समर्पण
जिन्हें
मेरी कलम से
कोई सरोकार नहीं है
ऐसे
डॉ. श्री वेदप्रताप वैदिक
एवम्
डॉ. श्री प्रभाकर श्रोत्रिय
को
ससम्मान समर्पित।
(यह जानते हुए भी
कि
ये दोनों
इन पृष्ठों को
पढ़ेंगे नहीं।)
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डराओ मत
बिजली को बादल से
सोने को आग से
शून्य को अंक से
और मछली को पानी से।
मुक्त कर लो अपने आपको
इस डरावनी मानसिकता
और पागल परेशानी से ।
बादल ही तो है बिजली का घर
आग ही परखती है सोने को
शून्य क्यों डरेगा अंक से?
और मछली?
मछली पानी से नहीं तो
क्या प्यार करेगी पंक से?
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द्वार-देहरी-दर-दीवार
दीवट या दौलतखाने में
रख दो हजार दीये
जला लो लाख दीपक
अपनी मुँडेर पर
कोई फर्क नहीं पड़ता
अगर अँधेरा है
दिलों के आले में
जो अन्धा है
मन का मालिक
तो अँधेरी गुफा है
तुम्हारी उम्र की पगडण्डी।
-इस संग्रह से
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हैं करोड़ों सूर्य लेकिन सूर्य हैं बस नाम के
जो न दें हमको उजाला वे भला किस काम के ?
जो रात भर जलता रहे उस दीप को दीजे दुआ,
सूर्य से वो श्रेष्ठ है तुच्छ है तो क्या हुआ ?
वक्त आने पर मिला लें हाथ जो आँधियार से,
संबंध उनका कुछ नहीं है सूर्य के परिवार से॥
जो न दें हमको उजाला वे भला किस काम के ?
जो रात भर जलता रहे उस दीप को दीजे दुआ,
सूर्य से वो श्रेष्ठ है तुच्छ है तो क्या हुआ ?
वक्त आने पर मिला लें हाथ जो आँधियार से,
संबंध उनका कुछ नहीं है सूर्य के परिवार से॥
भूमिका
उत्तराधिकार के बीज
आज का बहुत बड़ा और कचोटनेवाला सवाल मेरी नजर में एक यह भी है कि ‘आप-हम अपने बच्चों को वसीयत में, विरासत में, उत्तराधिकार में क्या देना चाहते हैं--आशा या निराशा?’ मेरा मानना और आपका उत्तर इस मुकाम पर एक ही होगा--‘हम अपने बच्चों को विरासत, वसीयत याकि उत्तराधिकार में आशा ही देना चाहते हैं, निराशा नहीं।’ तब फिर क्या निराशा के बीज बोने से आशा की फसल उगेगी? कदापि नहीं। यदि हमें आशा को फसल काटनी है तो बीज भी आशा के ही बोने होंगे। आशा की खेती, निराशा के बीजों से नहीं होगी।
‘आलोक का अट्टहास’ ऐसी ही कविताओं के पृष्ठ आपके सामने फैलानेवाला मेरा नया काव्य-संग्रह है। सभी कविताएँ ऐसी नहीं भी हो सकती हैं; लेकिन कई कविताएँ ऐसी ही हैं।
मैं निराशा और हत-उत्साह का कवि नहीं हूँ । जानता हूँ कि आरती में बुझे हुए दीये नहीं रखे जाते। अँधेर से लड़ना आसान नहीं होता। तरह-तरह के अँधेरे हमारे आस पास हैं। लेकिन मैं मानता हूँ कि सूरज मर नहीं गया है। रोशनी बाँझ नहीं है। दीया जीवित है।
आप पढ़ें तो आपकी कृपा, नहीं पढ़ें तो मुझे कोई शिकायत नहीं है। आपका हमारा ‘सत्संग’ होता ही रहता है। फिर होगा। प्रणाम!
-बालकवि बैरागी
बुद्ध पूर्णिमा, 2060 विक्रमी
16 मई 2003 ईसवी
अनुक्रमणिका
01 तुम: उनके लिए
02 स्वभाव
03 आलोक का अट्टहास
04 माँ ने कहा
05 धन्यवाद
06 महाभोज की भूमिका
07 मैं जानता हूँ वसन्त
08 खाली म्यान
09 साधना का नया आयाम
10 चिन्तक
11 गन्ने! मेरे भाई!
12 जीवन की उत्तर-पुस्तिका
13 इष्ट मित्र
14 पर्यावरण प्रार्थना
15 इस वक्त
16 गुप्त लिपि
17 दीप ने मुझसे कहा
18 उनका पेशा
19 बड़ी ताकत है फूलों में
20 गुलदस्ते! गमले! बगीचे और खेत
21 हिंदी
22 आज का अखबार
23 मैं रहा टेसू -का-टेसू
24 एक दिन
25 राज करिए दीप को
26 एक और जन्मगाँठ
27 जन्मदिन पर-माँ की याद
28 पराजय-पत्र
29 तब भी
30 उनका पोस्टर
31 पेड़ की प्रार्थना
32 रामबाण की पीड़ा
33 नसेनी
34 पर जो होता है सिद्ध-संकल्प
35 करके देखो
36 वासुदेव धर्मी
37 उठो मेरे चैतन्य
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आलोक का अट्टहास (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - सत्साहित्य प्रकाशन, 205-बी, चावड़ी बाजार, दिल्ली-110006
सर्वाधिकार - सुरक्षित
संस्करण - प्रथम 2003
मूल्य - एक सौ पच्चीस रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली
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