हम पास हुए भारतीय मनोबल की परीक्षा में

‘बर्लिन से बब्बू को’
पाँचवाँ पत्र: तीसरा/अन्तिम हिस्सा

समाजवादी और साम्यवादी देशों ने जिस तरह अपने उत्पादन का बँटवारा किया है यह समझने लायक बात है। इन देशों ने वितरण का बँटवारा नहीं किया। बँटवारा किया उत्पादन का। अमूक चीज अमुक देश पैदा करेगा और फलाँ वस्तु फलाँ देश ही। इससे अनावश्यक प्रतिद्वन्द्विता समाप्त हो गई। जी. डी. आर. अपने लिये प्रमुख तौर पर अपार खाद्य सामग्री पैदा करता है। यद्यपि मैं यह नहीं पूछ पाया कि प्रति एकड़ यहाँ उत्पादन कितना होता है पर कमी यहाँ किसी चीज की नहीं है। अभाव हर देश में अपने-अपने तौर पर किसी न किसी वस्तु का होता ही है। यहाँ भी होगा। पर उसका कोई प्रत्यक्ष दर्शन मैं नहीं कर पाया।

भोजन के मामले पर मुझे एक घटना याद आ गई। आज यह इसलिये लिख रहा हूँ कि आते ही पहिले ही, दिन नाश्ते की टेबल पर इस घटना से मेरा रोम-रोम सिहर उठा था। 4 सितम्बर को हम होटल “बर्लिन स्ताद” में नाश्ता करने के लिये बैठे ही थे और शाकाहारी और गैरशाकाहारी की जाँच-पड़ताल कर ही रहे थे कि एक सज्जन ने मुझसे कहा “भरपेट खाईये। हमारे यहाँ खाने की कोई कमी नहीं है।” कोई किसी को नहीं जानता था। हमारा परिचय मात्र श्रीमती रुथ, श्रीमती इमी और डॉ. श्री गुन्थर से हुआ था। मैं नहीं जानता हूँ कि वे सज्जन कौन थे पर जब मैंने बार-बार उनको यह कहते सुना तो मैं इस बात को समझ गया कि यह बात क्यों कही जा रही है। मैंने अपने कमरे से नमकीन सेव का पैकेट मँगवाया और उन सज्जन को देते हुए कहा “श्रीमान! यह लीजिये! मेरी माताजी ने आपके लिये भेजा है। यह भारतीय है और इसमें लगी हुई हर चीज भारत में पैदा हुई है।” डॉ. गुन्थर पूरे प्रसंग को समझ गये। कटुता का तो कोई सवाल ही नहीं था पर डॉ. गुन्थर ने उन महाशय की अपनी भाषा में निपटा दिया।

एक और घटना इसी दिन शाम की है। यह घटना बहुत समझने वाली बात है। हमारे बाहर जाने वाले समस्त शिष्ट मण्डलों को शायद हर जगह इस तरह की किसी न किसी घटना का सामना करना पड़ता होगा। पर पता नहीं वे लोग इन बातों का समुचित नोटिस लेते भी हैं या नहीं। मेरा कवि और सम्वेदनशील मन ऐसी बातों का नोटिस तत्काल ले लेता है। हुआ इस तरह कि हम लोग रोस्तोक पहुँच कर रात का खाना खाने की तैयारी कर रहे थे। तुझे याद रहा होगा कि 4 सितम्बर को ही हम लोग शाम तक रोस्तोक पहुँच गये थे। भोजन के पहिले एक सज्जन ने, शायद वह पहिला ही दिन था और दूसरे दिन से हम लोग अपना भ्रमण शुरु  करने वाले थे इसलिये, हमारा मनोबल टटोलने के लिये एक किस्सा सुनाया। किस्सा बहुत महत्वपूर्ण है। वे बोले-

“सज्जनों! जवाहरलालजी नेहरू के समकालीन एक और प्रधानमन्त्री होते थे। नाम आपने सुना होगा। वे थे डॉ. मिलान और उनका देश था दक्षिणी अफ्रीका। सो, डॉ. मिलान एक बार लन्दन गये। वहाँ उन्होंने अपने सूट के लिये कपड़ा खरीदा। डॉ. मिलान किसी संगोष्ठी या वार्ता के सिलसिले में इंग्लैण्ड घूम रहे थे। जब कपड़ा खरीदा तो कपड़े के स्टोअर के दर्जी ने उनका नाप लिया और कपड़ा दे दिया। डॉ. मिलान ने तय किया कि वे सूट अपने देश दक्षिणी अफ्रीका में ही सिलवायेंगे। जब वे अपने देश पहुँचे और अपने दर्जी को कपड़ा दिया तो दर्जी ने नापने के बाद कपड़ा लौटाते हुए 'कहा श्रीमान! यह कपड़ा कम है। आपका सूट नहीं बन सकेगा।' आश्चर्यचकित डॉ. मिलान ने निर्णय किया कि वे अगली कान्फ्रेन्स के लिये शीघ्र ही लन्दन जाने वाले हैं, सो कुछ कपड़ा उसी स्टोअर से और लेते आयेंगे। खैर, अगली लन्दन यात्रा में डॉ. मिलान वापस उसी स्टोअर पर गये और सारी स्थिति स्टोअर के मालिक के समान रखी। स्टोअर का मालिक चकरा गया। उसने अपने उसी दर्जी को फिर से नाप लेने के लिये कहा। हक्के-बक्के दर्जी ने फिर से नाप लिया और आश्वस्त होकर कहा - ‘महोदय! कपड़ा बराबर है और आप चाहें तो आपका सूट तत्काल सी दिया जा सकता है।’ अब डॉ. मिलान की बारी थी कि वे चक्कर में पड़ें। बड़ी देर सोचने विचारते रहे डॉ. मिलान। उनकी हार्दिक इच्छा थी कि उनका सूट उन्हीं का टेलर सिये। पर उन्होंने समाधान के लिये पूछा आखिर यह कपड़ा वहाँ जाकर कम और यहाँ आकर बराबर क्यों हो  जाता है? दुकान का मालिक कुछ बोले उससे पहिले टेलर ने कहा ‘श्रीमान! आपके देश में आपका यह सूट कभी नहीं सिल सकेगा। वहाँ कपड़ा छोटा ही पड़ेगा। यहाँ वैसा नहीं हो सकता है।’ अब डॉ. मिलान चकराये से कुछ सोच रहे थे। तभी दर्जी ने पता लगा लिया था कि डॉ. मिलान दक्षिणी अफ्रीका के प्रधानमन्त्री हैं। दर्जी ने कारण समझाते हुए कहा ‘श्रीमान! आप आपके देश में बहुत बड़े आदमी हैं इसलिये सूट नहीं बनेगा। यहाँ आप एक सामान्य व्यक्ति हैं। आपका सूट बन जायेगा।”

कहानी दिलचस्प है। बात ठहाकों में उड़ गई। पर मुझे कहानी अच्छी लगने के बावजूद अप्रासंगिक और व्यंग्य भरी लगी। मैंने डॉ. गुन्थर से कहा- “भाई साहब! इन सज्जन को समझा दो कि हम एक महान् देश से आये हैं और एक महान् देश के निमन्त्रण पर ही आये हैं। रहा सवाल सूट का सो मेरा निवेदन मात्र यही है कि भारत अपना कपड़ा खुद बनाता है। मेरी यह मान्यता है कि जो सज्जन यह कहानी सुना रहे थे वे दर्जी नहीं होंगे। और यदि वे दर्जी भी हों तो उनसे मेरा विनम्र निवेदन कीजियेगा कि जो टाई वे बाँधे हुए हैं वह शायद भारत में बनी हुई है।” डा. गुन्थर बहुत विनोद के मूड में थे। उन्होंने कहा- “निश्चय ही वे सज्जन टेलर नहीं हैं और वह टाई भारत की भी हो सकती है। पर आप इसे मात्र उनका विनोद मानें, व्यंग्य नहीं। वे सज्जन आस्ट्रिया के निवासी हैं। जर्मन नहीं हैं। आपको इनके साथ 22 सितम्बर तक रहना है। वे हमारे दुभाषिये हैं श्री क्लोफर।” पर मेरी इस पकड़ से फिर डॉ. गुन्थर ने शायद पूरे व्यवस्थापक दल को सचेत कर दिया लगता था। श्री क्लोफर मेरे अभिन्न मित्र बन गये हैं और मैं उनका बहुत बड़ा प्रशंसक हूँ। डॉ. गुन्थर ने मेरी सम्वेदनशीलता को तत्काल समझ लिया होगा।
उपरोक्त दो घटनाएँ यदि अनुत्तरित रह जातीं तो शायद है आगे कहीं न कहीं, किसी न किसी पक्ष की असावधानी से कोई प्रसंग स्निग्धता शून्य हो जाता। अस्तु।

आस्ट्रिया में ही श्री शर्माजी के सुपुत्र श्री अरुणकुमार शर्मा रहते हैं। वे हमारा समाचार सुनकर बाल बच्चों सहित कोई चार-पाँच दिनों के लिए बर्लिन आ गये थे। वे ठहरे थे अपने किसी मित्र के यहाँ पश्चिमी बर्लिन में। पर दिये हुए समय पर उनकी तीनों बिटियाएँ और उनकी रूपसी पत्नी रोज हमारे पास आ जाते थे। अरुण भाई के कारण हमारी यात्रा एक यादगार बन गई। उन्होंने हमारी हर समस्या को आसान बनाने के रास्ते सुझाये और हमको विदेश में किस तरह व्यवहार करना चाहिए इसका निर्देश दिया। मैं कह सकता हूँ कि अरुण भाई और श्रीमती अरुण अगर हमें वहाँ नहीं मिले होते तो हमारी यह यात्रा किसी न किसी तौर पर अधूरी ही रह जाती। उनका बहुत आभार मानने वाले हम तीन लोग हैं- भाई श्री मूलचन्द गुप्ता, श्री कैलाशनाथजी सेठ और मैं। हम लोगों के लिये उनकी जबान पल पल सूखी जाती थी।

इस यात्रा का खर्च किसने दिया?

बहुत दिनों बाद आज फिर बर्लिन में सूरज उगने के आसार लग रहे हैं। कमरे की खिड़की से मैं देख रहा हूँ कि आकाश साफ है और शायद सूरज अपनी ढेर सारी धूप बर्लिन के आँगन में लीप देगा। मुझे नहाना है, नाश्ते के लिए तैयार होना है और सबेरे 9 बजे से लेकर 11 या साढ़े ग्यारह तक का समय बहुत कठिनाई और ऊब से बिताना है। मेरा सामान बिलकुल तैयार है। मैं अपना बटुआ सम्हाल रहा हूँ। मेरी जेब में जर्मनी याने जी. डी. आर. का एक पैसा भी नहीं है। बिलकुल रीता है मेरा जेब। मनासा से चला था तो जिस समय बस में बैठा मेरा जेब में कुल 106 (एक सौ छह) भारतीय रुपये थे। वापस दिल्ली उतरूँगा तब मेरे पास फिर भी 29 रुपये बचेंगे। याने कुल मिलाकर 77 रुपया मेरा इस यात्रा में खर्च हुआ है। मेरे हिसाब से यह राशि फिर भी अधिक है। यह सारा खर्च भारत में ही हुआ। दिल्ली में टैक्सी और चाय-कॉफी आदि का। भारतीय मुद्रा तो पालम हवाई अड्डे के भीतर घुसते ही अन्दर वाले रेस्तराँ में भी स्वीकार नहीं की जाती है। हम वहीं से पंगु हो जाते हैं। पालम में ही हम लोग विदेशी भूमि पर मान लिये जाते हैं। चाय-कॉफी या कोकाकोला के लिए भी भीतर वाला, डालर या पौण्ड ही लेता है। खैर फिर भी 29 रुपया मुझे दिल्ली में बहुत लग रहा है। मेरा काम चल जायेगा। फिर वहाँ सुरेन्द्र मिल ही जायेगा।

शायद तू भी नहीं जानता है कि मेरी इस जी. डी. आर. और द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन के लिये मारीशस वाली इसी अगस्त की विदेश यात्रा का सारा व्यय किसने किया? यह सवाल अवश्य ही उत्तर चाहता है। मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि इन दोनों यात्राओं के लिए मैंने भारत सरकार या किसी भी प्रान्त की किसी सरकार से एक पाई का भी खर्च नहीं करवाया है। मैं मारीशस गया तो वहाँ की सरकार के खर्च से और यहाँ आया हंँ तो भी सारा व्यय भारत-जर्मन गणवादी मैत्री संघ तथा जी. डी. आर. के खर्च से ही।

मेरी ये यात्राएँ कितनी उपयोगी होंगी यह तो भारत आकर ही ज्ञात हो सकेगा। बड़ा कठिन होगा इस देश को छोड़ना। एक भावनात्मक रिश्ता जो हो गया है यहाँ से। पर हर यात्रा का अपना एक समापन होता है। यह वापसी भी इस यात्रा की एक आवश्यक शर्त थी। मैं भारत आने के पूर्व एक बार पूर्व में मुँह करके इस देश के लिये अपनी मंगल कामना और सारे दल की यात्रा के लिये शुभकामना हेतु प्रार्थना करने के लिये कलम रख रहा हूँ।

सब को मेरा आदर देना।

भाई
बालकवि बैरागी
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छठवाँ पत्र: पहला हिस्सा निरन्तर




                            

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