श्री बालकवि बैरागी के कविता संग्रह
‘आलोक का अट्टहास’ की उनतीसवीं कविता
‘आलोक का अट्टहास’ की उनतीसवीं कविता
तब भी
अधमरी उमंगें
अधमरा उल्लास
न कहीं वसन्त
न कहीं मधुमास।
मीलों तक पता नहीं
टेसू पर फूलों का
बीत गया सारा फागुन
पर ताला नहीं खुला
कामदेव के स्कूलों का।
आम बौराया नहीं
कोयल ने पंचम लगाया नहीं
रसीली तितली की तलाश में
एक भी भँवरा आया नहीं।
कुँवारे ही मर गए
अलसी और सरसों के फूल
सबकुछ अटपटा
सबकुछ ऊलजलूल।
डफ, चंग और माँदल पर
घनघोर उदासी
अलगोजे की तान तक
ले रही है उबासी।
तब भी वे मान रहे हैं
इसे वसन्त
शायद यही है अनन्त-का-अन्त।
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अधमरा उल्लास
न कहीं वसन्त
न कहीं मधुमास।
मीलों तक पता नहीं
टेसू पर फूलों का
बीत गया सारा फागुन
पर ताला नहीं खुला
कामदेव के स्कूलों का।
आम बौराया नहीं
कोयल ने पंचम लगाया नहीं
रसीली तितली की तलाश में
एक भी भँवरा आया नहीं।
कुँवारे ही मर गए
अलसी और सरसों के फूल
सबकुछ अटपटा
सबकुछ ऊलजलूल।
डफ, चंग और माँदल पर
घनघोर उदासी
अलगोजे की तान तक
ले रही है उबासी।
तब भी वे मान रहे हैं
इसे वसन्त
शायद यही है अनन्त-का-अन्त।
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संग्रह के ब्यौरे
आलोक का अट्टहास (कविताएँ)
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - सत्साहित्य प्रकाशन,
205-बी, चावड़ी बाजार,
दिल्ली-110006
सर्वाधिकार - सुरक्षित
संस्करण - प्रथम 2003
मूल्य - एक सौ पच्चीस रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली
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