‘बर्लिन से बब्बू को’
पाँचवाँ पत्र: दूसरा हिस्सा
भारत के प्रति जिज्ञासाएँ और सवाल प्रायः सभी दूर एक जैसे ही हैं। कोई न कोई ऐसा प्रचारतन्त्र भारत के विरोध में हर जगह काम कर रहा है। जी. डी. आर. हमारा “मित्र देश” ही नहीं एक “बन्धु देश” है। पर यहाँ भी भारत के बारे में किस-कस तरह की धारणाएँ पहुँच गईं, इसका अनुमान ये सवाल करा देते हैं। “भारत में एक कमरे में बीस-बीस आदमी रहते हैं। भारत में आधी से अधिक आबादी खुले आसमान के नीचे ही दम तोड़ देती है। भारत के लोग अक्सर भूख के मारे मर जाते हैं। भारत में हर गाँव में साँप कभी भी निकल कर मनुष्य को काट खाता है। भारत में केवल राजा और सन्यासी ही रहते हैं आदि-आदि।” इन सारे सवालों का उत्तर हमको जगह अपनी चेतना के अनुरूप देना पड़ा है।
इसी सप्ताह में हम फिर एक “बैले” देखने गये। इससे पहिले जो कार्यक्रम हमने देखा था वह था “ऑपेरा”। ऑपेरा और बैले का फर्क समझाना यहाँ समय नष्ट करना होगा। पर जो “बैले” हम लोगों ने देखा उसका नाम था “ब्लैक बर्ड”। यह क्रिश्चियन समाज की कोई पाँच सौ साल पुरानी सुधारवादी संघर्ष-कथा का एक आख्यान था। इसमें मंच पर काम करने वाले कलाकारों की संख्या रही होगी कोई अस्सी। पर सम्वाद एक भी नहीं था। समूचा बैले संगीत पर आधारित था। संगीत के साथ ही लयात्मय अभिनय और फिर वे ही दो घण्टे कि किस तरह बीत गये पता नहीं। और समाप्ति पर तालियों का वो हंगामा कि इस बार तो पूरे आधे घण्टे तक सारा थियेटर तालियों से डूबा रहा। कलाकारों का अभिनय कहीं-कहीं जिमनास्टिक जैसा अवश्य हो जाता था, पर सधा हुआ इतना था और प्रकाश तथा ध्वनि संयोजन इतना अद्भुत था कि क्या कहा जाये? आधा घण्टा और भी तालियाँ बजतीं तो भी कम था। समाप्ति के बाद हर कलाकार और कलाकारों के समूह के समूह जब मंच पर जनता का अभिवादन स्वीकार करने के लिये आते तो बस तालियाँ ही तालियाँ लेकर जाते। कभी-कभी तो ऐसा लगता था मानो तालियों की गाड़ी गियर में पड़ गई है या फिर भगवान ने हाथ केवल ताली बजाने के लिए बनाये हैं।
विश्व श्रेष्ठ- भारत की डाक व्यवस्था
लिख तो मैं रहा हूँ, पर एक आशंका मन ही मन बहुत खाये जा रही है। अब तक मेरे लिखे पत्र तुझे मिले भी हैं या नहीं? एक आश्चर्यजनक बात लिख रहा हूँ। सारे संसार में डाक और तार के मामले में भारत सर्वश्रेष्ठ देश माना जाता है। यूरोप के देश डाक वितरण में विश्वास नहीं करते वे ”संचार” में विश्वास करते हैं। यों उनका सारा जोर टेलीफोन पर है। यहाँ मुझे डाक का अनुभव बहुत कड़वा हुआ। जगह-जगह हम पोस्ट आफिसों पर भारत के लिये टिकिट की दरें पूछते रहे और हर जगह हर आदमी ने हमें डाक की अलग-अलग दरें बताईं। जिस-जिस तरह हमें बताया गया वैसा-वैसा हम पोस्ट करते गये और अन्त तक पाते रहे कि हमारे पहिले वाले टिकिट गलत लग गये हैं। सारे दल में दस-पाँच मिनिट रोज डाक का अधिवेशन होता ही था। मेरी डाक का तामझाम सबसे अधिक था। सो हमारी गुहा दीदी रोज मुझे डाँटती थी- ‘क्या छुकपुक-छुकपुक कोरता है। जोब घोर जायगा तो सब कोछ अच्छा मिल जायगा। डाक-टिकिट, डाक-टिकिट, कारट, लिफाफा शुनते-शुनते होम तंग हो गया। बन्द कोर यह छुकपुक।’ और फिर खुद ही हँस देती। कभी-कभी तो मैं उनको तंग करने के लिये भी यह वार्ता चला देता था। जब वे तंग होकर खीज पड़तीं तो फिर माफी माँग कर अध्याय समाप्त किया जाता था। पर होता यह रोज था।
मिलावट: भीषण दण्डनीय अपराध
नाश्ते की टेबल पर जाने से पहले फिर मैं वही सब सोच रहा हूँ। इस होटल में आज आठ दिन होने आये पर हम अभी तक होटल के वेटरों को यह नहीं समझा पाये कि आलू शाकाहारी भोजन है और अण्डा गैर शाकाहारी। ये रोजाना आलू उनको दे देते हैं जो कि शाकाहारी नहीं है, और अण्डा हम लोगों की प्लेट में परोस देते हैं। जब हम आलू और अण्डे आपस में बदलते हैं तो वे आँखों ही आँखों में हँसते हैं। मानो कह रहे हों कितने बुध्दू हैं ये लोग! कहीं आलू भी शाकाहारी भोजन होता है? इस देश में यह समस्या प्रतिदिन कम से कम तीन बार हमारे सामने आई और हमने अपने-अपने ढंग से ही इसे निपटा है। बड़ी सुबह नाश्ता के समय, फिर दोपहर के भोजन के समय और रात में फिर भोजन के वक्त। सबसे बड़ा धोखा देते थे मछली के अण्डे। काली मिर्च की तरह के छोटे-छोटे ये अण्डे अचार के तौर पर परोसे जाते थे। जब हम इनको नहीं खाते थे तो परोसने वाली कन्याएँ उनके स्वाद का काव्यात्मक वर्णन करतीं और हमारे भाग्य पर लानत मारतीं। कितने प्यार से इन लोगों ने हमें खाना खिलाया है? कितना स्नेह ये लोग हमें परोसते रहे? कितनी चिन्ता करते रहे ये हमारे स्वाद और स्वास्थ्य की?
भोजन में लाल मिर्च और हल्दी का उपयोग मैंने यहाँ नहीं देखा। लिख चुका हूँ कि घी यहाँ नहीं खाया जाता और सारी तलाई मक्खन में ही की जाती है। यह पूछना कि क्या यह वस्तु शुद्ध है, यहाँ बेवकूफी मानी जाती है। खाने में मिलावट की कल्पना भी यह देश नहीं करता। भीषण दण्डनीय अपराध है यहाँ मिलावट।
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पाँचवाँ पत्र: तीसरा/अन्तिम हिस्सा निरन्तर
सरस और रोचक पत्र है। पढ़ने का लालच बढाते जा रहें है।
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