जर्मन महिलाओं के मन में भारत की रोमाण्टिक छवि

‘बर्लिन से बब्बू को’
पाँचवाँ पत्र: पहला हिस्सा

पाँचवा पत्र


बालकवि बैरागी                                                   बर्लिन से
22 सितम्बर 76
बड़ी सुबह


प्रिय बब्बू
मेरे भाई !

किसे आ सकती है नींद? गई रात बड़ी देर तक मैं तुझे लिखता रहा। भाई लोग कॉकटेल पार्टी से लौटे तब तक मुझे पता है। वे अपने कमरों में आ जा रहे थे और मैं बराबर पत्र लिख रहा था। सोचा था के कुछ देर आराम से सोकर सबेरा कर लूँगा पर लग रहा है आज नींद परदेस चली गई है। इस गुदगुदे बिस्तर पर अब मुझे कुछ ही घण्टे और बिताने हैं। सबेरे ग्यारह, साढ़े ग्यारह तक हम लोग यहाँ से चल देंगे, और भारत के लिये चल देंगे। इतनी सी बात नींद  काफूर कर देने के लिये पर्याप्त है। अभी आठ बजे सुबह नाश्ता के लिये जाना है उससे पहले मैं तुझे कुछ और लिख दूँ, यह सोचकर मैं अपनी नींद को धन्यवाद दे रहा हूँ कि उसने मुझे यह मौका दे दिया।


“भाग्य” और ”ईश्वर” ये दो शब्द मुझे इस देश में सुनने को नहीं मिले पर उसी देश में रात को कॉकटेल पार्टी में जब मेरे आसपास बैठी दो सन्नारियों ने मेरी अँगूठी में जड़े लाल मूँगे के बारे में तरह-तरह के कौतूहलपूर्ण प्रश्न किये तो मेरी दिलचस्पी अधिक बढ़ गई। वे ज्यों-ज्यों  व्हिस्की के खुमार में डूबती जाती थीं, त्यों-त्यों इस मूँगे में उनकी जिज्ञासा गहरी होती जाती थी। और अन्ततः बात वहीं जा पहुँची जहाँ का मुझे शक था। वही, अपनी हथैली फैलाना और कहना कि “आप भारत से आये हैं, बताईये मेरे हाथ की रेखाएँ क्या कहती हैं।” तू जानता है कि मैं यह हाथ-वात देखना नहीं जानता। पर दिनेश भाई ने यह काम बखूबी अंजाम दिया। व्यवस्था चाहे जैसी ही हो, मनुष्य अपने और अपने भविष्य के बारे में जानने को हर जगह एक ही जैसा आतुर रहता है।
इन महिलाओं ने मुझसे बहुत ही वैयक्तिक प्रश्न किये। श्रीमती रुथ भी साथ थीं और श्री क्लोफर तो थे ही। मुझसे किये गये प्रश्न कुछ इस तरह थे - “क्या भारत में आपका खुद का मकान है? यदि है तो कितने कमरे हैं? आपके बच्चे कितने हैं? क्या आप अपनी पत्नी के प्रति वफादार हैं? यह कैसे सम्भव हो सकता है कि आप  इतने बड़े और रोमाण्टिक देश में अपनी पत्नी के प्रति वफादार रह सकते होंगे?” उनका तात्पर्य भारत से था। मेरे उत्तर भी बिलकुल बेझिझक और सही थे। चूँकि यह हमारा नितान्त वैयक्तिक क्षण था और सारे औपचारिक कार्यक्रम सम्पन्न हो चुके थे इसलिये ही ऐसे प्रश्न इस अन्तिम रात्रि में उछल आये होंगे। मैंने उत्तर दिया - “मेरे पास मेरा अपना खुद का मकान है। मकान में ग्यारह कमरे हैं। मेरा परिवार संयुक्त परिवार है। दो बच्चे हैं। बड़ा 21 बरस का और छोटा 17 बरस का है। मैं अपनी पत्नी के प्रति वफादार हूँ या नहीं इसका प्रमाण तो स्वयम् आप ही दे सकती हैं। गये अठारह-उन्नीस दिनों से मैं आप लोगों के बीच हँसता गाता चल रहा हूँ। आपके देश की कई महिलाएँ मेरे आसपास रही हैं। आपको, किसी को कोई ऐसा क्षण मेरे कारण मिला हो जिसमें कि....” और फिर सब कुछ श्री क्लोफर के ठहाकों से डूब गया। बात का सिलसिला फिर दिनेश भाई ने सम्हाल लिया। दिनेश भाई शायद हस्तरेखा पढ़ना भी समझते थे। वे कुछ बताते रहे। मैं एक क्लब के लिये वहीं कुछ कविताएँ लिख कर देता रहा।

देश के भविष्य का सुरक्षित वर्तमान

बात नींद से शुरु की थी मैंने। मैंने हर पत्र में बच्चों के बारे में कुछ न कुछ लिखा है। पर एक विशेष बात मैं यहाँ बच्चों के लिये लिखना चाहता हूँ। इस देश में इस बात का पूरा ध्यान रखा जाता है कि बच्चा साढ़े सात से आठ बजे के बीच में सो गया या नहीं। यदि वह रात आठ बजे तक नहीं सोता है तो उसके लिये बीमारी का फार्म तक भर देने की नौबत आ जाती है। इस आधे घण्टे के समय में टेलीविजन पर एक कार्यक्रम प्रति दिन इस तरह का होता है कि उस कार्यक्रम को देखते-देखते बच्चे अपने आप ही सो जाते हैं। जिन घरों में टी. वी. नहीं है वहाँ के लोग इस तरह का एक अलग से कार्यक्रम रेडियो पर अपने बच्चों को सुनाते हैं। प्रायः हर घर में रेडियो तो है ही। इस स्थिति का चरम एक घटना से पता लग जाएगा। इसी सप्ताह में हमारे होटल के निचले रेस्तराँ में श्री सेठ अपने मित्र “रामू दादा” से बातें कर रहे थे। रामू दादा के साथ उनका बच्चा “असीम” भी था। चाय काफी की चुस्कियाँ चल रही थीं और सारा रेस्तराँ बीयर और काफी की मिली जुली गन्ध में डूबा हुआ था। कोई पौने आठ बजे रामू दादा के पास होटल का एक जिम्मेदार आदमी आया और उसने जर्मन भाषा में रामू दादा से कुछ कहा। उस बात को सुनते ही रामू दादा ने असीम का हाथ पकड़ा। काफी का प्याला वहीं रखा और नमस्ते करके चल दिये। श्री सेठ इस अनायास जावक को देखकर हतप्रभ हो गये। रामू दादा के साथ वे चलते गये और पूछते गये कि बात क्या हो गई है। रामू दादा ने जो कहा वह श्री सेठ ने इस तरह बताया- “होटल वाले ने रामू दादा से पूरी संजीदगी के साथ कहा श्रीमान्! आठ बजने वाले हैं। आपका बच्चा आपके साथ है। यह उसके सोने का समय है। आपको फौरन अपने घर चले जाना चाहिये।” रामू दादा का कहना था कि अगर वे इसी समय नहीं उठे तो पाँच मिनिट के भीतर-भीतर कोई पुलिस वाला आकर भी उनसे यही बात कह सकता है।।अगर  पुलिस वाला आ गया तो फिर उन्‍हें वह अपने तरीके से घर भेजेगा।  बच्चों के स्वास्थ्य के प्रति इस देश की चिन्ता का यह बिन्दु कितना मानवीय और मनोहारी है?

बच्चों के लिये हर शहर में अपने-अपने स्तर पर बेहतर गुड़िया-घर और खिलौनों के बाजार के बाजार भरे पड़े होते हैं। बच्चे उन्मुक्त इन गुड़िया-घरों और खिलौना घरों में किलोलें करते रहते हैं। यहाँ भी समाजवाद का पाठ पढ़ना वे नहीं भूलते। जब मैंने बच्चों के एक दल में से एक बच्चे को चुन कर पूछा कि वह बड़ा होकर क्या बनना चाहेगा? तो उस बच्चे ने पूरे आत्म विश्वास से कहा “कवि महोदय! मैं जो कुछ बन सकता हूँ उसका ब्यौरा तो मेरे शिक्षकों के पास है। मेरी संस्था के मुख्याध्यापक आपको यह बता देंगे कि मैं क्या बनूँगा पर मैं अपनी ओर से आपसे इतना कहूँगा कि मैं एक अच्छा सोशलिस्ट बनना चाहता हूँ। आगे जाकर भी मैं एक अच्छा समाजवादी ही बनूँगा।” बब्बू! इस बच्चे की उम्र मात्र 12 साल की रही होगी। बेशक यह उत्तर रटवाया गया या सिखाया गया हो सकता है। पर जिस देश के बच्चे किसी भी कारण से ऐसे उत्तर दे सकते हों उस देश के स्वर्णिम भविष्य पर किसे सन्देह हो सकता है?

12 बरस से ही वे बच्चे जो राजनीति में रुझान रखते हों, यहाँ  के युवक और किशोर संगठनों में काम करना शुरु कर देते हैं। ऐसे बच्चे गिने चुने हो सकते हैं। उनकी बाँहों पर अपने संगठनों की सूचक पट्टियाँ लगी होती हैं। राजनीतिक दलों के बिल्ले लगाकर स्कूलों और कालेजों में किशोर और युवा, निर्भय अपना काम करते होते हैं। अपने युवा संगठन के प्रति वे बहुत ही समर्पित और प्रतिबद्ध पाये जाते हैं।
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