जा रहे हैं। राहुल गाँधी अपनी उलझन दूर करें, जोखिम लेने की हिम्मत जुटाएँ, निर्लिप्त भाव से लोक-राजनीति करें। यह काँग्रेस की नहीं, देश की जरूरत है। 

देश और काँग्रेस के राजनीतिक इतिहास में राहुल दर्ज हो चुके हैं। इतिहास में उनकी यह मौजूदगी धूमकेतु की तरह उल्लेखित हो या चिंगारी से ज्वाला बनने की तरह, यही देखनेवाली बात होगी।
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भोपाल के दैनिक 'सुबह सवेरे' ने आज इसे छापा



1 comment:

  1. राहुल कभी गंभीर राजनीतिज्ञ हुए भी नहीं ,रहे भी नहीं उनके साथ तो हालात मार मार कर मुसलमान बनाने वाली हैं , जन्म जात से गुणों से ही कोई व्यक्ति अपनी प्रतिभा को निखार कर किसी ऊंचाई पर पहुँच सकता है , लेकिन कांग्रेस है कि इस बात को समझने को तैयार ही नहीं है
    आखिर कांग्रेस को मजबूर हो कर प्रियंका को आगे बढ़ाना ही पड़ेगा , और वह इस हेतु प्रयासरत भी है लेकिन उनके इर्द गिर्द किस विचार का थिंक टैंक है यह भी विचारणीय होगा , यदि चाटुकारों ने घेर लिया तो बी भारतीय राजनीति में चलना आसान नहीं होगा क्योंकि राजीव और सोनिया के समय देश की राजनैतिक जागरूकता अलग थी और अब अलग है
    राहुल के लिए राजनीति एक पार्ट टाइम जॉब है और वे इस से ही खुश हैं क्योंकि कार्य का बोझ लेना सहना और वहां करना उनकी फितरत में ही नहीं है , उनमें कोई सोच भी नहीं है और न कोई परिपक्वता , अन्यथा लोक सभा चुनाव में अपने भाषणों से वह कांग्रेस का बेडा गर्क होने से बचा सकते थे
    इन सब के बावजूद भी यदि वह पीएम् बन जाते हैं (क्योंकि राजनीति में सब कुछ संभव है ) तो देश का इस से बड़ा कोई दुर्भाग्य नहीं होगा , बात कटु जरूर है लेकिन विचारणीय भी है

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