अपनी स्थापना के तेरह वर्ष पूरे होने के प्रसंग पर दैनिक भास्कर, रतलाम ने, 30 अप्रेल 2021 को विशेष अंक छापा था। उसी में यह लेख आंशिक सम्पादन सहित प्रकाशित हुआ था। मैंने तो नहीं किन्तु दो मित्रों ने फेस बुक पर, अपनी भीत (वाल) पर यह लेख दिया था। ब्लॉग पर केपल इसलिए दे रहा हूँ कि ताकि कायम रहे और आसानी से तलाश किया जा सके।
दादा गिनती के उन कवियों में शरीक थे जिनका आत्मीय उल्लेख दिनकरजी ने अपनी डायरी में किया है। दादा को प्रायः ही कवियों में नेता और नेताओं मे कवि मान लिया जाता था। लेकिन दादा ने इन दोनों के बीच सुस्पष्ट विभाजन रेखा खींच रखी थी। वे साहित्य को अपना धर्म और राजनीति को कर्म मानते थे। वे कहते थे - ‘साहित्य सर का साफा है और राजनीति पाँव की जूती। लेकिन कभी-कभी, साफे के सम्मान की रक्षा के लिए जूती हाथ में लेनी पड़ जाती है।’ दादा की इस उक्ति को देश के अनेक मंचीय कवियों ने अपने वक्तव्य का अभिन्न अंग बनाया।
कुछ आधारभूत प्रवृत्तियों ने दादा को असाधारण, अनूठा बनाया। साहित्य के हिमालयी शिखरों के प्रवासी होने के बाद भी उन्होंने धरती नहीं छोड़ी। आंचलिक-कस्बाई नवोदित और उदीयमान कलमकारों को उन्होंने सदैव प्रोत्साहित किया। कोई भी नया कवि अपने पहले काव्य संग्रह की भूमिका लिखवाने के लिए उनके पास बेहिचक जा सकता था। मुझे ऐसा कुछ याद आ रहा है कि जावरावाले भाई कारूलाल जमड़ा ‘कारुण्य’ अपने किसी काव्य संग्रह (सम्भवतः ‘वह बजाती ढोल’) की पाण्डुलिपि लेकर दादा के पास पहुँचे थे। कुछ कविताएँ पढ़ने के बाद दादा ने कहा था - ‘अब इसकी भूमिका मैं ही लिखूँगा। किसी और से मत लिखवाना।’ भूमिका लिखने के लिए दादा ने शायद ही किसी को निराश किया हो। दो-एक बार तो मैंने शिकायत की कि प्रोत्साहित करने के नाम पर उन्होंने ‘भाटे को भेरू’ बना दिया। जवाब में दादा ने अपना सनातन वाक्य दुहरा दिया - ‘जो वृक्ष अपनी कोंपलों का स्वागत नहीं करता वह ठूँठ बन जाता है।’
शिखर-पुरुष होने के बाद लोग अपनी अगली पीढ़ियों से संवाद बन्द कर देते हैं। लेकिन दादा ऐसे नहीं थे। वे राह नहीं देखते थे कि नये कलमकार उनके पास आएँ। इसके उलट, अपनी अगली पीढ़ी के और नए कलमकारों से नियमित रूप से बात करने के लिए उन्होंने मनासा में ‘समदानियों की बगीची’ (रंग बाड़ी) में बैठकें शुरु करवाईं। बैठकवाले दिन वे प्रायः ही निर्धारित समय पर पहुँचते और रचनाकारों की प्रतीक्षा करते। किसी अखबार/पत्रिका में किसी की कोई रचना अच्छी लगती और रचना के साथ रचनाकार का पता होता तो उसे प्रशंसा पत्र लिखते। यदि फोन/मोबाइल नम्बर दिया होता तो सीधे फोन पर बात कर लेते।
दादा को विभिन्न स्तर के अनेक सम्मान मिले। इन दिनों ‘सम्मान’ और ‘पुरुस्कार’ का भेद मिट ही गया है। दोनों को समानार्थी मान लिया गया है। लेकिन दादा ने इस स्थिति को स्वीकार नहीं किया। उनके पास टेलिफोन आते - ‘हम आपको पुरुस्कृत करना चाहते हैं। कृपया आगमन की स्वीकृति दें।’ वे वस्तुतः दादा को सम्मानित करना चाहते थे। लेकिन दादा को ‘पुरुस्कार’ स्वीकार नहीं था। वे प्रतिप्रश्न करते - ‘मैंने आपकी कौन सी प्रतियोगिता में भाग लिया है?’ वे, पुरुस्कृत होने के लिए कभी नहीं गए और सम्मान के आमन्त्रणों को माथे चढ़ाया।
कवि सम्मेलन के मंच को दादा ने सदैव पूजा-धाम का स्थान दिया। जब तक कवि सम्मेलन के समापन की औपचारिक घोषणा नहीं हो जाती, वे मंच छोड़ कर नहीं जाते। किसी कवि का हूट होना उन्हें कभी भी सहन और स्वीकार नहीं हुआ। ऐसे कवि की सम्मान-रक्षा में हिमालय बन कर खड़े हो जाते और कवि सम्मेलन तभी आगे बढ़ पाता जब उस कवि का कविता पाठ निर्विघ्न सम्पन्न हो जाता। उन्हें कविता, कवि, कवि सम्मेलन का अनादर स्वीकार नहीं था।
कभी-कभार मैं उनसे, साहित्य जगत में उनकी उपस्थिति और लोकप्रियता का रहस्य पूछता तो वे कहते - ‘ऐसा कुछ भी नहीं होता। अपने से बेहतर लोगों से मिलते रहो, उनसे बातें करो, उन्हें बातें करते हुए सुनो, खूब पढ़ो, निरन्तर लिखते रहो। प्रशंसा की हकदार रचनाओं की प्रशंसा करो। बेहतर बनने की अनवरत कोशिशें खुद ही बोलती हैं।’
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