दवे साहब का कुत्ता (कहानी संग्रह ‘बिजूका बाबू’ की सोलहवीं कहानी)

 



श्री बालकवि बैरागी के कहानी संग्रह
‘बिजूका बाबू’ की सोलहवीं कहानी

यह संग्रह, इन कहानियों के पात्रों को
समर्पित किया गया है।




दवे साहब का कुत्ता

वैसे तो दवे साहब बजात-ए-खुद एक दिलचस्प आदमी हैं, पर जब-जब वे अपने कुत्ते के साथ होते हैं या अपने कुत्ते के बारे में बात करते हैं तब-तब और भी ज्यादा दिलचस्प लगने लगते हैं। अपने कुत्ते के मामले में वे यों कहो कि भक्ति-भाव से ग्रस्त हैं। गनीमत है कि उनका सारा-का-सारा परिवार कुत्ते के प्रति उनकी आसक्ति को खूब समझ गया है, वरना आए दिन बखेड़े हो जाते।

एक तो उन्होंने अपने दरवाजे पर दूसरों की तरह वह तख्ती नहीं लगाई, जिसमें लिखा रहता है-‘कुत्तों से सावधान’। विपरीत इसके उन्होंने अपने दरवाजे पर एक बोर्ड लगा दिया, ‘दवे परिवार आपका हार्दिक स्वागत करता है। पधारिए, वेलकम’! लोग हैं कि गच्चा खा जाते हैं। अपने कामकाजों को लेकर भले लोग उनके दरवाजे पर जाते हैं और दरवाजा खुलते ही जिस स्वागताध्यक्ष से भेंटार्थियों का पाला पड़ता है, वह होता है दवे साहब का कुत्ता। दरवाजा चाहे दवे साहब खुद खोलें, वे आगन्तुक का भरपूर स्वागत पहले अपने कुत्ते से करवाते हैं, बाद में स्वयं अभिवादन करते हैं। कोई भला आदमी कैसे भीतर प्रविष्ट हो?

कई-कई बार तो यहाँ तक हो गया कि कुत्ते ने आनेवाले महाशय की छाती पर अपने दोनों अगले पाँव रख दिए और अपनी लार से लथपथ जबान को आगत के गले और गालों तक लगा दिया। लोग सिर से पाँव तक काँपते रहे और दवे साहब इत्मीनान से कहते रहे, ‘काटेगा नहीं, काटेगा नहीं! चिन्ता नहीं करें। लाड़ में आ गया है। आपको पहली बार देखा तो आपसे दोस्ती कर रहा है।’ यानी वे अपने कुत्ते को कुछ नहीं कहेंगे। जो भी कहेंगे, बस आपसे ही कहेंगे। समझाना हुआ तो भी आपको ही समझाएँगे। कुत्ता तो समझदार है ही, क्योंकि वह दवे साहब का कुत्ता है। उसकी समझदारी पर दवे साहब को कभी शक नहीं हुआ। अपने बाल-बच्चों से ज्यादा ध्यान और खयाल दवे साहब ने अपने कुत्ते का रखा है। चाहे वह खाने-पीने का मामला हो, चाहे गरमी-सर्दी या सम-विषम मौसम का। अपने कार्यालय से कम-से कम चार या पाँच फोन वे अपने घर, बस अपने कुत्ते का हाल-चाल पूछने के लिए ही करते हैं। उनका गणित सीधा-सा है कि सरकार एक दिन के तीन लोकल कॉल फ्री देती है। उसके बाद एक कॉल का अस्सी पैसा या एक रुपया लगता है। अगर रुपए-दो रुपए रोज अपने एक प्रियजन, परिजन, स्वजन या आत्मीयजन का हाल-चाल पूछने पर खर्च हो गया तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा? श्रीमती दवे की एक शिकायत बहुत वाजिब है। वे कहती हैं कि इस कुत्ते के सिवाय घर में हम लोग भी तो रहते हैं। अपने कुत्ते के समाचार लेने के बाद दो-चार वाक्य हम लोगों के लिए भी बोल लिया करो।

पर दवे साहब के दिलो-दिमाग में से कुत्ता निकले तो कामिनी आए! वे हँसते हुए बात बदल देते हैं। 

उस दिन तो दवे साहब ने कमाल ही कर दिया। कोई काम लेकर अमुकजी दवे साहब के इरवाजे पर पहुँच गए। उनको पता नहीं था कि वहाँ दवे साहब से पहले उनका कुत्ता स्वागत करेगा। जो श्वान-शैली दवे साहब के यहाँ स्वागत में प्रचलित थी उससे सर्वथा अनभिज्ञ श्री अमुकजी ने घण्टी का बटन दबाया। दवे साहब के साथ उनका भयानक आतंकवादी कुत्ता बिजली की तेजी से लपकता हुआ अमुकजी की छरती पर अपने दोनों पंजों को गड़ाकर उनका मुँह चाटने की कोशिश में पिल पड़ा। पच्चीस-पचास किलो, ऐसे वजन को सहने की आदत अमुकजी को इस तरह की नहीं थी। वे चौकड़ियाँ भूल गए। वे यह भी भूल गए कि उनके आने का निमित्त क्या था। कपड़ों का सत्यानास तो हो ही चुका था। सारा मुँह फसूकर से भर गया। आँखें फटी-की-फटी रह गईं और माथा भिन्ना गया। चक्कर खाकर गिरते, तब तक हँसते हुए दवे साहब ने उन्हें सँभाला। सँभाला ही नहीं, समझाया भी कि आप कोई ऐसी-वैसी हलचल नहीं करें। अपनी जगह स्थिर खड़े रहें। काटेगा नहीं, बस जरा सा या तो आपको सूँघेगा या थोड़ा सा चाटेगा। अमुकजी को सहज होने में कई मिनट लग गए। दवे साहब इस सादर स्वागत के बाद अमुकजी को अपने ड्राइंगरूम में ले गए। कुत्ता पीछे-पीछे। 

अमुकजी जिस सोफे पर बैठे, उसके ठीक सामनेवाले सोफे पर कुत्ते ने भी पोजीशन ली। मानो पूछ रहा हो कि ‘कहिए, कैसे पधारना हुआ?’

श्रीमती दवे ने अमुकजी को पानी पिलाया और अपने प्यारे कुत्ते पर एक मीठी सी नजर डालती हुई बोलीं, ‘बड़ा हरामी है। नॉटी ब्वॉय।’ दवे साहब उठे और अपने नॉटी ब्वॉय को सहलाने लगे। अमुकजी कभी दवे साहब को देख रहे थे तो कभी श्रीमती दवे को। उनकी हिम्मत नहीं हो रही  थी उस कुत्ते की आँखों में आँखें डालने की। दवे साहब ने अमुकजी के पधारने का मकसद पूछा। अब जाकर अमुकजी को लगा कि उनसे आने का कारण पूछा जा रहा है। मन की सारी झल्लाहट मुँह पर आ गई। वे करीब-करीब बौखलाकर खीझ पड़े। कोशिश करने पर भी आने का निमित्त याद नहीं आ सका। जी में आया कि दवे साहब को चार तमाचे जड़ दे, पर सामने कुत्ता बैठा हुआ था। दाँत किटकिटाते और जबड़े भींचते हुए बोले, ‘झक मारने आया था। अपने इस कमीने को सँभालकर रखो। अगर यही सब आपके यहाँ होता रहा तो कौन आएगा आपके दरवाजे पर? देख रहे हैं मेरी हालत? क्या गत बना दीं है आपके इस...’ और अमुकजी ने श्रीमती दवे की उपस्थिति का लिहाज भूलते हुए उनके कुत्ते को पाँच-दस भारी गालियाँ जड़ दीं। दवे साहब बैठे-बैठे मुसकराते रहे। श्रीमती दवे चाय बनाने के बहाने किचन में चली गईं। कुत्ता बराबर अमुकजी को देखता रहा।

जब दस-बीस मिनट अमुकजी बोल-बाल लिये, तब दवे साहब ने पूरी सहानुभूति के साथ पहले अमुकजी को देखा और फिर अपने मन की पूरी गहराई से प्यार भरी नजर अपने कुत्ते पर डाली और उठ खड़े हो गए। अमुकजी समझे कि वे अब उनकी बात सुनेंगे। पर दवे साहब ने कमाल कर दिया। वे करीब-करीब माफी माँगने के अन्दाज में अपने कुत्ते के सामने खड़ेे हो गए। फिर उसे सहलाते हुए, उसे गोद में लेते हुए कुत्तेवाले सोफे पर बैठ गए। खूब लाड़-प्यार और दुलार-पुचकार कुत्ते पर बरसाने के बाद पलकें उठाकर अमुकजी को ऐखकर कुत्ते से बोले, ‘भैया, आज सुबह-ही-सुबह बहुत गालियाँ सुननी पड़ीं न! ये अपने मेहमान हैं। इनकी तरफ से मैं आपसे माफी माँगता हूँ। आपका जीवन सार्वजनिक जीवन है। आपकी लाइफ पब्लिक लाइफ है और पब्लिक लाइफ में ऐसी बातों का बुरा नहीं मानते। इनका काम था गाली देना, आपका काम था गाली सुनना। ये बोल लिये, अपन ने सुन ली। वो कहावत है ना-’गँवार की गाली हँसकर टाली’। अब अपन अपने मेहमान को तो गँवार कह नहीं सकेंगे। तो इस कहावत को यों ठीक कर लेते हैं कि ‘मेहमान की गाली हँसकर टाली’। मैं आपसे माफी माँगता हूँ। आप इनको माफ कर दो। पब्लिक लाइफ में भला-बुरा सब सुनना पड़ता है। अपन किस-किससे लड़ने जाएँगे? कल को अगर अपन चुनाव में खड़े हो गए तो अपन को भी इनके दरवाजे पर जाना होगा। आज आपने पूरी गर्मजोशी से इनका स्वागत किया, तब भी आपको गाली खानी पड़ रही है। कल आप इनके दरवाजे पर जाकर दोनों हाथ जोड़कर बात करेंगे, तब भी ये गालियाँ ही देंगे। चलो, सब भूल जाओ। आराम से बैठो।’ और दवे साहब ने अपने प्यारे कुत्ते को सिर से पूँछ तक सहलाया। उसे सोफे पर पूरी श्रद्धा से बैठाया। खुद खड़े हुए और पूरी गम्भीरता के साथ कुत्ते से परवानगी माँगनेवाले अन्दाज में पूछने लगे, ‘अच्छा तो मैं अब इनसे बात करूँ? ये अपने मेहमान हैं। बड़ा करम करके अपने घर पधारे हैं।’ और आराम से अपनी सीट पर बैठकर अमुकजी से मुखातिब हुए, ‘हाँ तो भाई साहब! कहिए, आपकी क्या सेवा की जाए?’

अमुकजी का खून खौल रहा था। धड़कन अभी तक तेज थी। गुस्सा उतरता नहीं लग रहा था। पता नहीं दिमाग कहाँ से कहाँ तक चला गया था। करीब-करीब चीखकर बोले, ‘भाड़ में जाए आपकी सेवा! जहन्नुम में जाएँ आप! स्साले को शूट कर दूँगा। कुत्ते को कुत्ते की तरह पालिए। आनेवालों की छाती पर चढ़ता है। बड़े आए सेवा की पूछनेवाले। आधे घण्टे से तो आप इसी से माफी माँग रहे हैं, जैसे मुझसे कोई गलती हो गई हो। लानत है। धिक्कार है!’ और कहते-कहते अमुकजी तैश में खड़े हो गए।

श्रीमती दवे चाय की ट्रे लेकर ड्राइंगरूम में प्रविष्ट हुईं। अमुकजी ने पूरी हिकारत के साथ चाय की ट्रे को देखा। चिल्लाकर बोले, ‘फेंक दो इस चाय को! हो गई हमारी चाय! जो कुत्ते की औलाद हो, वो आए आपके दरवाजे पर। नमस्ते!’ और अमुकजी बाहर की ओर चल पड़े।

दवे साहब ने अमुकजी को रोका नहीं। उन्होंने फिर अपने कुत्ते को आवाज दी, ‘जाओ भैया। अमुकजी को दरवाजे तक सादर छोड आओ। इनसे कहना कि फिर से पधारना। हमारा दरवाजा आपके लिए चौबीसों घण्टे खुला है।’

अमुकजी के पाँव एक बार फिर लड़खड़ाए। आतंक के मारे उनकी आँखें मुँद गईं। उन्होंने पाया कि दवे साहब का कुत्ता उन्हें सूँघ रहा है और करीब-करीब, साथ-साथ चल रहा है।

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‘बिजूका बाबू’ की पन्द्रहवी कहानी ‘होली’ यहाँ पढ़िए।

‘बिजूका बाबू’ की सत्रहवी कहानी ‘गंगोज’ यहाँ पढ़िए।


कहानी संग्रह के ब्यौरे -

बिजूका बाबू -कहानियाँ
लेखक - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - प्रभात प्रकाशन, 4/19, आसफ अली रोड़, नई दिल्ली-110002
संस्करण - प्रथम 2002
सर्वाधिकर - सुरक्षित
मूल्य - एक सौ पचास रुपये
मुद्रक - नरुला प्रिण्टर्स, दिल्ली 

 

 


  


 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

  

    

   

   

   

   

    


 


 

 

 


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