‘बर्लिन से बब्बू को’ - चौथा पत्र: छठवाँ हिस्सा
यों तो हमारा हर क्षण महत्वपूर्ण कामों में बीता, पर इस सप्ताह में सबसे अधिक महत्वपूर्ण दिन मुझे वह लगा, जब हम श्रीमती रुथ की व्यवस्था में पोत्सडम देखने गये। यह वह शहर है जहाँ सन 1945 में महत्वपूर्ण चर्चा, जर्मनी के भाग्य को लेकर हुई थी। जर्मनी का बँटवारा इसी शहर में तय हुआ। इंगलैण्ड, फ्रांस, रूस और अमेरिका ने इसी शहर में बैठकर हिटलर के सपनों का अन्तिम संस्कार किया। नाजीवाद और फासिस्टवाद की शव पेटिका पर मजबूत कीलें इसी शहर में ठोकी गई। इस चर्चा का सबसे अधिक उत्तेजक और दिलचस्प पहलू यह है कि जिन दिनों हिटलर का पतन हुआ, उन दिनों इंग्लैण्ड के प्रधानमन्त्री सर विन्सटन चर्चिल थे और इस चर्चा के दौरान ही इंगलैण्ड में आम चुनाव भी चल रहे थे। चर्चिल युद्ध का विजेता था और भारत की आजादी का विरोधी। नौ दिन तक चर्चा करने के बाद श्री चर्चिल और श्री एटली दोनों इंगलैण्ड अपने चुनाव के लिये गये। किन्तु जब दो दिन बाद चुनाव परिणाम निकला तो इंगलैण्ड का महान् प्रधानमन्त्री अपनी पार्टी सहित आम चुनाव में हार गया। तब पोत्सडम के दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने के लिये प्रधानमन्त्री के नाते श्री एटली वापिस आये। जब यह सन्धि हुई, तब तेरा जन्म भी नहीं हुआ था। और तो और बर्लिन के बँटवारे की भूमिका भी यहीं तय हो गई थी। तुम सोचो कि युद्ध का विजेता एक प्रधानमन्त्री युद्ध के तत्काल बाद उसके देश की जनता द्वारा अमान्य कर दिया जाए, चुनाव में हरा दिया जाए, उसकी और उसकी पार्टी की नीतियों को जनता ठुकरा दे, तब उस पर कैसी बीती होगी? इस महान् सन्धि पर एटली ने ब्रिटेन की ओर से, रुजवेल्ट ने अमेरिका की ओर से और स्तालिन ने रूस की ओर से हस्ताक्षर किये थे। फ्रांस के जनरल डिगााल ने इस सन्धि को पहले ही अपनी सहमति दे दी थी। तीनों देशों के पाँच-पाँच प्रतिनिधि एक गोल मेज के आसपास जिस जगह बैठे थे, वे कुर्सियाँ, वह कमरा, वह फर्नीचर और वह वातावरण ज्यों का त्यों सुरक्षित रखा गया है। फ्रांस का दल पोत्सडम नहीं आया था।
पोत्सडम बैठक का दृष्य (चित्र गूगल से साभार)
पोत्सडम बैठक के तीन नेता (चित्र गूगल से साभार)
यह भवन जिसमें कि यह चर्चा हुई थी, यहाँ के किसी राजा का राजमहल था, जिसमें केवल 176 कमरे हैं। जिस कमरे में जिस देश का प्रतिनिधि मण्डल ठहरा था, उसे वैसा का वैसा सजाकर रखा गया है। गाईड जब इन कमरों को दिखाता है, तब ऐसा लगता है मानो वे सभी सदस्य अभी कहीं बाहर गये हैं और कुछ देर बाद लौटकर चर्चा करने ही वाले हैं। चर्चिल के लिये उसके कमरे में मोटाई के हिसाब से विशेष सोफा रखा गया था। आज उस सोफे के ठीक पीछे एक कुत्ते की बड़ी तस्वीर लगा दी गई है, क्योंकि चर्चिल को कुत्ते से बहुत प्यार था।
इस सन्धि को दुनिया तक पहुँचाने के लिये पत्रकारों का जो दल आया था, उसमें अमेरिका की ओर से जॉन एफ. केनेडी नामक 23 वर्षीय एक पत्रकार भी शामिल था, जो आगे जाकर अमेरिका का, इस शताब्दी का सर्वाधिक लोकप्रिय राष्ट्रपति बना। जब गाईड मुझे यह सब समझा रहा था और पत्रकारों का कक्ष दिखा रहा था, तब मेरी आँखों के सामने तेरी शक्ल मँडरा रही थी।
इसी शहर में हम लोग फ्रेड्रिक द्वितीय का विशाल राजमहल भी देखने गये। फ्रांस और इटली के कलाकारों की विशाल कलाकृतियाँ इस महल की सर्वाधिक मूल्यवान धरोहर है। औसतन प्रतिदिन तीन हजार से पाँच हजार तक यात्री इस महल को और पोत्सडम सन्धि स्थल को देखने के लिये आते हैं तथा अपनी भावांजलियाँ अपने राष्ट्र नायकों को अर्पित करते हैं। इस सन्धि चर्चा के दो चित्र यहाँ दिवालों पर लगे हैं, उनमें स्तालिन की मुद्रा देखने योग्य है। गोल मेज पर एक सतर्क चीते की तरह पैनी आँखों से चर्चाकारों को देखता हुआ, अपनी कुर्सी में तनकर बैठा स्तालिन वास्तव में एक महान राष्ट्रनायक और प्रबल विजेता का साक्षात अवतार लगता है। शायद तू जानता होगा द्वितीय विश्व युद्ध में अकेले रूस के दो करोड़ आदमी मारे गये थे। अपने इन दो करोड़ शहीदों को रूस कभी नहीं भुला पायेगा। हिटलर के बर्बर अत्याचार और नाजियों की नालायक करतूतों का कलंकित इतिहास विश्व मानवता कैसे भूल सकती है? जी. डी.आर. को देखने के बाद ऐसा लगता है कि महान् रूस ने अपने इन दो करोड़ शहीदों की याद को ताजा रखने के लिये जी. डी. आर. की पौने दो करोड़ आबादी को शायद ”गोद” ले लिया है। जिस तरह जी. डी. आर. का विकास हो रहा है, जिस तेजी से यह राष्ट्र उभर रहा है, उससे संसार के राजनीतिज्ञ आज यह भविष्यवाणी करते हैं कि हो न हो आने वाले 10 वर्षों में जी. डी. आर. रूस के लिये भी एक चुनौती नहीं बन जाए। पर मैं कह सकता हूँ कि ऐसा होगा नहीं। जी. डी. आर. एहसान-फरामोश देश नहीं है।
इंच-इंच पर मौत: बर्लिन की दीवार
बर्लिन की दीवार पर लोगों ने बहुत लिखा है। मैं उस पर ज्यादा लिखना नहीं चाहता। यह मनहूस दीवार इंच-इंच बिजली के करण्ट से भरी पड़ी है। सफेद रंग के विशेष प्रसाधन से इस दीवार की चद्दरों का निर्माण किया गया है। सारा परिश्रम और सामग्री जी. डी. आर. की है। दोनों ओर सेना का सख्त पहरा है। बर्लिन का बटवारा बिलकुल बनावटी लगता है। पश्चिम बर्लिन मीलों दूर दूर तक चारों ओर जी. डी. आर. से घिरा पड़ा है। रूस चाहता तो बर्लिन का बटवारा अस्वीकार कर सकता था। पर तब तत्काल तीसरा विश्व युद्ध हो जाता। विश्व शान्ति के नाम पर पूँजीवादी देशों ने समाजवादी देशों से कितना बड़ा धोखा किया है, इसे देखना हो तो कोई बर्लिन की दीवार देखे। मैंने इस दीवार को 50 गज दूर से देखा है। एक मौत का सन्नाटाा दीवार पर इंच-इंच चिपका सा लगता है। बर्लिन के निवासी इधर उधर जाने आने के लिए पास लेते हैं, सीमा शुल्क अदा करते हैं और पास की अवधि समाप्त होते ही वापस अपने-अपने इलाके में लौट जाते हैं। एक रेलवे स्टेशन की तो यह स्थिति है कि रेल की एक पटरी पश्चिम बर्लिन में है, दूसरी पूर्वी बर्लिन में। स्टेशन पर कब्जा जी. डी. आर. का है और स्टेशन उपयोग करता पश्चिम बर्लिन है। दीवार को गैरकानूनी तरीके से पास करने का मतलब है गोली का शिकार हो जाना। दीवार की मोटाई कुल एक टिन की चद्दर की है, पर लंबाई पूरे बर्लिन के आरपार है।
मँहगाई और कीमतों के बारे में दोनों पक्षों के अपने-अपने दावे हैं। पर मैंने पाया यह है कि जो खाना पूर्वी बर्लिन याने जी. डी. आर. में 6 या 7 रुपयों में मिलता है, वही खाना पश्चिम बर्लिन में 60 या 70 रुपयों में मिलता है। इसलिए पश्चिम के कई लोग छः मार्क सीमा शुल्क देकर अक्सर पूर्वी बर्लिन में खाना खाने के लिये आते हैं। दीवाल पर चेकिंग बहुत कड़ी होती है और मुद्रा की जाँच बहुत मुस्तैदी से की जाती है। मुद्रा की अवैध हेराफेरी का मतलब है, सीधे सात साल की सजा। सारी कार्यवाही केवल एक घण्टे में पूरी हो जाती है। सात वर्षों के खाने पीने की व्यवस्था जेल में सरकार की ओर से मुफ्त हो जाती है।
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चौथा पत्र: सातवाँ/अन्तिम हिस्सा निरन्तर
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (16-07-2018) को "बच्चों का मन होता सच्चा" (चर्चा अंक-3034) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
सभी पत्र कतार से पढ़ते चले जा रहा हूँ और हर हिस्से के बाद अगले की प्रतीक्षा रहती है। ऐसा लगता है दादा खुद ही सामने बैठ के आपको सुना रहे हैं। चिट्ठी लिखने का ये चलन व्हाट्सएप्प और फ़ोन के कारण शायद खत्म हो गया। अब तो कोई इतनी बात इतने विस्तार में बताना जानता ही नही होगा। इतनी सुंदर और सरल हिंदी का प्रयोग करने वाले भी अब कम ही हैं । सचमुच आपने ये प्रश्न ब्लॉग के रूप में प्रकाशित कर के अच्छा काम किया।
ReplyDeleteइन पत्रों का महत्व केवल यात्रा वृतांत तक न होकर ऐतिहासिक जानकारिया देने की वजह से और बढ़ जाता है।पत्रों की शैली सहज और सुगम हाने के कारण अपना असर पाठक पर गहरे से डालते है।। पढ़ने के बाद नए की उत्कंठा जाग जाती है।
ReplyDeleteजर्मनी की तत्समय की परिस्थितियों का वर्णन पढ़कर मन उद्वेलित होने लगा । तत्समय के शासकों ने अपनी महत्वाकांक्षा के लिये 2 करोड़ लोगों का नर संहार कर इससे कई गुना ज्यादा परिवार को अपार दुख दिया ।
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