बब्बू के मुँह से बोली भारत की असली ताकत

यह इसी तेरह मार्च की बात है। अपराह्न लगभग तीन बजे बब्बू को फोन किया - ‘दुकान कतरी वजाँ तक खुली रेगा?’ (दुकान कितनी बजे तक खुली रहेगी?) जवाब में उसकी आवाज से लगा, उछलकर बोल रहा हो - ‘अरे! आप! मूँ तो समझो थो के आप मने ने म्हारी दुकान ने भूली ग्या। दुकान कित्ती बजे तक खुली रेगा या छोड़ो। आप तो वताओ, आप कितरी वजाँ पधारोगा? आप आओगा तब तक दुकान खुली रेगा।’ (अरे! आप! मैं तो समझ बैठा था कि आप मुझे और मेरी दुकान को भूल गए हैं। दुकान कितनी बजे तक खुली रहेगी यह बात छोड़ो। आप तो बताओ, आप कितनी बजे पधारेंगे? आप आएँगे तब तक दुकान खुली रहेगी।) सुनकर मैं झेंप गया। कहा - ‘साढ़े सात वजाँ के आसपास अऊँगा।’ (साढ़े सात बजे के आसपास आऊँगा।) खनकती खुश-आवाज में जवाब आया - ‘पधारो! पधारो! मूँ आपकी वाट नारूँगा।’ (पधारिए! पधारिए! मैं आपकी बाट जोहूँगा।)

बब्बू याने लक्ष्मीनारायण सोलंकी। कोई तीस बरसों से मेरे बालों की देखरेख का (और मुझे ‘ढंग-ढांग का आदमी’ दिखाए रखने का) जिम्मा उसी ने ले रखा है। सैलाना मार्ग पर,  राम मन्दिर की दुकानों में से एक में उसका ‘जयश्री हेयर कटिंग सेलून’ है। बरसों पहले मैंने, ‘उपग्रह’ में, अपने स्तम्भ ‘बिना विचारे’ में उस पर लम्बा आलेख लिखा था। तब मैंने लिखा था कि ईश्वर की कृपा और उसका व्यवहार उसकी ऐसी परिसम्पत्तियाँ हैं कि उसे ग्राहक की बाट नहीं जोहनी पड़ती। प्रतिदिन शटर उठाते समय एक न एक ग्राहक उसकी प्रतीक्षा में पहले ही खड़ा मिलता है।

लेकिन कोरोना-काल ने काफी-कुछ गड़बड़ा दिया। उसकी चपेट से जब अच्छे-अच्छे नहीं बच पाए तो भला बब्बू कैसे बच पाता? सबसे पहले तो सख्त तालाबन्दी ने घर में बाँध कर रख दिया और दूसरे, लोगों में दहशत भर दी। दूसरों की नहीं खुद अपनी कहूँ तो मैं चाह कर भी बब्बू की दुकान पर नहीं जा सका। अव्वल तो  मैं ही डरा हुआ और दूसरे, भयभीत बच्चों की टोका-टाकी। कभी बेटे वल्कल से, कभी सहायक नवीन भाई शर्मा से, कभी किरायेदार प्रतीक शिन्दे से, कभी पड़ौसी गुड्डु (अक्षय छाजेड़) से, घर पर ही कटिंग करवाता रहा। तालाबन्दी में जब आंशिक छूट मिलनी शुरु हुई तो बब्बू ने दो बार फोन किया। दोनों ही बार मैंने इस तरह जवाब दिया कि बब्बू ने फौरन भाँप लिया। पहली बार तो वह कुछ नहीं बोला लेकिन दूसरी बार हँस कर बोला - ‘अरे! सा‘ब! कटिंग मत कराजो पण दर्शन देवा ने पधारो। आपकी शकल देख्याँ ने घणा दन वेईग्या।’ (अरे! साहब! कटिंग मत कराइएगा लेकिन दर्शन देने पधारिए। आपकी शकल देखे बहुत दिन हो गए हैं।) जवाब में मैं ‘हाँ, हूँ’ करके और ‘हें! हें! कसी वात करी र्यो यार तू? थारे पास नी अऊँगा तो कटे जऊँगा? थारे वना म्हारो काम चालेगा? अऊँगा-अऊँगा। जल्दी अऊँगा।’ (कैसी बात कर रहा यार तू? तेरे पास नहीं आऊँगा तो कहाँ जाऊँगा? तेरे बिना मेरा काम चलेगा? आऊँगा-आऊँगा। जल्दी आऊँगा।)

लेकिन यह ‘जल्दी’, जल्दी नहीं, पूरे पौने चौदह महीनों के बाद आया। 19 जनवरी 2020 को मैं बब्बू की दुकान पर गया था। उसके बाद अब, 13 मार्च 2021 को गया।

मैं पहुँचा तो जी धक् से रह गया। दुकान में वह अकेला था। तीस बरसों में मैंने पहली बार बब्बू को ग्राहक की प्रतीक्षा करते देखा। मुझे उदासी ने घेर लिया लेकिन बब्बू खुश था। छलकती आत्मीयता और पुरजोर ऊष्मा से उसने मेरी अगवानी की। मैं कुर्सी पर बैठा और वह शुरु हो गया। मैं उससे बहुत कुछ जानना चाहता था लेकिन मेरे बोल नहीं फूट रहे थे। बातों का सिलसिला उसी ने शुरु किया।

मालूम हुआ कि तालाबन्दी के शुरुआती तीन महीने तो घर में ही कटे। दुकान की झाड़ू भी नहीं लग पाई। उसके बाद दुकान खुली तो ग्राहक का नाम-ओ-निशान नहीं। छुट-पुट ग्राहकी शुरु हुई तो हर ग्राहक डरा हुआ। सुरक्षा उपायों के प्रति अतिरिक्त और अत्यधिक चौकस। पढ़े-लिखे, ज्ञानी-बुद्धिजीवी ग्राहक सबसे ज्यादा डरे हुए मिले। औसत-मध्यमवर्गीय, कम पढ़े-लिखे, श्रमजीवी ग्राहक बेधड़क आए। धीरे-धीरे ग्राहक संख्या बढ़ने लगी। लेकिन अब, साल भर बाद भी ग्राहकी आधी ही है।

मेरी कटिंग वह सामान्यतः बारह-पन्द्रह मिनिट में निपटा देता था। लेकिन इस बार उसने लगभग आधा घण्टा लिया। उसकी बातों से लग रहा था मानो वह अपनी बात सुनाने के लिए मौका और श्रोता तलाश कर रहा हो। उसकी बातों के जवाब में मेरे पास कुछ नहीं था। सहानुभूति-सांत्वना के दो बोल भी मेरे मुँह से नहीं फूट रहे थे। वस्तुतः उसका प्रत्येक वाक्य, उसकी हर बात मुझे अवाक्, निःशब्द कर रही थी। उसके स्वरों में निराशा, उदासी, थकान, किसी के प्रति शिकायत, उलाहना कुछ नहीं था। मुझे लगता रहा कि उससे सहानुभूति जता कर, उसे सांत्वना दे कर मैं उसकी अवमानना कर दूँगा। मैं चुप ही बना रहा।

चलते-चलते, उसकी प्रशंसा करते हुए, उसका हौसला बढ़ाने की मंशा से मैंने कहा - ‘थने अणी तरे देखी ने, थारी वाताँ हुणी ने हिवड़ो ठण्डो वेईग्यो बब्बू! हिम्मत राखजे। घबराजे मती। रामजी सब हऊ करेगा।’ (तुझे इस तरह काम करते देख कर, तेरी बातें सुन कर जी को बड़ी ठण्डक मिली बब्बू! हिम्मत रखना। घबराना मत। ईश्वर सब अच्छा करेगा।)

जवाब में बब्बू ने जो कहा, उसने मुझे ठेठ जड़ों तक हिला दिया - ‘सई क्यो आपने! रामजी सब हऊ ई ऽ ज करेगा। पण सा‘ब! आपका-म्हारा जसा लोग तो यो झटको झेली ग्या। मालम नी, गरीबाँ पर कई गुजरी वेगा। रामजी वणा की राखे।’ (आपने सही कहा! ईश्वर सब ठीक ही करेगा। लेकिन साहब! आपके-मेरे जैसे लोग तो यह झटका सहन कर गए। मालूम नहीं, गरीबों पर क्या गुजरी होगी। ईश्वर उनकी रक्षा करे।)

बब्बू की बात सुनकर मेरे पैर मानो जमीन में गहरे धँस गए। मन कैसा हो गया, यह कहने के लिए मेरे पास, बीस दिनों के बाद, अब तक भी उपयुक्त और समुचित शब्द नहीं है।

मैं उसकी दुकान से चला तो, लेकिन ज्यादा दूर तक नहीं जा पाया। आँखें बरसने लगीं। रास्ता दिखना बन्द हो गया। सौ-पचास कदम, चेतक सेतु के मुहाने पर स्कूटर खड़ा कर, देर रोता रहा।  

बब्बू की यह बात ही भारत की वास्तविक शक्ति है - अपने से कमजोर, कमतर की चिन्ता करना। छोटी सी दुकान में, सीमित साधनों-संसाधनों वाला साधारण सैलून चला रहा बब्बू, आर्थिक सन्दर्भों में कहाँ खड़ा होगा, यह कल्पना आप-हम आसानी से कर सकते हैं। लेकिन विपत्ति काल में उसे अपने से कमतर, कमजोर की चिन्ता रही।   यह चिन्ता भारत का कोई ‘बब्बू’ ही कर सकता है - कोई धन कुबेर नहीं।

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मेरी कटिंग करता हुआ बब्बू


घर पर अपनेवालों से कटिंग करवा कर इस स्परूप में रहा मैं


 

यह पोस्ट आज, भोपाल से प्रकाशित हो रहे दैनिक ‘सुबह सवेरे’ में छपी


1 comment:

  1. बहुत सार्थक आलेख।
    अन्तर्राष्ट्रीय मूर्ख दिवस की बधाई हो।

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