गए दिनों एक समाचार चेनल के पर्दे की निचली पट्टी पर पर समाचार नजर आया - ‘छब्बीस जनवरी को ट्रम्प भारत आएँगे।’ नजरें वहीं गड़ गईं। टुकड़ों-टुकड़ों में समाचार का सार था कि भारत सरकार 2019 के गणतन्त्र दिवस के समारोह में अमरीकी राष्ट्रपति ट्रम्प को मुख्य अतिथि के रूप में बुलाएगी। उसके बाद यह समाचार गुम हो गया। लेकिन मेरी आँखें अब भी वह समाचार पढ़ रही हैं।
समाचार पढ़ते ही मयंक और शशांक मन में कौंध गए। दोनों नाम काल्पनिक हैं लेकिन चरित्र वास्तविक हैं। पहचान छुपाने के लिए नाम बदले। मयंक मध्य प्रदेश के ही एक महानगर में रहता है। मेरे परम मित्र का बेटा है। मेरे भतीजे जैसा। उसने मुझसे कुछ बीमे ले रखे हैं।
कोई दो महीने पहले उसका फोन आया। वह अपनी पॉलिसियों पर लोन लेना चाह रहा था। लेकिन तनिक घबराया हुआ था। कह रहा था कि मैं उसे, उसकी पॉलिसियों पर, जितना अधिक मिल सके, लोन दिलवा दूँ। फौरन ही। कारुणिक स्वरों में उसने कहा - ‘लोन जल्दी दिलवा दीजिए अंकल! फौरन ही। प्लीज! मुझे मेरी बेटी की स्कूल की फीस भरनी है।’ मुझे ताज्जुब हुआ। मैं जानता हूँ कि आउट सोर्सिंग से उसे प्रति माह इतनी कि उसे तीस प्रतिशत की दर से आय-कर चुकाना पड़ता है। मैंने ‘काका भाव’ से अधिकारपूर्वक पूछा - ‘क्यों काम-काज में कुछ गड़बड़ है?’ मयंक ने जवाब दिया - ‘कुछ ऐसा ही समझ लीजिए। लेकिन पूछताछ बाद में कीजिएगा। पहले आप लोन दिलवा दीजिए।’
ग्राहकों को उनकी पॉलिसियों पर लोन दिलवाना हम बीमा एजेण्टों की जिन्दगी का सामान्य हिस्सा है। लेकिन मयंक का मामला एकदम अलग था। वह कवेल ग्राहक ही नहीं था। मैंने अपने मित्र से पूछा। परेशान स्वरों में उसने कहा - “हाँ। मयंक परेशान है। दो महीनों से उसे इतना काम भी नहीं मिला कि उसकी गृहस्थी का खर्च निकल आए। ट्रम्प की ‘अमरीका फॉर अमरीकन्स’ की नीति का असर है। पता नहीं ऐसा कब तक चलेगा। लेकिन अभी तो हालत खराब ही है।”
शशांक ने भी कुछ ऐसा ही कहा था। वह बुन्देलखण्ड अंचल का है। अमरीका में ही है। एक बहुराष्ट्रीय कम्पनी में नौकरी का उसका यह दूसरा साल है। महीने-डेड़ महीने में मुझसे बात करता रहता है। मेरे ब्लॉग का नियमित पाठक है। मुझसे प्रायः ही असहमत रहता है। खूब बहस करता है। इतना अनौपचारिक हो गया है कि कभी-कभी डाँट भी देता है।
कोई दो दिन पहले ही उसका फोन आया तो आवाज में न तो खनक न ही उत्साह। मैंने सचमुच में ‘यूँ ही’, केवल खानापूर्ति करने के लिए पूछ लिया - ‘क्या बात है? आज आवाज में दम नहीं! सब ठीक-ठाक तो है? नौकरी तो बढ़िया चल रही है?’ उसने जवाब कुछ इस तरह दिया जैसे परीक्षा में मनमाफिक सवाल पूछ लिया गया हो। बोला - ‘अंकल! अभी तो सब ठीक ही ठीक है। लेकिन पता नहीं कल क्या हो।’ मुझे लगा, उसकी कम्पनी उसके काम-काज से सन्तुष्ट नहीं है। मैंने पूछा - ‘सब कुछ तुम्हारे ऑफर लेटर के हिसाब से ही चल रहा रहा है या कम्पनी ने शर्तें बदल दी हैं?’ शशांक ने कहा - “नहीं। मेरी कम्पनी में कोई प्राब्लम नहीं है अंकल! प्राब्लम तो ‘ट्रम्प-पॉलिसी’ है।” मुझे मयंक का सन्दर्भ याद आ गया। मैं तनिक सतर्क हो गया। पूछा - ‘ट्रम्प-पालिसी का क्या मतलब?’ शशांक के शब्द जरूर अलग थे लेकिन बात वही थी जो मयंक ने कही थी - “आपको तो पता है अंकल! ट्रम्प ने स्लोगन दिया था - ‘अमरीका फॉर अमरीकन्स।’ उसी का असर हो रहा है। और केवल हम इण्डियन्स पर ही नहीं हो रहा! बाहर से आकर अमरीका में नौकरी वाले सारे लोगों पर हो रहा है।”
मयंक की बात केवल आउट सोर्सिंग तक सीमित थी। लेकिन शशांक की बात का केनवास अधिक बड़ा लगा। मैंने पूछा - ‘क्या असर हो रहा है?’ शशांक ने बताया - “चीजें काफी-कुछ बदल रही हैं। हालाँकि बदलाव धीरे-धीरे हो रहा है लेकिन असर हमारी कमाई पर महसूस होने लगा है। अब तक एक सुविधा थी कि वर्किंग वीजा पर आए परदेसी कर्मचारियों की शिक्षित पत्नियाँ प्रति दिन चार घण्टे काम कर सकती थीं। इससे कुछ अतिरिक्त डॉलर हमारे घरों में आ जाते थे। ट्रम्प ने ‘अमरीका फॉर अमरीकन्स’ के नाम पर यह व्यवस्था बन्द कर दी है। हम लोगों के लिए (जो ‘कमाई’ के लिए अपना देस छोड़ कर यहाँ आए हैं) यह बड़ा झटका है।”
मैं कुछ बोल नहीं पा रहा था। इस मामले में मेरी जानकारी शून्य थी। मैं केवल सवाल पूछ सकता था। उसे धीरज भी नहीं बँधा सकता था। मैंने कहा - ‘हाँ। झटका तो है। लेकिन तुम्हारी सेलेरी तो सुरक्षित है। वह वक्त पर भी मिल रही है और उसमें कोई कमी भी नहीं हो रही। तुम तो उसीके आधार पर गए थे! इसलिए इस अतिरिक्त कमाई के छिन जाने का इतना कष्ट नहीं होना चाहिए।’ शशांक ने कहा - “यह तो ‘ट्रम्प पॉलिसी’ का एक नमून भर है अंकल! अभी-अभी एक प्रावधान और जुड़ गया है। वर्किंग वीजा पर काम कर रहा कोई आदमी, किसी भी कारण से यदि 6 महीने बेकार रह गया तो उसे फौरन अमरीका छोड़ना पड़ेगा। इस प्रावधान ने हम सबकी नींद हराम कर दी है। ट्रम्प ने यदि कम्पनियों पर दबाव बनाया तो पता नहीं कितने देशों के, कितने लोग इस प्रावधान के शिकार बना कर अमरीका से खदेड़ दिए जाएँगे। सबसे ज्यादा लोग इण्डिया के हैं। यदि ट्रम्प अपनीवाली पर आ गया तो इण्डिया के एयर पोर्टों पर अमरीका से आनेवालों के जत्थे के जत्थे नजर आएँगे।”
शशांक की बातों से मैं घबरा गया। मैंने कुछ इस तरह कहा जैसे कि मैं खुद को तसल्ली दे रहा होऊँ - ‘नहीं! नहीं! ऐसा कैसे हो सकता है? तुम बेफिकर रहो। ऐसा नहीं होगा।’ अचानक शशांक चुहल पर उतर आया - ‘आप ऐसा कैसे कह रहे हैं? ट्रम्प से आपकी बात हुई क्या?’ हँसी तो मेरी भी चल गई लेकिन अच्छा यह लगा कि शशांक सहज हो रहा था। मैंने कहा कि अनजाने, अज्ञात भविष्य के भय से अपना वर्तमान नष्ट न करे। जो भी होगा, उसके अकेले के साथ नहीं होगा। सबके साथ होगा। वैसे भी हमें ईश्वर की इच्छा पर भरोसा और आदर करना चाहिए। वह बुरा कभी नहीं करता। वह वही करता है जो हमारे लिए अच्छा होता है।
मेरी बात सुनकर, बारीक हँसी हँसते-हँसते शशांक बोला - ‘थैंक्यू अंकल! मे गॉड प्रूव यू ट्रू। थैंक्यू वेरी मच वंस अगेन।’
फोन तो बन्द हो गया लेकिन शशांक की बातें कानों में गूँजती रहीं। पता नहीं, उसकी बातें सच हैं या आशंका के अनुमान? लेकिन डर तो मुझे भी लग रहा है। ट्रम्प के बारे में जितना कुछ सुनने-पढ़ने में आता है उससे उनकी छवि ‘बिगड़ैल बैल’ की ही बनती है। ट्रम्प में राजनयिक शिष्टाचार भी मुझे तो कम ही नजर आता है। अभी-अभी चार दिन पहले लन्दन में, ब्रिटेन की प्रधान मन्त्री थेरेसा को मुँह पर ही कह आए कि ब्रेक्जिट पर थेरेसा की नीति अमेरीका के कर-मुक्त व्यापार को नुकसान पहुँचाएगी। राजनयिक शिष्टाचार को परे धकेल कर कोई मेहमान (वह भी अमरीका के राष्ट्रपति जैसा मेहमान!) इतना मुँह फट कैसे हो सकता है?
पता नहीं, हमारी सरकार ने ट्रम्प को निमन्त्रण दिया या नहीं? नहीं दिया तो देगी भी या नहीं? निमन्त्रण मिल गया तो ट्रम्प आएँगे भी या नहीं? अभी कुछ भी साफ नहीं है। लेकिन ट्रम्प की ‘अमरीका फॉर अमरीकन्स’ का बुरा असर सबसे ज्यादा भारतीयों पर ही पड़ेगा। (शशांक और मयंक की बातों को सच मानूँ तो, बुरा असर पड़ ही रहा है। हम तो यहाँ ‘कागद की लेखी’ पढ़ते हैं जबकि शशांक तो ‘आँखन की देखी’ से आगे बढ़कर ‘खुद की भोगी’ कह रहा है!) ऐसे में दिल्ली आकर ट्रम्प हमें क्या दे जाएँगे? हम उनसे किसी ‘रहम’ की उम्मीद कर सकेंगे? यदि करेंगे भी तो ऐसा तो नहीं कि थेरेसा की तरह हमें भी दो टूक जवाब दे दे?
वैसे भी हम ट्रम्प से कुछ कहने की स्थिति में हैं ही कहाँ? हमें तो उनकी सुननी ही सुननी ही है। केवल सुननी ही नहीं, आँखें मूँदकर माननी भी है। अभी-अभी हमने ट्रम्प के दबाव के सामने झुक कर, ईरान से कच्चे तेल के आयात में सोलह प्रतिशत की कटौती कर ही दी है। हम 'देश नहीं झुकने देंगे' के नारे तो लगाते हैं लेकिन कमर तक झुक कर, अतिआज्ञाकारी और कृत-कृत्य भाव से, ट्रम्प का कहा मानते ही हैं। वैसे भी सरकार 2019 के चुनावी मनःस्थिति में आ गई है। ट्रम्प को दिल्ली बुलाने के कोई राजनीतिक निहितार्थ तो नहीं?
वैसे भी हम ट्रम्प से कुछ कहने की स्थिति में हैं ही कहाँ? हमें तो उनकी सुननी ही सुननी ही है। केवल सुननी ही नहीं, आँखें मूँदकर माननी भी है। अभी-अभी हमने ट्रम्प के दबाव के सामने झुक कर, ईरान से कच्चे तेल के आयात में सोलह प्रतिशत की कटौती कर ही दी है। हम 'देश नहीं झुकने देंगे' के नारे तो लगाते हैं लेकिन कमर तक झुक कर, अतिआज्ञाकारी और कृत-कृत्य भाव से, ट्रम्प का कहा मानते ही हैं। वैसे भी सरकार 2019 के चुनावी मनःस्थिति में आ गई है। ट्रम्प को दिल्ली बुलाने के कोई राजनीतिक निहितार्थ तो नहीं?
ऐसे सवाल मुझे उलझा रहे हैं। जवाब मेरे पास नहीं हैं। मैंने खुद को वही कहा जो शशांक से कहा था - ‘अनजाने, अज्ञात भविष्य के भय से हम अपना वर्तमान नष्ट न करें।’ अपनी ही बात, खुद को ही कहकर मैं खुश हो रहा हूँ। खुद की पीठ थपथपाते हुए कह रहा हूँ - ‘मे गॉड प्रूव मी ट्रू।’
-----
ट्रम्प ने अपनी ट्रम्प चाल चल कर विश्व मे तहलका मचा रखा है । ट्रम्प और किम रूपी ऊँट कब किस करवट बैठ जाएं.. कोई जाने ना ...
ReplyDelete