श्री बालकवि बैरागी के गीत संग्रह ‘जूझ रहा है हिन्दुस्तान’ के गीतों का प्रकाशन आज से शुरु हो रहा है। इस संग्रह में कुल 39 गीत हैं। सारे गीत देश-प्रेम में रचे-पगे हैं। आज पढ़िए डॉ. शिवमंगल सिंहजी ‘सुमन’की भूमिका, कवि का आत्म-कथ्य आदि-आदि।
समर्पण
आजीवन, अपंग, अपाहिज
मेरे पूज्य पिताजी को
जिन्होंने मुझे
आज तक
एक आलसी, कामचोर और लापरवाह सपूत कहा है
सादर.....
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छन्द
समरांगण में शीश चढ़ाता, देता गौरमय बलिदान
इधर पसीना बहा रहा है, भरता हीरों से खलिहान
शान्ति कपोत उड़ाता नभ में, लिये हुए दायित्व महान्
तप-मन-धन से कदम-कदम पर, जूझ रहा है हिन्दुस्तान
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छन्द
वो कहती है मैं गीतों में चाँद नहीं ला पाता हूँ
और सितारों की दुनिया के इसी पार रह जाता हूँ
क्या समझाऊ उस पगली को जिसको ये भी पता नहीं
जिस धरती पर भार बना हूँ गीत उसी के गाता हूँ
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आमुख
आज विश्वमानस कोटि-कोटि सम्भावनाओं और संवेदनाओं से स्पन्दित हो रहा है। जितनी ही काली और घनीभूत तमिस्त्रा है उतनी की प्रखर और प्रदीप्त ज्योति की आतुरता। लहर-लहर की रवानी रूढ़ियों के कगारे ढहाती, गुनगुनाती अपनी मस्ती में मस्त, उद्वेलित चली जा रही है, चुनौती सी देती कि अवरोधों के गढों को आज चूर नहीं किया तो कब करूँगी और जवानी परवान चढ़ाने को ऐसे बेचौन हो उठी है कि ‘मंसूर’ और ‘सरमद’ की कहानी सिर्फ जबानी ही न रह जाय। मानवता के कल्प में ऐसे भाव बहुमूल्य माने जाते हैं। सभ्यता के प्रभात मे धरती माता पुत्र प्रतिनिधि ‘मातृभूमिः पुत्रो अहं पृथिव्याः’ के उद्घोष के रुप में भारत ने सर्वप्रथम ऐसे यज्ञ की समिधाएँ जुटाई थीं। कई युगों बाद फिर वही उत्तरदायित्व उसके कन्धों पर आ पड़ा है, अस्तु आज के भारत का संघर्ष, संयम, सन्तुलन और उत्सर्ग नई सृष्टि के नए काव्य का मंगलाचरण बनने को व्यग्र है। यह व्यग्रता भारत के प्रत्येक जागरुक रचनाकार के मानस को मथ रही है।
किसी भी राष्ट्र की जागृति उसकी वेदी को प्रज्ज्वलित करने वाले होताओं से ही मापी जाती है। भारत की सब भाषाओं के एकनिष्ठ होता अपने अस्फुट मन्त्रोच्चारों से द्यावा-पृथ्वी के अटूट सम्बन्धों को नई उद्भावनाओं से स्पन्दित कर रहे हैं। हिन्दी के अनेक उद्गाताओं की भीड़ में एक स्वर बालकवि बैरागी का भी है जो अपने सकुमार स्वरारोह में होताओं का ध्यान बरबस अपनी ओर खींचने लगा है। उदात्त, अनुदात्त ओर स्वरित के उतार चढ़ाव के साथ वह अपन को साध रहा है। इस साध के साथ कि राष्ट्र की ज्योतिर्मयी वेदी का एक स्फुलिंग बन सके । प्रस्तुत संग्रह उसी अग्नि-स्फुल्ंिलग की एक बानगी है।
इस आहुति में पृथ्वी के पुत्र की राष्ट्रप्रेम से उद्वेलित उत्सर्गमयी प्रतिध्वनियाँ हैं। कहीं जागरण के शंख का उदघोष है तो कहीं आततायी की दुर्घषता को चुनौतियाँ। ‘मातृ-वन्दना’ के रूप में उस महाभिषेक का मंगलाचारण सँवारा गया है। आक्रमणकारी की नृषंस निरंकुशता को ललकारता हुआ वह कहता है कि--
‘गंगा की मौजों ने ये क्या कहा रे
अल्हड़ हिमालय परेशाँ है प्यारे
चारण पुकारे तो किसको पुकारे
किधर राख में सो रहे हैं अँगारे
देख! देख!! देख!!!
फागुन से पहिले ही आगई होली
आ हमजोली।
भाषा का प्रवाह औेर प्रसाद ग्रुण साक्षी है कि ये स्वर जन-जन का वाणी बन जाने के लिये व्याकुल हैं और यही इनकी सबसे बड़ी शक्ति हैं। बालकवि जनता का कवि है, जिसकी वाणी सभाओं और गोष्ठियों से लेकर खेतों और खलिहानों तक बूझी जा सकती हैं। इसीैलिए मन्त्रदृष्टा के स्थान पर चारण की उपाधि धारण करना उसे अधिक रुचा है। बैरागी का वैराग्य निष्कर्मता की ओर न ले जाकर अखण्ड्य बन्धनों के बीच से मुक्ति दिलाने का आव्हान करता है। रवीन्द्रताथ के स्वरों के प्रतिनिधि के रूप में-‘श्वैराग्य साधने मुक्ति से आमार नय।’ अपने स्वरों को जनता-जनार्दन की सेवा में अर्पित करने के लिये ही बालकवि ने ‘भाषा भनित प्रभाव’ की ओर ध्यान रखा है। उसकी आंचलिकता और मुहावरेदानी इसमें अधिक सहायक सिद्ध हुई है। कहीं तो भाषा इतनी सरल बन गई है कि उर्दू के सहले मुम्तना का मजा आ जाता है-
‘सचमुच वो दिन दुश्मन को भी राम कभी ना दिखलाए’
वृत्तियों के अनुसार शब्द चयन की भी उसमें क्षमता है--
‘एक सरोवर की सब लहरें, एक गीत की सब लड़ियाँ
एक गगन के सभी सितारे, एक गीत की पाँखुड़ियाँ’
इसी से मिलती जुलती लाक्षणिकताएँ भी कहीं-कहीं उपलब्ध
हो जाती हैं-
कुंकुम कुँआरा है, विधवा है रोली
आ हमजोली।
इस प्रकार राष्ट्र के यौवन का उन्मेष इन स्वरों में विवध रूपों में व्यंजित हुआ है। कहीं आह्वान है तो कहीं उत्सर्ग, कहीं उद्बोधन है तो कहीं अभियान-गान।
देश का यौवन इन गीतों को कदम-कदम पर गाता हुआ चलेगा, थक जायेगा तो गुनगुनाएगा। आशा है बालकवि बैरागी अपनी अप्रतिहत साधना से राही को सम्बल प्रदान करने वाले गीतों की परम्परा प्रवहमान कर सकेगा। प्रयोगों का बेडौलपन तो प्रवाह की प्रक्रिया में ही सँंवरता जायेगा। अपने सहज विकास में राष्ट्रप्रेम का विस्तार मानव प्रेम में होगा ही। भावना-परिवेश में वैविध्य न होनेके कारण जीवन के अन्य अंगों पर प्रकाश डालने का इस संग्रह में अवकाश नहीं, अस्तु उसके मार्मिक प्रसार के अन्य स्त्रोतों का संचार-विचार फिर कभी।
-डॉ. शिमंगलसिंह ‘सुमन’
उज्जैन
तुलसी पुण्य-तिथि 2020
27 जुलाई 63
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मेरा पृष्ठ
‘दरद-दीवानी’ के बाद ‘जूझ रहा है हिन्दुस्तान’ आपके हाथों में हैं। मेरे गीतों का दूसरा संग्रह। चाहता मैं यह था कि ‘दरद-दीवानी’ का प्रकाशन बाद में होता किन्तु श्री भानु भाई त्रिवेदी ओर भाई शम्भु नेमा ने मुझे मेरा चाहा नहीं करने दिया। अस्तु, जो हुआ, भला हुआ।
इस संग्रह के गीत आपके परिचित गीत हैं औेर मैंने इन्हें लाल चौक से लेकर लाल किले तक गाया है। आपने इन गीतों को लाड़, प्यार, दुलार औेर आशीर्वाद दिया है। इसके लिये मैं आपका आभारी हूँ। आपकी ममता और प्रोत्साहन को मैं अपना गौरव औेर सौभाग्य मानता हूँ।
चरणाभिनन्दन करता हूँ मेरे पूज्य गुरुप्रवर आदरणीय श्री डॉ शिवमंगलसिंहजी ‘सुमन’ का जिन्होंने आपने अति-व्यस्त समय में मेरे लिये समय निकाल कर इस संग्रह का आमुख लिखा। कला और भाव दोनों पक्षों से कंगाल इन गीतों को श्रद्धेय सुमनजी ने आमुख का स्वर्ण मुकुट पहिना कर मेरी कलम को मनमाना जीने का आश्वासन दिया है, आशीर्वाद दिया है।
एक और नाम है मेरे सामने दादा श्री डॉ. चिन्तामणिजी उपाध्याय का। मेरे विकास पर वे बच्चों की तरह प्रसन्न होते हैं और विह्वल होे जाते हैं। माली को फूल की न तो पाँखुरी मिलती है न उसका पराग या परिमल। अपकारिता के इस युग में माली को यश भी तो नहीं मिलता फिर भी दादा श्री चिन्तामणिजी और सुमनजी अपने जीवन-रस से माली की तरह मुझे पोषण दे रहे हैं और वह भी निर्लिप्त, निस्वार्थ। इन दोनों का मैं आभार नहीं मानता, उपकार मानता हूँ।
‘जूझ रहा है हिन्दुस्तान’ के प्रकाशन में यदि श्री मूलचन्द भैया (उज्जैन), श्री पी. डी. भैया (जयपुर), श्री विट्ठलभाई पटेल (सागर), अ. सौ. लीला बहिन पटेल (सागर), डॉ. श्री आर, एस. श्रीवास्तव (भोपाल) एवं श्री अशोक तोमर (मुरैना) का सक्रिय-सार्थक सहयोग न मिलता तो शायद यह संग्रह इस रूप में न हुआ होता। इन महानुभावों का मैं चिर आभारी हूँ। ससंकोच मैं इन्हें मात्र धन्यवाद देता हूँ।
लोकमत प्रिन्टरी के मालिक भाई श्री लखपतरायजी बंसल और उनके संगी साथियों को यदि इस समय धन्यवाद नहीं दूँगा तो सम्भवतः एक कसक रह जायेगी। इन्हें भी धन्यवाद।
.....और बहिन छाया? उसे उसके भैया की पुस्तकों की न जाने क्यों जल्दी पड़ी रहती है। उसकी रात दिन की “छपो छपो’ की रट से शायद कुछ दिनों के लिये अब मुझे मुक्ति मिल जाये तो बड़े भाग्य मेरे।
जल्दी ही पुनः मिलने की भाशा में इस समय इतना ही। बस,
बालकवि बैरागी
मनासा
तुलसी-पुण्य तिथि 2020
27-7-63
‘जूझ रहा है हिन्दुस्तान’ की पहली कविता ‘मातृ वन्दना’ यहाँ पढ़िए।
अनुक्रमणिका
01 मातृ वन्दना
02 रूपम् से
03 निमन्त्रण
04 माँ ने तुम्हें बुलाया हैं
05 गायेंगे, झुमायेंगे
06 आ हमजोली
07 काफिला बना रहे
08 भारत माता से
09 ऐसा मेरा मन कहता हैं
10 यौवन आने वाला है
11 नये मुल्क की नई जवानी
12 गीत हमें गाना ही होंगे
13 मुझे कमी किस बात की
14 हम इतिहास बदलने वाले
15 ओ मधुवन के माली
16 मेरे साथ आ
17 अन्तर का विश्वास
18 नई चुनौती
19 सागर की दासी
20 अमन का सिपाही
21 गाँधी के सन्देसे को
22 पर्व से
23 कहते हैं कुदरत पर काबू
24 आमन्त्रण
25 ऐसे कोटि-कोटि सागर
26 आई उजियारी
27 हम जो तेरे साथ हैं
28 लहरायेगा अमर तिरंगा
29 हम बच्चों का है कश्मीर
30 हँसते गाते
31 हम भारत माँ के पूत
32 मेरे देश के लाल
33 गोरा बादल
34 नौजवानों आओ रे
35 चल मतवाले
36 दो-दो बातें
37 छोटी सी विनती
38 एक-एक अभिलाषा माँ
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02 रूपम् से
03 निमन्त्रण
04 माँ ने तुम्हें बुलाया हैं
05 गायेंगे, झुमायेंगे
06 आ हमजोली
07 काफिला बना रहे
08 भारत माता से
09 ऐसा मेरा मन कहता हैं
10 यौवन आने वाला है
11 नये मुल्क की नई जवानी
12 गीत हमें गाना ही होंगे
13 मुझे कमी किस बात की
14 हम इतिहास बदलने वाले
15 ओ मधुवन के माली
16 मेरे साथ आ
17 अन्तर का विश्वास
18 नई चुनौती
19 सागर की दासी
20 अमन का सिपाही
21 गाँधी के सन्देसे को
22 पर्व से
23 कहते हैं कुदरत पर काबू
24 आमन्त्रण
25 ऐसे कोटि-कोटि सागर
26 आई उजियारी
27 हम जो तेरे साथ हैं
28 लहरायेगा अमर तिरंगा
29 हम बच्चों का है कश्मीर
30 हँसते गाते
31 हम भारत माँ के पूत
32 मेरे देश के लाल
33 गोरा बादल
34 नौजवानों आओ रे
35 चल मतवाले
36 दो-दो बातें
37 छोटी सी विनती
38 एक-एक अभिलाषा माँ
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संग्रह के ब्यौरे
जूझ रहा है हिन्दुस्तान
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मालव लोक साहित्य परिषद्, उज्जैन (म. प्र.)
प्रथम संस्करण 1963. 2100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण - मोहन झाला, उज्जैन (म. प्र.)
मुद्रक - लोकमत प्रिण्टरी, इन्दौर (म. प्र.)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मालव लोक साहित्य परिषद्, उज्जैन (म. प्र.)
प्रथम संस्करण 1963. 2100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण - मोहन झाला, उज्जैन (म. प्र.)
मुद्रक - लोकमत प्रिण्टरी, इन्दौर (म. प्र.)
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कविता संग्रह ‘दरद दीवानी’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।
कविता संग्रह ‘गौरव गीत’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।
मालवी कविता संग्रह ‘चटक म्हारा चम्पा’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।
कविता संग्रह ‘भावी रक्षक देश के’ के बाल-गीत यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगले गीतों की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।
कविता संग्रह ‘वंशज का वक्तव्य’ की कविताएँ यहाँ पढ़िए। इस पन्ने से अगली कविताओं की लिंक, एक के बाद एक मिलती जाएँगी।
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यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है।
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।
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