‘अधिक’ को बेचने के बजाय बाँट कर भी कृतज्ञ

आज मेरा दिन जब शुरु हुआ तब तक मुहल्ले में, सब्जियों के बघार और सिकती रोटियों की गन्ध ने कुनकुनी धूप के साथ चहलकदमी शुरु कर दी थी। मैं लेण्डलाइन फोन पर एक ग्राहक से बात कर ही रहा था कि कि मोबाइल घनघनाया। उधर से पूरब, रवि का बेटा पुकार रहा था। ग्राहक से बात कर पूरब से फोन मिलाया। मेरे ‘हेलो’ कहते ही पूरब, सवा सौ किलोमीटर प्रति घण्टा की रफ्तार से बोला - ‘अंकल! जैसे हो, चले आओ। आपके लिए बढ़िया ह्यूमन स्टोरी है। आपके मिजाज की है। आप गार्डन-गार्डन हो जाएँगे।’ 

रवि का मकान बहुत दूर नहीं है। पैदल-पैदल, सात-आठ मिनिटों में पहुँचा जा सकता है। कपड़े बदल कर तनिक तेजी से पहुँचा। घर में घुसने से पहले, किसी पकवान के तलने की, जबान को हरकत में ला देनेवाली, तेज गन्ध ने स्वागत किया। अन्दर गया तो देखा, उसकी गली में रहने वाला कैलाश तनिक गुमसुम बैठा है। आँखें गीली हैं। मानो अभी-अभी ही आँसू पोंछे हों। पूरब पास में खड़ा है। सामने, प्लेट में, धुँआ छोड़ रहे, गरम-गरम समोसे और एक बड़े बाउल में धनिये की चटनी रखी हुई है। मैं इस चटनी ‘पुष्पा स्पेशल चटनी’ कहता हूँ। है तो यह सामान्य चटनी ही लेकिन पता नहीं, पुष्पा भाभी इसे किस विधि से, क्या-क्या डाल कर बनाती हैं कि यह ‘कृष्ण की मथुरा’ की तरह ‘तीन लोक से न्यारी’ हो जाती है। यह इतनी स्पेशल है कि मैं पुष्पा भाभी से बार-बार कहता हूँ कि वे इस नुस्खे का पेटेण्ट करवा लें और इसकी व्यपारिक गुंजाइश पर सोचें। 

‘आईए! आईए! भाई सा’ब।’ गर्मजोशी से अगवानी करते हुए रवि बोला - ‘आपकी फेवेरिट चटनी के साथ गरम-गरम समोसे खाईए। लेकिन आज यह चटनी आपके लिए नहीं, कैलाश के लिए बनी है।’ कैलाश की दशा और रवि की इस बात ने मुझे चौकन्ना कर दिया। पूछा - ‘क्यों? आज कोई खास बात हो गई?’ कैलाश की तरफ इशारा करते हुए रवि बोला - ‘हाँ। लेकिन यह खास बात कैलाश ही बताएगा।’ मैं कुछ पूछूँ, उससे पहले ही कैलाश बोला - ‘ऐसा कुछ भी नहीं दादा। ये तो रवि भैया का बड़प्पन है जो ऐसा कह रहे हैं।’ फिर जो कुछ उसने बताया वह सब सुनकर लगा, रवि ने ठीक ही किया। ठीक ही कहा।

कैलाश पास के ही गाँव का रहनेवाला है। गाँव इतना पास है कि दिन में दो बार जाया-आया जा सकता है। ढंग-ढांग की खेती बाड़ी है। दो बेटों की खातिर इस कस्बे में आ बसा। बेटे बड़े हैं। दोनों का ब्याह हो चुका है। बड़ा बेटा खेती सम्हालता है। छोटा बेटा नौकरी में है। अच्छा, खाता-पीता, हैसियतवाला, भरा-पूरा परिवार है। घर का दो मंजिला मकान है। लेकिन मुहल्लेवाले उसे ‘भाव’ नहीं देते। रहन-सहन और खान-पान पर गाँव की छाप लगी हुई है। मकान के सामने खेती-किसानी का साज-ओ-सामान पड़ा रहता है। इसलिए मकान ‘चकाचक’ नहीं है। वार-त्यौहार पर तो कैलाश का परिवार मुहल्ले के समागम में शरीक किया जाता है लेकिन रोजमर्रा के व्यवहार में मुहल्लेवाले मानो कन्नी काटते हैं। कैलाश के मुताबिक - ‘मेरी नमस्ते का जवाब भी ऐसे देते हैं कि कहीं मैं घर आने की न कह दूँ।’ थोड़े में कहें तो कैलाश अपने ही मुहल्ले में दोयम दर्जे की नागरिकता जी रहा है।

बड़ा बेटा कल रात खेत पर ही था। आज, बड़े सवेरे लौटा तो हरा धनिया लेता आया। कुछ ज्यादा ही ले आया। इतना ज्यादा कि फेंकने को मन नहीं माना। इतना ज्यादा भी नहीं कि किसी सब्जीवाले को बेचा जा सके। ‘तो दादा! सोचा कि किसी को दे दूँ।’ कैलाश ने बताना शुरु किया - ‘लेकिन किसे दूँ? सब तो मुझसे बिचकते हैं। तभी मुझे रवि बाबू का ध्यान आया। एक ये रवि बाबू ही हैं जो हमेशा, मार्निंग वाक से आते हैं तो आगे रह कर मुझसे नमस्ते करते हैं। इनका ध्यान आते ही याद आया कि अभी ये मार्निंग वाक से लौटने ही वाले हैं। मैं इनकी राह देखते हुए घर के बाहर खड़ा हो गया। ये आए तो हिम्मत करके पूछा कि अपने खेत से आज ज्यादा धनिया आ गया है। आप ले लोगे क्या? मेरी बात सुनकर इन्होंने फौरन कहा - ‘हाँ! हाँ। ले लेंगे। लाओ।’ मैं भागा-भागा घर में गया और जितना धनिया ज्यादा था, सब का सब ले आया। देख कर रवि बाबू बोले - ‘इतना? ये तो बहुत ज्यादा है कैलाश!’ तो मैंने कहा कि आप किसी और अपनेवाले को दे देना। मेरी बात सुनकर रवि बाबू ने खुशी-खुशी धनिया ले लिया। मुझे तो विश्वास ही नहीं हुआ। मुझे तो लगा था कि ये इंकार कर देंगे। लेकिन इन्होंने ले लिया। मैं नहा-धो कर घर से निकलने ही वाला था कि पूरब आ गया। बोला कि चलिए, पापा नाश्ते के लिए बुला रहे हैं। मेरी समझ में नहीं आया। मैं कुछ बोलता उससे पहले ही पूरब आगे-आगे और मैं पीछे-पीछे।’ 

आगे की बात रवि ने बताई - ‘ढेर सारा धनिया देख कर श्रीमती अचरज में पड़ गईं। इतनी सुबह, इतना सारा धनिया कहाँ से ले आए? मैंने पूरी बात बताई तो खुश हो गईं। बोली कि तो फिर आज चटनी बना लेती हूँ। सुनते ही मैंने कहा कि फिर तो अभी नाश्ते में समोसे बना लो और विष्णु भाई सा’ब को बुला लो। तो श्रीमतीजी बोली कि साथ में कैलाश भैया को भी बुला लो। धनिया उन्हीं ने दिया है। तो आज के नाश्ते का चीफ गेस्ट अपना यह कैलाश है। कैलाश को यह सब मालूम हुआ तो रोने लगा। कहने लगा कि मुहल्ले में पहली बार किसी ने उसे इतना मान-सम्मान दिया।’

रवि की बात सुनकर मेरी आँखों की कोरें भी भीग गईं। रवि की कॉलोनी से लगी कॉलोनी में ही मैं रहता हूँ। मेरी गली में बीस-बाईस मकान हैं। लेकिन मिलने-मिलाने के नाम पर कोई किसी के घर नहीं आता-जाता। बाहर, सड़क पर, घरों के सामने दो-दो, चार-चार इकट्ठे होकर, खड़े-खड़े बात कर लेते हैं। आमने-सामने होने पर मुस्कुरा कर अभिवादन कर लेते हैं। किसी से परहेज करना तो दूर, अनदेखी भी नहीं करते। जानता हूँ कि आदमी भीड़ में भी अकेला हो जाता है। लेकिन ऐसा उसकी अपनी पसन्दगी और मनःस्थिति के कारण होता है। वैसे भी ‘कॉलोनी कल्चर’ के शिकार हम सब, कांक्रीट के जंगल में रह रहे हैं। लेकिन कैलाश तो उपेक्षा और परहेज का भी शिकार है! किसी अस्पृश्य की तरह। उसकी मनोदशा का तो अनुमान भी नहीं किया जा सकता। वह ठहरा गाँव का आदमी। गाँव, जहाँ एक का दुख, सबका दुख होता है। किसी के मकान की नींव खुदाई शुरु होने पर पूरा गाँव गुड़-धनिया खाता है। एक घर का जमाई आता है तो पूरा मोहल्ला उसे चाय पिलाने के लिए घर-घर बुलाता है। कैलाश तो आज भी अपने गाँव में ही रह रहा है। कस्बाई नहीं हो पाया। हो पाता तो अतिरिक्त धनिये से दो पैसे खड़े कर लेता। लेकिन वह समझदार नहीं बन पाया। निपट देहाती ही रहा। अपना ‘अधिक’, बेचने के बजाय बाँटना ही सूझा। सामाजिक स्तर पर उसके साथ की जा रही क्रूरता का आंतक यह कि वह लेनेवाले के प्रति आभारी और कृतज्ञ है।

हम सब हरी चटनी के साथ समोसे खा रहे हैं। ‘पुष्पा स्पेशल चटनी’ मुझे आज कुछ अधिक और अतिरिक्त स्पेशल लग रही है। कैलाश के धनिये की खुशबू और उसके कृतज्ञ आँसुओं का खारापन इसमें समा गया है।
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‘सुबह सवेरे’,भोपाल, 08 फरवरी 2018



3 comments:

  1. बहुत ही सहजता से बहुत महत्वपूर्ण बात कर गए हैं दादा ,बहुत अच्छा लगता है जड़ो से सरोकारों की बात की जाती है। गाहे-बगाहे हम भी इसी कॉलोनी कल्चर के शिकार हैं।
    ऑफिस से घर जा कर ऐसा लगता है कि जैसे किसी जेल में कैद हो अपने आप को कैद कर लिया है ईश्वर करें सभी को ऐसा पड़ोस मिले और सभी मनुष्य बन पाए। बहुत छोटे में बहुत बड़ा लिखा है आपने, सलाम

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  2. कॉलोनी कल्चर भी कुछ अजीब है, जब जरूरत होती है तो लोग कहते हैं कि मेरा किसी ने साथ नहीं दिया और जब जरूरत नहीं तो दूर से ही राम-राम। अच्छा संस्मरण।

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