गोपनीय
‘दो टूक’ मेरी रचनाओं का एक और संकलन है। कुछ गीत और और कुछ मुक्त छन्द। न जाने कौन-कौन-से विषयों पर इनमें मैंने कुछ कहने की कोशिश की है। विषमता से संघर्ष और गरीबी तथा रुढ़ियाँ से लड़ना मेरा जन्मजात प्रोग्राम है। रचनाओं में सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, वैचारिक, शैक्षणिक और ऐसी ही हर विषमता पर मैंने दो टूक चोट की है। उपदेशक मुझे कभी भले नहीं लगे और मैंने उपदेशक होना भी नहीं चाहा। केवल समस्या का ढिंढोरा पीट देना मैं कविता या किसी भी कला-विधा का काम नहीं मानता। उसका समाधान देना भी कला का अपना दायित्व है। मैं इस जगह सचेष्ट हूँ।
रचनाओं का वर्णन मैं यहाँ नहीं करूँगा। जहाँ-जहाँ से मुझे वेदना मिली, मैंने ली और उसे वाणी दी। यही बात प्रेरणा के बारे में भी है। परिवार-नियोजन तक पर मैं लिखता रहा हूँ। तीन प्रयोग इसमें दिए हैं। मैं इसे एक गम्भीर राष्ट्रीय समस्या मानता हूँ और गम्भीर समस्या पर सतही नहीं लिखा जाना चाहिए। या तो उसमें ‘ऐंगिल’ होना चाहिए या चिन्तन। इस देश का दुर्भाग्य है कि परिवार-नियोजन जैसा गम्भीर मसला हास्य को सौंप दिया गया है। क्या यह समस्या हँसी में उड़ा देने लायक है? निश्चय ही नहीं।
स्व. जवाहरलालजी, शास्त्रीजी और डॉ. लोहिया अपने जीवन मुझे कहीं-कहीं मेरे बहुत करीब लगे सो उनकी मृत्यु मुझे किसी ‘मेरे अपने’ की मृत्यु लगी अतः बोल फूट पड़े। इन पर यदि मैं नहीं लिखता तो बेईमान कहलाता। वह मैं हूँ नहीं।
इस संग्रह केे गीतों को मैंने और अन्य कई गायकों ने यथा सम्भव गाया है। मुक्त-छन्द को मैंने आसानी से स्वीकार किया है। इन रचनाओं को मैंने पूरी ईमानदारी से मंचों पर हजारों बार पढ़ा और प्रशंसा पाई है। कविता मैं जितनी ईमानदारी से लिखता हूँ, उतनी ही ईमानदारी से पढ़ता भी हूँ। मेरे द्वारा मंच के साथ आज-तक बेईमानी का एक भी प्रसंग उपस्थित नहीं हो पाया है। यह मेरा सौभाग्य है।
यह आवश्यक नहीं है कि मैं जो कुछ लिखूँ वह कविता ही मानी जाए। वह बेमानी भी हो सकती है। फूहड़ और छिछला भी कहा जा सकता है पर ‘दो टूक’ बात यह है कि यह सब आपकी अपनी देन और दौलत है। मेरा क्या है? कुछ भी नहीं।
भाई श्री ईश्वरचन्द्रजी (राजपाल एण्ड सन्ज वाले) को बहुत धन्यवाद देता हूँ कि इस पुस्तक की पाण्डुलिपि उन्होंने मुझसे तैयार करवा ही ली। वे यदि पीछा नहीं करते तो मैं लम्बी ताने सोया ही रहता। डॉ. मंगल मेहता (मन्दसौर) और भाई राजेन्द्र जोशी (भोपाल) ने पाण्डुलिपि तैयार करने में मुझे जो सुझाव और सहयोग दिए उन्हें मैंने स्वीकार किए हैं। उनका आभारी हूँ।
मेरी घरवाली ने मुझे मेरे आलस्य के लिए प्रतिदिन जो ‘दो टूक’ लताड़ें दी हैं उन्हें मैं हमेशा याद रखूँगा। किसी काम को जल्दी और ठीक करने के लिए पत्नी का पत्नीपन बहुत ज़रूरी है इसका एहसास मुझे हो गया। सुशील को बहुत-बहुत धन्यवाद स्वीकार करना चाहिए।
‘दो टूक’ की पहली कविता ‘दो टूक’ यहाँ पढ़िए
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - राजपाल एण्ड सन्ज, कश्मीरी गेट, दिल्ली।
पहला संस्करण 1971
सर्वाधिकार - बालकवि बैरागी
मूल्य - छः रुपये
मुद्रक - रूपाभ प्रिंटर्स, शाहदरा, दिल्ली।
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अनुक्रम
01 दो टूक
02 जीवन क्या है
03 वक्तव्य
04 नया खिलौना
05 अपनी गन्ध नहीं बेचूँगा
06 आज्ञा दो
07 तीन आस्था-घोष
08 आग का मौसम
09 पोस्टर
10 नाग-पंचमी
11 पहिली पीढ़ी टूट रही है
12 अन्धकूप
13 अधूरी पूजा
14 आधुनिक धर्मपत्नी से
15 आधुनिक स्कूल
16 युद्ध और मेहँदी
17 मैं कितना निर्बल हूँ
18 युद्ध-गीतों के आलोचकों से
19 व्याकुल राष्ट्र-पताका से
20 मेरे देश! शकुन ले
21 लोहिया के प्रति
22 झर गए पात
23 कब से तुमको नहीं निहारा
24 ये फागुन और याद तुम्हारी
25 दिन वासन्ती
26 यह किसने रास रचाया
27 मत इतनी वासन्ती रोलो
28 घन बालाएँ केश बिखेरे
29 आखिर तुमने भी ठुकराया
30 लगे फिर श्रम की थाप लगे
31 गोवा की स्मृतियाँ
32 केरल से करगिल घाटी तक
33 आतप में झुलसा वन
34 मंगल-दीप जले
35 ननदी का गीत
36 अजन्मे शिशु की याचना
37 लिलहारे गोद दे रे लाल तिकोना
38 ईश्वर से
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यह संग्रह हम सबकी रूना ने उपलब्ध कराया है। रूना याने रौनक बैरागी। दादा स्व. श्री बालकवि बैरागी की पोती। राजस्थान प्रशासकीय सेवा की सदस्य रूना, यह कविता यहाँ प्रकाशित होने के दिनांक को उदयपुर में, सहायक आबकारी आयुक्त के पद पर कार्यरत है।
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