श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘शीलवती आग’ की इकतीसवीं/अन्तिम कविता
वे और मैं
‘शीलवती आग’ की इकतीसवीं/अन्तिम कविता
वे और मैं
आश्वासन से उपासना तक
मैं उन्हें कुछ नहीं दे पाया।
उन्होंने मुझे बहुत कुछ दिया है
गाली से गुलाल तक।
उनकी कनपटियों की गर्मी
मैं अपनी रगों से जोड़ता हूँ
वे मेरा जो चाहे सो करें
सारा फैसला
उन्हीं पर छोड़ता हूँ।
स्वागत-द्वार, तोरण, वन्दनवार
फूल-हार और जय-जयकार
पहिले की तरह रोमांचित नहीं करते।
वे जानते हैं कि
मैं क्या बोलूँगा
मैं जानता हूँ कि
वे क्या कहेंगे?
निश्छलता के दोनों किनारे
टूट चुके हैं।
मक्कारी और स्वार्थ के बीच वाले
राजमार्ग ने
निगल ली हैं
विश्वास की सारी पगडण्डियाँ।
वे जी रहे हैं एक घुटन, टूटन और आक्रोश को
मैं जी रहा हूँ
असुविधा और सुलगते हुए आत्म सन्तोष को।
होना बहुत कुछ चाहता है
पर होता नहीं है।
झुग्गी से लेकर झिलमिल शीश महल तक
चैन से कोई सोता नहीं है।
वे सिमट गये हैं अपने आप में
मैं फैल गया हूँ सीमा से ज्यादह
फिर भी उन्हें मेरी प्रतीक्षा है
राम जाने
यह किसकी अग्नि परीक्षा है।
जीने को सब जी रहे हैं
चलने को सब चल रहा है
साबूत कोई भी नहीं है
हर एक का
कुछ-न-कुछ जल रहा है।
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मैं उन्हें कुछ नहीं दे पाया।
उन्होंने मुझे बहुत कुछ दिया है
गाली से गुलाल तक।
उनकी कनपटियों की गर्मी
मैं अपनी रगों से जोड़ता हूँ
वे मेरा जो चाहे सो करें
सारा फैसला
उन्हीं पर छोड़ता हूँ।
स्वागत-द्वार, तोरण, वन्दनवार
फूल-हार और जय-जयकार
पहिले की तरह रोमांचित नहीं करते।
वे जानते हैं कि
मैं क्या बोलूँगा
मैं जानता हूँ कि
वे क्या कहेंगे?
निश्छलता के दोनों किनारे
टूट चुके हैं।
मक्कारी और स्वार्थ के बीच वाले
राजमार्ग ने
निगल ली हैं
विश्वास की सारी पगडण्डियाँ।
वे जी रहे हैं एक घुटन, टूटन और आक्रोश को
मैं जी रहा हूँ
असुविधा और सुलगते हुए आत्म सन्तोष को।
होना बहुत कुछ चाहता है
पर होता नहीं है।
झुग्गी से लेकर झिलमिल शीश महल तक
चैन से कोई सोता नहीं है।
वे सिमट गये हैं अपने आप में
मैं फैल गया हूँ सीमा से ज्यादह
फिर भी उन्हें मेरी प्रतीक्षा है
राम जाने
यह किसकी अग्नि परीक्षा है।
जीने को सब जी रहे हैं
चलने को सब चल रहा है
साबूत कोई भी नहीं है
हर एक का
कुछ-न-कुछ जल रहा है।
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संग्रह के ब्यौरे
शीलवती आग (कविता संग्रह)
कवि: बालकवि बैरागी
प्रकाशक: राष्ट्रीय प्रकाशन मन्दिर, मोतिया पार्क, भोपाल (म.प्र.)
प्रथम संस्करण: नवम्बर 1980
कॉपीराइट: लेखक
मूल्य: पच्चीस रुपये
मुद्रक: सम्मेलन मुद्रणालय, प्रयाग
यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। ‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।
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