श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘शीलवती आग’ की दसवीं कविता
सब कुछ बेतरतीब
‘शीलवती आग’ की दसवीं कविता
सब कुछ बेतरतीब
कभी पढ़ी हथेली
तो कभी पढ़ा आकाश को
पर आज तक दे नहीं पाए
चौथा पत्ता पलाश को।
ढाक के वे ही तीन पात।
वैसा का वैसा दिन
वेैसी की वैसी रात।
कपाल को कूटना
और साँस-साँस पीछे छूटना।
ज्यादा कुछ किया तो
जोड़ कर हथेलियाँ
बना ली अंजुलि।
बहुत ज्यादा किया तो
भींच कर जबड़े, खींच कर साँस
हथेली को बदल दिया मुट्ठी में
और तान दिया उसे आकाश की तरफ।
सब कुछ बेतरतीब
सब कुछ अस्तव्यस्त
और अन्ततः होकर पस्त
घुस गए अपने ही खोल में
सम्भावित इतिहास को
घोल दिया
आकाशी भूगोल में।
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संग्रह के ब्यौरे
शीलवती आग (कविता संग्रह)
कवि: बालकवि बैरागी
प्रकाशक: राष्ट्रीय प्रकाशन मन्दिर, मोतिया पार्क, भोपाल (म.प्र.)
प्रथम संस्करण: नवम्बर 1980
कॉपीराइट: लेखक
मूल्य: पच्चीस रुपये
मुद्रक: सम्मेलन मुद्रणालय, प्रयाग
यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। ‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।
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