......हम नहीं, बेकवर्ड तो आप हो

आज मुझे एक उलाहना मिला। इस उलाहने ने मेरे जाले झाड़ दिए। 

मैं खुद को प्रगतिशील मानता, कहता हूँ और यथासम्भव तदनुसार ही व्यवहार करने की कोशिश भी करता हूँ। किन्तु अवचेतन में जड़ें जमाए बैठी ग्रन्थियाँ शायद ही निर्मूल हो पाती हों। मैं भी इसका शिकार निकला और रंगे हाथों पकड़ा गया।


इन्दौर के सान्ध्य दैनिक ‘प्रभातकिरण’ का यह समाचार पढ़िए। मुझे यह अत्यधिक प्रेरक और प्रभावी लगा। मैं, भा. जी. बी. नि. अभिकर्ताओं के संगठन ‘लियाफी’ (लाइफ इंश्योरेंस एजेण्ट्स फेडरेशन ऑफ इण्डिया) का काम भी देखता हूँ। मैंने, पहली फरवरी की सुबह, मेरी शाखा के अभिकर्ताओं के वाट्स एप ग्रुप पर इस समाचार की कतरन लगाई और अभिकर्ता साथियों का आह्वान किया - ‘इन आदिवासियों से सीखो! बचना है, अपना हक हासिल करना है तो एकजुट रहो और एक साथ, एक बात बोलो।’

मेरा  सन्देश बहुत पसन्द किया गया। खूब प्रशंसा हुई। मुझे दूर-दूर से खबरें मिलीं कि अभिकर्ताओं के अनेक ग्रुपों में इसे साझा किया गया है। दो-एक दिन मैं इसी प्रशंसा की गुनगुनी धूप का आनन्द लेता रहा। लेकिन आज मुझ पर ओले बरस गए।

अपराह्न कोई तीन बजे मेरा मोबाइल घनघनाया। कोई अनजान नम्बर था। मैंने ‘हेलो’ किया। जवाब में नमस्कार के उत्तर के साथ जवाब आया - ‘सर! आप मुझे नहीं जानते। मैं भी आपको नहीं जानता। लेकिन आपका नाम खूब सुना है। जिस ग्रुप में मैं हूँ उसमें आपके ब्लॉग भी पढ़े हैं। बहुत अच्छे लगते हैं। लेकिन सर! आज आपका एक मेसेज पढ़ा तो मेरे मन में जो आपकी इमेज थी वह टूट गई। आप भी दूसरे लोगों की तरह बस बातें ही अच्छी करते हो। आप भी सर! दकियानूस ही हो।’ मैं अचकचा गया। काटो तो खून नहीं। उसकी बात खत्म होने से पहले ही मैं पस्त हो गया। हिम्मत करके पूछा - ‘आप कौन हैं? कहाँ से बोल रहे हैं? मैंने ऐसा क्या कर दिया?’ उसने जवाब दिया - ‘सर! आपके पड़ौस के झाबुआ जिले का हूँ। भील हूँ और ग्रेजुएट हूँ। मुझे नौकरी नहीं करनी। इसलिए एलआईसी की एजेंसी ली है। अभी दो वर्ष ही हुए हैं। बहुत छोटा एजेण्ट हूँ। लियाफी के बारे में सुना है और सुना है कि आप लियाफी के बड़े नेता हो। लेकिन सर! आज आपका वो इन आदिवासियों से सीखो वाला मेसेज देखा तो बहुत दुःख हुआ। अच्छा नहीं लगा सर। आप भी हम आदिवासियों को नासमझ, नादान ही समझते हो। आप हमें बेकवर्ड, बेवकूफ समझते हो। लेकिन ऐसा नहीं है सर! हम नासमझ, नादान, बेवकूफ नहीं हैं। आपने हम लोगों को दूर से ही देखा है और अखबारों, मैगजिनों में छपी बातों के सिवाय और कुछ नहीं जाना है। आप कभी हम लोगों के पास, हमारे बीच बैठो सर! हमसे बात करो, हमारी बात सुनो तो आपको मालूम होगा कि बेकवर्ड हम नहीं, आप लोग हो सर!’ 

वह मुझे बोलने का मौका नहीं दे रहा था। उसकी बात सुनते-सुनते मैं अपने सन्देश की इबारत याद करने की कोशिश करता रहा। मैंने टोका - ‘मैंने अपने मेसेज में आदिवासिों के बारे में ऐसा तो कुछ नहीं लिखा जैसा कि तुम कह रहे हो।’ तनिक भी विचलित, उत्तेजित हुए बिना वह बोला - ‘हर बात लिखी थोड़े ही जाती है सर? कई बातें तो बिना लिखे ही कह दी जाती हैं। अपने एक ब्लॉग में आपने ही लिखा है सर कि बिटविन द लाइन्स काफी कुछ कह दिया जाता है जिसे पढ़ा जाना चाहिए। मैंने आपके इस मेसेज में वही बिटविन द लाइन्स पढ़ा है सर।’ मैं हकला गया। मेरे बोल नहीं फूट रहे थे। मैं कुछ भी कहूँ, सच तो वही है जो उसने कहा था। अपने सन्देश में मैंने आदिवासियों को परोक्षतः नासमझ, नादान ही तो कहा था! मैंने घिघियाते हुए कहा - ‘मेरा इरादा ऐसा कुछ भी नहीं था भाई! यह सच में बिलकुल अनजाने में हो गया। मैं माफी माँगता हूँ। लेकिन आपने अब तक अपना नाम नहीं बताया।’ उसकी आवाज में ‘विजेता’ की खनक आ गई। बोला - ‘नाम क्या बताना सर! रतलाम से दो घण्टे की दूरी पर हूँ। आता-जाता रहता हूँ। अगली बार आऊँगा तो आपसे जरूर मिलूँगा। लेकिन आपने जिस तरह से फौरन माफी माँग ली सर, उसकी मुझे उम्मीद नहीं थी। आप उतने भी खराब नहीं हैं जितना मैंने वह मेसेज पढ़ कर मान लिया था। जल्दी ही मिलूँगा सर! थैंक्यू। नमस्ते।’ और उसने फोन बन्द कर दिया।  मैं कई क्षणों तक फोन कान से लगाए रहा। शायद फिर से उसकी ‘हेलो’ सुनाई पड़ जाए। लेकिन नहीं। वह फोन वास्तव में बन्द कर चुका था।

मैं संज्ञा शून्य की दशा में आ गया था। धीरे-धीरे अपने आसपास की दुनिया में लौटा तो सबसे पहले मुझे, यादव सा’ब के ‘अन्नपूर्णा दाल बाटी भण्डार’ पर काम करनेवाला वह आदिवासी युवक याद आया जो एक अपराह्न यह कह कर छुट्टी पर गया था कि उसे एक दाह संस्कार में उसके गाँव जाना है। यादव सा’ब ने मान लिया था कि अब वह अगले दिन नहीं आएगा। लेकिन वह रोज की तरह अगली सुबह, दुकान पर हाजिर था। यादव सा’ब ने पूछा तो उसने बताया कि दाह संस्कार रात को ही हो गया। रुक कर क्या करता? इसलिए सुबह लौट आया। यादव सा’ब ने पूछा - ‘रात को? सूर्यास्त के बाद तो मुर्दा नहीं जलाते!’ वह युवक बोला था - ‘वो तो आप लोग नहीं जलाते। हमारे तड़वी (मुखिया) का कहना है कि सूरज तो कभी अस्त नहीं होता। वो तो अटल है। अपनी धरती उसके सामने से हट जाती है। इसलिए रात हो जाती है। इसलिए हमारा सूरज तो बारहों महीने, सातों दिन, चौबीसों घण्टे उजासमान रहता है।’

इसके साथ ही साथ मुझे, यादव सा’ब की दूसरी दुकान,
‘शंकर स्वीट्स’ पर काम कर रहा ईश्वर सिंगाड़ याद आ गया। वह पास ही के गाँव में रहता है। अपनी ग्राम पंचायत का उप सरपंच भी रह चुका है। बात अभी-अभी ही की है। मल मास चल रहा था। मेरे कस्बे में त्रिवेणी मेला चल रहा था। उसने कहा कि वह अगले दिन काम पर नहीं आएगा। उसे एक विवाह में शरीक होने जाना है। विवाह त्रिवेणी मेले में ही होनेवाला था। मैं वहीं बैठा था। मैंने टोका - ‘मल मास में तो विवाह नहीं होते!’ ईश्वर ने सहज भाव से कहा - ‘हमारे में मल मास नहीं होता। हम तो इसी महीने में माँडा (विवाह) करते हैं और त्रिवेणी के मेले में ही करते हैं।’ मैंने पूछा - ‘त्रिवेणी मेले में ही क्यों?’ ईश्वर ने जवाब दिया था - ‘वो इसलिए बाबूजी कि यहाँ हमें कुछ नहीं करना पड़ता। सब कुछ तैयार, रेडीमेड मिलता है। लम्बा-चौड़ा मैदान, खूब सारे लोग, भोजन-भण्डारे की व्यवस्था। चाहे जितने लोग आओ, सबके लिए भोजन की व्यवस्था। हम लोग फालतू प्रपंच में नहीं पड़ते। हमें पण्डित भी नहीं चाहिए। हमारे यहाँ दूल्हे का जीजा माँडा करा देता है। दोनों तरफ के लोग आ जाते हैं। पाँचों पकवान जीमते हैं और हो गया माँडा।’ मैं और यादव सा’ब एक दूसरे का मुँह देखने लगे थे।

आज के उलाहने के चाबुक ने ये दोनों घटनाएँ याद दिला दी और याद आते ही मुझे मानना पड़ा कि ‘उसने’ सच ही कहा था। मैं अभी-अभी अपने छोटे बेटे का विवाह निपटा कर बैठा हूँ। यादव सा’ब के कुटुम्ब में एक विवाह दस्तक दे रहा है। मुझे क्या-क्या खटकरम नहीं करने पड़े? यादव सा’ब के यहाँ अभी विवाह की तारीख तय नहीं है लेकिन वे ही नहीं, उनका पूरा कुटुम्ब अभी से व्यस्त हो गया है। 

एक के बाद एक, बातें मन में आ रही हैं। एक जाती नहीं कि दूसरी आ धमक रही है। इस सबके बीच ‘उसकी’ आवाज कानों में गूँज रही है - ‘...... बेकवर्ड हम नहीं, आप लोग हो सर!’ 

मेरे अनजान, अनाम दोस्त! तुमने सच कहा। ‘बेकवर्ड’ तुम नहीं, हम ही हैं। बिना विचारे कही अपनी बात के लिए मैं माफी माँगता हूँ। केवल तुम से नहीं, तुम्हारे पूरे समुदाय से। तुम जल्दी रतलाम आओ। मुझसे मिलो ताकि मैं यह सब तुमसे रु-ब-रु कह सकूँ।
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यह सन्‍देश दिया था मैंने, अभिकर्ताओं के अपने वाट्स एप ग्रुप पर।

ये चमत्कारी प्रेरणा-पुंज


(दिनांक 18 मार्च  2016 को मैंने यह आलेख, भारतीय जीवन बीमा निगम की गृह पत्रिका ‘योगक्षेम’ में प्रकाशनार्थ भेजा था। अब तक इस पर किसी निर्णय की सूचना नहीं है। शायद इसे प्रकाशन योग्य नहीं समझा गया। यहाँ केवल इसलिए दे रहा हूँ ताकि सुरक्षित रह सके और वक्त-जरूरत काम आए।)

क्या है ‘एमडीआरटी’?
(इस आलेख में ‘एमडीआरटी’ शब्द प्रयुक्त किया गया है। ‘मिलियन डॉलर राउण्ट टेबल’ के प्रथमाक्षरों से बना संक्षिप्त रूप है। यह बीमा एजेण्टों के उत्कृष्ट विक्रय कौशल का पैमाना है और इस पात्रता के धारक एजेण्टों को पूरी दुनिया में विशिष्ट हैसियत तथा अतिरिक्त महत्व प्राप्त है। इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस समय समूची दुनिया में लगभग 32000 एजेण्ट ही यह पात्रता अर्जित किए हुए हैं जो दुनिया के एजेण्टों का लगभग एक प्रतिशत है। वर्ष 2014 में भारतीय जीवन बीमा निगम ने इस सूची में पहला स्थान पाया था। उस वर्ष इसके 6730 एजेण्ट एमडीआरटी बने थे। 
इसकी सदस्यता प्राप्त करने के लिए एजेण्ट को केलेण्डर वर्ष में (याने, पहली जनवरी से 31 दिसम्बर की अवधि में) एक निश्चित रकम की कमीशन आय अर्जित करनी पड़ती है या इन बारह महीनों में एक निश्चित रकम की ‘प्रथम प्रीमीयम आय’ (वर्ष के दौरान बेचे गए नए बीमों की, पहले वर्ष की प्रीमीयम) का आँकड़ा पार करना होता है। यदि कोई ‘एकल प्रीमीयम’ (सिंगल प्रीमीयम) पालिसी बेची जाती है तो उस प्रीमीयम की 6 प्रतिशत रकम ही ‘प्रथम प्रीमीयम आय’ गिनती में ली जाती है। केलेण्डर वर्ष 2019 के लिए पहले वर्ष की कमीशन आय 9,34,400 रुपये तथा पहले वर्ष की प्रीमीयम आय 37,37,600 रुपये निर्धारित है। 
दुनिया के लगभग अस्सी देशों की लगभग 430 बीमा तथा वित्तीय कम्पनियों/संस्थानों के इस संगठन की स्थापना 1927 में हुई थी।)

मंजिल उन्हीं को मिलती है,
जिनके सपनों में जान होती है।
सिर्फ पंखों से कुछ नहीं होता,
हौसलों से उड़ान होती है।

ये पंक्तियाँ हम सबने कम से कम एक बार तो सुनी ही होंगी। कोई ताज्जुब नहीं कि परस्पर चर्चाओं के दौरान या समूह चर्चाओं में हममें से कुछ ने इन्हें प्रयुक्त भी किया हो। लेकिन इन पंक्तियों को सच करनेवाले कितने कर्मठों को कितने लोगों ने देखा होगा? दूसरों की तो कह नहीं सकता किन्तु अपनी कह रहा हूँ - हाँ! मैंने इन पंक्तियों को साकार करनेवाले तीन कर्मठों को देखा है। उनसे मिला भी हूँ। 

उनचालीस वर्षीय अभिकर्ता जयदीप ने 2015 में एमडीआरटी की पात्रता अर्जित की। यह उनका लगातार आठवीं बार एमडीआरटी था। उल्लेखनीय बात यह कि उन्होंने अगस्त 2015 में ही एमडीआरटी कर लिया था और वे अपने मण्डल में शीर्ष स्थान पर रहे। अभिकर्ताद्वय जी. चन्द्रशेखर और दिलजीतसिंह ने भी वर्ष 2015 में एमडीआरटी पात्रता अर्जित की। चन्द्रशेखर ने लगातार तीसरी बार और दिलजीतसिंह ने एक वर्ष के व्यवधान के बाद तीसरी बार एमडीआरटी किया। लेकिन इसमें अनोखा क्या? शायद कुछ भी नहीं। क्योंकि एमडीआरटी करनेवाले अभिकर्ताओं का कारवाँ देश  में प्रति वर्ष बढ़ता ही जा रहा है। किन्तु इन तीनों अभिकर्ताओं की यह उपलब्धि, देश के बाकी तमाम अभिकर्ताओं से तनिक हटकर है। ये तीनों ही अभिकर्ता, ‘निगम’ की अण्डमान-निकोबार शाखा से हैं। इस शाखा में काम करते हुए यह उपलब्धि हासिल करना ही इन्हें देश के अन्य एमडीआरटी अभिकर्ताओं से तनिक अलग ही पहचान दिलाता है।

अण्डमान-निकोबार को हममें से अधिकांश ने नक्षे में ही देख होगा और किताबों/पत्र-पत्रिकाओं में इसके बारे में पढ़ा होगा। मुमकिन है, हममें से कुछ ने यू-ट्यूब पर इससे जुड़ी कुछ फिल्में भी देखी हों। लेकिन हकीकत इन सब की रुमानियत का आनन्द एक झटके में लगभग खत्म ही कर देती है। वहाँ गए बिना इन अभिकर्ताओं की इस उपलब्धि को महसूस कर पाना निश्चय ही असम्भव है।

अण्डमान-निकोबार द्वीप समूह देश के सात केन्द्र शासित प्रदेशों में से एक है। यह 572 द्वीपों का प्रदेश है। 2011 की जनगणना के मुताबिक समूचे द्वीप समूह की आबादी लगभग 3,80,500 है। लेकिन इसकी सारी गतिविधियाँ दक्षिण अण्डमान में, राजधानी पोर्ट ब्लेयर में केन्द्रित हैं जिसकी जनसंख्या लगभग एक लाख है। सड़क मार्ग का यातायात बहुत ही कम है। जल मार्ग ही यातायात का मुख्य और एकमात्र साधन है। वायु यात्रा काफी मँहगी पड़ती है इसलिए यहाँ के लोग जल मार्ग पर ही निर्भर रहते हैं। जल मार्ग से पोर्ट ब्लेयर से कोलकोता (जहाँ अण्डमान-निकोबार शाखा का मण्डल कार्यालय है) की दूरी 1,255 किलो मीटर, विशाखापटनम से 1,200 किलो मीटर और चैन्ने (चैन्‍नई) से 1,190 किलो मीटर है। पोर्ट ब्लेयर से कोलकोता जाने के लिए, यदि भाग्य से, तेज गति वाला (पानी का) जहाज मिल जाए तो ढाई दिन में पहुँचा जा सकता है। अन्यथा चार या पाँच दिन लग जाते हैं। पड़ौसी द्वीपों के लिए छोटे जहाज चलते हैं जिन्हें ‘फेरी’ कहा जाता है। इनकी संख्या भी सीमित होती है और इनमें यात्री संख्या भी सीमित होती है। उदाहरणार्थ पोर्ट ब्‍लेयर से नील द्वीप के लिए सुबह एक फेरी मिलती है जो शाम को लौटती है। हेवलॉक द्वीप के लिए दो या तीन फेरियाँ मिलती हैं। पहले ओव्हर लोडिंग कर लिया जाता था किन्तु एक दुर्घटना के बाद क्षमता से अधिक यात्री बैठाने पर सख्त पाबन्दी है। इस सीमित यात्री संख्या के कारण प्रायः प्रत्येक फेरी एडवांस बुकिंग के कारण सदैव भरी हुई ही मिलती है। इसीलिए किसी आकस्मिक स्थिति में चाह कर भी उसी दिन कहीं पहुँच पाना असम्भवप्रायः ही होता है। वास्तविकता का अनुमान अभिकर्ता कृष्णमूर्ति की इस बात से लगाया जा सकता है कि एक बार वे बीमा करने पड़ौस के द्वीप गए तो बारहवें दिन घर लौट पाए। 

अभिकर्ता जयदीप से जिस दिन मेरी मुलाकात हुई उसके अगले दिन उन्हें एक बीमा के लिए दिगलीपुर जाना था। इसके लिए उन्हें सुबह चार बजे घर से निकल कर, 48 किलोमीटर दूर झिरकाटाँग चौकी पर कोई दो घण्टों की प्रतीक्षा करनी थी। वहाँ से बाराटाँग तक का, लगभग पचास किलो मीटर का इलाका ‘जारवा जनजाति इलाका’ है जहाँ कोई अकेला यात्री या वाहन नहीं जा सकता। वहाँ वाहनों का काफिला (केनवाय) बनाकर एक निश्चित अन्तराल से दिन में (स्थितियों के अनुसार) तीन-चार बार वाहन छोड़े जाते हैं। वाहनों की गति भी चालीस किलो मीटर प्रति घण्टा के मान से बनाए रखनी पड़ती है। बाराटाँग से जयदीप को अपनी कार समेत फेरी से दूसरे द्वीप पर पहुँचकर शेष यात्रा सड़क मार्ग से कर, शाम चार बजे  दिगलीपुर पहुँचना था। ग्राहक से बात उसके बाद ही होनी थी।  

पोर्ट ब्लेयर की आबादी में एक तिहाई आबादी सरकारी कर्मचारियों की है। उद्यम, व्यापारिक प्रतिष्ठान/संस्थान गिनती के हैं। आधी से अधिक आबादी की आय अनियमित और अनिश्चित है। जाहिर है, बीमा अभिकर्ताओं के लिए यह नौकरीपेशा वर्ग ही सबसे बड़ा सम्भावना क्षेत्र है। सबसे मँहगी चीज है - जमीन। चौंसठ वर्ग फीट जगह में दफ्तर चला रहे एक अभिकर्ता को तीन हजार रुपये प्रति माह किराया चुकाना पड़ रहा है।

इतनी प्रतिकूलताओं, अनिश्चितताओं और सीमित सम्भावना क्षेत्र के बीच कोई अभिकर्ता लगातार आठ बार या तीन-तीन बार एमडीआरटी करे, केलेण्डर वर्ष के शुरुआती आठ महीनों में ही एमडीआरटी कर ले, मण्डल में प्रथम स्थान हासिल करे तो यह किसी ‘चमत्कार’ से कम नहीं माना जाना चाहिए। यह कठोर परिश्रम का मामला तो है ही, सुविचारित, सुनियोजित रणनीति और ग्राहक प्रबन्धन के कौशल का मामला भी है। इस लिहाज से अण्डमान-निकोबार शाखा के ये अभिकर्ता ‘प्रशंसनीय’ से कही आगे बढ़कर ‘अभिनन्दनीय’ हैं और इस सबसे कहीं आगे बढ़कर पूरे देश के अभिकर्ताओं के लिए ‘प्रेरणा-पुंज’ से कम अनुभव नहीं होते।

हम, देश के मैदानी इलाकोंवाले अभिकर्ता प्रायः ही बीमा न मिलने की शिकायत करते रहते हैं। मैं भी इनमें शरीक रहा हूँ। लेकिन अण्डमान-निकोबार जाकर अपनी इस शिकायत की हकीकत पर हमें निश्चित रूप से झेंप आ जाएगी। 

मेरे मित्र कवि-शायर विजय वाते की पंक्तियाँ हैं -

अवसरों में मुश्किलें मत देखना,
हाथ से अवसर निकलते जाएँगे।
मुश्किलों में देखना अवसर नये,
रास्ते खुद आप खुलते जाएँगे।

ये चमत्कारी प्रेरणा-पुंज हमें कुछ इसी तरह एक मौका दे रहे हैं - खुद की नजरों में झेंपने से बचने का।
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सम्बन्ध काम में आते हैं

(यह लेख मैंने, 27 सितम्बर 2014 को, भारतीय जीवन बीमा निगम की गृह पत्रिका ‘योगक्षेम’ में प्रकाशनार्थ भेजा था। अब तक इस पर किसी निर्णय की सूचना नहीं है। शायद इसे प्रकाशन योग्य नहीं समझा गया।  इसे यहाँ केवल इसलिए दे रहा हूँ ताकि सुरक्षित रह सके और वक्त जरूरत काम आए।)  

‘बीमा’ ऐसा व्यापार-व्यवहार है जो पूरी तरह भावनाओं पर आधारित है। हम कोई भौतिक वस्तु नहीं बेचते। हम ‘भावी’ (भविष्य) की अच्छी-बुरी स्थितियों की कल्पना को अनुभूति में बदल कर उसके प्रभावों को उकेरते हैं और लोगों को बीमा सुरक्षा उपलब्ध कराते हैं। यह सचमुच में कठिन काम है। इसका सर्वाधिक रोचक और महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि अपना बीमा हमें देकर ग्राहक समझता है कि वह हमें उपकृत (या सहयोग) कर रहा है जबकि वास्तविकता इसके सर्वथा विपरीत होती है। जाहिर है कि हमारे व्यवसाय का चरित्र और इसकी आवश्यकताएँ और इसका व्यवहार अन्य व्यापारों/व्यवसायों से सर्वथा भिन्न है। अन्य व्यापारों/व्यवसायों में तो सामान की गुणवत्ता के आधार पर ग्राहक अपनी राय बना सकता है किन्तु हमारे व्यवसाय का एकमात्र आधार ‘ग्राहक सम्बन्ध’ ही होता है। इसीलिए, अन्य व्यापारों/व्यवसायों की तुलना में हमारा काम, सबसे हटकर, अनूठा है।

अभिकर्ता के रूप में कस्बाई स्तर पर मेरा अनुभव है कि बीमा बेचने के बाद यह समझ लिया जाता है कि हमारा काम पूरा या समाप्त हो गया है। मुझे ऐसा बिलकुल नहीं लगता। कभी लगा ही नहीं। मेरी तो यह सुनिश्चित धारणा है कि बीमा विक्रय पूरा होने के क्षण से हमारा काम शुरु होता है। जितनी अवधि की पॉलिसी हमने ग्राहक को बेची है, कम से कम उतनी अवधि के लिए उस ग्राहक से हमारा नाता-रिश्ता जुड़ जाता है। हम उसके प्रति प्रतिबद्ध हो जाते हैं। कुछ इस तरह कि मानोे, (पॉलिसी अवधि के लिए) हम या तो उसकी बेटी अपने घर में ले आए हैं या अपनी बेटी उसके घर में दे दी है। निजी स्तर पर यह भावना ही मेरे ग्राहक सम्बन्ध का आधार होती है। 

हमारा एक ग्राहक केवल ‘एक ग्राहक’ नहीं होता। वह ‘ग्राहकों की लम्बी श्रृंखला का सूत्र’ होता है। एक ग्राहक हमें असंख्य ग्राहक दिला सकता है। वस्तुतः हमारा प्रत्येक ग्राहक, ‘ग्राहकों की खदान’ होता है। किन्तु यह सब तभी सम्भव हो सकता है जब हम ग्राहक से निरन्तर और जीवन्त सम्पर्क बनाए रखें। ‘निगम’ के अभिकर्ता के रूप में काम करते हुए मुझे चौबीस बरस पूरे हो रहे हैं। अपने ग्राहक-सम्बन्धों को सुदीर्घ और स्थायी बनाने के लिए मैंने कुछ ‘उपक्रम’ प्रायोगिक रूप से आजमाए। इनसे मुझे खूब सहायता और सफलता मिली। वही यहाँ परोस रहा हूँ।

अपने ग्राहक के और उसके परिजनों (पति/पत्नी, पुत्री/पुत्र, माता-पिता, भाई-बहनों) के जन्म वर्ष-गाँठवाले प्रसंग पर उन्हें बधाई-अभिनन्दन और शुभ-कामना सन्देश अवश्य दीजिए। आज के समय में यह काम फोन, एसएमएस, वाट्स एप के जरिए किया जा रहा है। किन्तु ये सारे माध्यम केवल सम्बन्धित व्यक्ति तक ही सीमित होकर रह जाते हैं और कुछ समय बाद इन्हें ‘डिलिट’ किया जा सकता या भुलाया जा सकता है। इसलिए यह सब तो करें ही किन्तु डाक से अथवा कूरीयर से एक पत्र अवश्य भेजें। इसके लिए मँहगा कार्ड भेजना जरूरी नहीं। पचास पैसोंवाला पोस्टकार्ड भी चलेगा। यह पत्र, प्रसंग निकल जाने के बाद भी ग्राहक के ड्राइंग रूम में पड़ा रहेगा और केवल उसके परिजन ही नहीं, उसके मिलनेवाले भी इसे देखेंगे। यह पत्र, हमारी अनुपस्थिति में भी हमारी उपस्थिति दर्ज कराता रहेगा। सम्भव हो तो पत्र देने का यह काम व्यक्तिगत रूप से जाकर देने की कोशिश की जानी चाहिए। विवाह वर्ष-गाँठ प्रसंग को भी इसमें शरीक किया जाना चाहिए।

हमारे किसी ग्राहक ने यदि कोई उपलब्धि हासिल की हो या कोई प्रशंसनीय काम किया हो तो इसके लिए भी उसे बधाई देने में न तो देर करें और न ही कंजूसी। यह काम अकेले में कभी न करें। उसके या अपने परिजनों/परिचितों की उपस्थिति में करें। यह बधाई/प्रशंसा लिखित में भी दें। हमारे यहाँ तो देवता तक प्रशंसा के भूखे होते हैं। ऐसे में सामान्य मनुष्य की बात ही क्या! अपनी प्रशंसा सबको अच्छी लगती है, गुदगुदाती है। यह प्रशंसा यदि अपने मिलनेवालों के बीच हो तो इसका आनन्द हजार गुना बढ़ जाता है। अपने ग्राहक की इस उपलब्धि का जिक्र और प्रशंसा, उसकी गैरहाजिरी में, उसके मिलनेवालों से भी करें। लेकिन प्रशंसा और चापलूसी में जमीन-आसमान का अन्तर होता है और सामनेवाला इस अन्तर को खूब अच्छी तरह समझता है। इसलिए, आपकी प्रशंसा, प्रश्ंासा ही होनी चाहिए। चापलूसी नहीं।

किसी मोहल्ले में जाएँ तो वहाँ रहनेवाले अपने पूर्व ग्राहक से मिलने की जतन अवश्य करें। कोई पूर्व ग्राहक न हो और कोई सम्भावित ग्राहक हो तो उससे भी जरूर मिलें। कहिए कि केवल मिलने के लिए आए हैं। काम से मिलनेवाले को कोई याद नहीं करता लेकिन आज के जमाने में उन लोगों को अवश्य याद किया जाता है जो बिना काम के, केवल सद्भावनावश मिलते हों। बिना काम के इस तरह मिलना, खूब काम भी दिलाता है और सद्भावना भी।

आपके ग्राहक के परिवार में उपस्थित ‘जनम-मरण-परण’ (जन्म-मृत्यु-विवाह) प्रसंगों पर अपनी भागीदारी सुनिश्चित करें और कम से कम बार जरूर कहिए - ‘मुझ जैसा कोई काम हो तो अवश्य बताइएगा।’ अपने अनुभव के आधार पर कह रहा हूँ कि काम तो शायद ही कोई बताता हो लेकिन यह कभी नहीं भूलता कि आपने उसकी सहायता करने की इच्छा जताई थी।

अपने ग्राहक के रिश्तेदारी वाली जगह (खास कर तब जबकि वह किसी दूसरे कस्बे/शहर में हो) जाएँ तो पूछिए कि आपके ग्राहक को कोई सामान/सन्देश तो नहीं भिजवाना है? मेरा अनुभव है कि निन्यानबे प्रतिशत से भी अधिक मामलों में ‘नहीं! नहीं! कुछ नहीं भेजना है।’ वाला जवाब ही मिलता है। आपके द्वारा की गई यह पूछ-परख, ग्राहक के मन में आपकी पूछ-परख बढ़ाती है।

ग्राहक हमारी पूँजी और मूल्यवान परिसम्पत्ति ही नहीं, ‘अपरिमित सम्भावना’ भी है। इस सबकी दूखभाल खूब अच्छी तरह, पूरी चिन्ता और सतर्कता से की जानी चाहिए। हमारी बेची गई पॉलिसी, एक फाइल बनकर ग्राहक की आलमारी में बन्द हो जाएगी। ऐसे में हमारी मुख्य चिन्ता और मुख्य काम यही है कि हमारी अनुपस्थिति में भी हमारी उपस्थिति ग्राहक के परिवार में अनुभव की जाती रहे। इसका एक रास्ता और है - ‘सम्बन्ध’ को ‘सम्बन्धी’ में बदलना। इस समय मुझे, कोई चालीस बरस पहले छपा, ‘निगम’ का एक विज्ञापन याद आ रहा है। यह उस विज्ञापन की विशेषता ही थी कि उसने मेरा ध्यान तब आकर्षित किया था जब मैं ‘निगम’ से मेरा कोई सीधा सम्बन्ध नहीं था और इस क्षण भी याद आ रहा है जब मैं ‘निगम’ का एक छोटा सा, ध्वज-वाहक हूँ। इस विज्ञापन ने एक परिवार का चित्र (फेमिली फोटोग्राफ) छपा हुआ होता था और शीर्षक होता था - ‘इस चित्र में बीमा एजेण्ट को पहचानिए।’ विज्ञापन-शीर्षक के जरिए पूछा गया यह सवाल ही मुझे ‘ग्राहक सम्बन्ध’ का सूत्र थमाता अनुभव हो रहा है। ग्राहक के साथ हमारा सम्बन्ध और व्यवहार ऐसा हो कि वह हमें अपने परिवार का हिस्सा समझने लगे। गोया, ‘सम्बन्ध’ को ‘सम्बन्धी’ में बदल दिया जाए। लेकिन इसके समानान्तर, तब हमें यह वास्तविकता भी चौबीसों घण्टे याद रखनी है कि हम अपने ग्राहक के ‘सम्बन्धी’ नहीं हैं, उसके ‘सम्बन्धी’ होने की सीमा तक व्यवहार कर रहे हैं। यह बात इसलिए भी याद रखना जरूरी है कि ‘सम्बन्धी’ से सम्बन्ध बनाए रखना हमारी पारिवारिक/सामाजिक विवशता होती है। हममें से अधिसंख्य लोग अपने अनेक ‘सम्बन्धियों से त्रस्त’, उनसे मुक्ति की कामना करते हुए मिल जाएँगे। इसलिए हम खुद को ‘सम्बन्ध’ तक ही सीमित रखें। ‘सम्बन्धी’ होने की अनुभूति अवश्य कराते रहें किन्तु ‘सम्बन्धी’ कभी नहीं बनें। हम व्यवसायी हैं और व्यवसाय में जहाँ एक ओर ‘सम्पर्कों/सम्बन्धों की घनिष्ठता’ जरूरी है वहीं ‘न्यूनतम दूरी’ भी जरूरी है। हमें अपने ग्राहक से सम्बन्ध बनाना है, बनाए रखना है, दीर्घावधि तक बनाए रखना और मधुरता, आत्मीयता तथा सौहार्द्रता के साथ बनाए रखना है। ‘सम्बन्धी’ काम आएँ, न आएँ, ‘सम्बन्ध’ अवश्य काम में आते हैं। मेरे बड़े भाई साहब ने यही बात इस तरह कही है -

जीवन की फटी चदरिया में, पैबन्द काम में आते हैं।
सम्बन्धी काम नहीं आते हैं, सम्बन्ध काम में आते हैं।।
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एके साधे सब सधे


(दिनांक 20 दिसम्बर 2013 को मैंने यह लेख, भारतीय जीवन बीमा निगम की गृह पत्रिका ‘योगक्षेम’ में प्रकाशनार्थ भेजा था। अब तक इस पर किसी निर्णय की सूचना नहीं है। शायद इसे प्रकाशन योग्य नहीं समझा गया।  यहाँ केवल इसलिए दे रहा हूँ ताकि सुरक्षित रह सके और वक्त-जरूरत काम आए।)


एक लोकोक्ति है कि लोग अपनी गलतियों से सीखते हैं। किन्तु समझदार वे होते हैं जो दूसरों की गलतियों से सीखते हैं। मैं तमाम अभिकर्ताओं सहित सबको न्यौता दे रहा हूँ - मेरी गलतियों से सीखकर समझदार होने के लिए। 

महानगरों की स्थिति तो मुझे नहीं पता किन्तु कस्बाई स्तर पर हमारे अभिकर्ता साथी एकाधिक संस्थाओं की एजेन्सियाँ लिए होते हैं। ‘निगम’ का अभिकर्ता बनने के शुरुआती कुछ बरसों तक मैं भी यही करता था। किन्तु मैंने, एक के बाद एक बाकी सारे काम छोड़ दिए और केवल ‘एलआईसी एजेण्ट’ ही बन कर रह गया। 

मैंने पाया कि ऐसा करने के बाद न केवल मेरी आय बढ़ी बल्कि मेरी सार्वजनिक पहचान और प्रतिष्ठा (वह जैसी भी है) में मेरी अपेक्षा से अधिक बढ़ोतरी हुई। 

मेरे पास भारतीय यूनिट ट्रस्ट, डाक घर और साधारण बीमा (जनरल इंश्योंरेंस) कम्पनी की भी एजेन्सी थी। मेरी बात को किसी संस्था की आलोचना न समझी जाए किन्तु मेरा अनुभव रहा है कि ग्राहक सेवाओं के मामले में ‘निगम’ से बेहतर कोई संस्था नहीं। हर कोई जानना चाहेगा कि मैंने शेष तीनों एजेन्सियाँ क्यों छोड़ीं। मैं भी बताने को उतावला बैठा हुआ हूँ।

मैंने काम शुरु किया उस समय मेरे कस्बे में भारतीय यूनिट ट्रस्ट का कार्यालय नहीं था। तब यह इन्दौर में था - मेरे कस्बे से सवा सौ किलोमीटर दूर। एक निवेशक के नाम की वर्तनी (स्पेलिंग) दुरुस्त कराने में मुझे सात महीनों से अधिक का समय लग गया और इस दौरान मैंने  प्रति माह कम से कम चार-चार पत्र लिखे। याने प्रति सप्ताह एक पत्र। ग्राहक का नाम तो आखिरकार दुरुस्त हो गया किन्तु ग्राहक की नजरों में मेरे लिए विश्वास भाव में बड़ी कमी आई। वह जब भी मिलता, कहता - ‘क्या! सा’ब। मेरा नाम दुरुस्त कराने में यह हालत है तो अपना भुगतान लेने में तो मुझे पुनर्जन्म लेना पड़ जाएगा! ऐसे में आपसे बीमा कैसे लें?’ ऐसे प्रत्येक मौके पर मुझे  चुप रह जाना पड़ता था। अन्ततः नाम ही दुरुस्त नहीं हुआ, मैं भी दुरुस्त हो गया।  मैंने वह एजेन्सी छोड़ दी।

डाक घर के साथ मेरा अनुभव तनिक विचित्र रहा। डाक घर के बचत बैंक पोस्ट मास्टर मेरे पड़ौसी थे। हम दोनों रोज सुबह, अपना-अपना अखबार बदल कर पढ़ते थे। कभी मेरे यहाँ नल में पानी नहीं आता तो मैं उनके नल का उपयोग करता और कभी उनके नल में पानी नहीं आता तो वे मेरे नल से पानी लेते। किन्तु मेरे अचरज का ठिकाना नहीं रहा जब मेरे सगे भतीजे के एक निवेश की परिपक्वता राशि का भुगतान मुझे करने से उन्होंने इंकार कर दिया - वह भी तब जबकि मेरे पास मेरे भतीजे द्वारा मेरे पक्ष में दिया गया औपचारिक अधिकार-पत्र था। कुछ देर तो मुझे लगा कि वे मुझसे परिहास कर रहे हैं। किन्तु वे तो गम्भीर थे! स्थिति यह हो गई कि मुझे लिहाज छोड़ कर, शिकायत करने की धमकी देनी पड़ी। मुझे भुगतान तो मिल गया किन्तु इस घटना के बाद से हम दोनों के बीच की अनौपचारिकता, सहजता समाप्त हो गई और हम अपने-अपने अखबार से ही काम चलाने को मजबूर हो गए। मेरे मन में विचार आया कि जो मुझे और मेरे बारे में व्यक्तिगत रूप से भली प्रकार जानते हैं, जब वे भी मुझे, मेरे भतीजे का भुगतान करने में कठिनाई अनुभव कर रहे हैं तो किसी सामान्य ग्राहक का भुगतान कराने में, एक अभिकर्ता के रूप में मेरी दशा क्या होगी? ऐसी घटनाओं का प्रभाव मेरे दूसरे कामकाज पर अच्छा नहीं पड़ेगा। मुझे ग्राहकों से हाथ धोना पड़ जाएगा। मेरा मोह भंग हो गया और मैंने उस एजेन्सी को नमस्कार कर लिया।

सधारण बीमा (जनरल इंश्योरेंस) कम्पनी से मेरा ऐसा कोई अप्रिय अनुभव तो नहीं रहा किन्तु दावा भुगतान को लेकर वहाँ की कार्यप्रणाली ने मुझे निरुत्साहित कर दिया। मैंने देखा कि अपने दावों का भुगतान प्राप्त करने के लिए ग्राहकों को बार-बार चक्कर काटने पड़ते हैं। कुछ मामलों में मैंने पाया कि ग्राहक जब भी अपना भुगतान लेने आता तब उसे कोई न कोई कागज लाने के लिए कह दिया जाता। इसके सर्वथा विपरीत, ‘निगम’ ने मेरी आदत खराब कर रखी थी। मेरी इस बात से तमाम अभिकर्ता और अन्य लोग भी सहमत होंगे कि दावा भुगतान को ‘निगम; सर्वाेच्च प्राथमिकता देता है और स्थिति यह है कि हम ग्राहकों को ढूँढ-ढूँढ कर भुगतान करते हैं। कई बार तो ग्राहक को पता ही नहीं होता कि उसे कोई बड़ी रकम मिलनेवाली है। ऐसे पचासों भुगतान का माध्यम तो मैं खुद बना हूँ जो पालिसियाँ मैंने नहीं बेचीं और जिनका अता-पता मेरे शाखा कार्यालय ने मुझे दिया, मैंने सारी औपचारिकताएँ पूरी करवाईं और ग्राहक को भुगतान का चेक दिया। ऐसे प्रत्येक मामले में ग्राहक ने मुझे बार-बार धन्यवाद दिया तो दिया ही, दुआएँ भी दीं। मुझे लगा कि एक ओर कहाँ तो हम भुगतान करने के लिए उतावले रहते हैं और कहाँ दूसरी ओर ग्राहक चक्कर लगाता रहता है। मुझे लगा कि कभी मेरा कोई ग्राहक नाराज हो गया तो उसका प्रतिकूल प्रभाव मेरी, जीवन बीमा एजेन्सी पर पड़ सकता है और मुझे व्यावसायिक नुकसान हो सकता है। यह ऐसा नुकसान होगा जिसकी भरपाई कभी नहीं हो सकेगी। यह विचार आते ही मैंने चुपचाप वह एजेन्सी भी छोड़ दी।

आज, कोई आठ-दस बरसों से मैं केवल एलआईसी का काम कर रहा हूँ। शुरु में तो मुझे लगा था कि मुझे नुकसान हुआ है किन्तु मेरी आय के आँकड़े मेरी इस धारणा पर मेरा मुँह चिढ़ाते हैं। मेरी आय प्रति वर्ष बढ़ी। लेकिन इससे अधिक महत्वपूर्ण बात यह कि ग्राहक सेवाओं को लेकर आज मेरा एक भी ग्राहक मुझसे असन्तुष्ट नहीं है।

सारे काम छोड़कर एक ही काम करने के दो प्रभाव मैंने सीधे-सीधे अनुभव किए। पहला तो यह कि मैं अपने काम में अधिक दक्ष हुआ और दूसरा यह कि मेरे परिचय क्षेत्र में मुझे अतिरिक्त सम्मान से देखा जाने लगा। ग्राहकों से मेरा जीवन्त सम्पर्क बढ़ा और आज स्थिति यह है कि प्रति वर्ष मेरे ग्राहक बुला कर मुझे बीमा देते हैं। अपना परिचय देते हुए जब मैं कहता हूँ ‘‘मैं एलआईसी एजेण्ट हूँ और यही काम करता हूँ। इसके सिवाय और कोई काम नहीं करता।’ तो सामनेवाले पर इसका जो अनुकूल प्रभाव होता है उसे शब्दों में बयान कर पाना मेरे लिए सम्भव नहीं हो रहा।

यह सब देखकर और अनुभव कर मुझे अनायास ही कवि रहीम का दोहा याद आ गया -

एकै साधे सब सधे, सब साधे सब जाय।
जे तू सींचौ मूल को, फूले, फले, अघाय।।

अर्थात् थोड़े-थोड़े पाँच-सात काम करने की कोशिश में एक भी काम पूरा नहीं हो पाता। इसके विपरीत यदि कोई एक ही काम हाथ में लिया जाए तो वह पूरा होता है उसके समस्त लाभ भी मिलते हैं और इस सीमा तक मिलते हैं कि हमारी सारी आवश्यकताएँ पूरी हो जाती हैं। 

इसी क्रम में मुझे कवि गिरधर की एक कुण्डली याद आ रही है जो हमारी मातृसंस्था ‘एलआईसी’ पर पूरी तरह लागू होती है। कुण्डली इस प्रकार है -

रहिये लटपट काटि दिन, अरु घामे मा सोय।
छाँह न वाकी बैठिये, जो तरु पतरो होय।।
जो तरु पतरो होय, एक दिन धोखा दैहे।
जा दिन बहे बयारी, टूटी तब जर से जैहे।
कह गिरधर कविराय, छाँह मोटे की गहिये।
पाता सब झरि जाय, तऊ छाया में रहिये।।

अर्थात्, ‘चाहे तकलीफ में दिन काट लीजिए, चाहे धूप में सोना पड़े लेकिन किसी कमजोर-पतले वृक्ष की छाया में मत बैठिए। पता नहीं कब धोखा दे दे! किसी दिन आँधी में जड़ से उखड़ जाएगा। इसलिए किसी विशाल, मोटे, घनी वृक्ष की छाया में बैठिए। ऐसे वृक्ष के सारे पत्ते भी झड़ जाएँगे तो भी सर पर छाया बनी रहेगी।’ क्या आपको नहीं लगता कि ‘आर्थिक सुरक्षा और संरक्षा’ के सन्दर्भों में कवि गिरधर हमारी एलआईसी की ओर ही इशारा कर रहे हैं?

पूर्णकालिक (फुल टाइमर) अभिकर्ता के रूप में काम करने का सुख और सन्तोष अवर्णनीय है। इससे क्षमता और दक्षता में वृद्धि होती है जिसका अन्तिम परिणाम होता है - आय में वृद्धि। लेकिन इससे आगे बढ़कर एक और महत्वपूर्ण काम होता है - अधिकाधिक लोगों तक पहुँचकर उन्हें बीमा सुरक्षा उपलब्ध कराने का। 

यही तो ‘निगम’ का लक्ष्य है!
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‘अधिक’ को बेचने के बजाय बाँट कर भी कृतज्ञ

आज मेरा दिन जब शुरु हुआ तब तक मुहल्ले में, सब्जियों के बघार और सिकती रोटियों की गन्ध ने कुनकुनी धूप के साथ चहलकदमी शुरु कर दी थी। मैं लेण्डलाइन फोन पर एक ग्राहक से बात कर ही रहा था कि कि मोबाइल घनघनाया। उधर से पूरब, रवि का बेटा पुकार रहा था। ग्राहक से बात कर पूरब से फोन मिलाया। मेरे ‘हेलो’ कहते ही पूरब, सवा सौ किलोमीटर प्रति घण्टा की रफ्तार से बोला - ‘अंकल! जैसे हो, चले आओ। आपके लिए बढ़िया ह्यूमन स्टोरी है। आपके मिजाज की है। आप गार्डन-गार्डन हो जाएँगे।’ 

रवि का मकान बहुत दूर नहीं है। पैदल-पैदल, सात-आठ मिनिटों में पहुँचा जा सकता है। कपड़े बदल कर तनिक तेजी से पहुँचा। घर में घुसने से पहले, किसी पकवान के तलने की, जबान को हरकत में ला देनेवाली, तेज गन्ध ने स्वागत किया। अन्दर गया तो देखा, उसकी गली में रहने वाला कैलाश तनिक गुमसुम बैठा है। आँखें गीली हैं। मानो अभी-अभी ही आँसू पोंछे हों। पूरब पास में खड़ा है। सामने, प्लेट में, धुँआ छोड़ रहे, गरम-गरम समोसे और एक बड़े बाउल में धनिये की चटनी रखी हुई है। मैं इस चटनी ‘पुष्पा स्पेशल चटनी’ कहता हूँ। है तो यह सामान्य चटनी ही लेकिन पता नहीं, पुष्पा भाभी इसे किस विधि से, क्या-क्या डाल कर बनाती हैं कि यह ‘कृष्ण की मथुरा’ की तरह ‘तीन लोक से न्यारी’ हो जाती है। यह इतनी स्पेशल है कि मैं पुष्पा भाभी से बार-बार कहता हूँ कि वे इस नुस्खे का पेटेण्ट करवा लें और इसकी व्यपारिक गुंजाइश पर सोचें। 

‘आईए! आईए! भाई सा’ब।’ गर्मजोशी से अगवानी करते हुए रवि बोला - ‘आपकी फेवेरिट चटनी के साथ गरम-गरम समोसे खाईए। लेकिन आज यह चटनी आपके लिए नहीं, कैलाश के लिए बनी है।’ कैलाश की दशा और रवि की इस बात ने मुझे चौकन्ना कर दिया। पूछा - ‘क्यों? आज कोई खास बात हो गई?’ कैलाश की तरफ इशारा करते हुए रवि बोला - ‘हाँ। लेकिन यह खास बात कैलाश ही बताएगा।’ मैं कुछ पूछूँ, उससे पहले ही कैलाश बोला - ‘ऐसा कुछ भी नहीं दादा। ये तो रवि भैया का बड़प्पन है जो ऐसा कह रहे हैं।’ फिर जो कुछ उसने बताया वह सब सुनकर लगा, रवि ने ठीक ही किया। ठीक ही कहा।

कैलाश पास के ही गाँव का रहनेवाला है। गाँव इतना पास है कि दिन में दो बार जाया-आया जा सकता है। ढंग-ढांग की खेती बाड़ी है। दो बेटों की खातिर इस कस्बे में आ बसा। बेटे बड़े हैं। दोनों का ब्याह हो चुका है। बड़ा बेटा खेती सम्हालता है। छोटा बेटा नौकरी में है। अच्छा, खाता-पीता, हैसियतवाला, भरा-पूरा परिवार है। घर का दो मंजिला मकान है। लेकिन मुहल्लेवाले उसे ‘भाव’ नहीं देते। रहन-सहन और खान-पान पर गाँव की छाप लगी हुई है। मकान के सामने खेती-किसानी का साज-ओ-सामान पड़ा रहता है। इसलिए मकान ‘चकाचक’ नहीं है। वार-त्यौहार पर तो कैलाश का परिवार मुहल्ले के समागम में शरीक किया जाता है लेकिन रोजमर्रा के व्यवहार में मुहल्लेवाले मानो कन्नी काटते हैं। कैलाश के मुताबिक - ‘मेरी नमस्ते का जवाब भी ऐसे देते हैं कि कहीं मैं घर आने की न कह दूँ।’ थोड़े में कहें तो कैलाश अपने ही मुहल्ले में दोयम दर्जे की नागरिकता जी रहा है।

बड़ा बेटा कल रात खेत पर ही था। आज, बड़े सवेरे लौटा तो हरा धनिया लेता आया। कुछ ज्यादा ही ले आया। इतना ज्यादा कि फेंकने को मन नहीं माना। इतना ज्यादा भी नहीं कि किसी सब्जीवाले को बेचा जा सके। ‘तो दादा! सोचा कि किसी को दे दूँ।’ कैलाश ने बताना शुरु किया - ‘लेकिन किसे दूँ? सब तो मुझसे बिचकते हैं। तभी मुझे रवि बाबू का ध्यान आया। एक ये रवि बाबू ही हैं जो हमेशा, मार्निंग वाक से आते हैं तो आगे रह कर मुझसे नमस्ते करते हैं। इनका ध्यान आते ही याद आया कि अभी ये मार्निंग वाक से लौटने ही वाले हैं। मैं इनकी राह देखते हुए घर के बाहर खड़ा हो गया। ये आए तो हिम्मत करके पूछा कि अपने खेत से आज ज्यादा धनिया आ गया है। आप ले लोगे क्या? मेरी बात सुनकर इन्होंने फौरन कहा - ‘हाँ! हाँ। ले लेंगे। लाओ।’ मैं भागा-भागा घर में गया और जितना धनिया ज्यादा था, सब का सब ले आया। देख कर रवि बाबू बोले - ‘इतना? ये तो बहुत ज्यादा है कैलाश!’ तो मैंने कहा कि आप किसी और अपनेवाले को दे देना। मेरी बात सुनकर रवि बाबू ने खुशी-खुशी धनिया ले लिया। मुझे तो विश्वास ही नहीं हुआ। मुझे तो लगा था कि ये इंकार कर देंगे। लेकिन इन्होंने ले लिया। मैं नहा-धो कर घर से निकलने ही वाला था कि पूरब आ गया। बोला कि चलिए, पापा नाश्ते के लिए बुला रहे हैं। मेरी समझ में नहीं आया। मैं कुछ बोलता उससे पहले ही पूरब आगे-आगे और मैं पीछे-पीछे।’ 

आगे की बात रवि ने बताई - ‘ढेर सारा धनिया देख कर श्रीमती अचरज में पड़ गईं। इतनी सुबह, इतना सारा धनिया कहाँ से ले आए? मैंने पूरी बात बताई तो खुश हो गईं। बोली कि तो फिर आज चटनी बना लेती हूँ। सुनते ही मैंने कहा कि फिर तो अभी नाश्ते में समोसे बना लो और विष्णु भाई सा’ब को बुला लो। तो श्रीमतीजी बोली कि साथ में कैलाश भैया को भी बुला लो। धनिया उन्हीं ने दिया है। तो आज के नाश्ते का चीफ गेस्ट अपना यह कैलाश है। कैलाश को यह सब मालूम हुआ तो रोने लगा। कहने लगा कि मुहल्ले में पहली बार किसी ने उसे इतना मान-सम्मान दिया।’

रवि की बात सुनकर मेरी आँखों की कोरें भी भीग गईं। रवि की कॉलोनी से लगी कॉलोनी में ही मैं रहता हूँ। मेरी गली में बीस-बाईस मकान हैं। लेकिन मिलने-मिलाने के नाम पर कोई किसी के घर नहीं आता-जाता। बाहर, सड़क पर, घरों के सामने दो-दो, चार-चार इकट्ठे होकर, खड़े-खड़े बात कर लेते हैं। आमने-सामने होने पर मुस्कुरा कर अभिवादन कर लेते हैं। किसी से परहेज करना तो दूर, अनदेखी भी नहीं करते। जानता हूँ कि आदमी भीड़ में भी अकेला हो जाता है। लेकिन ऐसा उसकी अपनी पसन्दगी और मनःस्थिति के कारण होता है। वैसे भी ‘कॉलोनी कल्चर’ के शिकार हम सब, कांक्रीट के जंगल में रह रहे हैं। लेकिन कैलाश तो उपेक्षा और परहेज का भी शिकार है! किसी अस्पृश्य की तरह। उसकी मनोदशा का तो अनुमान भी नहीं किया जा सकता। वह ठहरा गाँव का आदमी। गाँव, जहाँ एक का दुख, सबका दुख होता है। किसी के मकान की नींव खुदाई शुरु होने पर पूरा गाँव गुड़-धनिया खाता है। एक घर का जमाई आता है तो पूरा मोहल्ला उसे चाय पिलाने के लिए घर-घर बुलाता है। कैलाश तो आज भी अपने गाँव में ही रह रहा है। कस्बाई नहीं हो पाया। हो पाता तो अतिरिक्त धनिये से दो पैसे खड़े कर लेता। लेकिन वह समझदार नहीं बन पाया। निपट देहाती ही रहा। अपना ‘अधिक’, बेचने के बजाय बाँटना ही सूझा। सामाजिक स्तर पर उसके साथ की जा रही क्रूरता का आंतक यह कि वह लेनेवाले के प्रति आभारी और कृतज्ञ है।

हम सब हरी चटनी के साथ समोसे खा रहे हैं। ‘पुष्पा स्पेशल चटनी’ मुझे आज कुछ अधिक और अतिरिक्त स्पेशल लग रही है। कैलाश के धनिये की खुशबू और उसके कृतज्ञ आँसुओं का खारापन इसमें समा गया है।
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‘सुबह सवेरे’,भोपाल, 08 फरवरी 2018



तनुजा और काजल की सुन्दरता: औरत की नजर

सुन्दरता की कोई सुनिश्चित और सुस्पष्ट परिभाषा अब तक तय नहीं हो पाई है। सबके पास अपनी-अपनी परिभाषा है। वह उक्ति ही ठीक लगती है कि सुन्दरता की परिभाषा तो वस्तुतः देखनेवाले की आँख की पुतली में ही समाई हुई है। आज शाम, पुरानी फिल्म ‘अनुभव’ देखने के दौरान मेरी उत्तमार्द्धजी की एक टिप्पणी ने यह बात दिला दी।

‘अनुभव’ नाम की दो फिल्में बनी हैं। पहली 1971 में, तनूजा, संजीव कुमार, ए. के. हंगल, दिनेश ठाकुर अभिनीत। बसु भट्टाचार्य इसके निदेशक और रघु रॉय संगीतकार हैं। दूसरी ‘अनुभव’ 1986 में बनी जिसमें पद्मििनी को ल्हापुरे, शेखर सुमन, ऋचा शर्मा मुख्य भूमिकाओं में थे। काशीनाथ इसके निर्देशक और राजेश रोशन संगीतकार हैं। यह फिल्म, कन्नड़ में बनी ‘अनुभव’ की हिन्दी प्रतिकृति है। मैं बात कर रहा हूँ पहली, 1971 में बनी ‘अनुभव’ की। 

आज शाम ‘एवरग्रीन क्लासिक’ चेनल पर यह फिल्म शुरु हुई तो हम पति-पत्नी अपने सारे काम छोड़ कर इसे देखने बैठ गए। फिल्म देखते-देखते उत्तमार्द्धजी ने कहा - ‘ये तनूजा कितनी सुन्दर है? काजल (या कि काजोल) इसी की बेटी है ना? लोग उसकी खूबसूरती पर मरे जाते हैं लेकिन तनूजा के सामने तो काजल कुछ भी नहीं।’ मैं फिल्म देखने में मगन था। कोई व्यवधान नहीं चाह रहा था। सो एक छोटी सी ‘हूँ’ करके रह गया। लेकिन ‘हूँ’ करते ही कोई तीस-चालीस बरस पीछे चला गया।

ठीक-ठीक तो याद नहीं लेकिन यह 1980 के आसपास की बात होगी। मेरे कस्बे के नेहरू स्टेडियम में बहुत बड़ा मुशायरा हुआ था। बिलकुल ही याद नहीं कि उसमें कौन-कौन शायर आए थे। लेकिन संचालक का नाम मैं अब तक नहीं भूल पाया हूँ। उनका नाम सकलैन हैदर था। किसी मुशायरे/कवि सम्मेलन का वैसा संचालक मैं उसके बाद अब तक नहीं देख/सुन पाया हूँ। शायर अपनी रचना पढ़ कर जैसे ही बैठते, सकलैन हैदर उनकी पूरी की पूरी रचना ऐसे दोहरा देते थ। केवल दोहराते ही नहीं, इतनी सहजता, धाराप्रवहता और समुचित शब्दाघात से दहराते मानो यह उन्हीं ने लिखी हो।

संचालन के दौरान उन्होंने हिन्दी-उर्दू को लेकर चल रही बातों पर टिप्पणी करते हुए उर्दू और अन्य भारतीय भाषाओं को ‘हिन्दी की बेटियाँ’ बताते हुए जो कहा था वह मुझे अब तक शब्दशः याद है। उन्होंने कहा था - ‘ उर्दू और दूसरी हिन्दी जबानें यकीनन हिन्दी की बेटियाँ हैं। लेकिन इस सच का क्या कीजै कि बेटियाँ हमेशा माँ से ज्यादा जवान और ज्यादा खूबसूरत होती हैं।’ समूचा श्रोता समुदाय अश्-अश् कर तालियों से आसमान गुँजा रहा था। बाद के बरसों में, सकलैन सा‘ब की यह टिप्पणी मैंने कई बार, बार-बार काम में ली और प्रशंसा पाई। लेकिन सकलैन सा‘ब का हवाला देने की ईमानदारी मैंने हर बार बरती। 

मेरी उत्तमार्द्धजी की टिप्पणी के जवाब में ‘हूँ’ करते ही मुझे सकलैन साब  और उनकी टिप्पणी की याद हो आई। तनूजा को देखते हुए उत्तमार्द्धजी यदि (तनुजा की सुन्दरता को लेकर) कुछ नहीं कहती तो कोई बात नहीं होती। तब यह अनुमान लगाया जा सकता था कि वे ‘नारी न मोहे नारी के रूपा’ की ईर्ष्या भावना के अधीन चुप हैं। लेकिन वे माँ के मुकाबले बेटी को कम सुन्दर बता रही थीं। मैं विचार में पड़ गया। दशकों पहले सकलैन साब की बात मुझे स्वाभाविक और प्राकृतिक सच लगी थी। अब भी लग रही है। लेकिन उत्तमार्द्धजी की बात सुनकर मैं असमंजस में पड़ गया। अब, सकलैन साब की बात मुझे एक शायर की साहित्यिक उक्ति लग रही थी और उत्तमार्द्धजी की बात (एक औरत द्वारा दूसरी को अधिक सुन्दर बताना) ज्यादा सच।

फिल्म समाप्त हुए दो घण्टे से अधिक का वक्त हो रहा है। मैं असमंजस से बाहर नहीं आ पा रहा हूँ। मैंने तनूजा और उनकी बेटी काजल को कभी इस तरह, सुन्दरता के पैमाने पर नहीं तौला। 

लिहाजा, मैं सबसे पहले सुनी उक्ति पर ही अन्तिम भरोसा कर रहा हूँ - सुन्दरता देखनेवाले की आँख की पुतली में ही समाई हुई है।
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(पोस्ट तो यहीं खत्म हो गई लेकिन इस पुछल्ले का आनन्द ले लीजिए। तनुजा अपने समय की सर्वाधिक ‘बिन्दास’, चुलबुली और अपनी मनमर्जी की मालिक अभिनेत्री के रूप में पहचानी जाती थी। आज से कोई चार दशक पहले ‘हॉट पेण्ट’ पनहन कर उन्होंने फिल्मी दुनिया में सनसनी मचा दी थी। अपनी फिल्मों की नायिकाओं के साथ करने के अनुभव सुनाते हुए संजीव कुमार ने कहा था - ‘तनुजा के साथ काम करते हुए बराबर लगता रहा कि फिल्म में दो हीरो हैं।’)
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