‘सवेरे गाड़ी रतलाम आई और हम दोनों एक टी.टी. के हाथ फँस गए। हम दोनों ‘बिना टिकिट अद्धों’ की जमकर पिटाई हुई। मार खाना मेरे लिए नई बात नहीं थी पर माँगीलाल के लिए इस प्रकार पिटना एक असाधारण बात थी। उसके छक्के छूट गए। पहला सवेरा ही उसके लिए अपशकुन से शुरु हुआ था! इस पिटाई ने मेरा मनोबल तो बढ़ाया पर माँगीलाल का मनोबल तोड़ दिया।
‘रेल की पटरी-पटरी हम दोनों रतलाम से दाहोद या दोहद तक पैदल आये। मैं कह नहीं सकता हूँ कि यह दूरी अनुमानतः कितनी होगी। कम-से-कम 35 और अधिकाधिक 50 मील तो यह फासला होगा ही। रास्ते में भीख माँगना और पेट भरना। न मेरे पास पैसा न माँगीलाल के पास कौड़ी। हाँ, माँगीलाल के पास एक चादर जरूर थी ओढ़ने को। उस चादर ने सर्दियों में हमको बड़ा सहारा दिया। वह चादर उस समय हमारे लिए वरदान थी।
‘दाहोद पर एक रेलवे स्टेशन मास्टर की सहानुभूति अनायास ही हमको प्राप्त हो गयी। उसने हमको रेल में बैठा दिया। इस सहानुभूति को मैंने हिंगलाज माता का चमत्कार समझा और माँगीलाल को जब मैंने यह बात समझाई तो उसका टूटा मनोबल फिर जुड़ता-सा लगा।’
मैंने दादा से सवाल किया ‘वह सन् 1930 का जमाना था। आप एक पटवारी के पुत्र और रेल में आर-पार घूम रहे थे। क्या उस समय के राजनीतिक वातावरण का आपको कुछ खयाल आता है?’
दादा बोले- ‘हाँ, भारत तब अविभाजित था। नमक आन्दोलन की चर्चा यहाँ-वहाँ हम लोग सुनते थे। साबरमती आश्रम का नाम मैंने सुना था और गाँधीजी हमारे लिए अवतार की तरह हो चले थे। रेलांे में भी मुसाफिर स्वराज्य की बात करते थे। मैंने तब भी यह यह अन्दाज लगा लिया था कि स्वराज्य बराबर आएगा पर मेरा कच्चा मन यह नहीं मानता था कि बिना लड़े आजादी कैसे आएगी? खैर! हम बिना टिकिट ही दोहद से चलकर डाकोरजी आ गए। यहाँ आते ही हमने जैसे-तैसे अपने-आपको स्टेशन से बाहर किया और हम दोनों एक अन्न-क्षेत्र में जा पहुँचे। तब डाकोरजी में 80-90 अन्न-क्षेत्र थे। वहाँ हम लोगों ने अपना वेश बदला, तिलक-छापे लगाये और माँग-तूँगकर कपड़े बदले। अन्न-क्षेत्रों में विभिन्न उम्र के साधुओं का जमघट लगा रहता था। वातावरण वहाँ का बहुत ही धार्मिक और साधुओं के लिए निश्चिन्तता का था। साधुवेश में रहने वालों के लिए दोनों समय का खाना और शाम को विश्राम का साधन, आसान और आदर से जुट जाया करता था। खाना और रामदेवजी के गीत गाना तथा भिक्षा माँगना हमारा काम था। पर मैं देखता था कि माँगीलाल कुछ अनमना रहता है और मेरे कदम से कदम मिलाने में उसे हिचक होती है।
‘यहाँ से बिना टिकट ही हम आगे बढ़े। रेल से ही हम दोनों आनन्द आये और आनन्द से अहमदाबाद आ गये। अहमदाबाद में हमारे सामने फिर से खाने और सोने-बैठने की समस्या आ गयी। पर भाग्य हमारे साथ शुभ था। घूमते-फिरते अनायास ही हमें हमारे ही गाँव नयागाँव का एक लक्ष्मण नायक नामक आदमी मिल गया। लक्ष्मण नयागाँव से कई दिनों पहले हिंगलाज माता के नाम से ही चला था। यहाँ वह मजदूरी करके अपना गुजर-बसर कर रहा था। उसने हम दोनों को भी मजदूरी पर लगा दिया और हमारा काम चल निकला। वास्तव में लक्ष्मण हम लोगों को एक अन्न-क्षेत्र में मिला। हम लोग अन्न-क्षेत्र की तलाश हर मुकाम पर जाते ही करते थे। लक्ष्मण भी दिन-भर मजदूरी करता था और शाम-सवेरे का खाना अन्न-क्षेत्र में ही खाता था। अब हमारा भी यही क्रम हो गया। लक्ष्मण के साथ ही हम लोग भी दिन-भर मजदूरी करते और दोनों समय का खाना अन्न-क्षेत्र में ही खाते। हमें पहली मजदूरी एक आना मिली। जब उस समय यह एक आना मेरे हाथ में आया तो आँखों में आँसू आ गए। इन आँसुओं में हर्ष और क्षोभ का मिश्रण था। यह वह पैसा था जो विशुद्ध रूप से मेरे लिए ही खर्च होने को मेरे हाथ में आया था और क्षोभ इस बात का था कि मैं एक निकम्मी जिन्दगी जीने के लिए अभी भी विवश हूँ। पिताजी-माताजी यदि मुझे पढ़ाते तो आज मुझे न तो इस प्रकार भीख माँगनी पड़ती और न तन तोड़ना पड़ता। लक्ष्मण करीब तीस वर्ष का था और उसने दुनिया देखी थी। उस समय अहमदाबाद देख लेना परियों की कहानी जैसा लगता था। अहमदाबाद में हम लोग कोई दो या ढाई माह रहे होंगे। हम दोनों ने मजदूरी कर-करके, कमरतोड़ मेहनत की और कीब 25-25 रुपये इकट्ठे कर लिए। हम दोनों के पास 49-50 रुपया था और यह राशि उस जमाने में बहुत बड़ी मानी जाती थी।
‘ज्यों ही हम पैसों से मजबूत हुए कि हम दोनों ने अहमदाबाद से मेहसाना का टिकिट कटाया। अपने कपड़े भगवा रंगवाए। रुद्राक्ष की मालाएँ पहनीं और पहली ही नजर में साधु दीख सकें, ऐसे बन गए। मेहसाना में हम लोग एक अखाड़े में प्रविष्ट हुए। यह अखाड़ा गुसाइयों का था। हम दोनों किशोरों को भगवा कपड़ों में देखते ही हमारी आशा के विपरीत कई गुसाई हम पर टूट पड़े और हम दोनों को बुरी तरह पिटना पड़ा। मैंने कई महीनों के बाद मार खाई थी। घर में परिजनों से पिटता था, उसके बाद रतलाम में टी. टी. से पिटा था और उसके महीनों बाद यहाँ गुसाइयों से पिटा था। पर यह मार खाने में मुझे अपार सुख मिला था। यह मार मैंने साधुवेश के लिए खाई थी और यह मेरा गौरव था। हिंगलाज माता का मेरा संकल्प और भी दृढ़ हो गया। पर इस अखाड़े में हम दोनों, इन गुसाइयों द्वारा आवारा घोषित कर दिए गए और सूर्योदय से पहले ही हमको मेहसाना छोड़ने पर विवश होना पड़ा। हम अपने शिव संकल्प की सात्विकता उन मट्ठ दिमागों के दिलों में जमा ही नहीं पाए। हमने बहुत ही बुरी मनःस्थिति में मेहसाना छोड़ा। अब हमारी यात्रा पैदल ही शुरु हुई। कच्छ यहीं से शुरू हो जाता है।’
मैं और मेरे साथ कमरे में बैठे सभी साथी चौकन्ने हो गये, पर दादा अपनी देहाती हँसी हँसे और कहने लगे- ‘यह वह समय नहीं है जबकि मैंने कच्छ पैदल पार किया। वास्तव में कच्छ मैंने अपनी इस महान यात्रा से आते समय पैदल पार किया था। जिस जगह से मैंने कच्छ की अपनी पैदल यात्रा शुरु की थी वह स्थान आज पाकिस्तान में है और जब भी मुझे इस बात का आभास होता है, मेरा मन रो उठता है।’
हम सबकी साँस वापस आयी हमने फिर अपने-आपको आश्वस्त किया और सुना - ‘महसाना से कच्छ की ओर लूनो नदी है। जैसा इस नदी का नाम है वैसा ही इसका पानी भी है। लवण शब्द से लोन और फिर लूण तथा लून और लूनी, यही कुछ इस शब्द का क्रम रहा होगा। न तो मैं भाषा-शास्त्री हूँ और न शब्द-शास्त्री, पर इस नाम से नमक का अर्थ साफ है। लूनी नदी में उस समय पानी था। पानी, नाम के अनुरूप खारा था और पीने के लायक नहीं था। हमने इस नदी को पैदल ही पार किया। हमारे पास एक ओढ़ना और बढ़ गया था जो हमने अहमदाबाद से खरीेदा था। नदी पार करते ही हम लोग कच्छ की सीमा पर राधनपुर नामक गाँव में आ गये। उस समय यह कस्बा करीब तीन हजार की आबादीे था। भगवान की दया से आज तो इसकी आबादी और भी बढ़ गयी होगी।
कच्छ का पदयात्री: यात्रा विवरण
बालकवि बैरागी
प्रथम संस्करण 1980
मूल्य - 10.00 रुपये
प्रकाशक - अंकुर प्रकाशन, 1/3017 रामनगर,
मंडोली रोड, शाहदरा, दिल्ली-110032
मुद्रक - सीमा प्रिंटिंग प्रेस, शाहदरा? दिल्ली-32
कॉपीराइट - बालकवि बैरागी
वाह! बहुत ही दिलचस्प, रोमांचक कथा है.
ReplyDeleteआदरणीय रविजी,
Deleteसादर प्रणाम,
आप जानते हैं कि मैं आपको अपना ‘गुरु’ माने हुए हूँ। आज, गुरु पूर्णिमा पर आपकी टिप्पणी का प्रसाद मिलना अपने-आप में एक अलग ही सुखद संयोग है।
आज, गुरु पूर्णिमा के पुनीत प्रसंग पर इस आलसी और अशिष्ट शिष्य की ओर से कृतज्ञता भरे सादर प्रणाम स्वीकार करें।
यह आपके कारण ही सम्भव हो पाया है। आपने मुझे जो ‘जादुई छड़ी’ दी, उसने मुझे गति और ऊर्जा दे दी। यह कथा यदि सामने आ पाई है तो उसका समूचा श्रेय मैं आपको ही अर्पित करता हूँ।
तस्मै श्री गुरवै नमः।