दो धरम, दो चलन एक साथ नहीं निभते

दलाल कथा-5

यादव सा’ब के सुनाए, दलालों के किस्से आपको सुनाते हुए मैंने कहा था कि एक किस्सा मेरे पास वाला भी सुनाऊँगा। लेकिन ऐसा सिलसिला बन गया कि बीच में दूसरे किस्से आ गए और मेरेवाला किस्सा रह गया। देरी के लिए मुझे माफी दे दी जाए और ‘देर आयद, दुरुस्त आयद’ की तर्ज पर अब सुन लिया जाए।

यह किस्सा रतलाम का नहीं, मालवा के एक अन्य व्यापारी-कस्बे का है। इस किस्से का मैं चश्मदीद गवाह हूँ।

‘कन्नू दलाल’ के नाम से पहचाने जानेवाले कन्हैयालालजी कस्बे के सबसे वरिष्ठ और सबसे भरोसेमन्द दलाल थे। उनके लाए सौदे लेने के लिए व्यापारी एक पाँव पर बैठे रहते थे। वे भी कस्बे के तमाम व्यापारियों को सौदे पहुँचाया करते थे किन्तु ‘माँगू सेठ’ याने सेठ माँगीलालजी की पेढ़ी उनकी प्रिय पेढ़ी थी। दोनों एक दूसरे पर खुद के बराबर भरोसा करते और खुद से ज्यादा मान देते। एक की कही बात, दूसरे की इज्जत होती थी। कमाई के नाम पर कन्नूजी ने यही कमाया था - बाजार का भरोसा और इज्जत। बाजार में निकलते तो किसी सेठ की तरह मान पाते। लेकिन कन्नूजी ने कभी धरती नहीं छोड़ी। अपनी विनम्रता से उन्होंने पूरे कस्बे को कायल कर रखा था। 

कन्नूजी का एक ही बेटा था। भँवरलाल  पिता की तरह ही प्रतिभाशाली और व्यवहार कुशल। लेकिन पिता के सन्तोषी भाव से सदैव असहमत। वह धनपति होने को उतावला रहता था। गाहे-ब-गाहे, पिताजी पर झुंझला जाता। पिताजी की सिद्धान्तप्रियता उसे अपने परिवार की सम्पन्नता की यात्रा में सबसे बड़ी बाधा अनुभव होती थी। कन्नूजी कुछ नहीं कहते। उसे समझा देते। 

सब कुछ ठीक ही चल रहा था किन्तु होनी ऐसी हुई कि एक रात कन्नूजी सोये तो सुबह उठे ही नहीं। उनकी अर्थी ही उठी। लेकिन इस मौत का मातम केवल कन्नूजी के घर तक ही नहीं रहा। कन्नूजी का पुण्य-प्रताप ऐसा कि पूरे कस्बे को उनकी मौत का सदमा लगा। कन्नूजी के सम्मान में पूरा बाजार बन्द रहा। 

तेरह दिन पलक झपकते निकल गए। अब कामकाज भँवर को ही सम्हालना था। वह बाजार में उतरा तो जरूर लेकिन पिता की सिद्धान्तप्रियता, धैर्य और सन्तोष को खूँटी पर टाँग कर। उसे बड़ी जल्दी थी। कन्नूजी के प्रति लोगों का आदर भाव उसकी पूँजी थी। लेकिन जल्दी ही वह यह पूँजी खोने लगा। उसकी हरकतें देख माँगू सेठ ने इशारों ही इशारों में उसे समझाने की कोशिश की कि लेकिन भँवर ने अनसुनी, अनदेखी कर दी।

भँवर बेलगाम घोड़े की तरह सरपट दौड़ चला। इस उतावली में उसे अच्छे-बुरे का भान ही नहीं रहा और ‘विनाश काले विपरीत बुद्धि’ को चरितार्थ कर बैठा। उसने अपने बुरे दिनों को न्यौता दे दिया। जो नहीं होना था, वह हो गया। एक दिन एकान्त में उसने माँगू सेठ को मानो धमकी ही दे दी। उसने इशारों में कहा कि उसे माँगू सेठ के व्यापार की वो बातें भी पता है जो यदि बाजार को मालूम हो जाए तो माँगू सेठ तकलीफ में आ जाएँ। उसने चुप रहने की अच्छी-भली कीमत माँग ली। माँगू सेठ को विश्वास ही नहीं हुआ-कन्नूजी का छोरा और ऐसी घटिया हरकत! इसे इसके बाप के और मेरे रिश्ते, मेरे सम्बन्धों का भी भान नहीं रहा! अपने बाप की इज्जत की भी चिन्ता नहीं रही! उन्होंने पहले तो उसे, नरमाई से समझाया। कोई असर होता नजर नहीं आया तो हलके से डाँटा। लेकिन भँवर की आँख का पानी मर चुका था। उस पर कोई असर नहीं हुआ। माँगू सेठ ने मर्मान्तक पीड़ा से कहा - ‘भँवर! मैं कन्नूजी का लिहाज कर रहा हूँ इसलिए जोर से नहीं बोल रहा हूँ। क्या पता, मेरे जोर से बोलने से कन्नूजी की आत्मा दुखी हो जाए। तू बेटा बनकर सामने आता तो मैं कुछ सोचता भी। लेकिन तू तो मेरा बाप बनकर सामने खड़ा है! मैं तेरी कोई बात माननेवाला नहीं। जा! तुझे जो करना हो, कर ले। कोई कसर मत रखना।’ तुलसीदासजी की ‘जा को प्रभु दारुण दुख देई, वाकी मति पहले हर लेई’ वाली चौपाई भँवर पर लागू हो रही थी। इतनी गम्भीर बात भी उसकी समझ में नहीं आई। ‘तो ठीक है सेठजी! अब आपका कल का सूरज राजी-खुश नहीं उगेगा।’ कहकर दुष्टतापूर्वक हँसता हुआ चला गया।

लेकिन माँगू सेठ सामान्य, सहज बने रहे। कुछ नहीं बोले। कुछ नहीं किया। दो-तीन जगह फोन लगाया और शाम को रोज की तरह पेढ़ी मंगल कर घर चले आए। भोजन कर, रामजी को याद करते-करते सो गए।

अगली सुबह बाजार में हल्ला था - ‘माँगू सेठ के पतरे उलट गए।’ याने सेठ माँगीलालजी दिवालिया हो गए। उनकी पेढ़ी पर, ब्याज पर रकम लगानेवालों ने भँवर से कहा तो उसने कपड़े फेंक दिए - ‘तुम जानो और सेठ माँगीलाल जानें।’

माँगू सेठ की साख का आलम यह कि उनके सामने जाने की हिम्मत वैसे भी नहीं होती। ऐसे में भला रुपये माँगने के नाम पर कैसे जाएँ? अकेले जाने की तो किसी की हिम्मत ही नहीं हुई। अपनी-अपनी हुण्डी लेकर लोग दो-दो, तीन-तीन का साथ बना कर पहुँचे। किसी को अपनी रकम मिलने की उम्मीद नहीं थी। भागते भूत की लँगोटी की एक लीर ही मिल जाए। सबको लगा था, माँगू सेठ, मुँह लटका कर, हाथ जोड़े बैठे होंगे। लेकिन वहाँ तो नजारा ही दूसरा था। लोगों की आँखें फटी रह गईं और जबान को लकवा मार गया। माँगू सेठ सौ-सौ के नोटों की गड्डियों की थप्पियाँ लगाए बैठे थे। मुनीमजी को उन्होंने दूर बैठा दिया था। खुद ही एक-एक का हिसाब कर रहे थे। अपना भुगतान लेकर जानेवाले प्रत्येक व्यापारी को कह रहे थे-‘बाजार में सबको खबर कर देना। जिसके भी पास हुण्डी हो, आकर अपनी रकम ले जाए।’ 

डेड़-दो घण्टा भी नहीं हुआ और बाजार की रंगत बदल गई। हुण्डी लेकर आनेवाले, माँगू सेठ की पेढ़ी तक पहुँचने से पहले ही उल्टे पाँवों लौटने लगे। जो रकम ले चुके थे, पछताने और घबराने लगे। पूरे बाजार में भँवर की तलाश शुरु हो गई। लेकिन भँवर हो तो मिले! पता नहीं कब उसने कस्बा छोड़ दिया। घर पर ताला। आस-पड़ौसवालों को भी भनक नहीं हुई। मानो हवा में अन्तर्ध्यान हो गया। 

यह माँगू सेठ की सूझबूझ और दम-गुर्दा ही था कि जितनी तेजी से बवण्डर उठा था, उससे अधिक तेजी से बैठ गया। माँगू सेठ की साख तो सौ गुना बढ़ गई लेकिन बाजार में दलालों का काम करना मुश्किल हो गया। भँवर ने दलाल कौम के नाम को बट्टा लगा दिया था। दलालों को खुद को दलाल कहने में पसीने आने लगे। लेकिन यह दशा कुछ ही दिन रही। जल्दी ही बाजार में पहले की तरह ही रामजी राजी हो गए। लेकिन माँगू सेठ भला भँवर को कैसे भूलें? उस पर खुब गुस्सा आए। लेकिन उसकी याद के साथ-साथ कन्नूजी की याद भी चली आए। गुस्सा झुुंझलाहट, खीझ में बदल जाए। कन्नूजी की वजह से उस पर दया भी आए। क्या कर दिया बेवकूफ ने? कहाँ चला गया। कुछ कर-करा न लिया हो। कोई दिन ऐसा न गया जब माँगू सेठ ने भँवर की तलाश, पूछ-ताछ न की हो।

दो साल हो गए। अधिक मास में माँगू सेठ सपरिवार तीर्थ यात्रा पर गए। एक दोपहर, देव-दर्शन कर लौटते हुए उन्हें लगा, भँवर नजर आया था। वे वहीं खड़े हो गए। आसपास देखा। भँवर कहीं नहीं था। लेकिन माँगू सेठ ने इस बात को हलके में, भ्रम की तरह नहीं लिया। उन्हें विश्वास हो गया कि उन्होंने भँवर को ही देखा था। वे रोज, स्नान-ध्यान, पूजा-पाठ निपटा कर उसी दुकान पर बैठने लगे, जिसके सामने उन्हें भँवर नजर आया था। उन्हें ज्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। तीसरे ही दिन भँवर उनकी पकड़ में था। भँवर को काटो तो खून नहीं। उससे कुछ न बन पड़ा और धार-धार रोने लगा। न कुछ बोले, न कुछ करे। बस रोए जाय। माँगू सेठ की भी यही दशा। आखिर था तो उनके कन्नूजी का ही बेटा! अपने बेटे की ही तरह। वे भी भँवर के सुर में सुर मिला, रोने लगे। दुकानदार को पहले ही पता चल चुका था। उसने दोनों को दुकान में बैठाया। हाथ-मुँह धुलवाए। पानी पिलाया। दोनों बोलने-सुनने की दशा में आए तो माँगू सेठ ने लाड़ से डाँटा - ‘गुस्सा तो तुझ पर इतना आ रहा था कि तुझे गोली मार दूँ। अरे! तेने मेरा नहीं सोचा तो कोई बात नहीं। पर तेने कन्नूजी का भी नहीं सोचा? और खैर! कर दिया सो कर दिया। लेकिन इस तरह भागने की, पीठ दिखाने की क्या जरूरत थी। तू क्या समझता है भाग कर तेने तेरी इज्जत बचाई? नहीं! तेने कन्नूजी का नाम खराब कर दिया। कन्नूजी का बेटा तो मर्द की तरह मैदान में खड़ा रहता। अपनी गलती कबूल करता। जिम्मेदारी लेता और गलती सुधारने का मौका माँग बाजार का भरोसा कमाता। जिन्दगी ऐसे थोड़े ही चलती है? ऊँच-नीच चलती रहती है। चल! अपने घर चल! फिर से सब कुछ शुरु कर कर। कन्नूजी तेरेे लिए बहुत काम छोड़ गए हैं। उनकी खोई इज्जत कमा कर उनको वापस कर।’ माँगू सेठ समझाए जाएँ और भँवर इंकार में मुण्डी हिला-हिला कर, माँगू सेठ के पाँवों पर झुक-झुक जाए।

दो दिनों बाद भँवर फिर से अपने कस्बे में था। बीच बाजार में। माँगू सेठ उसे लिए खड़े थे। सबसे कह रहे थे - ‘अपने कन्नूजी का छोरा है। सब मिल कर इसे सम्हालो। गलती सब से होती है। इससे भी हो गई। आगे से ऐसा नहीं करेगा। मैं इसकी जमानत देता हूँ।’ फिर भँवर से बोले - ‘तू सेठ बनना चाहता है। बहुत अच्छी बात है। लेकिन उसके लिए तुझे दलाली छोड़नी पड़ेगी। सेठ कभी दलाली नहीं करता और दलाल कभी साहूकारी नहीं करता। दोनों का अपना-अपना धरम और अपना-अपना चलन है। याद रखना - व्‍यापार-धन्‍धे में दो धरम और दो चलन एक साथ नहीं निभते।’ 

माँगू सेठ की बात भँवर ने गाँठ बाँध ली। कोई सात-आठ बरस बाद कस्बे में एक नई पेढ़ी की शुरुआत हुई - सेठ भँवर दलाल की पेढ़ी।
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हाँ! मेरी थैली में अफीम है।

सच का रास्ता अपनानेवाले वकील सा’ब की आपबीती से गुजरते हुए मुझे अनायास ही मिस्त्री सा’ब याद आने लगे और पूरे समय तक याद आते रहे।
मिस्त्री साब का नाम भँवरलाल प्रजापति था लेकिन उन्हें अपवाद स्वरूप ही ‘प्रजापति’ सम्बोधित किया गया होगा। सदैव मिस्त्री, भँवरलाल मिस्त्री या मिस्त्री साब ही सम्बोधित किए गए। औसत मध्यवर्गीय संघर्षशील आदमी। मैंने उन्हें किराये के मकान में ही रहते देखा। उनमें ऐसा कुछ भी नहीं था कि लोग उन्हें ध्यान से देखें। लेकिन वे सबसे अलग थे। मुख्य काम मकान बनाना किन्तु शब्दशः हरफनमौला। उन्हें हर काम आता था। या कहिए कि कोई काम ऐसा नहीं जो उन्हें न आता हो। हर काम कर लेते और जब करते तो लगता, इसीमें मास्टर हैं। पूरे मनोयोग, पूरी तल्लीनता और अपनी सम्पूर्णता से करते। चुनौतियाँ उन्हें ललचाती थीं। कोई नई बात देखते तो ‘भेदिया नजर’ से। नजरों ही नजर में उसका एक्स-रे कर लेते। कोई  पूछता - ‘मिस्त्री साब! ये कर सकोगे?’ वे उत्साह और उत्फुल्लता से कहते - ‘क्यों नहीं कर सकते? अपन नहीं कर सकते तो फिर कौन करेगा?’ और पहली ही बार में उसे इस तरह कर लेते मानो जन्म-जन्मान्तर से वही काम करते चले आ रहे हों। 
मस्तमौला और खुशदिल ये दो शब्द मैंने उन्हीं से साकार होते देखे। अभावों को वे कबीर के फक्कड़पन से जीते थे। उन्हें जिन्दगी से कभी शिकायत करते नहीं देखा। गरीबी, अभाव और साधनहीनता ने उन्हें कभी खिजाया नहीं और समृद्धि ने कभी ललचाया नहीं। बात और हाथ के सच्चे, साफ-सुथरे। उन्हें झूठ बोलने की जरूरत ही नहीं पड़ती थी। वे जिन्दगी के पल-पल को भरपूर आनन्द से जीते। मुझे इस क्षण भी लग रहा है कि उनकी मस्ती और मौज से कुबेर भी उनसे ईर्ष्या करते रहे होंगे। वे हमारे मुहल्ले की समाजिकता के प्राण और हरियाली थे। मुहल्ले के उत्सव मिस्त्री साब की भागीदारी से ही पूर्णता और सार्थकता पाते थे। वे उत्सवों की रंगीनी होते थे। किसी न्यौते-बुलावे की प्रतीक्षा नहीं करते। होली के दिनों में, लगभग पूरे पखवाड़े खेले जानेवाले ‘वाना’ में हर दिन नई धज, नए स्वांग में नजर आते। खुद ‘वाना’ नहीं खेलते किन्तु उनके बिना ‘वाना’ शुरु ही नहीं होता। उनके बाँये हाथ का पंजा, जन्म से ही, मणीबन्ध से लगभग नब्बे डिग्री से अन्दर की ओर मुड़ा हुआ था। किन्तु यह आंशिक अपंगता उन पर अंशतः भी हावी नहीं हो पाई। 
उतनी पत्नी पर मैं लट्टू था। नाटे कद की, गोरी-चिट्टी। उनका गोलमटोल, मुस्कुराता चेहरा मैं इस क्षण भी देख रहा हूँ। उनकी मुस्कान मेरी नजरों से अभी भी ओझल नहीं हो रही। ऐसी सहज, निश्च्छल, मोहक मुस्कान उनके बाद मुझे आज तक किसी के चेहरे पर नजर नहीं आई। मेरा बस चलता तो मैं उनकी इस ‘भुवन मोहिनी मुस्कान’ को   माचिस की किसी खाली डिबिया में उसी तरह सहेज कर रख लेता जिस तरह उन दिनों हम जुगनुओं को बन्द कर रख लेते थे। मुझे लगता, वे मुझे देखकर ही मुस्कुरा रही हैं। इसी मुस्कान के कारण उनके चेहरे से मेरी नजर हटती ही नहीं थी। मैं टकटकी लगाए उन्हें देखता। वे जैसे ही मेरी ओर देखतीं, मैं झेंप कर नजरें नीची कर लेता। वे खिलखिला कर हँस देतीं। 
डिबिया को मालवी में ‘डाबी’ कहते हैं। उनके नाटे कद के कारण मैं उन्हें ‘डाबी भाभी’ कहता था। मैं जब तक मनासा में रहा, इस सम्बोधन पर मेरा एकाधिकार रहा। मेरी गैरहाजरी में किसी ने भले ही उन्हें ‘डाबी भाभी’ कहा हो, मेरे सामने दूसरा कोई उन्हें ‘डाबी भाभी’ नहीं कह सकता था। कह ही नहीं सका। मैंने किसी को कहने ही नहीं दिया। उनके गोरे-चिट्टे भाल पर लगी, बड़ी सुर्ख लाल बिंदिया ऐसे लगती मानो पूनम की रात में सूरज उगा हुआ हो। वे मिस्त्री साब की परछाई बनी रहतीं।
मिस्त्री साब शिक्षित तो नहीं थे  किन्तु अनपढ़ भी नहीं थे। वे दस्तखत कर लेते और कहीं लिखना भूल न जाएँ, इसलिए कभी-कभार चिट्ठी-पत्री कर लेते। एक सुबह, काम पर जाते हुए वे बड़ा लिफाफा लेकर दादा के पास आए। बोले - ‘दादा! जरा देखना तो यह क्या आया है।’ दादा ने देखा, वह हिन्दुस्तान मोटर्स का, चिकने कागजों पर छपा, भारी-भरकम, रंगीन केटलॉग था जिसमें एम्बेसेडर कार के ब्यौरे दिए हुए थे। दादा को कोई हैरत नहीं हुई। दादा ही नहीं, पूरा मुहल्ला मिस्त्री साब के मिजाज से वाकिफ था। दादा ने पूछा - ‘कहीं, किसी को चिट्ठी लिखी थी क्या?’ मिस्त्री साब ने लापरवाही से कहा - ‘हाँ। वो बिड़लाजी को कारड (पोस्ट कार्ड) लिखा था कि कारें बनाना बन्द तो नहीं कर दिया?’ दादा ने कहा - ‘उसी का जवाब भेजा है बिड़लाजी ने। कार का फोटू है। पूछा है कितनी कारें खरीदोगे।’ औजारों का थैला कन्धे पर धरते हुए, बहुत ही जिम्मेदारी से मिस्त्री साब ने निरपेक्ष भाव से जवाब दिया - ‘कार-वार क्या लेनी? क्या करूँगा लेकर? कहाँ जाऊँगा। आप बिड़लाजी को लिख देना, कारें बनाते और बेचते रहें। मेरे भरोसे नहीं रहें।’ और दादा को हँसने का मौका दिए बिना निकल लिए।
इन्हीं मिस्त्री साब ने सच की ताकत का यह किस्सा मुझे सुनाया था जिसकी वजह से वकील साब की आपबीती के दौरान मुझे मिस्त्री साब याद आ गए।
मालवा में अफीम की तस्करी बहुत सामान्य बात है। बड़े तस्कर तो अपना काम करते ही हैं लेकिन फटाफट हजार-पाँच सौ कमा लेने के चक्कर में कई लोग, सौ-पचास किलो मीटर में अफीम पहुँचाने के लिए केरीयर का काम करते रहते हैं। मिस्त्री साब ऐसे लफड़ों में कभी नहीं पड़े। वे लालच में कभी पड़े ही नहीं। लेकिन एक बार, बात-बात में चुनौती ले बैठे। एक केरीयर ने अपने काम की जोखिम का बखान किया तो मिस्त्री साब कह बैठे -  ‘इस तरह अफीम पहुँचाने में क्या है? कोई भी पहुँचा सकता है।’ केरीयर ने कहा - ‘दो तोले की जबान हिलाने में क्या जाता है? कभी जोखिम उठाओ तो मालूम पड़े।’ बात-बात में बात ‘काची की हाँची’ (कच्ची की सच्ची/मजाक से हकीकत) हो गई। मिस्त्री साब ने चुनौती झेल ली। तय हुआ कि मिस्त्री साब सौ ग्राम अफीम, मनासा से बत्तीस-पैंतीस किलो मीटर दूर बघाना (नीमच) पहुँचाएँगे। 
नीमच का नाम सबने सुना ही होगा। अंग्रेजों के समय से यहाँ सेना का बड़ा केन्द्र बना हुआ है। अभी  सीआरपीएफ के प्रशिक्षण केन्द्र सहित कुछ बटालियनों का मुख्यालय है। आज तो नीमच अपने आप में जिला मुख्यालय हो गया है किन्तु तब मन्दसौर जिले का सब डिविजन था। नीमच तीन हिस्सों में बसा हुआ है - नीमच सिटी, नीमच केण्ट और बघाना। बघाना, नीमच रेल्वे स्टेशन के पार है। वहाँ जाने के लिए रेल्वे फाटक पार करना पड़ता है। 
मिस्त्री साब ने सुनाया - “टाट की थैली में अपने एक जोड़ कपड़े और कुछ सामान के बीच सौ ग्राम अफीम रखकर मैं मनासा से चला। नीमच उतरा। बस स्टैण्ड से पैदल-पैदल बघाने की ओर चला। रेल्वे फाटक पर पहुँचा तो दिन में तारे नजर आने लगे। फाटक के दोनों ओर एक-एक पुलिस जवान खड़ा था। आने-जानेवालों के सामान की तलाशी ले रहे थे। मेरी समझ में नहीं आया कि क्या करूँ। मैं सिपाही के इतने पास पहुँच चुका था कि वापस लौट भी नहीं सकता था। मेरी धुकधुकी बढ़ गई। क्या करूँ, क्या न करूँ? आँखों के आगे काले-पीले आने लगे। लम्बी साँस लेकर मैंने सिपाही के पास ही खड़े-खड़े, जेब से बण्डल निकाल कर बीड़ी सुलगाई। इसी बहाने सोचने का थोड़ा मौका मिलेगा। दो-एक फूँक लगाने के बाद तय किया - आगे बढ़ूँगा और सच बोलूँगा।
“मैंने कदम बढ़ाया ही था कि पुलिसवाला कड़का - ‘ऐ! कहाँ जा रहा है? थैली में क्या है?’ मैंने कहा - ‘बघाना जा रहा हूँ।’ फिर थैली उसकी ओर बढ़ाते हुए बोला - ‘थैली में अफीम है। देखोगे?’ पुलिसवाले ने मुझे धौल जमाई और बोला - ‘स्साले! पुलिसवाले से मजाक करता है? कहता है, अफीम है। कभी अफीम देखी भी है तेरे बाप ने? अभी अन्दर कर दूँगा स्साले को। चल! भाग!’ मैं भागा तो नहीं लेकिन जल्दी-जल्दी फाटक पार की। मुकाम पर पहुँचा। ‘सामान’ सौंपा और जो बघाना से चला तो मान लो कि घर पहुँच कर ही साँस ली।
“आकर मैंने सामनेवाले के हाथ जोड़ लिए। हाँ भई! हाँ। तेरे काम में बहुत रिस्क है। लेकिन मेरे सच ने तेरी रिस्क की हवा निकाल दी। मैं राजी खुशी घर आ गया। मेरा कहना मान। तू भी ये धन्धा छोड़ दे। मेरी नकल कर, सच बोलने से तू एक-दो बार भले ही बच जाएगा लेकिन सच भी तो सच्चे काम का ही साथ देगा। कभी न कभी पकड़ा जाएगा और तेरे छोरे-छापरे तेरी जमानतें कराते-कराते कंगाल हो जाएँगे।’ उसे मेरी बात जँच गई। बोला - ‘छोड़ तो दूँ लेकिन करूँगा क्या?’ मैंने कहा - ‘करे तो बहुत काम है। कल से मेरे साथ आ जा। साल-दो साल में मिस्त्री बन जाएगा। कपड़े जरूर धूल मिट्टी में सन जाएँगे लेकिन इज्जत की जिन्दगी जीएगा और चैन से सोएगा।’ उसने कहा मान लिया और अफीम से राम-राम कर ली। आज वो मेरे बराबरी से काम कर रहा है।”
अपनी बात खतम करते हुए मिस्त्री साब ने कहा था - ‘बब्बू भई! साँच को आँच नहीं और मेहनत को जाँच नहीं।’
सच कहा था मिस्त्री साब ने। आँच और जाँच जारी तो है लेकिन सच की नहीं, झूठ की।
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जिन्दगी बदल दी गाँजे ने

जबलपुर से एक परिचित वकील सा‘ब का फोन आया। बोले - ‘मेरे पास मेरे एक सीनीयर सर बैठे हैं। मैं इन्हें आपका ब्लॉग पढ़वाता रहता हूँ। आज इन्होंने मुझे आपके लिए एक आपबीती सुनाई। कहा कि वह मैं आपको सुना दूँ। सर का कहना है कि सुनने के बाद इनकी यह आपबीती लिखने से खुद को रोक नहीं पाएँगे। मैंने सर से कहा कि खुद ही आपसे बात कर लें। मैं फोन सर को दे रहा हूँ।’

वकील साहब की आपबीती सचमुच में ऐसी है जिसे लिखने से कोई नहीं रुक पाए। उनकी बात मैं लिखूँ इससे बेहतर है कि उनकी यह आपबीती उन्हीं की जबानी सुन लें।

“मैं महाकौशल के एक जिला मुख्यालय पर रहता हूँ। वहीं वकालात करता हूँ। इस समय मेरी उम्र साठ के आसपास है। जो केस आपको सुना रहा हूँ वह मेरी लाइफ का टर्निंग पवाइण्ट रहा। मेरी जिन्दगी बदल गई।

“कोई अट्ठाईस, तीस बरस पहले की बात है। वकालात में मेरी पहचान बन गई थी। क्रिमिनल लॉ मेरा पसन्ददीदा सब्जेक्ट था। मैं लॉ भी पढ़ता और क्रिमिनल केस स्टडी भी करता। धीरे-धीरे यह मेरी पहचान बन गया। अपराधियों की जमानत कराना और अपने नालेज और लॉजीकल स्किल के दम पर उन्हें एक्विट कराने में एक्सपर्ट माना जाने लगा। जिले के नामचीन क्रिमिनलों का मेरे घर पर आना-जाना बना रहता। जिनके नाम से लोग थर्राते थे उनसे मेरा याराना हो गया। मेरी पीठ पीछे लोग मुझे ‘क्रिमिनल लॉ लायर’ के बजाय ‘क्रिमिनल लायर’ कहते थे। मालूम मुझे सब था लेकिन मैं किसी की परवाह नहीं करता था। मुँहमाँगी तगड़ी फीस तो मिलती ही थी, मेरे बहुत सारे काम इसी कारण चुटकी बजाते हो जाते।

“मुझे डीजे कोर्ट का एक केस मिला। पहली नजर में केस बहुत ही मामूली, बहुत ही छोटा था। इसके इसी मामूलीपन, छोटेपन ने मेरा ध्यान खींचा। एक आदमी से साढ़े तीन सौ ग्राम गाँजा पकड़ा गया था। लोअर कोर्ट ने सजा दे दी थी। यूँ तो बात बहुत बड़ी नहीं थीं लेकिन जिसे सजा दी गई थी, उसके कारण मामला इम्पार्टण्ट हो गया था। अपराधी बहुत खूँखार था। पूरे इलाके के लिए परेशानी का सबब बना हुआ था। एडमिनिस्ट्रेशन के लिए वह एक चेलेंज बन गया था। उसकी क्रिमिनल हिस्ट्री के लिहाज से उससे साढ़े तीन सौ ग्राम गाँजा बरामद होना और उसे सजा हो जाना ही सबसे बड़ा सरप्राइज था। इतने बड़े और खूँखार क्रिमिनल के लिए तो यह बेइज्जती जैसी ही बात थी।

“एक इसी फेक्ट ने मुझे क्यूरीयस बनाया। मैंने पूरा केस बार-बार पढ़ा। मुझे हैरत हो रही थी - ‘ऐसे मामलों में अपने क्लाइण्ट को एक्विट कराना तो चुटकी बजाने से भी कम का काम होता है! फिर, इस केस में आखिर ऐसा क्या है?’ बहुत ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी। मुझे समझ आ गया कि पूरा मामला पुलिस का बनाया हुआ है। पुलिस पर ऊपर से दबाव था - ‘किसी भी तरह इसे एक बार जेल भेजो। एक बार अन्दर गया तो फिर कभी बाहर न निकले, ऐसी व्यवस्था कर लेंगे। जैसे ही छूटेगा, जेल के दरवाजे पर ही दूसरे गुनाह में गिरफ्तार कर फिर अन्दर कर देंगे।’ इसी प्लान के तहत इसे सजा हुई थी। पुलिस ने इस मामले में फुल-प्रूफ प्लान बनाया और उसे अंजाम तक पहुँचाया।

“मामले में कुल पाँच गवाह थे। पाँचों के पाँचों पक्के। पब्लिक प्रासीक्यूटर ने मानो अपना सारा जोर इसी मामले में लगा दिया था। पुलिस ने पूरी चौकसी बरती। एक भी गवाह टूटना तो दूर, एक हर्फ से भी इधर-उधर नहीं हुआ। सब कुछ ‘किसी वेल रिहर्स्ड, टाइट ड्रामा’ की तरह हुआ। यह केस मुझे इण्‍टरेस्‍ि टंग तो लगा ही, चेलेंजिंग भी लगा। सोच लिया - ‘इसे फीस के लिए नहीं, खुद को प्रूव करने के लिए लड़ना है।’   

“डीजे साहब नए-नए आए थे। उनकी पहचान उनके आने से पहले ही पहुँच चुकी थी। बड़े सख्त मिजाज। जल्दी से जल्दी मामला निपटानेवाले। यह, ‘मामला जल्दी निपटानेवाली बात’ ही मुझे सबसे बड़ी बाधा लगी। मुझे, ‘प्रोफेशनल नालेज’ को एक तरफ सरका कर पहले इसका तोड़ ढूँढना था।

“लोअर कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील करने का आखिरी दिन तेजी से पास आता जा रहा था। मैंने सबको टटोलना शुरु किया। मुकदमे में मेरा नाम सामने आते ही पुलिस अतिरिक्त सजग हो चुकी थी। यह केस जिस तरह से मेरे लिए चेलेंजिंग था, मेरा नाम सामने आने के बाद पब्लिक प्रासीक्यूटर के लिए उससे भी अधिक चेलेंजिंग था। पुलिस की चुस्ती, चौकन्नापन ऐसा कि गवाह तो क्या गवाहों के परिजन भी नजर आने बन्द हो गए। गवाह मिल भी जाते तो उनका न टूटना तय था। केस में कुछ नया कहने, नया पेश करने की गुंजाइश तिनके बराबर भी नहीं। चारों ओर इसी केस के चर्चे। 

“मुझे हर दिन, अपील करने का आखिरी दिन लगने लगा। मैंने केस ले तो लिया लेकिन अब करूँगा क्या? इन डीजे साहब के सामने मेरा पहला केस था। ऐसा कुछ भी करने सोच भी नहीं सकता था जिसकी वजह से मेरे बारे में वे नेगेटिव ओपीनीयन बना लें। कुछ भी नहीं सूझ रहा था। एक बार विचार आया -  मुकदमा लड़ने से इंकार कर दूँ। लेकिन यह भी मुमकिन नहीं था। एकान्त में मैं खुद को ‘साँप छछूूॅूँदर’ वाली पोजीशन में पाता। 

“लेकिन जहाँ चाह, वहाँ राह। मैंने एक रास्ता तलाश लिया। मुझे ‘नालेज’ नहीं ‘स्किल’ से काम लेना होगा। मैंने वही किया। पूरी सुनवाई के दौरान ‘नार्मल एण्ड नेचुरल’ बना रहा। एक बार भी लम्बी तारीख नहीं माँगी। डीजे साहब ने जो कहा, जैसा कहा, वह, वैसा ही माना। मैंने कोई नया सबूत पेश नहीं किया न ही कोई गवाह टूटा। सब कुछ वैसा का वैसा ही रहा जैसा लोअर कोर्ट में था।

“जल्दी ही फैसले का दिन आ गया। डीजे कोर्ट रूम पूरा
भरा हुआ था। मेरे क्लाइण्ट से जुड़े लोग तो गिनती के थे बाकी सब वकील ही वकील। मुझे खबर मिली कि फैसला जल्दी से जल्दी जानने के लिए कलेक्टर और एसपी भी डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के पास वाले डाक बंगले पर बैठे हैं। 

“मेरे केस का नम्बर आया। डीजे साहब ने अपना, रिटन डिसीजन पढ़ना शुरु किया। बहुत बड़ा नहीं था। लेकिन जैसे ही अन्तिम पैराग्राफ आया, डीजे साहब रुके। गम्भीर मुद्रा और निराश, थकी आवाज में बोले - ‘अब मैं जो पढ़ने जा रहा हूँ, वह एक फैसला मात्र है, न्याय नहीं (नाऊ व्हाट आई एम गोइंग टू रीड, इज ए मीअर डिसीजन, नाट द जस्टिस)। और उन्होंने बेमन से कुछ इस तरह पढ़ा - ‘लोक अभियोजक, अपराध असंदिग्ध रूप से प्रमाणित नहीं कर सके। न्यायालय के सामने आरोपी को दोष मुक्त करने के सिवाय और कोई चारा नहीं।’ कह कर डीजे साहब उदास मुख-मुद्रा में अपने चेम्बर में चले गए।

“डीजे साहब का जाना था कि कोर्ट रूम में कोहराम मच गया। मानो बम फट गया। किसी को विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं कामयाब हो गया हूँ। सब हैरान थे। वकील एक के बाद एक मुझे ग्रीट कर रहे थे। मैं धरती पर नहीं था। चारों ओर मैं ही मैं था। अपनी कामयाबी पर मुझे गर्व हो रहा था। 
लेकिन आत्म-मुग्धता में मैंने कल्पना भी नहीं की यह समाप्ति नहीं, शुरुआत है। मेरी जिन्दगी की दशा और दिशा बदलने की शुरुआत। 

“दो दिनों के बाद मुझे डीजे साहब ने शाम को अपने बंगले पर बुलाया। उन्होंने जो कहा, उसका एक-एक शब्द आज, कोई तीस बरस बाद भी मेरे कानों में गूँज रहा है। धीर-गम्भीर आवाज में उन्होंने कहा - ‘तुम मेरे बड़े बेटे की उम्र के हो। तुमने जो कुछ किया उससे मुझे फिक्र हो रही है कि कहीं मेरा बेटा भी ऐसा ही न करने लगे। तुमने जो किया, अच्छा नहीं किया। तुमने अपने अनुभव और ज्ञान का उपयोग किया होता तो मैं तुम्हें वहीं, फैसला सुनाते हुए, कुर्सी से ही बधाई देता। किन्तु तुमने चतुराई बरती। मुझे खुद पर गुस्सा और खीझ हो रही है कि तुम्हारी चतुराई मुझे बहुत देर से समझ में आई। तुमने प्रक्रिया की कमजोरी का फायदा उठाया। जो गवाही एक दिन में पूरी हो सकती थी, तुमने तीन-तीन दिन में पूरी की। बेशक तारीख तुमने वही मानी जो मैंने दी थी। लेकिन तुमने ऐसा क्यों किया, यह मुझे तब समझ में आया जब तुमने, अपनी जिरह यह कह कर समाप्त की कि कोर्ट में पेश किया गया गाँजा वह गाँजा है ही नहीं जो जप्त किया गया था। तुम्हारी इस दलील ने मुझे चौंका दिया था। लेकिन जब गाँजा तुलवाया गया तो वह पौने तीन सौ ग्राम के आसपास निकला, साढ़े तीन सौ ग्राम नहीं। दूसरे लोगों की छोड़ो, खुद मैं ही हक्का-बक्का रह गया। ऐसा कैसे हो गया? यह ऐसा ‘वस्तुपरक तथ्य’ (मटीरीयल फैक्ट) था जिसकी अनदेखी करना मुमकिन ही नहीं था। अब समझ में आया कि हर पेशी पर, गवाह से जिरह करते समय तुम जप्त गाँजे की पोटली खुलवा कर, गाँजे को चुटकी में मसलते हुए गवाह से पूछते थे - ‘क्या यह वही गाँजा है जो जिसकी जप्ती के पंचनामे पर तुम्हारे दस्तखत हैं?’ तो उसका मतलब क्या होता था। तुमने हर पेशी पर, गवाह से की गई हर जिरह में इस तरह चुटकियों से मसल-मसल कर गाँजे की मात्रा कम कर दी। और तुम यह सबित करने में कामयाब हो गए कि जो गाँजा जप्त करने का आरोप है, वह गाँजा तो है ही नहीं। तुमने मुकदमे की नींव ही ढहा दी। लेकिन याद रखो, तुम मुकदमा जरूर जीत गए, जिन्दगी हार गए। वकील जीत गया, वकालात का प्रोफेशन, उसकी पवित्रता  हार गई।’

“मुझे काटो तो खून नहीं। मैं तो इस उम्मीद से आया था कि डीजे साहब जो बधाई कोर्ट में नहीं दे सके वही बधाई मुझे यहाँ मिलेगी। लेकिन यहाँ तो सब कुछ उल्टा हो गया। उन्होंने मेरी चोरी पकड़ ली थी। मुझे लग रहा था मैं अपनी आँखों अपना पोस्टमार्टम होते हुए देख रहा हूँ।

“डीजे साहब रुके नहीं। बोले - ‘जिन्दगी तुम्हारी है। इसे कैसी बनाना, यह तुम ही तय करोगे। लेकिन जिन लोगों को तुम बचा रहे हो वे दुधारे हथियार हैं। वे किसी के सगे नहीं होते। जिस दिन तुम उनकी उम्मीद पूरी नहीं कर पाओगे उस दिन सबसे पहले वे तुम पर ही वार करेंगे। तब तुम्हें कोई नहीं बचा पाएगा। उनकी दी हुई फीस भी किसी काम नहीं आएगी। परसों जिसे तुमने छुड़ाया है, तुम जानते हो वह पूरे समाज के लिए परेशानी बना हुआ है। कभी सोचना कि कितने लोगों की बददुआएँ तुम्हें लगेंगी। सोचना कि उस एक आदमी के कारण कितने लोग अपनी नींद नहीं सो पाएँगे। अभी तुम्हारी शुरुआत है। एक तो जवानी और उस पर कामयाबी। मनमाफिक मिल रहा पैसा अलग। तुम बौरा रहे हो। ये सब मिलकर तुम्हारी जिन्दगी कहीं नरक न बना दें। लोगों की दुआएँ असर करे न करे, बददुआएँ जरूर असर करती हैं। अभी जवान हो। प्रतिभावान हो। मेहनती भी हो यह तो इस केस में मैं देख ही चुका हूँ। अभी पहाड़ जैसी जिन्दगी बाकी है। जिस इलाके का मैं रहनेवाला हूँ, वहाँ कहा जाता है - ‘जैसा खाए धान, वैसा आए भान।’ आज अपराधियों को बचा रहे हो। कल कहीं खुद ही अपराधी न बन जाओ। मैं भगवान से तुम्हारे लिए प्रार्थना करूँगा कि तुम्हें सद्बुद्धि दे। अपनी कृपा तुम पर बरसाए। तुम सपरिवार स्वस्थ, सुखी, प्रसन्न, सकुशल रहो। अब जाओ। फिर कभी आने को जी करे, अपना घर समझ कर आ जाना।’

“उसके बाद क्या हुआ, मुझे याद नहीं। मैं कब उठा, कब डीजे साहब के बंगले से निकला, किस रास्ते से, कैसे अपने घर पहुँचा, रास्ते में कौन मिला, किससे जुहार की। मुझे कुछ याद नहीं। उस रात सो नहीं पाया। मेरी शकल और दशा देख कर पत्नी घबरा गई। मुझसे बार-बार पूछे लेकिन मेरे मुँह से बोल नहीं फूटे। फटी आँखों उसे देखूँ। वह भी रात भर सो नहीं पाई। रोए और रोते-रोते अपने ईष्ट-आराध्य को जपती-भजती रही।

अगली सुबह सब कुछ बदला हुआ था। मैंने खुद से वादा किया - अपराधियों के और दोषियों के मुकदमे नहीं लूँगा। स्कूल के दिनों में पढ़ी हुई गाँधीजी की कहानियाँ याद आईं। उन्होंने लिखा था कि वे, पक्षकार के निर्दोष होने की खातरी कर लेने के बाद ही मुकदमा लेते थे।

“उसी क्षण मैंने अपने फैसले पर अमल करना शुरु कर दिया। लेकिन फैसला लेना जितना आसान था, उसे निभाना उससे कई गुना कठिन साबित हो रहा था। शुरु-शुरु में तो कोई विश्वास करने को ही तैयार नहीं हुआ। कई परमानेण्ट क्लाइण्ट गुण्डे-बदमाश नाराज हुए। दो-एक ने तो ‘अंजाम अच्छा नहीं होगा’ की धमकी दी। मुझे बहुत डर भी लगा। लेकिन मैं अपने संकल्प पर कायम रहा। कोई दो-ढाई साल मुश्किल के निकले। रुपये-पैसों की तो कमी नहीं हुई लेकिन फुरसत में बैठना पड़ा। लेकिन धीरे-धीरे स्थिति बदलने लगी। मेरी पहचान बदली तो आनेवाले भी बदल गए। ‘हैलो बॉस’ की जगह ‘जुहार साहेब’, ‘जै रामजी की साहेब’, ‘खुस रहा साहेब’ सुनाई देने लगा। 

“लोग ऐसी बातें भूल जाना चाहते हैं बैरागीजी! लेकिन मैं कुछ भी नहीं भूलना चाहता। एक शब्द भी नहीं। उन डीजे साहब ने मेरी जिन्दगी बदल दी। मेरा चोला बदल दिया। वकीलों की नई फसल को उनका कहा, सुनाता हूँ। उन्हें जो करना हो वे करें। लेकिन मैं मन ही मन खुश होता हूँ। ये जो खुशी मिलती है ना बैरागीजी! उसका आनन्द ही अलग है। आत्मा तृप्त हो जाती है। सच का रास्ता कितना आनन्द देता है, यह कोई मुझसे पूछे।

“अब कहिए बैरागीजी! कैसी लगी मेरी आपबीती? लिखने काबिल है कि नहीं? लिखेंगे? मेरी रिक्वेस्ट है, जरूर लिखिएगा। आपका मन नहीं करे तो भी लिखिएगा। लिखने के बाद मुझे बताईएगा कि आपको आनन्द आया या नहीं। आपको तृप्ति मिली या नहीं।”

मैंने उन्हें हाँ या ना कोई जवाब नहीं दिया। वे ठठाकर बोले - “अब तो यह भी याद नहीं कि इन बीस-तीस बरसों में यह आपबीती किस-किस को, कितनी बार सुनाई। लेकिन हर बार ऐसा ही हुआ - सुननेवाला बोलने की हालत में नहीं रहा। बिलकुल जैसे कि अभी आप हो गए हो। अच्छा! मेरी बात सुनने के लिए धन्यवाद। नमस्कार।”

मैं सन्न था। मन्त्रबिद्ध की तरह। मानो एक जिन्दगी जी गया। देर तक मोबाइल कान पर लगा रहा। उसके बाद सबसे पहला काम जो किया वह आपके सामने है। 

बताइए! इस बात को खुद तक ही रख लेंगे या.........?
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गाँव जीमने बुला लिया, चूल्हे के पते नहीं

आज का अखबार देख कर चुन्नी सेठ से हुई मुलाकात याद आ गई। उनके बुलावे पर पहुँचा था। वे कस्बे के जाने-माने केटरर मंगल से बात कर रहे थे। सामने एक खुली डायरी और कुछ कागज रखे थे। वे कह रहे थे - ‘देख भई मंगल! विजय और रजत ने सब बातें तय कर ही ली हैं। लेकिन मैंने दो-तीन बातों के लिए बुलाया है। पहली - भोजन स्वादिष्ट हो। दूसरी - भोजन कम नहीं पड़े। तीसरी - सर्विस बढ़िया हो। कहीं ऐसा न हो जाए कि अन्दर सामान पड़ा रह जाए और लोग भूखे चले जाएँ। चौथी बात जिसके लिए तुझे खास बुलाया है। आजकल रसोई में रोटी बनाने का चलन है। ऐसा नहीं कि मुझे रोटी पसन्द नहीं लेकिन रोटी को लेकर जो मारा-मारी होती है वह मुझे बिलकुल पसन्द नहीं। लोग तन्दूर के सामने खाली प्लेट लिए, तरसी नजरों से देखते खड़े रहते हैं। रोटियाँ आती हैं गिनती की और लेनेवाले बीस-पचीस। लोग जिस तरह टूट कर छीना-झपटी करते हैं वह देख कर मन खट्टा हो जाता है। ऐसा तो किसी अन्न क्षेत्र में भी नहीं होता। वहाँ भी तसल्ली से रोटी मिल जाती है। वो सब मेरे यहाँ नहीं होना चाहिए। एक भी आदमी रोटी के लिए खाली प्लेट लिए खड़ा रहे तो धिक्कार है अपने को। ऐसे बुलाने से तो नहीं बुलाना अच्छा। सारा इन्तजाम और किया-कराया बेकार। तन्दूर और कारीगर का खर्चा बचाने में तुम लोग मेहमानों को भिखारी बना देते हो। तुझे भले ही आठ-दस तन्दूर लगाने पड़े, लगा लेना। दो-चार हजार रुपये ज्यादा ले लेना लेकिन मेरे यहाँ वो सीन नहीं होना। और देख! झूठ-मूठ की हाँ मत भर लेना। मैं खुद खड़ा रह कर यह सब देखूँगा। यही कहने के लिए तुझे बुलाया।’ कस्बे के फन्ने खाँओं की जबान भी जिनके सामने नहीं खुले, उनके सामने मंगल क्या बोले! नजरें और माथा झुकाए, धीमी आवाज में ‘जी बाबूजी।’ बोल कर रह गया। ‘ठीक है। अब जा।’ कह कर चुन्नी सेठ ने मेरी ओर ध्यान दिया। मुझे बैठने का इशारा किया। नजरें मंगल पर ही थीं। वह दरवाजे पर पहुँचा ही था कि चुन्नी सेठ ने हाँक लगाई - ‘भूलना मत मैंने जो कहा। एक भी मेहमान रोटी के लिए खाली प्लेट लिए खड़ा न रहे।’ मंगल ठिठका। गर्दन घुमा कर मुण्डी हिलाई और तेजी से दरवाजा पार कर गया।

‘आओ बैरागीजी! बिराजो!’ कह कर चुन्नी सेठ ने अपने सामने के कागज मेरी ओर बढ़ा दिए। ‘आपके पोते रजत का ब्याह है। दस दिसम्बर को। उसी की तैयारी है। आप बड़े लोगों के फंक्शनों में जाते रहते हो। ये लिस्टें नजर से निकाल लो। कोई कमी नहीं रह गई हो।’ इक्कीस डिग्री तापमान पर वातानुकूलित उस कमरे में मुझे पसीना आ गया। बन्दर से अदरक का स्वाद बताने को कह रहे हैं। इज्जत दे रहे हैं या परीक्षा ले रहे हैं? लेकिन जहाँ दया याचिका पर भी सुनवाई न हो वहाँ न बोलना ही समझदारी। कागज देखते हुए बोला - ‘दिसम्बर तो बहुत दूर है भैयाजी! आप बहुत जल्दी नहीं कर रहे?’ ‘कहाँ दूर है? वक्त यूँ चुटकी बजाते निकल जाता है। और जल्दी भी है तो क्या बुराई है। मकान बनाना और ब्याह रचाना - दोनों बराबर। कभी पूरे नहीं होते। कोई न कोई कमी रहती ही है। यदि वक्त हाथ में है तो तैयारियाँ बार-बार देखने में क्या हर्ज है? कमी तो रहेगी। लेकिन कमी भी कम से कम हो, यह कोशिश करने में हर्ज ही क्या है? आनेवाला भले ही घड़ी भर को आए लेकिन उसे लगना चाहिए कि अपन ने उसकी फिकर की। बाकी तो जो है सो है ही।’

कागजों में एक सूची ने मेरा ध्यानाकर्षित किया- ‘बारीक और मोटा धागा। दोनों की सुइयाँ। छोटी और बड़ी कैंचियाँ। सुतली। (सुतली पिरोने का) सुइया/सूया। टोंचा (पोकर)। आम के पत्ते।’ मैंने कहा - ‘यह सब क्या है?’ चुन्नी सेठ बोले - ‘लड़की वाले यहाँ किसी को नहीं जानते। यहाँ कहाँ, क्या है, उन्हें क्या मालूम। सब कुछ अपने को ही करना है। यह उनके लिए ही है।’ ‘लेकिन ये आम के पत्ते?’ ‘बड़े पोते की लाड़ी निमाड़ की है। पिछली बार लड़कीवालों ने आम के पत्ते अचानक माँग लिए थे। बहुत भाग दौड़ करनी पड़ी थी इन पत्तों के लिए। छोटी लाड़ी भी निमाड़ की ही है। इनको भी आम के पत्ते लगेंगे ही। इसलिए लिखे।’ मुझे जवाब मिला। जैसे-तैसे अपनी जवाबदारी निभा कर लौटा।

आज के अखबार ने मुझे विचार में डाल दिया। पाँच रुपयों के नाम मात्र मूल्य पर गरीबों को एक समय का भोजन उपलब्ध कराने के लिए शिवराज सरकार ने कोई डेड़ महीना पहले ‘दीनदयाल अन्त्योदय रसोई योजना’ शुरु की। शुरु के दिनों में सब ठीक-ठाक चला। आज ‘सरकारी रसोई बंद होने की कगार पर, 15 दिन पहले चावल, 10 दिन पहले गेहूं खत्म’ शीर्षक से चार कॉलम समाचार छपा है। समाचार के मुताबिक प्रतिदिन 270-300 लोग भोजन कर रहे हैं। सरकार ने इसकी ओर से आँखें मूँद ली है। पखवाड़ा पहले चाँवल, दस दिन पहले गेहूँ खत्म हो गए हैं। ठेकेदार बाजार भाव पर यह सब खरीद कर लोगों को भोजन करा रहा है। गैस टंकी के लिए डायरी बनी ही नहीं है। ठेकेदार रोज 1300-1500 रुपये खर्च कर गैस की कमर्शियल टंकी खरीद रहा है। ‘दीनदयाल रसोई’ की शुरुआत 7 अप्रेल को हुई। उस दिन भी गेहूँ-चाँवल ठेकेदार ने खरीदा था। आठ अप्रेल को अप्रेल-मई महीनों के लिए नगर निगम ने 17 क्विण्टल गेहूँ और 7 क्विण्टल चाँवल दिया। उसके बाद से किसी ने पलट कर नहीं देखा। न नगर निगम ने न जिला प्रशासन ने। सात आदमी काम कर रहे हैं जिनका वेतन 40 से 42 हजार रुपये है। प्रतिदिन एक (कमर्शियल) गैस टंकी लगती है। जब गेहूँ-चाँवल ही नहीं मिल रहे तो तेल, दाल, नमक की बात कौन करे। एकदम निल बटा सन्नाटा। कलेक्टर की सलाह है कि मदद के लिए ठेकेदार भी समाजसेवियों से सम्पर्क करे।

समाचार में मुझे चुन्नी सेठ नजर आ रहे थे। रसूख और हैसियतवाले आदमी हैं। एक आवाज पर काम करनेवालों की फौज खड़ी कर सकते हैं। फोन करेंगे तो कस्बे के तमाम व्यापारी मुँह-माँगा सामान पहुँचा देंगे। काम भी बहुत बड़ा नहीं है। दो दिन का जलसा है। मुख्य भोजन तो एक ही है। वक्त भी खूब है - 6 महीने। भोजन करनेवालों की संख्या भी लगभग तय है। लेकिन चुन्नी सेठ अभी से हलकान हुए जा रहे हैं। इधर सरकार है जिसे पता है कि वह रोज दो समय के भोजन का उपक्रम शुरु कर रही है। आजीवन नहीं तो 2018 के चुनावों तक तो यह उपक्रम चलना ही है। इतना सब कुछ साफ-साफ मालूम होने के बाद भी सरकार और नगर निगम की खाल पर सिहरन भी नहीं हो रही। मुख्यमन्त्री की और पार्टी की फजीहत हो रही है लेकिन पार्टी के लोगों को भी कोई फर्क नहीं पड़ रहा। एक चुन्नी सेठ हैं जो लोगों को बुलाने से पहले ही दुबले हुए जा रहे हैं और इधर, चुन्नी सेठों को हाँकनेवाली सरकार है जिसने गाँव जीमने बुला लिया लेकिन चूल्हे के पते नहीं।

यह, सामाजिक सरोकारों के प्रति हमारी सरकारों की चिन्ता की असलियत है। बात जब भूखों का पेट भरने की हो और योजना को अपने पितृ पुरुष का नाम दे रहे हों तो जवाबदारी और चिन्ता के मामलों में इन्हें चुन्नी सेठ का सौ गुना होना चाहिए। 

क्यों नहीं हो रहे? कोई जवाबदार होता तो यह सवाल पैदा होता?
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(दैनिक 'सुबह सवेरे',भोपाल में 25 मई 2017 को प्रकाशित)

पत्रकारिता के सरोकार और गाँधी -3

(इसी आलेख  को, पत्रकारिता से जुड़े अपने मित्रों को पढ़वाने के लिए मैं ‘अकार 46’ की अतिरिक्त प्रतियाँ मँगवाना चाह रहा था और पूरा मूल्य मिलने के बाद भी, यह जानकर कि मैं मुफ्त वितरण के लिए मँगवा रहा हूँ, सम्पादक प्रियम्वदजी ने प्रतियाँ  भेजने से इंकार कर दिया था। मुझे आकण्ठ विश्वास है कि इसे पसन्द किया जाएगा और सराहा भी जाएगा। आलेख मुझे ‘अकार’ से ही प्राप्त हुआ है।)  


संसद की स्थायी समिति की सिफारिशों का भी वही हाल हुआ जैसा पहले प्रेस सम्बन्धी बनी समितियों, आयोगों और वेज बोर्डों की सिफारिशों का हुआ था। लिहाजा समिति ने जो आशंका व्यक्त की थी उसका परिणाम 2014 के आम चुनाव में देखने को मिला। यह बात अलग है कि आशंका व्यक्त करने वाली समिति के अध्यक्ष राव इन्द्रजीत भी उसी दल की नाव पर सवार हो गए, जिस पर 2014 के चुनाव को खरीदने का आरोप लगा। यह आम चुनाव इसलिए भी यादगार रहेगा क्योंकि यह अब तक का सबसे मँहगा चुनाव साबित हुआ। अरबों रुपए का वारा-न्यारा किया गया। पूरा चुनाव अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव की तरह लड़ा गया। जाहिर सी बात है कि पैसा भी उसी तरह से लगाया गया। दो साल पहले अमेरिका में हुए चुनाव पर 42,000 हजार करोड़ रुपए लगे थे, वहीं भारत के इस आम चुनाव पर अनुमानतः 31,950 करोड़ रुपये लगाए गए, जिसमें अकेले भाजपा ने ही 21,300 करोड़ रुपए खर्चे हैं। शेष राशि सभी दलों ने मिलकर खर्च की। करीब 3,350 करोड़ रुपए प्रिण्ट, इलेक्ट्रानिक और सोशल मीडिया पर न्यौछावर किए गए। एक तरह से कारपोरेट और पीआर ने मिलकर चुनाव को कैप्चर कर लिया। भारतीय राजनीति में यह नया फेनोमिना था, जिसमें सब कुछ कारपोरेट और पीआर ने तय किया। यह फेनोमिना जहाँ भारतीय पत्रकारिता की कब्र खोदने का काम कर रहा है वहीं लोकतन्त्र को तहस-नहस कर देगा। अभी तक लोकतन्त्र में जनता की भूमिका अहम मानी जाती थी, लेकिन अब एमबीए डिग्रीधारी मैनेजर ही लोकतन्त्र की नींव माने जा रहे हैं। राजनीतिक दल करोड़ों-अरबों रुपए देकर जनता का मूड बदलने के लिए उन्हें हायर कर रहे हैं। वे ऐसा मानते हैं कि ये मैनेजर जनता का मूड उनके पक्ष में कर देते हैं। लोकतन्त्र की हत्या करने वाली इस परिपाटी पर शायद ही कहीं पत्रकारिता में सवाल उठें। ऐसी पत्रकारिता देखकर गणेश शंकर विद्यार्थी की पत्रकारीय नीति याद आती है। उन्होंने 1913 में साप्ताहिक पत्र ‘प्रताप’ निकाला था, जिसके पहले अंक में ‘प्रताप की नीति’ के बारे में बताते हुए लिखा था ‘मनुष्य की उन्नति भी सत्य की जीत के साथ बँधी है, इसलिए सत्य को दबाना हम महापाप समझेंगे और उसके प्रचार और प्रकाश को महापुण्य।.......जिस दिन हमारी आत्मा ऐसी हो जाए कि हम अपने प्यारे आदर्श से डिग जावें, जान-बूझकर असत्य के पक्षपाती बनने की बेशर्मी करें और उदारता, स्वतन्त्रता और निष्पक्षता को छोड़ देने की भीरुता दिखावें, वह दिन हमारे जीवन का सबसे अभागा दिन होगा और हम चाहते हैं कि हमारी उस नैतिक मृत्यु के साथ ही साथ हमारे जीवन का अन्त हो जाए।’ अगर गणेश शंकर विद्यार्थी की इस कसौटी पर आज की पत्रकारिता को कसा जाए तो शायद ही कोई समाचार पत्र और टीवी न्यूज चैनल खरा उतरे।

पिछले आम चुनाव में सत्ता में आने वाली नरेन्द्र मोदी सरकार के शुरुआती महीनों में भारतीय दूरसंचार नियामक आयोग (ट्राई) की मीडिया स्वामित्व व उससे जुड़े मसलों पर रिपोर्ट आई। आयोग ने खबरों के प्रकाशन और प्रसारण में स्वतन्त्रता और बहुलता सुनिश्चित करने के लिए समाचार पत्रों और टीवी चैनलों में प्रवेश करने वाले राजनीतिक दलों और कारपोरेट घरानों पर पाबन्दी  की सिफारिश की। न्यूज मीडिया में शेयर बँटवारे के ढाँचे, प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष हितों का खुलासा करने की बात कही। आन्तरिक बहुलता से निपटने के लिए आयोग ने 2008 के एक सुझाव को दोहराते हुए कहा कि राजनीतिक, सरकारी अथवा धार्मिक इकाइयों एवं उनसे जुड़े लोगों को बाहर करना चाहिए। चौथा बिन्दु-मीडिया को कम्पनियों के नियन्त्रण से मुक्त रखना होगा। पाँचवाँ-दूरदर्शन को स्वतन्त्र और निष्पक्ष ढंग से प्रसारण करने के लिए स्वायत्त बनाना होगा। छठा-प्रिण्ट और टीवी मीडिया के लिए एक ही स्वतन्त्र नियामक (इसमें अधिकतर मीडिया जगत से बाहर के प्रमुख लोगों को रखना) की स्थापना करना, जिसे पेड न्यूज व निजी समझौतों के आधार पर खबरों के प्रकाशन व सम्पादकीय स्वतन्त्रता से जुड़े मुद्दों की जाँच करने और जुर्माना लगाने का अधिकार देने की सिफारिश की है। इस स्वतन्त्र नियामक को पेड न्यूज पर सभी पक्षों की जिम्मेदारी तय करने की बात कही गई है। सातवाँ बिन्दु सम्पादकीय मण्डल में निजी समझौते, पेड न्यूज या विज्ञापन से जुड़े किसी भी हस्तक्षेप पर प्रतिबन्ध लगाना है तो आठवाँ बिन्दु राजनीतिक दलों, धार्मिक संस्थाओं, सार्वजनिक धन से चलने वाली संस्थाओं व उनकी सहायक एजेंसियों को प्रसारण और टीवी चैनल वितरण क्षेत्र में आने से रोका जाना है। साथ ही अगर किसी संगठन को पहले से मंजूरी मिली है तो उसे बाहर निकलने का विकल्प भी रखना चाहिए। लेकिन जैसी आशंका थी, मोदी सरकार ने ठीक वैसा ही किया। सरकार ने आयोग की रिपोर्ट को ठण्डे बस्ते में डाल दिया। सरकार के पास इसके सिवा दूसरा विकल्प भी नहीं था, क्योंकि जिन लोगों (कारपोरेट, पीआर और मीडिया) ने सामूहिक रूप से मोदी को यहां तक पहुँचाने में अहम किरदार निभाया हो उन पर मोदी सरकार शिकंजा कसेगी, यह उम्मीद करना बेमानी है।

गाँधी ने भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन को दिशा देने का काम किया। जीवन के अन्तिम समय तक राजनीतिक और सामाजिक काम किए। सत्याग्रह, जुलूस से लेकर आन्दोलनों का नेतृत्व किया। इसके बावजूद उन्होंने अपनी पत्रकारिता को कभी किसी व्यक्ति विशेष अथवा संगठन का मोहरा नहीं बनाया। वह अपने लिखे एक-एक शब्द पर मनन करते थे। उसके सकारात्मक और नकारात्मक परिणाम के बारे में सोचते थे। सच की कसौटी पर खरा उतरने वाली भाषा का इस्तेमाल करते थे। इसके साथ ही वह पाठकों को यह अधिकार देते थे कि वे समाचार पत्र पर नजर रखें कि कहीं कोई अनुचित और झूठी खबर तो नहीं छपी है। अविवेकपूर्ण भाषा का इस्तेमाल तो नहीं हुआ है। उन्होंने यहाँ तक लिखा कि ‘सम्पादक पर पाठकों का चाबुक रहना ही चाहिए, जिसका उपयोग सम्पादक के बिगड़ने पर हो।’ ऐसा लिखते हुए गाँधी एक तरह से पत्रकारिता को चोट पहुँचाने वालों को शक की नजर से देखने की वकालत करते थे। शक करने वाली उनकी सीख का मायने आज कहीं अधिक है। मौजूदा समय के जनसंचार माध्यमों में जिस तरह से खबरों के प्रकाशन और प्रसारण में पक्षपात किया जा रहा है उसे देखते हुए पाठकों और दर्शकों को हर खबर को शक की नजर से देखना होगा। उन पर आँख मूँदकर भरोसा करने के बजाय उसके आगे और पीछे के बारे में सोचना होगा। पत्रकारिता ने तथ्यों को क्रॉस चेक करने वाला सिद्धान्त लगभग बिसरा दिया है, लेकिन लोगों को ये जिम्मेदारी उठानी होगी कि वे पत्रकारिता में पेश किए जा रहे तथ्यों को क्रॉस चेक करें। तत्पश्चात अपनी राय बनाएँ। अगर ऐसा नहीं करेंगे तो उनमें और एक अशिक्षित व्यक्ति में किसी तरह का अन्तर नहीं रहेगा। ऐसी स्थिति में आप वही भाषा बोलेंगे जो समाचार पत्र बोलता है और टीवी बोलता है।
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(लखनऊ में, 1-2 अक्टूबर 2016 को आयोजित दो दिवसीय ‘अहिंसा फेस्टिवल’ में दिए गए व्याख्यान का सम्पादित स्वरूप। मूल आलेख तथा सन्दर्भ सूची ‘अकार-46’ में उपलब्घ।)



अटल तिवारी - पत्रकारिता से दस-बारह वर्षों तक जुड़े रहे हैं। लखनऊ आकाशवाणी के लिए बेग़म अख़्तर पर श्रृंखला ‘कुछ नक्श मेरी याद के’ तैयार की है। आजकल दिल्ली के एक कॉलेज में पत्रकारिता पढ़ाते हैं।
सम्पर्क - मोबा.: 098683 25191
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अकार - 15/269, सिविल लाइन्स, कानपुर - 208001
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ई-मेल: akarprakashan@gmail.com

पत्रकारिता के सरोकार और गाँधी -2

(इसी आलेख  को, पत्रकारिता से जुड़े अपने मित्रों को पढ़वाने के लिए मैं ‘अकार 46’ की अतिरिक्त प्रतियाँ मँगवाना चाह रहा था और पूरा मूल्य मिलने के बाद भी, यह जानकर कि मैं मुफ्त वितरण के लिए मँगवा रहा हूँ, सम्पादक प्रियम्वदजी ने प्रतियाँ  भेजने से इंकार कर दिया था। मुझे आकण्ठ विश्वास है कि इसे पसन्द किया जाएगा और सराहा भी जाएगा। आलेख मुझे ‘अकार’ से ही प्राप्त हुआ है।)  

पत्रकारिता के सरोकार और गाँधी - 1


- अटल तिवारी -

इस तरह पत्रकारिता के लिए आपातकाल वाला दशक सबसे अधिक नुकसानदायक रहा। आपातकाल के बाद सत्ता में आने वाली जनता पार्टी सरकार के सूचना एवं प्रसारण मन्त्री लालकृष्ण आडवाणी ने अभियान चलाकर पत्रकारिता में एक खास विचारधारा के लोगों को प्रमुख पदों पर नियुक्त कराया, जिसका परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे समाचार पत्रों में उस खास विचारधारा के लोगों की बहुतायत हो गई। यही वजह है कि जब मण्डल के बाद कमण्डल का दौर आया तो पत्रकारिता, खासकर हिन्दी पत्रकारिता में उक्त विचारधारा वालों ने पत्रकार कम बल्कि विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल और संघ के कार्यकर्ता वाली भूमिका ज्यादा निभाई। दूसरी ओर उर्दू पत्रकारिता में पत्रकारों ने पत्रकार कम बल्कि मुस्लिम लीग से जुड़े होने का परिचय अधिक दिया। इन पत्रकारों ने गाँधी की उन पंक्तियों को भी याद नहीं रखा, जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘अपनी निष्ठा के प्रति ईमानदारी बरतते हुए मैं दुर्भावना या क्रोध में कुछ भी नहीं लिख सकता। मैं निरर्थक नहीं लिख सकता। मैं केवल भावनाओं को भड़काने के लिए भी नहीं लिख सकता। लिखने के लिए विषयों तथा शब्दावली को चुनने में मैं हफ्तों तक जो संयम बरतता हूं, पाठक उसकी कल्पना नहीं कर सकता।’ राम मन्दिर-बाबरी मस्जिद विवाद के दौरान साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने वाली पत्रकारिता की बात लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट में भी विस्तृत रूप से कही गई है। रिपोर्ट का सार है कि पत्रकारिता ने तटस्थ रूप से काम करने के बजाय लोगों को भड़काने का काम किया। एक बात ध्यान देने वाली है कि अगर किसी खास विचारधारा के लोगों को नियुक्त किया जाता है तो उसका असर तत्काल नहीं बल्कि आने वाले समय में देखने को मिलता है। इसकी गवाही मन्दिर-मस्जिद विवाद के साथ ही मुम्बई, गुजरात से लेकर मुजफ्फरनगर दंगे तक में की जाने वाली पत्रकारिता से मिलती है। ऐसी पत्रकारिता करने वाले पत्रकार और सम्पादकों के लिए पराड़करजी की चन्द पंक्तियां फिट बैठती हैं, जिसमें उन्होंने कहा था कि ‘यदि हममें योग्यता हो और यदि सचमुच हम कुछ देश सेवा करना चाहते हों तो हमें अपने पत्रों में सदा सर्व प्रकार से उच्च आदर्श को स्थान देना चाहिए। पत्र बेचने के लाभ से अश्लील समाचारों को महत्व देकर तथा दुराचरणमूलक अपराधों का चित्ताकर्षक वर्णन कर हम परमात्मा की दृष्टि में अपराधियों से भी बड़े अपराधी ठहर रहे हैं, इस बात को कभी न भूलना चाहिए। अपराधी एकाध पर अत्याचार करके दण्ड पाता है और हम सारे समाज की रुचि बिगाड़ कर आदर पाना चाहते हैं।’ आज यही काम अधिकांश पत्रकारिता कर रही है। वह देश भक्ति के नाम पर सरकार की नीतियों की आलोचना करने वालों को कठघरे में खड़ा कर रही है। उन्हें देशद्रोही बता रही है। अश्लील समाचारों को महत्व दे रही है। अपराधियों का महिमामण्डन कर रही है। उसे नहीं पता कि गाँधी ने भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान प्रेस के सम्बन्ध में कहा था ‘राष्ट्रीय संस्थाओं और राष्ट्रीय नीतियों की ईमानदारी से आलोचना करने से राष्ट्रीय हितों को कभी नुकसान नहीं होगा।’ इतना ही नहीं नागरिकों को किसी विचार अथवा नीतियों से असहमति जताने का अधिकार सम्विधान से मिला है। इसके बावजूद मौजूदा समय में असहमति जताने वालों को कुछ ज्यादा ही निशाना बनाया जा रहा है और ऐसा करने वालों को सरकार की तरफ से भी अपरोक्ष रूप से शह मिली है।

कमण्डल के दरम्यान ही लागू की जाने वाली भूमण्डलीकरण की नीतियों ने देखते ही देखते भारतीय पत्रकारिता का पूरा परिदृश्य बदल दिया। समाचार पत्रों के राज्य संस्करण, जिलेवार संस्करणों में तब्दील हो गए। जिलेवार संस्करणों को भरने के लिए कुछ भी प्रकाशित किया जाने लगा। गम्भीर बातों को नजरअन्दाज करके लफंगों को महत्व दिया जाने लगा। आज स्थिति यह है कि अगर 15 से 20 लफंगे आपके बनाए बनते हैं, जो किसी भी मसले पर जिन्दाबाद-मुर्दाबाद नारे लगा सकते हों, किसी के ऊपर जूता फेंक सकते हों, किसी के चेहरे पर स्याही फेंक सकते हों, पाकिस्तान को औकात बता देने वाली भाषा बोल सकते हों तो आप किसी भी समाचार पत्र के पृष्ठ पर सुशोभित हो सकते हैं। किसी भी टीवी न्यूज चैनल के प्राइम टाइम में मेहमान हो सकते हैं। अचानक आपकी पूछ बढ़ जाती है। आप अपने में गौरवान्वित महसूसते हैं।

दूसरे प्रेस आयोग ने कहा था कि भारतीय भाषाओं, स्थानीय तथा अन्य छोटे और मध्यम समाचार पत्रों के विकास में योगदान देना जरूरी है। आयोग का मानना था कि ऐसा होने से पत्रकारिता में विविधता बनी रहेगी। मोनोपाली का खतरा नहीं होगा। लेकिन आयोग की इस सिफारिश पर किसी भी दल की सरकार ने तवज्जो नहीं दी। आज करीब 38 साल बाद आयोग की आशंका पूरी तरह सच साबित हो रही है। भारतीय पत्रकारिता में कुछ कारपोरेट घरानों का एकाधिकार हो चुका है। चन्द मीडिया घरानों ने पत्रकारिता के अधिकांश क्षेत्र पर कब्जा कर लिया है। देश के प्रिण्ट मीडिया पर 9 बड़े मीडिया घरानों का प्रभुत्व हो चुका है। यही स्थिति इलेक्ट्रानिक मीडिया की भी है। मीडिया के इस बदले परिदृश्य में एक-एक घराने के कई-कई टीवी न्यूज चैनल हैं। एफएम रेडियो स्टेशन, समाचार पत्र-पत्रिकाएँ, वेबसाइट्स हैं। वे एक तरह के मीडिया एकाधिकार के तहत काम कर रहे हैं। यानी जिस खबर को वह चमकाना चाहते हैं वह चमकती है और जिसे मिटाना चाहते हैं वह फिर कहीं नहीं ठहरती। अगर यही हाल रहा तो आने वाले कुछ वर्षों में पूरी तरह से मीडिया एकाधिकार के हालात पैदा हो जाएँगे।

इक्कीसवीं सदी की पत्रकारिता में पत्रकारिता और लोकतन्त्र को चोट पहुँचाने वाली अनेक घटनाएँ घटी हैं। इसमें सबसे अधिक नुकसान पहुँचाने वाली पेड न्यूज की कुप्रवृत्ति का सामने आना है। पेड न्यूज मतलब पैसा देकर प्रकाशित/प्रसारित कराई जाने वाली प्रचार सामग्री, जिसमें पाठक और दर्शक को यह तक न बताया जाए कि उक्त सामग्री खबर नहीं बल्कि विज्ञापन है। पेड न्यूज की शिकायतें पहले से रही थीं, लेकिन 2009 के आम चुनाव में ये भयावह रूप में सामने आईं। इसकी भयावहता को हरियाणा की एक घटना से समझा जा सकता है। उस समय राज्य में काँग्रेस की सरकार थी।  भूपेन्द्र सिंह हुड्डा मुख्यमन्त्री थे। चुनाव के दौरान काँग्रेस के विरोधी दल की रोहतक में एक छोटी सभा थी। उसकी खबर एक समाचार पत्र के पहले पृष्ठ पर छपी, जिसमें सभा में शामिल लोगों की संख्या अनेक गुना बढ़ाकर बताई गई थी। मुख्यमन्त्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा ने समाचार पत्र के मालिक को फोन किया। रैली के सम्बन्ध में प्रकाशित खबर के बारे में बात की तो जवाब मिला कि वह विज्ञापन था। जिसने पैसा दिया, उसका मजमून छप गया। समाचार पत्र के मालिक का जवाब सुनकर हुड्डा सन्न रह गए। उन्होंने पूछा कि ‘पैसा देकर क्या कोई कुछ भी छपवा सकता है?’ जवाब मिला-‘बिल्कुल, सामग्री का जिम्मा उसी का होता है।’ मैंने कहा-कल के अंक में पहला पूरा पृष्ठ हमारे लिए बुक कीजिए और एक पंक्ति बड़े-बड़े हर्फों में हमारे खर्च पर छापिए कि यह समाचार पत्र झूठा है। छापेंगे न? समाचार पत्र के मालिक बोले-आप कैसी बात कर रहे हैं?’ पेड न्यूज नामक बीमारी के शुरुआती दौर में लगा था कि इक्के-दुक्के समाचार पत्र ही इसकी गिरफ्त में हैं। मगर धीरे-धीरे ऐसी शिकायतें आम हो चलीं। देखते-देखते पेड न्यूज का सिलसिला एक ओढ़ी जाने वाली बीमारी की तरह अधिकांश समाचार पत्रों और टीवी न्यूज चैनलों को घेरता चला गया। कुछ सम्पादकों और पत्रकारों ने इसके खिलाफ अभियान चलाया। प्रेस परिषद से लेकर संसद की स्थायी समिति तक ने इसका अध्ययन किया। सभी ने पेड न्यूज को भारतीय लोकतन्त्र और पत्रकारिता के लिए खतरनाक माना।

पेड न्यूज के मामले में प्रेस परिषद की जाँच रिपोर्ट पर तत्कालीन यूपीए सरकार ने मन्त्री समूह गठित किया था। समूह ने इस मसले पर विचार किया। इसके बावजूद समूह की सिफारिशों को अन्तिम रूप नहीं दिया जा सका। इतना ही नहीं यह फैसला भी लिया गया था कि पेड न्यूज सम्बन्धी मन्त्री समूह को पुनर्गठित नहीं किया जाएगा। जब भी मुद्दे को आवश्यक समझा जाए, उपयुक्त मन्त्रिमण्डल समिति/मन्त्रिमण्डल के समक्ष रखा जाएगा। इस बात पर संसद की स्थायी समिति को बताया गया चूँकि मुद्दा सम्वेदनशील है और इस पर अन्तर-मन्त्रालयी परामर्श की जरूरत है, इसलिए मन्त्रालय ने पेड न्यूज सम्बन्धी समूह को पुनर्गठित करने के लिए मन्त्रिमण्डल सचिवालय से अनुरोध किया है। इस प्रकरण पर संसद की स्थायी समिति ने नाराजगी जाहिर करते हुए कहा, ‘सरकार इस महत्वपूर्ण नीति की पहल पर निर्णय लेने में हिचक रही है, क्योंकि इस सम्बन्ध में आम चुनाव 2009 में ध्यान में आई कमियों पर पीसीआई (भारतीय प्रेस परिषद्/प्रेस कौंसिल ऑफ इण्डिया) द्वारा नियुक्त समिति द्वारा जुलाई 2010 में की गई सिफारिशों पर निर्णय लेने में सरकार की विफलता उजागर हुई है। अतः समिति पुरजोर सिफारिश करती है कि मन्त्रालय पीसीआई (भारतीय प्रेस परिषद्/प्रेस कौंसिल ऑफ इण्डिया) की रिपोर्ट पर शीघ्र कार्रवाई करे।’ असल में पत्रकारिता को लेकर जितने भी नियम-कानून बने हैं, उनको मीडिया घराने ठेंगा दिखाते रहे हैं। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि इन घरानों पर कानून लागू किए जाएँ। इसके लिए एक नियामक अधिकरण बने। यह संस्था बिना टालमटोल के मामलों में त्वरित फैसला ले। एक बात ध्यान रखी जाए कि नियामक अधिकरण की बात करते हुए हम मीडिया पर सरकारी हस्तक्षेप की वकालत नहीं कर रहे हैं। इसमें प्रिण्ट और इलेक्ट्रानिक मीडिया के प्रमुख लोगों को रखा जाए। उन्हें विषय वस्तु की जाँच करने और गलती पर चेतावनी देने फिर कार्रवाई करने का अधिकार दिया जाए। प्रेस परिषद की शक्तियों में इजाफा किया जाए। राव इन्द्रजीत की अध्यक्षता वाली समिति ने प्रेस परिषद की सिफारिशों पर फैसला न लेने के लिए सरकार के प्रति नाराजगी जाहिर की थी। समिति ने प्रेस परिषद का पुनरुद्धार करने पर बल देते हुए मीडिया, विशेषकर मीडिया की आय के स्रोत को सूचना का अधिकार के अधीन एवं लोकपाल विधेयक के दायरे में लाने की बात कही थी। सबसे अहम बात यह कि पेड न्यूज के तहत होने वाले फिजूलखर्ची को रोकने के लिए आगामी आम चुनाव से पहले ठोस कदम उठाए जाएँ। अगर इसका संज्ञान नहीं लिया गया तो अगले साल होने वाले आम चुनाव में इस बीमारी के और अधिक भयावक रूप लेने की आशंका है। 
(आलेख का शेष भाग तीसरी कड़ी में)
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(लखनऊ में, 1-2 अक्टूबर 2016 को आयोजित दो दिवसीय ‘अहिंसा फेस्टिवल’ में दिए गए व्याख्यान का सम्पादित स्वरूप। मूल आलेख तथा न्दर्भ सूची ‘अकार-46’ में उपलब्घ।)





अटल तिवारी - पत्रकारिता से दस-बारह वर्षों तक जुड़े रहे हैं। लखनऊ आकाशवाणी के लिए बेग़म अख़्तर पर श्रृंखला ‘कुछ नक्श मेरी याद के’ तैयार की है। आजकल दिल्ली के एक कॉलेज में पत्रकारिता पढ़ाते हैं।
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पत्रकारिता के सरोकार और गाँधी - 1

(इसी आलेख  को, पत्रकारिता से जुड़े अपने मित्रों को पढ़वाने के लिए मैं ‘अकार 46’ की अतिरिक्त प्रतियाँ मँगवाना चाह रहा था और पूरा मूल्य मिलने के बाद भी, यह जानकर कि मैं मुफ्त वितरण के लिए मँगवा रहा हूँ, सम्पादक प्रियम्वदजी ने प्रतियाँ  भेजने से इंकार कर दिया था। मुझे आकण्ठ विश्वास है कि इसे पसन्द किया जाएगा और सराहा भी जाएगा। आलेख मुझे ‘अकार’ से ही प्राप्त हुआ है।)  


1925 में, वृन्दावन में आयोजित हिन्दी सम्पादक सम्मेलन में सभापति के हैसियत से सम्पादकाचार्य बाबूराव विष्णु पराड़कर ने, ‘समाचार पत्रों का आदर्श’ शीर्षक से दिए गए व्याख्यान में, भविष्य में हिन्दी के समाचार पत्र के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए कहा था: ‘पत्र सर्वांग सुन्दर होंगे। आकार बड़े होंगे, छपाई अच्छी होगी, मनोहर, मनोरंजक और ज्ञानवर्द्धक चित्रों से सुसज्जित होंगे, लेखों में विविधता होगी, कल्पकता होगी, गम्भीर गवेषणा की झलक होगी और मनोहारिणी शक्ति भी होगी, ग्राहकों की संख्या लाखों में गिनी जायगी। यह सब होगा पर पत्र प्राणहीन होंगे।’

करीब 92 साल पहले पराड़करजी के दिए गए व्याख्यान से पता चलता है कि वह पत्रकारिता की मौजूदा अनुभूतियों के साथ-साथ भविष्य में होने वाले बदलावों को भी बखूबी पहचान रहे थे। उन्होंने हिन्दी समाचार पत्रों के सम्बन्ध में जब यह बात कही थी उस समय टेलीविजन पत्रकारिता का नामोनिशां नहीं था, लेकिन उनकी बात हिन्दी समाचार पत्रों के साथ-साथ आज की टेलीविजन पत्रकारिता पर भी पूरी तरह से लागू होती है। जैसा कि सब जानते हैं, भारत में पत्रकारिता की शुरुआत मुनाफा कमाने के लिए नहीं हुई थी। पत्रकारिता का उद्देश्य देश में नवजागरण लाने और उस नवजाग्रत समाज को स्वतन्त्रता आन्दोलन के लिए प्रेरित करने का था। आज की तरह उस समय ऐसे व्यावसायिक पत्रकार नहीं थे, जिनका काम महज एक समाचार पत्र निकालना अथवा टीवी न्यूज चैनल चलाना होता। उस समय सभी भाषाओं के बड़े लेखकों ने समाचार पत्र निकालने अथवा उसमें सहयोग करने का जिम्मा अपने ऊपर लिया था। ऐसा करते हुए उन्होंने अपनी लेखनी से चेतना का प्रसार करने और बराबरी का समाज बनाने का काम किया। पहले जिस तरह लेखक ही पत्रकार और सम्पादक होते थे उसी तरह पहले के अधिकांश नेता भी पत्रकार और सम्पादक की जिम्मेदारी निभाते थे। काँग्रेस की स्थापना करने वाले करीब 70 फीसदी लोग किसी न किसी रूप में पत्रकारिता से जुड़े थे। बाबूराव विष्णु पराड़कर जिस समय सक्रिय पत्रकारिता करते हुए नवजागरण लाने की दिशा में काम कर रहे थे ठीक उसी समय महात्मा गाँधी भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे। स्वतन्त्रता आन्दोलन में गाँधी की जो भूमिका रही है, हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में पराड़करजी का भी वही योगदान है। पराड़करजी जिस समाचार पत्र ‘आज’ के लम्बे समय तक सम्पादक रहे वह गाँधी की नीतियों का प्रबल पक्षधर था। गाँधी समाचार पत्रों की ताकत को पहचानते थे। उसका सदुपयोग वह दक्षिण अफ्रीका में ‘इण्डियन ओपीनियन’ नामक पत्र निकाल कर कर चुके थे। एक तरह से गाँधी एक चालाक राजनीतिज्ञ थे। यहाँ चालाक शब्द का इस्तेमाल नकारात्मक तौर पर नहीं किया जा रहा है। गाँधी को यह पता था कि उन्हें अपनी बात आम जनमानस के बीच कैसे पहुँचानी है। इसी नीति के तहत उन्होंने भारतीय राजनीति में समाचार पत्रों का देश और समाज हित में सबसे ज्यादा सदुपयोग किया। उनकी पत्रकारिता का प्रमुख उद्देश्य जनता तक पहुँचना था। अपने इसी उद्देश्य के तहत उन्होंने समाचार पत्रों को खासा महत्व दिया। उन्हें यह स्वीकारने में गुरेज भी नहीं था। अपनी इसी बेबाकी का परिचय देते हुए उन्होंने 2 जुलाई 1925 को ‘यंग इण्डिया’ में लिखा था कि ‘पत्रकारिता में मेरा क्षेत्र मात्र यहाँ तक सीमित है कि मैंने पत्रकारिता का व्यवसाय अपने जीवन के उद्देश्य को पूरा करने में एक सहायक के रूप में चुना है।’

गाँधी तकरीबन आधा दर्जन समाचार पत्रों के सम्पादन और प्रकाशन से जुड़े रहे। इसके अलावा उनका प्रयास रहता था कि उनकी लिखी और बोली बातों को देश के अन्य समाचार पत्र भी महत्व दें। इसके लिए वह जिस भी शहर की यात्रा करते थे वहाँ के समाचार पत्रों के सम्पादकों से अवश्य मिलते थे। इस मेल-मिलाप के लिए उन्हें अनेक बार घण्टों इन्तजार तक करना पड़ता था। यही नहीं, उन्हें अपने विरोधी पक्ष वाले सम्पादकों से भी मिलने में गुरेज नहीं था। एक घटना प्रयाग से प्रकाशित होने वाले ‘पायोनियर’ पत्र से जुड़ी है। जुलाई 1896 में गाँधी कलकत्ता-बम्बई मेल से राजकोट के लिए जा रहे थे। पाँच जुलाई को लगभग 11 बजे दिन में ट्रेन इलाहाबाद पहुँची, जहाँ उसका 45 मिनट का ठहराव होता था। गाँधी इस समय का सदुपयोग करना चाहते थे। इतने समय में इलाहाबाद की एक झलक लेने के साथ ही उन्हें दवा लेनी थी। दवा लेने में देर लग गई और जब गाँधी स्टेशन पहुँचे तो गाड़ी चलती दिखाई दी। स्टेशन मास्टर भला था सो उसने गाँधीजी का सामान उतरवा दिया था। इस परिस्थिति में गाँधी को अब दूसरे दिन ही जाना था। एक दिन का उपयोग कैसे हो, इसके लिए गाँधी ने अंग्रेज सरकार के हिमायती पत्र ‘पायोनियर’ के सम्पादक से मिलने की सोची। गाँधी लिखते हैं ‘यहाँ के पायोनियर पत्र की ख्याति मैंने सुनी थी। भारत की आकांक्षाओं का वह विरोधी है, यह मैं जानता था। मुझे याद पड़ता है कि उस समय मि. चेजनी उसके सम्पादक थे। मैं तो सब पक्षों के आदमियों से मिलकर सहायता प्राप्त करना चाहता था। इसलिए मैंने मि. चेजनी को मुलाकात के लिए पत्र लिखा। चेजनी ने बुला लिया। उन्होंने गौर से मेरी बातें सुनीं। मुझे आश्वासन दिया कि आप जो कुछ लिखेंगे, मैं उस पर तुरन्त टिप्पणी करूँगा। परन्तु मैं आपको यह वचन नहीं दे सकता कि आपकी सब बातों को मैं स्वीकार कर सकूँगा।’

गाँधी पत्रकारिता में बाहरी धन लगाने को खतरनाक मानते थे। इसीलिए वह अपने समाचार पत्र ‘नवजीवन’ और ‘यंग इण्डिया’ में विज्ञापन नहीं छापते थे। अपनी इस नीति के बारे में उनका मानना था कि विज्ञापन न छापने से उन्हें अथवा उनके पत्रों को किसी तरह का नुकसान नहीं हुआ बल्कि ऐसा करने से पत्रों के विचार स्वातन्त्र्य की रक्षा करने में मदद मिली। एक तरह से वह पत्रकारिता को दो रूपों में विभाजित करते थे-एक व्यावसायिक पत्रकारिता और दूसरा लोकसेवी पत्रकारिता। वह मानते थे कि पत्रकारिता को व्यवसाय बनाने से वह दूषित हो जाती है और लोकसेवा के लक्ष्य से भटक जाती है। समाचार पत्रों में प्रकाशित होने वाले समाचारों और लेखों पर उस समय कितना ध्यान दिया जाता था, इस सम्बन्ध में दो घटनाओं का उल्लेख करना आवश्यक है। पहली घटना गाँधीजी से जुड़ी है, जिसका जिक्र उन्होंने अपनी आत्मकथा में किया है, ‘इण्डियन ओपीनियन में मैंने एक भी शब्द बिना बिचारे, बिना तौले लिखा हो या किसी को खुश करने के लिए लिखा हो अथवा जान-बूझकर अतिशयोक्ति की, ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता। मेरे लिए यह अखबार संयम की तालीम सिद्ध हुआ।......इस अखबार के बिना सत्याग्रह की लड़ाई चल नहीं सकती थी।’ दूसरी घटना काँग्रेस और गाँधीजी की नीतियों के प्रबल पक्षधर ‘आज’ समाचार पत्र से जुड़ी है। बनारस से प्रकाशित ‘आज’ के मालिक शिव प्रसाद गुप्त थे और सम्पादक पराड़करजी। गुप्तजी आज के दौर के मालिकों की तरह नहीं बल्कि जानकार व्यक्ति थे। साहित्य अनुरागी थे। लेखकों और सम्पादकों का सम्मान करते थे। इसी दरम्यान उन्होंने एक लेख लिखा। पराड़करजी को देखने के लिए दिया। उन्होंने देखकर बताया कि लेख छपने योग्य नहीं है। इसे दोबारा लिखने का प्रयास करें। शिव प्रसाद गुप्त लेख दोबारा लिखकर पराड़करजी से मिलने पहुँचे। उन्होंने पढ़ा और कहा कि गुप्तजी बात बनी नहीं। गुप्तजी ने अनुरोध किया कि मेरी इच्छा है कि यह छप जाए। पराड़करजी ने सुझाव दिया कि यह विज्ञापन के रूप में छप जाएगा। और वह लेख विज्ञापन के रूप में छपा, जिसका शिव प्रसाद गुप्त ने बाकायदा भुगतान किया। इन दो घटनाओं से उस दौर की पत्रकारिता को समझा जा सकता है, लेकिन इसका यह मतलब बिलकुल नहीं कि उस समय की पत्रकारिता में कमियाँ नहीं थीं। उस दौर में भी पत्रकारिता के एक हिस्से पर आरोप लगे। साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देने का आरोप लगा। जिस समाचार पत्र ‘मतवाला’ का बड़े सम्मान के साथ नाम लिया जाता है उसके मालिक को जेल तक जाना पड़ा। समाचार पत्रों के इस रवैये से खिन्न होकर ही भगत सिंह ने जून 1927 में ‘किरती’ पत्रिका में लिखा था ‘पत्रकारिता व्यवसाय जो किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था, आज बहुत गन्दा हो गया है। यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएँ भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौवल कराते हैं। एक-दो जगह नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिये दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं। अखबारों का असली कर्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएँ हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था, पर दुख है कि इन्होंने अपना कुल कर्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक लड़ाई-झगड़ा करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है।’

करीब 90 साल पहले लिखी भगत सिंह की बातें इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक की पत्रकारिता पर एकदम सही साबित हो रही हैं। पहले और आज के समय में अन्तर केवल इतना है कि आज अज्ञानता, साम्प्रदायिकता, संकीर्णता फैलाने और साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करने के कारोबार में समाचार पत्रों से आगे टीवी न्यूज चैनल अपनी भूमिका निभा रहे हैं। जहाँ तक गाँधीजी की बात है तो वह समाचार पत्रों की शक्ति सकारात्मक और नकारात्मक दोनों सन्दर्भों में पहचानते थे। उसको लेकर सचेत रहते थे। इसी बात को केन्द्र में रखकर उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है, ‘समाचार पत्र एक जबरदस्त शक्ति है, किन्तु जिस प्रकार निरंकुश पानी का प्रवाह गाँव के गाँव डुबो देता है और फसल को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार कलम का निरंकुश प्रवाह भी नाश की सृष्टि करता है। यदि अंकुश बाहर से आता है तो वह निरंकुशता से भी अधिक विषैला सिद्ध होता है।’ वैसे पत्रकारिता में जब-जब कलम निरंकुश होती है तो उसकी भरपाई देश और समाज को करनी पड़ती है। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के दरम्यान जहाँ पत्रकारिता के एक हिस्से पर ही सवाल उठे थे वहीं आजादी के बाद खासकर सत्तर के दशक के बाद उसमें खासी गिरावट देखने को मिली। आपातकाल एक ऐसी घटना है, जहाँ भारतीय पत्रकारिता दो खेमों में बँटी नजर आई। एक पक्ष आपातकाल के समर्थन में खड़ा नजर आया तो दूसरा आपातकाल के विरोध में। बहुत कम लोगों ने तीसरे पक्ष यानी सन्तुलित होकर बात की। इसे दूसरे तरीके से भी कह सकते हैं कि आपातकाल से जहाँ सत्ता का अलोकतान्त्रिक चेहरा सामने आया वहीं सेंसरशिप ने भारतीय पत्रकारिता की अवसरवादिता को सामने लाने का काम किया। इससे यह भी पता चला कि आधुनिक कही जाने वाली भारतीय पत्रकारिता ने स्वतन्त्रता आन्दोलन की पत्रकारिता की विरासत से स्वयं को अलग कर लिया है। इस बदलाव का लाभ पत्रकारिता के कुलीन तबके को मिला। सत्ताधारियों और समाचार पत्र के मालिकों को यह अहसास हो गया कि सम्पादकों और पत्रकारों का आवश्यकतानुसार इस्तेमाल किया जा सकता है। इसी के साथ सम्पादकीय आचार-विचार का दोहन शुरू हो गया। पत्रकारिता में नई-नई प्रवृत्तियाँ उभरने लगीं। प्रबन्धन और विज्ञापन संस्था का प्रभुत्व बढ़ने लगा तो सम्पादकीय का प्रभुत्व कमजोर होने लगा।
(आलेख का शेष भाग दूसरी और तीसरी कड़ियों में)
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(लखनऊ में, 1-2 अक्टूबर 2016 को आयोजित दो दिवसीय ‘अहिंसा फेस्टिवल’ में दिए गए व्याख्यान का सम्पादित स्वरूप। मूल आलेख तथा सन्दर्भ सूची ‘अकार-46’ में उपलब्घ।)


 अटल तिवारी - पत्रकारिता से दस-बारह वर्षों तक जुड़े रहे हैं। लखनऊ आकाशवाणी के लिए बेग़म अख़्तर पर श्रृंखला ‘कुछ नक्श मेरी याद के’ तैयार की है। आजकल दिल्ली के एक कॉलेज में पत्रकारिता  पढ़ाते हैं।
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......और मैंने शेर भगा दिए

पत्रकारिता की विश्वसनीयता को लेकर जब लिख रहा था तब, लिखते-लिखते ही मुझे मेरी एक दुस्साहसभरी मूर्खता याद आ रही थी। मेरी यह मूर्खता, पत्रकारिता की विश्वसीनयता से सीधे-सीधे शायद न जुड़ती हो लेकिन मुझे यह अन्ततः जुड़ती हुई ही लगती है। 

यह 1973-74 की बात है। मैं मन्दसौर में एक दैनिक का सम्पादक था। तब, जिला स्तर के अखबार टेªडल पर छपते थे और आकाशवाणी के रात पौने नौ बजेवाले समाचार बुलेटिन के बाद अन्तिम स्वरूप ले लेते थे। तब, लेण्ड लाइन टेलिफोन ही सम्पर्क का एकमात्र साधन होता था। अपने शहर/कस्बे से बाहर बात करने के लिए ट्रंक कॉल बुक करने पड़ते थे। तब, एसटीडी सेवाएँ भी नहीं थीं।

वह तेज बरसात की रात थी। शिवना में बाढ़ आई हुई थी। आधा से अधिक मन्दसौर बाढ़ के पानी से लबालब था। निचली बस्तियाँ पानी में डूबी हुई थीं और मुख्य बाजार की मुख्य सड़कें नहरें बनी हुई थीं। उन दिनों शिवना की बाढ़ वार्षिक प्रतीक्षित घटना हुआ करती थी। लोग त्रस्त भी रहते थे और दुःख का आनन्द भी लिया करते थे। शहर की मुख्य बाजार की मुख्य सड़क, कालिदास मार्ग पर एक वर्ष मैंने भी नौका विहार किया था। जिला प्रशासन को पहले से ही मालूम रहता था कि कहाँ-कहाँ, क्या-क्या हो सकता है। उसकी तैयारी पूरी रहती थी। इसी के चलते बाढ़ से निपटने के इन्तजामों को लेकर हम अखबारवालों को जिला प्रशासन की आलोचना करने के मौके बहुत ही कम मिल पाते थे।

उस वर्ष, बरसात के उस मौसम में मन्दसौर में एक सर्कस आया हुआ था। बाढ़ ने उसके डेरे-तम्बू उखाड़ दिए थे। सर्कस में तीन या चार शेर भी थे। बाढ़ के कारण उन शेरों के भाग जाने की चर्चा पूरे मन्दसौर में फैली हुई थी। बरसात से हमारा फोन बन्द पड़ा था। नयापुरा स्थित हमारा दफ्तर बाढ़ से तनिक भी प्रभावित नहीं था किन्तु हम पूरी दुनिया से कटे हुए थे। ‘लेटेस्ट’ समाचार जानने के लिए लोग आ-जा रहे थे। मैं उनसे शेरों की खबर की ही पूछताछ कर रहा था। किसी के पास पक्की खबर नहीं थी लेकिन अपना अनुमान जताने में कोई भी देर नहीं कर रहा था। लगभग प्रत्येक कहता - ‘एँ! ये भी कोई पूछने की बात है? वो तो कभी के भाग गए होंगे।’ 

उन दिनों मैं मन्दसौर का युवतम पत्रकार का तमगा हासिल किए था। उत्साह से लबालब। हमारा अखबार नया-नया था। मैं पहली बार सम्पादन कर रहा था किन्तु इन्दौर-भोपाल के अनेक पत्रकारों से मेरा सम्पर्क हो चुका था। उनका काम करने का तरीका मैं देख चुका था। इसका मुझे अतिरिक्त लाभ मिला था। मेरे सम्वाददाताओं में मेरे प्रति अतिरिक्त विश्वास, मालिक से मिली छूट और मेरी थोड़ी-बहुत मेहनत के कारण हमारे अखबार ने लोगों के बीच हमारी उम्मीदों से अधिक विश्वसनीयता हासिल कर ली थी। हमें गर्मजोशी से हाथोंहाथ लिया जा रहा था।  ये सारी बातें मुझे, अपने प्रतियोगी अखबारों को पछाड़ने की उद्दाम भावना के अधीन लोगों के अनुमान को अन्तिम सच मानने को उकसाए जा रही थी। पत्रकारिता (और बाद में बीमा में भी) मेरे गुरु (अब स्वर्गीय) श्री हेमेन्द्र त्यागी मेरे दफ्तर में ही बैठे थे। उन दिनों वे ‘नव-भारत’ का काम देख रहे थे। साहित्य, इतिहास और पुरातत्व में उनका बड़ा दखल था। वे जानकारियों और सन्दर्भों के भण्डार थे। मन्दसौर ही नहीं, पूरे जिले में उनका बड़ा दबदबा था। वे ‘घुमा कर’ बात करते थे। पत्रकारवार्ताओं में उनके सवाल सामनेवाले पर धोबी पछाड़ जैसा असर करते थे। वे मुझ पर बराबर नजर गड़ाए हुए थे। सर्कस के शेरों को लेकर जैसे ही कोई आगन्तुक अपना अनुमान जताता, बुलेट की तरह त्यागीजी का सवाल आता - ‘अन्दाज से कह रहे हो या तुमने भागे हुए शेरों को देखा या सर्कस के मालिक से बात की है?’ जवाब देनेवाले की मानो घिघ्घी बँध जाती। घुटी-घुटी आवाज आती - ‘अन्दाज से कहा।’ त्यागीजी कहते तो कुछ नहीं लेकिन जिन नजरों से सामनेवाले को देखते, वह उनकी ताब नहीं झेल पाता। वह जल्दी से जल्दी जाने की जुगत भिड़ाने लगता।

रात के नौ बज चुके थे। शेरों के भाग जाने की प्रतीक्षामय अपेक्षा में मैंने पहला पेज रोक रखा था। कम्पोजिटर चाह कर भी नहीं जा पा रहे थे। उनकी पूरी बस्ती पानी में डूबी हुई थी। उन्हें सुबह तक प्रेस में ही रुकना था। सवा नौ बजते-बजते मेरा धीरज उबलने लगा। अचानक ही एक सन्देशवाहक आया। वह त्यागीजी के लिए सन्देश लेकर आया था। उन्हें तत्काल ही घर के लिए रवाना होना पड़ा। लेकिन जाने से पहले, किसी कड़क थानेदार की तरह मुझे हिदायत दे गए - ‘मैं जानता हूँ, तू शेरों को भगाने के लिए उतावला बैठा है। तेरे पास काई अधिकृत खबर नहीं है। पीआरओ या कलेक्टर या एसपी से तेरी बात नहीं हुई है। आनेवाले सबसे मैंने तेरे सामने ही पूछा है। एक ने भी ने भी शेरों के भागने की खातरी नहीं की है। मैं जा रहा हूँ। तू शेर भगा मत देना। बहुत ही नाजुक मामला है। जिला प्रशासन पहले से ही परेशान है। शेरों के भागने की खबर से लोगों में दहशत फैलेगी और भगदड़ मच सकती है। किसी भी कीमत पर शेरों का भगाना मत।’

और त्यागीजी चले गए। उनकी हिदायत मुझे बिलकुल ही अच्छी नहीं लगी। मेरा मन उसे मानने को तैयार ही नहीं था। साढ़े नौ बजते-बजते मुख्य कम्पोजीटर रमेश बोला - ‘बैरागीजी! हमें तो रात भर यहीं रहना है। लेकिन बाकी लोगों को तो घर जाना है! अखबार कब छपेगा और कब बाहर जाएगा? जो भी करना हो, करो।’ दफ्तर में अब मैं ही मैं था। मालिक तो वैसे भी नहीं रहते थे। जो भी थे, मेरा कहा माननेवाले ही थे। उत्साह के अतिरेक मैंने जोखिम लेने का फैसला किया। शेरों के भागने का समाचार लिखा और रमेश को थमाया। रमेश ने अविश्वास और हैरतभरी नजरों से मुझे देखा और निराशाजनक स्वरों में बोला - ‘तो अपन शेर भगा रहे हैं?’ मैंने अनुभवी पत्रकार और सम्पादकीय रुतबे से कहा - ‘हाँ। अपन ने भगा दिए। अपन ने क्या भगा दिए, वे सच्ची में भाग गए।’

अखबार छपा। यूँ तो मैं देर से उठता हूँ किन्तु उस दिन जल्दी उठ गया। बाढ़ का पानी लगभग रात जैसा ही बना हुआ था। सरकारी मदद से कोतवाली पहुँचा। मैं गर्वोन्मत्त, इतराया हुआ था। लेकिन कोतवाली पहुँचते ही वहाँ मौजूद तमाम सरकारी अधिकारी मुझ पर टूट पड़े। पिटाई के अलावा बाकी सब मेरे साथ हुआ। मैं वहाँ से भाग जाना चाहता था लेकिन चारों ओर पानी ही पानी। जाने के लिए सरकारी मदद चाहिए और सारे के सारे मुझसे नाराज। बिना चाय-पानी, ग्यारह बज गए। त्यागीजी भी वहाँ पहुँच गए। मुझे देखते ही उनकी आँखों से मानो लपटें उठने लगी। मैंने प्रणाम किया तो मेरे दोनों हाथ झटक कर अन्दर चले गए। उसके बाद कोई सप्ताह भर तक मुझसे बात ही नहीं की। वह समय मेरे लिए अत्यधिक पीड़ादायक रहा। लेकिन कहता भी तो किससे कहता और क्या कहता?

मेरी खूब जग-हँसाई हुई। जो प्रतियोगी पत्रकार मेरा लिहाज पालते थे, सबको ख्ुालकर खेलने का मौका मिल गया। मेरी दशा यह कि घर में रुक नहीं सकता और बाहर कहीं बैठने की हिम्मत ही न हो। कोई एक पखवाड़े बाद त्यागीजी ने मेरी ओर देखा। मेरी पीठ पर खूब घूँसे मारे। उसके बाद दिन में जब भी पहली बार मिलते या फोन पर बात होती तो पहला सवाल करते - ‘आज कितने शेर भगाए?’ जवाब में मुझे रोना-रोना आ जाता।

तब संचार साधन बहुत सीमित थे। इसलिए, हमारे अखबार के पाठकीय क्षेत्र के बाहर बात बहुत ही धीरे-धीरे लोगों तक पहुँची। मेरी तकदीर अच्छी रही कि पुरानी हो जाने के कारण कहीं भी ज्यादा देर नहीं टिकी। 

किन्तु आदमी अपनी मूर्खताएँ कभी नहीं भूलता। भूल ही नहीं सकता। उसे डर लगा रहता है - कोई पुराना जानकार उस मूर्खता को उजागर न कर दे। और वैसा होता ही होता है। आज भी, जब उन दिनों के साथी-संगाती मिल जाते हैं तो कोई न कोई तो मजे ले ही लेता है - ‘अच्छा हुआ रे! जो तूने पत्रकारिता छोड़ दी। वर्ना जाने कहाँ-कहाँ जाने कितने शेर भगाता रहता।’  

समझदार लोग अपनी मूर्खताओं से अकल लेते हैं। अधिक समझदार वे होते हैं जो दूसरे की मूर्खता से अकल लेते हैं। आपके लिए यह बहुत ही बढ़िया मौका है।
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पहली बार सुना ऐसा इंकार

‘हलो!’

‘हलो।’

‘प्रियम्वदजी बोल रहे हैं?’

‘जी हाँ! मैं प्रियम्वद बोल रहा हूँ।’

‘नमस्कार प्रियम्वदजी। मैं रतलाम से विष्णु बैरागी बोल रहा हूँ।’

‘ओह! विष्णुजी! नमस्कार! नमस्कार!! कहिए!

‘आप मुझे अकार 46 की कितनी प्रतियाँ उपलब्ध करा सकते हैं?’

‘आप कहें उतनी। लेकिन आपको क्यों चाहिए?’

‘अपने कुछ मित्रों को भेंट देने के लिए। दरअसल इस अंक में अटल तिवारी का लेख मुझे बहुत अच्छा लगा। मैं उसे, पत्रकारिता से जुड़े अपने कुछ मित्रों को पढ़वाना चाहता हूँ।’

‘माफ करें विष्णुजी। अकार मुफ्त वितरण के लिए नहीं है।’

‘मुफ्त नहीं। प्रतियों का मूल्य मैं चुकाऊँगा।’

‘जी। आप चुकाएँगे। वे नहीं, जिन तक यह पहुँचेगा। आप जिसे भी भेजना चाहते हैं, उन्हें अकार का अता-पता दे दीजिए। लेख के बारे में उन्हें बता कर अकार की सिफारिश कर दीजिए और अंक का मूल्य भेजने के लिए कह दीजिए। हम डाक खर्च लिए बिना उन्हें अंक उन्हें भेज देंगे।’

‘भुगतान वे करें या मैं करूँ, आपको क्या फर्क पड़ता है? आपको तो आपके पैसे मिल रहे हैं!’

‘जी। हमें तो हमारे पैसे मिल रहे हैं लेकिन आप उन्हें जबरिया पढ़ा रहे हैं, वह भी मुफ्त में। हम इसके खिलाफ हैं।’

‘मुझे थोड़ी अजीब लग रही है आपकी बात।’

‘सही कहा आपने। अजीब लग ही रही होगी क्योंकि ऐसी बात सामान्यतः कोई सम्पादक-प्रकाशक नहीं करता। आप जिसे भी अकार का यह अंक भेजना चाह रहे हैं वे कितने भी गरीब हों लेकिन इतने भी नहीं कि पचास रुपये भी खर्च न कर सकें। हमारे (हिन्दीवाले) लोग, घर से निकल कर, दुकान पर जाकर, दो हजार का जूता खरीद लेते हैं लेकिन हिन्दी की किसी किताब या पत्रिका के लिए घर से निकल कर पोस्ट ऑफिस/बैंक जाकर पचास रुपये चुकाने को तैयार नहीं। हम इस मानसिकता से न तो सहमत हैं न ही इसे बढ़ावा देते हैं।’

‘..............’

‘हलो! विष्णुजी! सुन रहे हैं?’

‘जी। सुन रहा हूँ।’

‘पता नहीं आपने ध्यान दिया या नहीं, अकार बिना विज्ञापन के छप रहा है। आसान नहीं है ऐसा करना। हम करने की कोशिश में लगे हुए हैं। हम इसे लेखकों, पाठकों का प्रकाशन बनाना चाहते हैं। हम तो इसे इनका को-आपरेटिव बनाना चाहते हैं। उनका सहकारी स्वामित्व चाहते हैं। अकार के प्रत्येक अंक में अकार के बैंक खाते के ब्यौरे दिए रहते हैं। हमें सहयोग राशि भी चाहिए और कीमत चुका कर पढ़नेवाले भी। इसलिए विष्णुजी! क्षमा करें! इस अंक की प्रतियाँ तो हैं  किन्तु आपको नहीं भेजेंगे।’

‘ठीक है।’

यह ‘ठीक है।’ कहते समय मेरी आवाज में रंच मात्र भी निराशा या गुस्सा नहीं था। ताजगी अनुभव की मैंने अपनी आवाज में। जब से सूझ-समझ (अब, वह जैसी भी है) आई है तब से पहली बार ऐसा इंकार सुना। यह इंकार, हिन्दी के आकाश में गूँजे, गरजे। इस इंकार को समूचा हिन्दी समुदाय बाहुपाश में ले। इस तरह कि छूट न पाए। वहीं कैद रह जाए ताकि फिर किसी प्रियम्वद को ऐसा इंकार उच्चारित करने का अवसर नहीं मिले। जितने लिखने, छपनेवाले हों उसके सौ-हजार गुना खरीद कर पढ़नेवाले हों।

‘अकार’ के सम्पर्क ब्यौरे - अकार प्रकाशन,           
15/269, सिविल लाइंस, कानपुर-208001. 
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फोन - 0512 2305561, मोबा. नम्बर - 098392 15236  
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(जिन मित्रों को अकार का यह अंक भेजना चाह रहा था, उन सबको अब इस ब्लॉग पोस्ट की लिंक भेज रहा हूँ।)