‘बर्लिन से बब्बू को’
चौथा पत्र: सातवाँ/अन्तिम हिस्सा
एक संगोष्ठी में मैंने प्रश्न उठाया कि आखिर इस देश में नारी का इतना सम्मान क्यों है? तो जो उत्तर मिला, वह साम्यवादियों की भावुकता का परिचायक था। मुझे बताया गया कि युद्ध के बाद इस देश में एक ऐसा भी क्षण आया था, जब पुरुष एक और महिलाएँ सात का अनुपात आया था। ऐसी स्थिति में इस सारे देश को बचाना और बनाना यह काम खुले तौर पर वहाँ की नारी ने किया है। नारी के प्रति अतिरिक्त आदर का शायद यह भी एक आधार है।
एक एक कमरे में 4-4 कक्षाओं के विद्यार्थियों को 4-4 घन्टे तक एक ही मास्टर ने पढ़ाकर इस देश को उस समय शिक्षा दी थी। मास्टर गाँव-गाँव सायकल से जाते थे और इसी तरह बच्चों को पढ़ाते थे। उस देश में आज बच्चों के लिये बीच शहर में चेकोस्लाविया पद्धति पर जो नये स्कूल बनाये जा रहे हैं वे अलग से अध्ययन के विषय हैं। वे स्कूल तीन मंजिले हैं। सबसे निचली मंजिल में बच्चों के खेलने के खिलौना भवन बने हुए हैं। दूसरी मंजिल में बाग-बगीचे, पार्क और खेल के मैदान तथा तीसरी मंजिल पर पढ़ाई के कमरे। बच्चों की पढ़ाई को कमरों में बैठना जरूरी नहीं है। वे पहली मंजिल से खेलते कूदते अपने आप कक्षाओं में आ जाते हैं। यकीनन वे पढ़ाये नहीं जाते, पढ़ते जाते हैं। उनकी रुचि का अध्ययन तीन वर्षों की उम्र से ही कर लिया जाता है।
बर्लिन के विश्व प्रसिद्ध हमबोल्ट विश्वविद्यालय में आज पैंतीस हजार विद्यार्थी अध्ययन कर रहे हैं। इनमें 50 विद्यार्थी हिन्दी और संस्कृत पढ़ रहे हैं। हिन्दी के प्रसिद्ध विद्वान् डाक्टर नेस्पीटाल यहीं काम करते हैं। विश्वविद्यालय भवन के ठीक सामने वह लायब्रेरी है, जहाँ युद्ध के वक्त नाजियों ने कई कीमती ग्रन्थ और पाण्डुलिपियाँ जला-जला कर खिड़कियों से बाहर फेंक दी थी। गाईड गर्व के साथ हमें कहती थी कि मार्क्स इसी विश्वविद्यालय का विद्यार्थी था।
पास ही नाजियों के जुल्म से शहीद हुए अज्ञात शहीदों की याद में विशाल “ज्योति स्मारक” बना हुआ है। यहाँ सेना के पहरे में अखण्ड ज्योति आठों प्रहर जलती रहती है। जब सिपाही पहरा बदलते हैं, तो वह दृश्य दर्शनीय होता है। पहरा हर आधे घण्टे में बदला जाता है। आधा घण्टे तक वे जवान ज्योति द्वार पर अविचल, प्रस्तर मूर्तियों की भाँति खड़े रहते हैं।
सारे देश में उन भवनों का नवीनीकरण हो रहा है जिन पर लाल सेना और नाजियों के बीच आमने-सामने गोलीबार हुआ था। सड़कों पर लाल सेना थी और भवनों के भीतर नाजी गोलियाँ चला रहे थे। विशाल भवनों की दीवारें गोलियों से छलनी हुई आज भी देखी जा सकती हैं। महात्मा गाँधी और पण्डित नेहरू के साथ भारत में रहे डॉक्टर फिशर जब इस गोलीबार के बारे में हमें बताते थे, तो उनके शब्द एक अनजानी वेदना में डूब-डूब जाते थे।
मन्त्री सडक पर, किसी ने देखा ही नहीं
“पीपुल्स-पैलेस” जिसे कि वहाँ का संसद भवन कहा जाता है, के ठीक बाजू में स्प्री नदी के किनारे एक विशाल राष्ट्रीय स्मारक का पुनः निर्माण जोरों से चल रहा है। इस स्मारक को कैसा बनाया जाए, इस पर सारे देश में मत-संग्रह किया गया। जनता ने मत दिया कि इसका पुराना स्वरूप कायम रखकर इसका नवीनीकरण कर दिया जाय। करोड़ों रुपयों की यह योजना आने वाले साल दो साल में आनन-फानन पूरी हो जाएगी।
प्रारम्भ के दो दिन इस होटल में किसी का मन नहीं लगा। जब श्रीमती रुथ या श्रीमती इमी साथ होती थी, तो व्यवस्था अच्छी रहती थी। पर ज्यों ही व्यवस्था दूसरों के हाथ में जाती थी कि कुछ न कुछ ऐसा-वैसा हो ही जाता था। लाण्ड्री में कपड़े धुलवाने के लिये हमें विशेष पूछताछ करनी पड़ी। यदि लाण्ड्री का बिल हम लोगों को चुकाना पड़ता तो शायद, हम अपने परिजनों के लिये एक कलम भी नहीं खरीद पाते।
जी. डी. आर. के सांस्कृतिक मन्त्री ने हमें लम्बी भेंट देकर उपकृत किया। जब मैंने उनके साथ फोटो खिंचवाने का आग्रह किया, तो वे अपने कार्यालय की इमारत से बाहर फुटपाथ पर आकर खड़े हो गये और टी. वी. टॉवर की पृष्ठभूमि लेकर फोटो खींचने का निर्देश अपने कैमरामेन को देने लगे। हम लोग चहल-पहल भरे फुटपाथ पर एक महत्वपूर्ण मन्त्री के साथ खड़े थे। पर यातायात में कोई व्यवधान नहीं हुआ। किसी ने हमारी ओर ध्यान भी नहीं दिया। वहाँ मुझे उस कथन पर हँसी आई, जब बार-बार पूँजीवादी देश कहा करते हैं कि साम्यवादी देशों के मन्त्री व राजनेता खुली सड़कों पर घूमने से डरते हैं। कितना गलत है यह कथन?
किसी भी भारतीय या जर्मन मित्र ने हमें अपने घर आकर चाय पीने का निमन्त्रण नहीं दिया। पर श्री सेठ 4-5 बार असद भाई के यहाँ हो आए और मैं श्री गुप्ता तथा श्री सेठ, श्री सुनील दासगुप्ता के यहाँ भोजन के लिए गये। मेरा व्रत था। मैंने केवल फल लिये, पर श्री दासगुप्ता, जिन्हें कि लोग वहाँ “रामू दादा” के नाम से जानते हैं, की जर्मन पत्नी ने बढ़िया भारतीय भोजन बनाकर श्री सेठ व श्री गुप्ता को तृप्त कर दिया। इस भोज के समय पंजाबी लोक गीतों का एल. पी. रेकार्ड भोजनगृह में पूरा भारतीय वातावरण बना रहा था।
ईश्वर और भाग्य गैर हाजिर रहे
इस देश को छोड़ने की कल्पना मात्र से एक गहरी उदासी हम सबको घेर रही है। अपने-अपने कमरों में हमारा हर सदस्य जाग रहा है। सब एक दूसरे को टेलिफोन कर रहे हैं- मैं लिख रहा हूँ। सोने के प्रयत्न में सब जाग रहे हैं। सबको प्रतीक्षा है अपनी हवाई टिकटों की। टेलीफोन पर श्री गुप्ता मुझसे पूछ रहे हैं कि हमारी हवाई जहाज की स्पीड क्या होगी। मेरे कमरे से लगा हुआ ठीक पास वाला कमरा श्री सेठ का है और उसके ठीक पास श्री गुप्ता का। सामने वाली पंक्ति में श्री शर्मा का कक्ष है और हम लोग टेलीफोन पर ऐसे ही प्रश्न कर रहे हैं। जब मैंने श्री गुप्ता को बताया कि हमारा हवाई जहाज हमें 850 मील प्रति घण्टे की रफ्तार से उड़ाकर भारत ले जाएगा, तो श्री गुप्ता किलोमीटरों के मील बनाकर उसमें गति का भाग दे रहे हैं कि हम कितने घण्टों में भारत पहुँच जाएंगे। यह मानसिक विकलता है।
18 दिन हो गये इस देश में। मैं हजारों मील घूमा। सैकड़ों लोगों से मिला। पचासों जगह गया-बीसीयों संगोष्ठियों में सवाल-जवाब करता रहा पर कहीं भी मुझे एक शब्द सुनने को नहीं मिला, वह शब्द है ईश्वर। एक और शब्द भी कहीं नहीं सुना। वह है भाग्य।
अब कल मैं तुझे मास्को से फिर लिखूँगा। आखिर वहाँ समय कटेगा कैसे? इन दिनों जी. डी. आर. में भारत के दो प्रतिनिधि मण्डल और घूम रहे हैं। एक है संसद सदस्यों का और दूसरा है शिक्षा शास्त्रियों का। म.प्र. के डी. पी. आई. श्री सत्यम् इस शिष्ट-मण्डल में हैं। हम कोई भी इन शिष्ट-मण्डलों से नहीं मिले। समय ही नहीं मिला।
मैं स्वस्थ्य हूँ और आज जब रेल्वे स्टेशन पर वजन की मशीन पर तुला तो 69 किलो उतरा। यहाँ आया था तब 67 किलो था। दो किलो वजन और हजारों मित्रों की यादें लेकर मैं तुझे अपने आत्मीय स्नेह देता हूँ। जल्दी ही भारत में भेंट होगी।
भाई
बालकवि बैरागी
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‘बर्लिन से बब्बू को’ - पाँचवाँ पत्र: पहला हिस्सा यहाँ पढ़िए
ईश्वर और भाग्य भारतीयों में तो कूट कूट कर भरे है ।
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