आप तो जानते ही हो


मेरे एक आदरणीय मित्र भोपाल स्थानान्तरित हो गए । वे अत्यधिक संकोची, आत्मकेन्द्रित और ‘चुप्पा’ किस्म के हैं । अपना नाम तक बताने में संकोच कर जाते हैं । भोपाल में उनका नया आवास राज भवन वाले क्षेत्र में है, यह जानकर मैं ने उन्हें श्री विजय वाते का नम्बर दिया ताकि आपात स्थिति में उनकी सहायता ले सकें । आपात स्थिति यही कि सामान से लदे उनके ट्रक को कहीं भी रोका जा सकता था । वे बोले - ‘वातेजी से बात करने में मुझे उलझन होगी । आप उन्हें मेरा नम्बर दे दीजिएगा ।’ मैं ने पूछा - ‘वातेजी को कैसे मालूम पड़ेगा कि आप आपात स्थिति में हैं ? बताना तो आपको ही पड़ेगा ।’ वे परेशान हो गए । बोले - ‘पुलिस का जवान ही नहीं सुनता तो इतना बड़ा अफसर मेरी बात क्यों सुनेगा ? फिर, पुलिस वालों को तो आप जानते ही हो ।’ चूँकि मैं इनका स्वभाव जानता था सो मुझे अटपटा नहीं लगा । कहा -‘वातेजी थोड़ा अलग हटकर हैं । वे रतलामवालों के प्रति अतिरिक्त प्रेमभाव रखते हैं । उनसे बात कर आपको अच्छा ही लगेगा ।’ बेमन से उन्होंने वातेजी का नम्बर लिख लिया ।


वे रतलाम से रवाना हुए तो मैं ने वातेजी को पूरा किस्सा सुना कर बार-बार विशेष अनुरोध किया कि मेरे इन मित्र का फोन आते ही वे अतिरिक्त सम्वेदनशीलता बरत कर उनकी मदद करें । वातेजी को ऐसी बातों की आदत है और वे पढ़ने-लिखनेवाले आदमी भी हैं, सो उन्होंने मेरे थोड़े कहे को बहुत समझ लिया और मेरे आदरणीय मित्र की ‘आप तो जानते ही हो’ वाली बात पर हँसते रहे ।


उनके भोपाल पहुँचने के अपेक्षित समय के बाद भी देर तक उनकी कोई खबर नहीं आई तो मैं ने अपनी ओर से उनकी तलाश की । बोले - ‘पुलिसवालों ने दो बार ट्रक को रोका ।’ मैं ने पूछा - ‘आपने वातेजी से बात की ?’ बोले -‘जरूरत ही नहीं पड़ी । मैं ने उनका फोन नम्बर पुलिसवालों को देकर कहा कि वे मेरे बारे में वातेजी से पूछ लें । वातेजी का नाम सुनकर ही उन्होंने ट्रक को जाने दिया ।’ मैं ने कहा -‘इस सबके लिए आपने वातेजी को धन्यवाद दिया ?’ बोले -‘मैं ने सोचा तो था लेकिन हिम्मत नहीं हुई । पुलिसवालों को तो आप जानते ही हो ।’ मैं क्या कहता ? चुप हो गया ।


मैं ने मोबाइल बन्द किया ही था कि वातेजी का फोन आ गया । अब तक मेरे मित्र का फोन न आने से वे चिन्तित हो पूछताछ कर रहे थे । मैं ने पूरी बात बताई तो वे पहले तो तनिक खिन्न प्रतीत हुए लेकिन अगले ही क्षण मौज में आ गए । बोले-‘ऐसा न तो पहली बार हुआ है और न ही अन्तिम बार ।’ फिर उन्होंने किस्सा सुनाया ।

भोपाल में, एक प्रगतिशील कलमकार के घर चोरी हो गई । उन्होंने वातेजी से मदद माँगी । वातेजी ने कहा कि वे पुलिस थाने जाकर प्राथमिकी लिखवा दें । कलमकारजी के हाथ-पाँव फूल गए । उन्होंने जो कुछ कहा उसका मतलब था कि वातेजी अपने पद-प्रभाव का उपयोग कर कुछ ऐसा करें कि कलमकारजी को थाने नहीं जाना पड़े और प्राथमिकी लिख ली जाए । वातेजी ने एकाधिक बार भरोसा दिलाया और थाने जाने का परामर्श दिया । प्रगतिशील कलमकारजी जाने को तैयार नहीं । वातेजी ने तनिक चिढ़ कर कारण पूछा तो वे बोले -‘पुलिस वाले कैसा व्यवहार करते हैं, आप तो जानते ही हो ।’ अन्ततः वातेजी को दो-टूक कहना पड़ा कि प्राथमिकी के लिए तो उन्हें ही जाना पड़ेगा । वे गए । घण्टों बाद तक उनकी कोई खबर नहीं आई तो वातेजी ने अपनी ओर से फोन लगाया । मालूम हुआ कि प्राथमिकी लिखवा कर वे घण्टों पहले ही आ चुके हैं । वातेजी ने कहा - ‘आपने तो खबर ही नहीं ।’ बोले-‘पुलिस थाने में जाने से ही इतनी घबराहट हो गई कि खबर करना भूल गया ।’ वातेजी ने पूछा कि उनके साथ कैसा व्यवहार हुआ । बोले - ‘व्यवहार तो बहुत अच्छा हुआ । आवभगत हुई । चाय भी पिलाई और फौरन ही प्राथमिकी लिख ली ।’ वातेजी ने कहा -‘अब क्या कहना है आपका ?’ वे बड़ी मासूमियत से बोले -‘वह तो आपके कारण हो गया वर्ना पुलिस वालों को तो आप जानते ही हो ।’ वातेजी ने सर पीट लिया ।

इन सज्जन की चोरी का माल बरामद हो गया । माल की पहचान करने के लिए पुलिस थाने से बुलावा आया । ये जाने को तैयार नहीं । फिर वातेजी को फोन किया । वातेजी ने कहा -‘बुलाया है तो चले जाईए । सामान तो आप ही पहचानेंगे ।’ प्रगतिशीलजी बोले -‘नहीं । आप फोन कर दीजिए कि हमें वहाँ न तो रोकें और न ही प्रतीक्षा कराएँ । हम जैसे ही जाएँ, सामान की पहचान करवा कर हमें फौरन फ्री कर दें ।’ वातेजी ने कहा -‘आप ऐसा क्यों चाहते हैं ? वे पहले अपने हाथ का काम निपटाएँगे फिर आपका काम कर देंगे ।’ बोले -‘थाने में बैठने में डर लगता है । लोग क्या कहेंगे ? फिर, पुलिस वालों को तो आप जानते ही हो ।’ वातेजी ने बमुश्‍िकल खुद को नियन्त्रित कर संयत बनाए रखा और उससे भी अधिक मुश्‍िकल से उन्हें थाने भेजा ।

किस्सा सुनाकर वातेजी बोले -‘पुलिस के लिए उन्होंने जो कुछ कहा उसका मुझे बुरा तो लगा लेकिन उससे ज्यादा बुरा इस बात का लगा कि जो लोग कलम के हल से कागज की जमीन पर क्रान्ति के बीज बो कर, व्यवस्था का विरोध करने की, प्रशंसा की फसल काटते हैं, वे लोग खुद के लिए भी कोई जोखिम लेने को तैयार नहीं होते । वह भी तब, जबकि उन्हें उनकी अपेक्षा से अधिक अनुशंसा और सुरक्षा पहले ही क्षण से मिल जाती है ।’

मैं क्या कहता ? मेरे पास कोई जवाब नहीं था ।

लेकिन वातेजी की बात से मुझे वह किस्सा याद आ गया जिसका मैं नेत्र-देह साक्षी था । तब दादा, राज्य मन्त्री थे । उनके पास एक ‘दुखियारे सज्जन’ आए और अनुनय की कि उनकी मदद भले ही न करें, उनकी बात सुन जरूर लें । दादा अपने हाथ का काम छोड़ कर उनके पास बैठ गए । व्यथा-कथा लम्बी चली - कोई दो घण्टे । इस दौरान अपनी बात सुनाते हुए उन्होंने कम से कम बीस बार कहा - ‘आप तो जानते ही हो, आजकल कोई सुनता ही नहीं है ।’ जब यह वाक्य बार-बार सामने आने लगा तो दादा का धैर्य छूट गया । पूछा - ‘मैं दो-सवा दो घण्टे से आपकी बात ध्यान से सुन रहा हूँ और आप हैं कि बार-बार कहे जा रहे हैं कि कोई सुनता नहीं । मैं सुन नहीं रहा हूँ तो क्या कर रहा हूँ ?’ वे उसी मुद्रा और निस्‍पृहता से बोले- ‘आपकी बात और है वर्ना आप तो जानते ही हो, आजकल कोई सुनता ही नहीं है ।’


क्या बताऊँ कि मैं ने यह सब क्यों लिखा । आप तो जानते ही हो ।

अमिताभ बच्चन मेरे घर में

मेराछोटा बेटा तथागत अभी, दो दिनों के लिए घर आया था । वह इन्दौर में, बी. ई. द्वितीय वर्ष का नियमित छात्र है । वह इन्दौर जाने लगा तो उसे छोड़ने स्टेशन गया । जाने से पहले उसने मेरे पैर छुए और बोला - ‘अच्छा पापा ! मैं चलता हूँ । आप अपना ध्यान रखिएगा ।’

मेरा बड़ा बेटा वल्कल इन दिनों हैदराबाद में है । पहले मुम्बई में था । कुशल क्षेम जानने के लिए किए गए फोन पर बात समाप्त होने से पहले, उसकी माँ से वह क्या कहता है, मुझे पता नहीं लेकिन मुझसे हर बार कहा - ‘अच्छा पापा ! प्रणाम । अपना ध्यान रखिएगा ।’

प्रशा हमारे परिवार की नवीनतम सदस्य है । इसी नौ मार्च को वह हमारे परिवार में शामिल हुई है - वल्कल की जीवनसंगिनी बन कर । अक्टूबर 2007 में दोनों का वाग्दान हुआ था । तब से ही पह फोन पर हम लोगों से बराबर बात करती रही है । सम्वाद समाप्ति पर प्रत्येक बार वह कहती - ‘अच्छा पापाजी ! फोन बन्द करती हूँ । आप अपना ध्यान रखिएगा ।’ प्रशा ने यह वाक्य पहली ही बार से कहना शुरु कर दिया था जबकि मेरे दोनों बेटों ने, घर से बाहर जाने के बाद कहना शुरु किया था । बच्चों के मुँह से यह वाक्य पहली बार सुना था तबसे ही इसने मेरा ध्यानाकर्षित किया था । ये तीनों बच्चे जब-जब भी यह वाक्य कहते हैं तब-तब मैं अतिरिक्त सतर्कता से सुनता हूँ । हर बार तेजी से अनुभव हुआ कि वे सम्पूर्ण सहजता, आत्मीयता, आदर और चिन्ता भाव से यह वाक्य कहते हैं । कोई औपचारिकता या दिखावा एक बार भी अनुभव नहीं हुआ । लेकिन यह वाक्य हर बार मुझे तनिक असहज कर जाता है ।

तीस वर्षां से भी अधिक समय से मैं ‘एकल परिवार’ का जीवन जी रहा हूँ लेकिन ‘सामूहिक परिवार’ की आदत अब तक नहीं गई है । तब, कोई भी अतिथि, रिश्‍तेदार घर आता तो लौटते समय हम छोटों के माथे सहलाता और परिवार के मुखिया से छोटे तमाम सदस्यों को ‘भारवण’ (भार वहन करने की हिदायत) सौंपता - ‘देखना ! माँ-बाप की खूब सेवा करना । उनका ध्यान रखना ।’ मुझे अब तक ऐसी ही ‘भारवण’ की आदत है । अपने मित्रों, परिचितों यहाँ जब भी गया तो लौटते समय उनके बच्चों को यही ‘भारवण’ सौंप कर लौटता रहा हूँ ।

लेकिन देख रहा हूँ कि अब मित्रों, परिचितों के परिवारों में ऐसे बच्चे नहीं मिलते जिन्हें ‘भारवण’ सौंपी जाए । उच्च शिक्षा के लिए या फिर उच्च शिक्षा प्राप्त कर, ‘कैरियरिजम’ के अधीन, जिस तरह मेरे बच्चे घर से दूर हैं, उसी तरह मित्रों, परिचितों के बच्चे भी घर से दूर हैं । परिवार के नाम पर अब घर-घर में प्रायः पति-पत्नी ही मिलते हैं ।

मेरी पत्नी अध्यापक है । मध्यप्रदेश के अध्यापकों को अध्यापन की अपेक्षा अन्य काम अधिक करना पड़ते हैं । स्थिति यह है कि अध्यापकों को कई बार तो बच्चों को पढ़ाने का समय ही नहीं मिल पाता । विभिन्न सरकारी योजनाओं के लिए सर्वेक्षण करना ऐसे ही कामों में से एक काम होता है । दो साल पहले, एक शाम वह ऐसे ही एक सर्वेक्षण से लौटी तो बदहवास थी । साफ लग रहा था उससे कुछ पूछा तो वह रो पड़ेगी । थोड़ी देर बाद पूछा तो उसने भीगे कण्ठ से बताया कि सर्वेक्षण के दौरान उसे दस-बारह ऐसे, बहुमंजिला मकानों में जाना पड़ा जिनमें केवल वृद्ध युगल मिले । कुछ के बच्चे, ऊँची पढ़ाई कर, कमाने-खाने के लिए देश के अन्य नगरों में तो कुछ के बच्चे विदेशों में । दो कारणों से मकान खाली बनाए रखना सबकी विवशता । पहला कारण - बच्चे आएँ तो वे आराम से रह सकें । दूसरा कारण - किराए पर उठा दें और बाद में किराएदार मकान खाली न करे तो ? सो, ऐसे समस्त वृद्ध युगल, ‘भव्य भवनों के रक्षक-रखवाले’ बने हुए हैं और उनकी खुदकी देख-भाल करने के लिए कोई नहीं है । उल्लेखनीय बात यह है कि हमारे बच्चे भी, परदेस में इसी दशा को जी रहे हैं । उनका ध्यान रखने के लिए उनके माँ-बाप साथ में नहीं हैं । उन्हें भी अपना ध्यान खुद ही रखना है । जाहिर है कि अब हममें से प्रत्येक को अपना ध्यान रखना पड़ेगा, वे बच्चे हों या बच्चों के माँ-बाप । ‘माँ-बाप की सेवा करना । उनका ध्यान रखना’ वाली ‘भारवण’ यदि मेरी पीढ़ी का सच और शिष्‍टाचार था तो ‘आप अपना ध्यान रखना’ वाली ‘भारवण’ मेरे बच्चों की पीढ़ी का सच और शिष्‍टाचार है ।

अब तक होता यह आया है कि बच्चे जब-जब भी पढ़ने या नौकरी करने बाहर गए तब-तब उनसे कहा जाता रहा है - ‘परदेस में अकेले हो । अपना ध्यान रखना ।’ आज हम सब अपने-अपने घरों में ही हैं और हमें अपना-अपना ध्यान रखना है । पहले बच्चों को कहा जाता था - ‘अपना ध्यान रखना ।’ आज बच्चे हमसे कह रहे हैं - ‘अपना ध्यान रखना ।’

‘अपना ध्यान रखिएगा’ यह वाक्य सबसे पहले मैं ने, ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में सुना था । कार्यक्रम समाप्ति से पहले अमिताभ बच्चन, ‘विदा अभिवादन का शिष्‍टाचार’ निभाते हुए अपने दाहिने हाथ की तर्जनी उठाकर दर्शक समुदाय से कहते थे (शायद सचेत करते थे) - ‘अपना ध्यान रखिएगा ।’ जब-जब भी मेरे बच्चे मुझे मेरा ध्यान रखने को कहते हैं तब-तब, यह भली प्रकार जानते हुए भी कि वे अन्तर्मन से मेरी चिन्ता करते हुए ही यह कह रहे हैं, मुझे लगता है कि अमिताभ बच्चन मेरे घर में विराजमान हैं ।

मैं भले ही कामना करुँ कि ‘ईश्‍वर करे, वे आपके घर में विराजमान न हों’ लेकिन मुझे भय है कि वे आपके घर में भी विराजमान हो सकते हैं ।

कपडे : इस मन्‍त्री के, उस मन्‍त्री के


आतंकवाद और हमारे गृह मन्‍त्रीजी के कपडे इन दिनों अखबारों और समाचार चैनलों के प्रमुख समाचार बने हुए हैं । व्‍यंग्‍य चित्रकारों को बहुत दिनों बाद कोई अच्‍छा 'सब्‍जेक्‍ट' मिला है । गृह मन्‍त्रीजी भाग्‍यशाली हैं । वे समाचारों में भी प्रमुख हैं और कार्टूनों में भी ।


बरसों पहले एक और केन्‍द्रीय मन्‍त्री के कपडे इसी तरह अखबारों में स्‍थान पा चुके हैं । लेकिन उस सबमें सम्‍मान और प्रशंसा केन्‍द्रीय तत्‍व था, उपहास या आक्रोश नहीं ।

यह किस्‍सा मैं ने देश के अलग-अलग स्‍थानों में थोडे हेर-फेर के साथ सुना लेकिन केन्‍द्रीय भाव वही था - सम्‍मान और प्रशंसा ।

प्रसंग स्‍वर्गीय श्री रुफी अहमद किदवई से जुडा है । तब वे केन्‍द्र में मन्‍त्री (सम्‍भवत: कृषि मन्‍त्री) थे । कृषि मन्त्रियों के एक अन्‍तरराष्‍ट्रीय सेमीनार में भाग लेने हेतु उन्‍हें विदेश जाना था ।

यात्रा की तैयारी करते हुए जब वे अटैची में कपडे जमा रहे थे तो उनके एक मित्र पास ही खडे थे । मित्र ने देखा कि किदवई साहब ने एक ऐसा कुर्ता अटैची में रख लिया है जो फटा हुआ है । मित्र ने किदवई साहब को टोका । किदवई साहब ने अत्‍यन्‍त सहजता से कहा कि वे किसी फैशन परेड में नहीं बल्कि सेमीनार में जा रहे हैं । कुछ भाषण सुनना हैं और अपना भाषण देना है । सारा आयोजन नितान्‍त औपचारिक है । बस । फिर, 'वहां कौन जानता है कि मैं रुफी अहमद किदवई हूं ।'

किदवई साहब की सादगी सर्वज्ञात और विख्‍यात थी । लेकिन मित्र से नहीं रहा गया । पूछा - 'चलो, परदेस में न सही, अपने देस में तो कपडों कर चिन्‍ता कर लेनी चाहिए ।'

किदवई साहब ने उसी सहजता से कहा - 'यहां क्‍या चिन्‍ता करनी । यहां तो सब जानते हैं कि मैं रुफी अहमद किदवई हूं ।'

मित्र निरुत्‍तर हो गए और किदवई साहब वहीं फटा कुरता अपनी अटैची में डाल कर विदेश चले गए ।

बरसों बाद ऐसा हुआ कि........

‘वे’ कितने थे, गिन पाना असम्भव ही था । ‘वे’ हजारों भी हो सकते थे, लाखों भी या शायद करोड़ भी । ‘वे’ जितने भी थे, सबके सब काम में लगे हुए थे । एक भी चुप नहीं बैठा था ।

यह शुकताल में, गंगा किनारे, विक्रम सम्वत 2065 के भाद्रपद शुक्ल त्रयोदशी की रात थी । एक दिन पहले बरसात हो चुकी थी । लग रहा था कि बरसात फिर होगी । लेकिन आसमान साफ था । अपनी सोलहवीं कला तक पहुँचने के लिए चाँद, यात्रा पर निकला हुआ था । चाँदनी पूरे आसमान में पसरी हुई थी । आसमान, आसमान नहीं रह गया था, ठण्डे दूध की गाढ़ी, मलाईदार, सफेद झक् चादर बन गया था मानो । तारे पलायन कर चुके थे । लेकिन ‘वे‘ थे कि इस सबसे बेखबर, लगे हुए थे अपने काम में । गंगा किनारे बनी, बैरागियों की धर्मशाला के बाहर, कोने पर, रखवाले की तरह खड़े वृक्ष पर थे ‘वे’ सारे के सारे और वहीं लगे हुए थे अपने काम पर ।
या तो ‘उन्हें’ चाँदनी की चमक कम लग रही थी सो ‘वे’ उसे और चमकीली बनाने की जुगत में थे या चाँद को अहसास कराने पर तुले हुए थे - अपने होने का या फिर उसे आश्‍वस्त कर रहे थे कि दो दिनों के बाद जब वह क्षरित होने लगेगा तो उसका काम वे निरन्तर बनाए रखेंगे - रातों को रोशन बनाए रखने का ।
अपनी-अपनी दुम को मशाल बनाए, ‘वे’ सबके सब मेरी आँखें झपकने नहीं दे रहे थे । रात आधी हो चुकी थी । मुझे सो जाना चाहिए था । लेकिन वे मुझे, कोई पैंतीस-चालीस मकानों वाले मेरे गाँव की कीचड़ सनी, असमतल, अटपटी गलियों में ले आए थे जिनमें मैं उनके पीछे दौड़-दौड़ कर उनमें से किसी को झपट्टे से कब्जे में कर लेता था-बहुत ही मुश्‍िकल से और माचिस की खाली डिबिया में बन्द कर, अगले दिन अपने दोस्तों को दिखाता था - बड़े रौब से ।
उसके बाद जैसे-जैसे बड़ा होता गया, गाँव से दूर होता गया । ‘उनसे’ सम्पर्क कम होने लगा । और शहर में आकर तो उन्हें भूल ही गया । उनके बारे में कोई बात करने वाला भी नहीं मिलता । वे बच्चों की स्कूली किताबों के सफों पर ही रह गए ।

लेकिन उस रात वे मेरे सामने थे, चाँद को भरोसा दिलाते हुए, चाँदनी की चमक को बढ़ाने की जुगत में लगे-हजारों, लाखों या फिर करोड़ की तादाद में । उन्होंने अपने होने को ही नहीं जताया, मुझे मेरे बच्चों के सामने सयाना बनने का अलभ्य अवसर भी दे दिया ।
भले ही यह सब बरसों-बरसों के बाद हुआ । लेकिन मैं अपने बच्चों को बता सकूँगा उनके बारे में । कह सकूँगा कि मैं ने बरसों बाद देखे, इतने सारे जुगनू एक साथ ।

विजय माल्या की शर्तों पर जी रहा इण्डिया

दिल्ली से इन्दौर तक की यह हवाई यात्रा, मेरी तीसरी हवाई यात्रा थी । ‘भारत‘ और ‘इण्डिया’ का, अब तक अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ता रहा अन्तर इस यात्रा ने मुझे समझा दिया ।
एक लीटर पानी की बोतल के लिए मैं ने तीस रुपयों का भुगतान किया । डाक्टर एस. एन. सुब्बरावजी के प्रभाव के चलते, मैं ने खरीदा हुआ पानी पीना बन्द कर रखा है । लेकिन सतीश वैष्‍णव (सेंधवा) के लिए यह बोतल खरीदी । तुर्रा यह रहा कि हवाई जहाज में बैठने के लिए जाते समय यह बोतल बाहर ही रखवा ली गई । तब तक सतीश ने बोतल का एक चैथाई पानी भी नहीं पिया था । याने, मैं ने कोई सवा सौ रुपये के दाम पर एक लीटर पानी खरीदा ।
यह सब मेरे साथ जब हो रहा था तब मुझे, पीने के पानी के लिए, सर पर दो-तीन मटके उठाए, तपती धरती पर कोसों नंगे पाँव यात्रा करने को विवश वे ग्रामीण महिलाएँ याद आ रही थीं जिनका आधे से अधिक दिन केवल पानी की जुगत में ही बीत जाता है । यह सब भोगते-भुगतते हुए मेरी आँखें अनायास ही ‘लोक कल्याणकारी राज्य’ की तलाश करने लगीं । वह कहीं नजर नहीं आ रहा था । शायद पानी की दुकान में रखे डीप फ्रीजर के तले में कहीं दुबका रहा होगा । जाहिर है कि तीसरा विश्‍व युद्ध पानी के लिए नहीं होगा तो किसके लिए होगा ?
इस हवाई यात्रा में मैं ने काफी का एक चालीस रुपये में, एक सेण्डविच सौ रुपये में और एक कप चाय बीस रुपये में खरीदी । यकीनन यह ‘भारत’ नहीं था, ‘इण्डिया’ ही था ।
यात्रा टिकिट सतीश ने ही खरीदे थे । विजय माल्या की हवाई कम्पनी ‘किंगफिशर’ से हमने यह यात्रा की थी । हम दोनों ने सवेरे ग्यारह बजे भोजन किया था और अब शाम के साढ़े सात बज रहे थे । सो, ‘व्योम बाला’ ने जैसे ही ‘कुछ’ खाने के लिए पूछताछ की तो हम कुछ बोलते उससे पहले, हमारे पेट में कूद रहे चूहों ने आवाज लगा दी । ‘व्योम बाला’ की सौंपी गई, सेण्डविच की आकर्षक पेकिंग हमने खोली ही थी कि उसने ‘सस्मित’ कहा - ‘टू हण्ड्रेड रुपीज प्लीज ।’ सतीश मानो हत्थे से उखड़ गया । वह प्रायः ही हवाई यात्रा करता रहता है । उसने कहा कि किराये में खाना-पीना शामिल रहता है । तनिक भी असहज नहीं होते हुए व्योम बाला, पूर्वानुसार ही सस्मित बोली - ‘सर ! इट इज डेकन एण्ड फूड इज नाट इनक्ल्यूडेड इन फेअर ।’ सतीश ने अत्यधिक गुस्से और पूरे बेमन से दो सौ रुपये चुकाए । यह भड़की हुई भूख का ही असर था कि इसके बाद भी हमें सेण्डविच अत्यन्त स्वादिष्‍ट लगे ।
खाने के बाद सतीश ने पूछा - ‘आपका क्या कहना है दादा ?’ मैं ने कहा - ‘यह इण्डिया है जहाँ विजय माल्या जैसे लोगों की शर्तें लागू हैं ।’
मैं और क्या कहता ?

हिन्दी दिवस : शुकताल में और हवाई अड्डे पर

मैं हिन्दी दिवस को सरकारी चोंचला मानता हूँ सो इस दिन होने वाले औपचारिक आयोजनों से बचने का यथा-सम्भव प्रयास करता हूँ । यह अलग बात है कि हर साल कहीं न कहीं, कोई न कोई कृपालु मेरे इन प्रयासों को असफल और व्यर्थ कर देता है । बीमा व्यवसाय के कारण बना और बढ़ा परिचय क्षेत्र इस ‘असफलता’ का सबसे बड़ा ‘मारक कारण’ होता है । मित्रों का लिहाज पालने में अपने मन के प्रतिकूल व्यवहार कर लेता हूँ ।

इस साल ऐसा कुछ भी नहीं हुआ लेकिन अचानक ही मुझे लगा कि इस साल ही मैं हिन्दी की वास्तविक दशा और ताकत देख पाया । इस साल 14 सितम्बर को मैं, उत्तर प्रदेश के मुजफरनगर से सटे तीर्थ क्षेत्र शुकताल में था । हम बैरागियों के राष्‍ट्रीय संगठनों ‘अ.भा.वैष्‍णव ब्राह्मण सेवा संघ’ और ‘अ.भा.वैष्‍णव ब्राह्मण कल्याण ट्रस्ट’ की राष्‍ट्रीय कार्यकारिणियों की बैठकें वहीं आयोजित थीं । सेंधवा वाले सतीश वैष्‍णव के स्नेहाधिकार भाव के अधीन मुझे वहाँ जाना पड़ा ।

कहने भर को ये बैठकें औपचारिक थीं, वास्तव में इन दोनों बैठकों में उन सबने भाग लिया जो वहाँ उपस्थित थे । कोई तीन सौ स्त्री-पुरुष बैरागी वहाँ थे । उत्तर प्रदेश और हरियाणा के लोग अधिक संख्या में थे और इनमें भी देहातों के लोग ज्यादा थे । इनके बाद, संख्या की दृष्‍िट से राजस्थान के लोग ज्यादा थे । दोनों बैठकों की विषय सूचियां कागजों तक ही सिमट कर रह गई और जिसे जो जरुरी लगा, उन्मुक्त भाव से बोला । औपचारिकता अधिक देर तक बाँधे नहीं रख सकती । आदमी बड़ी जल्दी अपनी वास्तविकता में आ जाता है । फिर, बात जहाँ अपने मन की अभिव्यक्ति की हो तो यह ‘जल्दी’ और अधिक जल्दी आ जाती है । सो वहाँ हुए भाषणों में से सबकी शुरुआत हुई तो हिन्दी में लेकिन प्रत्येक व्यक्ति, कुछ ही क्षणों में अपनी-अपनी वाली हिन्दी पर उतर आया । लिहाजा वहाँ उत्तर प्रदेश के ‘अइयो, जइयो, का बतावैं’, हरियाणावी के ‘तन्ने, मन्ने, सै’ और राजस्थानी के ‘हे के नी सा’ जैसे देशज तकिया कलामों से लबालब भाषण हुए । हमारे राष्‍ट्रीय अध्यक्ष, राष्‍ट्रीय सचिव और हम कुछ लोगों ने अपनी पूरी बात लगभग खालिस हिन्दी में कही । लेकिन सच मानिए, खालिस हिन्दी वाले भाषण उस कार्रवाई में या तो ‘मखमल में टाट के पैबन्द’ लग रहे थे या फिर बिना गन्ध वाले, सुन्दर कागजी फूल । इन सबमें उत्कृष्‍ट शब्दावली तो थी लेकिन सब कुछ यान्त्रिक और बनावटी लगता रहा जबकि अनजान, पद-विहीन, और हमें शायद ही फिर कभी मिलने-नजर आने वाले लोगों की बातों में जिन्दगी धड़क रही थी और वे सब ही असली, प्राकृतिक तथा सहज थे । भाषा की भिन्नता, बोलियों के देश शब्दों ने सम्प्रेषण में तनिक भी व्यवधान पैदा नहीं किया । हममें से किसी को भी एक बार भी नहीं पूछना पड़ा कि किसने क्या कहा । सबको, सबकी बातें पहली ही बार में समझ में आ गईं । हरियाणवी में सम्मान सूचक सम्बोधन नाम मात्र को भी नहीं होते । वहाँ ‘आप’ अनुपस्थित रहता है और ‘तू’ का साम्राज्य बना रहता है । किनारों पर बैठ कर जब-जब भी हरियाणवी सम्वाद सुने, तब-तब हर बार यह ‘तू-तड़ाक’ अटपटी और आपत्तिजनक लगी । लेकिन सच कहता हूँ, उस दिन शुकताल में, हरियाणा से आए एक भी बैरागी ने मुझे ‘आप’ नहीं कहा और मुझे एक बार भी अटपटा नहीं लगा । वहाँ ‘आप’ सुनना अपमानजनक लगता । ‘तू’ ठेठ अन्तर्मन की तलहटी से, आत्मीयता की सम्पूर्ण ऊष्‍मा से आ बाहर आ रहा था और ‘आप’ होठों से आगे जगह नहीं बना पा रहा था । मजे की बात यह रही कि एक भी भाषण बिना अंग्रेजी वाला नहीं था लेकिन वह वहाँ ‘सहज हिन्दी’ के रुप में ही थी । वहाँ अंग्रेजी का पाण्डित्य प्रदर्शन कहीं नहीं था । देहातों में अंग्रेजी जितनी रच-बस गई है, उसी मात्रा, अनुपात और स्वरुप में वह वहाँ थी । दो दिनों में हुई इन दोनों बैठकों से उपजा ‘लोकोत्सव’ का आनन्द गंगा किनारे की बालू के कण-कण में व्याप्त था । मुझे अचानक ही अनुभव हुआ कि हम सबकी हँसी भी प्राकृतिक और सहज हो आई थी । हम सब अनायास ही अनौपचारिक हो आए थे ।

लौटते में मुझे कोई तीन घण्टे दिल्ली हवाई अड्डे पर बिताने पड़े । हम दोनों (सतीश और मैं) पूरी तरह फुरसत में थे । सारे विषय समाप्त हो चुके थे । ऐसे में बतियाने के लिए अपने वालों की आलोचना ही एक मात्र विष्‍ाय रह जाता है जिससे हम दोनों ही बराबर बचते रहे ।

एक शाम पहले दिल्ली में विस्फोट हो चुके थे और शुकताल में हमें न तो अखबार मिले थे और न ही टेलीविजन । सो, अखबार की तलाश में मैं, हवाई अड्डे स्थित किताब की दुकान पर गया । मुझे लगा, शुकताल से मैं सीधे विदेश में, अमरीका या ब्रिटेन में आ गया हूँ । पूरी दुकान पुस्तकों से सजी, अटाटूट पड़ी थी । लेकिन हिन्दी की किताबें या अखबार कहीं नहीं थे । मैं अत्यधिक आलसी हूँ । सो, तलाश करने के बजाय दुकान पर मौजूद दोनों युवकों से ही पूछ लिया । दोनों ने ‘मुद्राविहीन मुद्रा’ और मशीनी आवाज में बताया कि मैं हिन्दी किताबों की तलाश न करुँ । मुझे झटका लगा । अब मैं ने गौर से दुकान में रखी पुस्तकों पर नजर फेरी । कोने की एक आलमारी में ‘योग’ पर एक पुस्तक नजर आई । बाकी सब कुछ अंग्रेजी ही अंग्रेजी । दुकान में सात-आठ स्त्री-पुरुष और थे । सब अपने आप में मगन ।

हिन्दी की अनुपस्थिति से उपजी हताशा ने मुझे विकल कर दिया । सूझ नहीं पड़ा कि क्या करुँ । हताशा से उबरने के लिए परिहास का पल्ला पकड़ा । दोनों युवकों से पूछा कि मैं भारत में ही हूँ या किसी अन्य देश में ? दोनों ने अनसुनी कर दी । मैं ने फिर पूछा कि वे दोनों आपस में और ग्राहकों से किस भाषा में बात करते हैं । दोनों ने कहा - ‘हिन्दी में ही ।’ मैं ने पूछा कि फिर हिन्दी की किताबें दुकान में क्यों नहीं हैं ? जवाब में उन्होंने कहा - ‘मालिक से पूछिएगा । हम दोनों तो नौकरी कर रहे हैं ।’ इससे अधिक सम्वाद की सम्भावना वहाँ थी ही नहीं ।

चुपचाप दुकान से निकल आया । वहाँ का वातानुकूलित वातावरण अचानक ही मुझे बोझिल और पराया लगने लगा । लगा, मैं अब तक तो माँ की गोद में था । अब विमाता के आँगन में उपेक्षित, अचिह्ना खड़ा हूँ ।

सो, इस साल हिन्दी दिवस पर आधा दिन ‘देस’ में और कोई तीन घण्टे अपनी ही धरती पर बसे ‘परदेस’ में रहा ।

शुकताल में, आयोजन स्थल पर यथेष्‍ठ साफ-सफाई नहीं थी, अव्यवस्था ही व्यवस्था थी । हर कोई पास वाले पर नजर रखे हुए था और उसकी चिन्ता, पूछ-परख कर रहा था, उससे मिल कर उसे जानने की कोशिश कर रहा था । शिष्‍टाचार, शालीनता और सभ्यता की औपचारिकता के दबाव से उपजने वाली शान्ति वहाँ बिलकुल नहीं थी, हम सब अपनी-अपनी नापसन्दगियाँ जता-बता पा रहे थे । हम सब वहाँ प्राकृतिक और सहज थे । हम अपने घर में थे । वहाँ अपनी बोली और भाषा हमारे साथ थी ।

दिल्ली हवाई अड्डे पर सब कुछ भव्य, शान्त, शालीन, साफ-सुथरा था । लेकिन सब कुछ ऐसा कि आदमी आतंकित हो कर सभ्य, शिष्‍ट, शालीन बने - जबरिया, असहज होकर ।

कैसा हो कि हिन्दी दिवस की खानापूर्ति करने वाले आयोजन, देस में बसे ऐसे परदेसों में हों ?

एक फतवा मीडीया के लिए

सलमान खान द्वारा अपने निवास पर विनायक स्थापना और पूजा को लेकर जामा मस्जिद के मौलाना अंजारिया द्वारा जारी फतवे को लेकर एक टीवी समाचार चैनल ने जो हंगामा मचाया वह हमारे समाचार चैनलों के उच्छृंखल हो जाने का श्रेष्‍ठ उदाहरण है ।

सलमान खान अपने घर गणपति स्थापित करें या न करें, इससे किसी को क्या लेना-देना ? वे नमाज पढ़ें या पूजा करें, यह उनका निजी मामला है । उनके खिलाफ किसी ने कोई फतवा जारी कर दिया तो इससे या तो उसे लेना-देना है जिसने फतवा माँगा या फिर उसे, जिसके खिलाफ फतवा दिया । अपने-अपने घरों में बैठे हम दर्शकों का इस सबसे क्या लेना-देना ?

फिर, फतवा कोई अल्लाह का हुक्म या इच्छा तो है नहीं । फतवे की औकात और बिसात ही क्या है ? यह केवल एक परामर्श है - बिलकुल डाक्टर या वकील के परामर्श की तरह । पूछने वाले की इच्छा - माने, न माने ।

धर्म मनुष्‍य के लिए है या मनुष्‍य धर्म के लिए ? ईश्‍वर ने तो मनुष्‍य को पैदा किया है, धर्म को नहीं । धर्म तो मनुष्‍य का ही आविष्‍कार है ।

अव्वल होना तो यह चाहिए था कि इस फतवे की चर्चा ही न की जाती । और यदि चर्चा की जानी जरूरी ही थी तो बेहतर होता कि फतवे की औकात भी बताई जाती । समाचार वाचक इस फतवे का उल्लेख बार-बार और लगातार इस तरह कर रही थी मानो सारी दुनिया में इससे बड़ा संकट और कोई है ही नहीं ।

सलमान के खिलाफ ऐसा ही फतवा गये साल भी दिया गया था जिसे सलमान खान ने जूते की नोक पर दे मारा था । यह बात कोई और नहीं, खुद मौलाना अंजारिया ही बता रहे थे । हालत बिलकुल ‘सूने गाँव में मँगते की पुकार’ जैसी लग रही थी । यहाँ तो चिन्दी का थान बनाने वाली बात भी नहीं थी ।

किसने कहा था इनसे कि चैबीसों घण्टों चैनल चलाओ ? सपने ये देखते हैं और नींद खराब होती है बेचारे लोगों की

महा प्रलय के समाचार देख कर ही कम से कम तीन लोगों के मरने की खबर मेरे इलाके के अखबारों में छपी है । ऐसी खबरें न देखने और न प्रसारित करने की छूट का उपयोग ये जिस बेशर्मी से करते हैं उसे क्या कहा जाए ?

सच में, यह समाचार देख कर बड़ी निराशा हुई । अपने आप पर गुस्सा आया - मैं इन चैनलों का कुछ क्यों नहीं बिगाड़ पा रहा हूँ ?

इनके खिलाफ भी फतवा देने वाला कोई हो तो बताइएगा ।

सत्ता, राजनीति और विश्‍वसनीयता

सत्ता और राजनीति अपनी विश्‍वसनीयता कैसे खोती हैं, इसकी छोटी सी बानगी गए दिनों मेरे शहर में देखने को मिली ।

एक सौ वर्ष से अधिक पुराने एक चर्च में रातों-रात आग लग गई । शीशम की लकड़ी की खूबसूरत मेहराबों , ऐतिहासिक महत्व वाला चर्च और यहाँ रखा रेकार्ड भस्म हो गया । जिस सवेरे यह अग्निकाण्ड हुआ, उसी दिन इस चर्च का स्थापना दिवस समारोह भी आयोजित था । मेरे प्रदेश में भाजपा की सरकार है और स्थानीय विधायक प्रदेश के गृह मन्त्री हैं । सो, हल्ला तो मचना ही था । इसाई समाज के लोग और उनके समर्थन में कुछ कांग्रेसी सड़कों पर उतर आए ।

पुलिस कुछ अतिरिक्त तेजी से हरकत में आई । उसने चर्च के चैकीदार को एकमात्र अपराधी के रूप में प्रस्तुत किया । खुद पुलिस उपमहानिरीक्षक ने पत्रकार वार्ता में, चैकीदार की उपस्थिति में उसकी अपराध स्वीकारोक्ति की सूचना सहित विस्तृत विवरण दिया । पुलिस के अनुसार, चैकीदार को मात्र एक हजार रुपये वेतन मिलता था उसमें से भी 500 रुपयों की कटौती की जा रही थी जो नवम्बर में पूरी होने वाली थी और उसके बाद उसे नौकरी से निकाला जाना था । चौकीदार खुद रोमन कैथोलिक इसाई है जबकि चर्च प्रोटेस्टेण्ट इसाइयों का है । पुलिस के अनुसार, चर्च-प्रबन्धन को सबक सिखाने के लिए चौकीदार ने अग्निकाण्ड रचा । उसकी योजना तो बहुत छोटे, (सांकेतिक) अग्नि-काण्ड की थी, मात्र सबक सिखाने के लिए । लेकिन आग उसकी इच्छा और कल्पना से कही अधिक विकराल हो गई । पुलिस ने यह भी बताया कि चौकीदार ने स्थानीय इसाई समुदाय के लोगों के सामने भी अपना अपराध स्वीकार कर सचाई बताई । लेकिन पत्रकारों को चौकीदार से पूछताछ का अवसर और अनुमति नहीं दी गई

इसाई समुदाय पुलिस की इस कहानी से सहमत और सन्तुष्‍ट नहीं हुआ । उसने विशाल प्रदर्शन कर, प्रशासन को ज्ञापन सौंप कर मामले की निष्‍पक्ष जाँच की माँग की । इसाई समाज का कहना है कि यह अग्निकाण्ड सोची-समझी साजिश का परिणाम है और चौकीदार की आड़ में वास्तविक अपराधियों को छुपाया और बचाया जा रहा है । चौकीदार के परिजन भी पुलिस की कहानी को झूठी बता रहे हैं ।

पत्रकारों ने प्रदेश के गृहमन्त्री से जब ऐसी जाँच के बारे में पूछा तो उन्होंने इसे तत्क्षण ही नकार दिया । उनका कहना था कि पुलिस के निष्‍कर्ष ही सच और अन्तिम हैं और चौकीदार खुद, इसाई समाज के सामने अपराध स्वीकार कर चुका है इसलिए अब किसी जाँच की आवश्‍यकता नहीं रह गई है । गृह मन्त्री का कहना था कि पुलिस की बात को आँख मूँद कर स्वीकार कर ली जानी चाहिए

गृह मन्त्री की यह बात दूसरों के गले तो नहीं उतर रही लेकिन खुद संघ परिवार के गले भी नहीं उतर रही है । संघ परिवार के कई वरिष्‍ठ सदस्यों का कहना है कि इस अग्निकाण्ड से संघ परिवार का सचमुच में कोई सम्बन्ध नहीं है और पुलिस के निष्‍कर्ष ही अन्तिम सत्य हैं । ऐसे में, गृह मन्त्रीजी को किसी भी जाँच की माँग तत्काल स्वीकार कर लेनी चाहिए । इन वरिष्‍ठों का कहना था कि मामले में जितनी पारदर्शिता बरती जाएगी उतनी ही, सरकार की और पार्टी की प्रतिष्‍ठा तथा विश्‍वसनीयता स्थापित भी होगी तथा बढ़ेगी भी । इन लोगों को आश्‍चर्य (और आपत्ति भी) है कि गृह मन्त्री ने निष्‍पक्ष जाँच की माँग क्यों अस्वीकार कर दी । शायद खुद गृह मन्त्री को अपने विभाग की कार्रवाई पर विश्‍वास नहीं हो रहा है ।

पारदर्शिता से घबरा कर, तन्त्र और सत्ता अपनी विश्‍वसनीयता कैसे खोते हैं, यह इसकी छोटी सी बानगी है ।

अथ बीमा एजेण्ट कथा

यह पोस्ट दिनेशरायजी द्विवेदी को समर्पित है ।

बीमा प्रशिक्षण लेने के लिए दो सितम्बर को भोपाल के लिए निकलने से पहले ‘भोपाल में मिलिए’ शीर्षक मेरी पोस्ट पर द्विवेदीजी ने टिप्पणी की थी - ‘भोपाल यात्रा से हमारे लिए भी कुछ लेकर आएँ, इन्दौर की तरह ।’ यह पोस्ट उनकी इसी टिप्पणी से उपजी है ।


बीमा एजेण्टों को उनके नव व्यवसाय के आधार पर विभिन्न स्तर की क्लब सदस्यता उपलब्ध कराई जाती है । यह भारतीय जीवन बीमा निगम की आन्तरिक व्यवस्था है । अपनी क्लब सदस्यता बनाए रखने के लिए और इस सदस्यता के आधार पर मिलने वाले आर्थिक एवम् अन्य लाभों की प्राप्ति सुनिश्‍िचत करने के लिए हम एजेण्टों को तीन वर्ष में कम से कम एक बार ऐसे प्रशिक्षण लेना अनिवार्य होता है । एजेन्सी के प्रारम्भिक काल में प्रत्येक एजेण्ट ऐसे प्रशिक्षण को अत्यधिक गम्भीरता से लेता है । लेकिन जैसे-जैसे एजेन्सी पुरानी होती जाती है, वैसे-वैसे एजेण्ट शालीग्राम’ होता जाता है और तब ऐसे प्रशिक्षणों को वह गम्भीरता से लेने के बजाय, तकनीकी खानापूर्ति की तरह, बहुत ही हलके से लेने लगता है । कई एजेण्ट तो इस मिथ्या दम्भ के शिकार हो जाते हैं कि उन्हें अब किसी भी प्रशिक्षण की आवश्‍यकता ही नहीं रह गई है । वे कहते पाए जाते हैं - ‘अब तो हम ट्रेनिंग दे सकते हैं ।’ ऐसा कहते समय वे भूल जाते हैं कि सीखने की कोई उम्र नहीं होती और ज्ञान की कोई सीमा नहीं होती । वे यह भी भूल जाते हैं कि बीमा उद्योग को निजी क्षेत्र के लिए खोल देने के बाद उपजी गला काट प्रतियोगिता, निजी बीमा कम्पनियों की आक्रामक विपणन नीति और सूचना प्रौद्योगिकी के विस्फोट वाले इस समय में प्रत्येक की जानकारी प्रति क्षण अधूरी ही हो गई है । इससे भी अधिक गम्भीर बात यह कि ऐसे प्रशिक्षणों की लाभदायक व्यावसायिक उपयोगिता और इस हेतु ‘निगम’ द्वारा किए जाने वाले भारी-भरकम उपक्रम के लिए किए गए सतत् और गम्भीर प्रयत्नों को भी वे भूल जाते हैं । चिन्ताजनक और घातक बात यह है कि ऐसी मानसिकता वाले एजेण्टों की संख्या दिन-प्रति-दिन बढ़ती जा रही है ।
सो, भोपाल के लिए चलते समय मुझे पल भर भी नहीं लगा था कि एक सार्वजनिक उपक्रम के नितान्त आन्तरिक आयोजन में कुछ ऐसा भी हो सकता है जिसे सार्वजनिक किया जा सके और जो ‘सर्व जन हिताय’ भी हो । लेकिन द्विवेदीजी की टिप्पणी ने रतलाम से भोपाल तक की यात्रा के दौरान और उसके बाद तीन दिनों के प्रशिक्षण काल में मुझे बराबर सचेत रखा और मुझे आश्‍चर्य हुआ कि ऐसा काफी कुछ रहा जो न केवल एजेण्टों के लिए बल्कि एजेण्टों की दुनिया से बाहर के लिए भी ‘नोटिसेबल’ है ।
अनुशासन और समयबध्दता (पंक्चुलिटी) हमारे प्रशिक्षण केन्द्र की सर्वोच्च प्राथमिकता और चिन्ता होती है । लेकिन मैं ने देखा कि एजेण्ट इस दिशा में दिनोंदिन लापरवाह होते जा रहे हैं । इनमें भी वे लोग आगे हैं जो इस प्रशिक्षण केन्द्र में पहले भी एकाधिक बार प्रशिक्षण ले चुके हैं और यहाँ की परम्पराओं से भली प्रकार परिचित हैं । उनके मुकाबले नए एजेण्ट अधिक चिन्तित, अधिक गम्भीर तथा अधिक सावधान रहते हैं । ‘लेक्चर हाल’ में किसी के लिए कोई आरक्षण नहीं होता । लेकिन अनुशासन की अवहेलना करने वाले पुराने एजेण्ट, अग्रिम पंक्ति पर अपना ‘सहज अधिकार’ मानते हैं और तदनुसार ही आचरण भी करते हैं । जबकि देर से आने वालों को पीछे की कुर्सियाँ मिलनी चाहिए । निश्‍चय ही, यह नए एजेण्टों का सौजन्य और शालीनता के कारण ही सम्भव हो पाता है ।
व्याख्यान के दौरान एजेण्टों के लिए पान, सुपारी, गुटका जैसी चीजों का स्प’ट निशेध किया गया है । लेकिन मुझे यह देख कर आश्‍चर्य और दुख हुआ कि भाई लोग ‘उन्मुक्त-मन और अधिकार भाव’ से इनका सेवन करते हैं और इसी कारण, प्रश्‍नों के उत्तर देने से बचने की कोशिश करते हैं । व्यसन की अधीनता इस सीमा तक कि प्रशिक्षण का मूल लक्ष्य ही ताक पर रख दिया जाए ? मोबाइल आज अनिवार्यता बन गया है । हममें से अधिकांश के पास नवीनतम तकनीक वाले, मँहगे मोबाइल सेट थे लेकिन मुझे यह कहते हुए शर्म आ रही है कि ‘मोबाइल ”श्ष्‍िटाचार’ से हममें से शायद ही कोई परिचित रहा हो । हम मोबाइल तो रखते हैं लेकिन हमें मोबाइल रखना नहीं आता । हमें पढ़ाने वाले प्रत्येक संकाय सदस्य ने, प्रत्येक पीरीयड में सबसे पहले हमें, अपने-अपने मोबाइल बन्द करने के लिए या फिर उन्हें ‘सायलेण्ट मोड’ पर कर देने के लिए अनुरोध किया । लेकिन मुझे तीनों ही दिन, प्रत्येक पीरीयड में यह देख कर शर्म आती रही कि किसी न किसी का मोबाइल बज गया । याने, हमें मोबाइल श्ष्‍िटाचार का न तो ज्ञान है और न ही कहने के बाद भी हम यह ज्ञान स्वीकार करना चाहते हैं । यह स्थिति हमारे बेशर्म और गैर जिम्मेदार होने के अलावा और कुछ भी साबित नहीं करती । मैं इतने पर ही सन्तोष कर सकता हूँ कि मेरा मोबाइल एक बार भी नहीं बजा । लेकिन मेरे लिए इतना ही पर्याप्त नहीं है । मैं चाहता था कि किसी का मोबाइल न बजे । लेकिन मेरा नियन्त्रण मुझ तक ही सीमित था ।
यहाँ तक तो बात ठीक थी लेकिन हम लोग ‘बेशर्मी’ से आगे बढ़कर ‘सीनाजोरी’ तक पहुँच गए । तय किया गया था कि प्रशिक्षण-व्याख्यान के दौरान जिसका मोबाइल बजेगा वह अगले दिन एक किलो तथा जो मोबाइल पर बात करेगा वह दो किलो मिठाई लाएगा । जाहिर है कि यह प्रावधान ऐसा ‘मीठा दण्ड’ था जो सबके लिए आनन्ददायक था । लेकिन मुझे यह लिखते हुए अत्यधिक पीड़ा हो रही है कि इस मामले में अधिकांश साथी ईमानदार साबित नहीं हुए । केवल एक, सरायपाली शाखा के श्री दीप सिंह प्रेम ने व्यक्तिगत ईमानदारी बरती और सबके लिए मिठाई लाए । बाकी तमाम ‘दोषी’ मित्र, एक दूसरे द्वारा पहले मिठाई लाने की बात कह कर, बड़ी ही ढिठाई से बच निकले । इन तमाम बातों ने मुझे चैंकाया तो जरूर लेकिन उससे अधिक मुझे निराश किया । मेरा मानना है कि हम यदि ‘अच्छा मनुष्‍य’ नहीं हो सकते तो ‘अच्छा व्यवसायी’ भी नहीं हो सकते । उपरोक्त सारी बातें पूरी तरह से व्यक्तिगत ईमानदारी से जुड़ी हुई हैं । हम सब ऐसे एजेण्ट थे जिनकी सालाना कमीशन आमदनी किसी भी दशा में पाँच-सात लाख रुपयों से कम नहीं है । लेकिन हम सौ-दो सौ रुपयों के लिए भी खुद से झूठ बोलते रहे । लेकिन यह संकट किसी एक वर्ग, समुदाय, कौम का नहीं है । जब तालाब का जल स्तर कम होता है तो समूची जल सतह समान रुप से नीचे उतरती है । हम एजेण्ट लोग भी इसी तालाब का हिस्सा हैं सो इस स्खलन से कैसे बच सकते हैं ? लेकिन मैं इस तर्क का हामी नहीं हूँ । हममें से प्रत्येक इसी (कु) तर्क का सहारा लेकर अपनी जिम्मेदारी से बच रहा है । फिर, मैं तो बीमा एजेण्टों को सबसे अलग और सबसे ऊपर मानता हूँ । हमारा पेशा ‘नोबल प्राफेशन’ है । इसलिए हमारी जिम्मेदारी अन्यों के मुकाबले ‘तनिक अधिक’ नहीं, ‘बहुत अधिक’ है । हमें तो ‘श्रे’ठ आचरण’ प्रस्तुत करना पड़ेगा । ‘व्यक्तिगत आचरण’ ही अन्ततः ‘सामूहिक आचरण’ में बदलता है । यहाँ मैं न तो किसी अपवाद को स्वीकार कर पाता हूँ और न ही उसे चिह्नित कर पाता हूँ । इस मामले में मैं ‘अपवादों का साधारीकरण’ पसन्द करता हूँ । यह ‘दुःसाध्य’ हो सकता है लेकिन ‘असाध्य’ नहीं ।
एक और बात ने मेरा ध्यानाकर्षित किया । प्रत्येक व्याख्यान के दौरान प्रश्‍न पूछने या जिज्ञासा प्रस्तुत करने के लिए कोई तैयार नहीं होता था । हममें से प्रत्येक चूँकि जानता था कि उसका ज्ञान अधूरा है या वह कोई हास्यास्पद प्रश्‍न न पूछ ले (जो कि व्यक्ति के आत्मविश्‍वासविहीन और हीनताबोध से ग्रस्त होने का ही परिचायक है) इसलिए प्रश्‍न पूछने वाले गिनती के ही सामने आए । मेरा अनुभव रहा है कि जिज्ञासा प्रस्तुत करने से ऐसे प्रशिक्षणों की उपयोगिता ‘गुणाकार’ में बढ़ती है । एक व्यक्ति सवाल पूछकर सबकी जानकारी बढ़ाता है । लेकिन इसके लिए सबसे पहले तो अपने को अज्ञानी (और अज्ञानी नहीं तो अल्पज्ञानी तो) मानना पड़ता है । लेकिन वहाँ तो हम सब ‘ज्ञानी’ बनकर पेश आ रहे थे । यही हमारा सबसे बड़ा अज्ञान था ।
सो, जिस यात्रा को मैं मात्र खानापूर्ति मानकर घर से निकला था, उसे द्विवेदीजी ने मेरे लिए व्यक्तिगत स्तर पर न केवल उपयोगी और लाभदायक बल्कि मेरे व्यक्तित्व विकास के लिए आजीवन स्मरणीय बना दिया । अब यदि मैं कुछ बेहतर बन पाया तो उसका उसमूचा श्रेय द्विवेदीजी को ही जाएगा ।
मेरी यह पोस्ट आपको अच्छी लगे तो द्विवेदीजी को धन्यवाद दीजिएगा और खराब लबे तो जमकर मेरी खबर लीजिएगा ।

मैं द्विवेदीजी का कृतज्ञ हूँ ।

भालेरावजी


यह कविता नहीं है । बीमा प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए मैं 3 से 5 सितम्बर तक, भारतीय जीवन बीमा निगम के, भोपाल स्थित मध्य क्षेत्रीय कार्यालय के प्रशिक्षण केन्द्र में था । वहाँ पदस्थ, संकाय सदस्य श्री एस. के. भालेरावजी को ‘वाकर’ के सहारे चलते हुए देख, उनसे जानना चाहा तो मालूम हुआ कि वे पक्षाघात से पीड़ित हो गए थे । नियमित चिकित्सा के अतिरिक्त उनकी प्रबल इच्छा शक्ति का प्रभाव रहा कि वे चिकित्‍सकों की अपेक्षाओं से कहीं अधिक, बहुत अधिक जल्दी स्वस्थ होकर काम पर लौट आए । उन्होंने अत्यन्त आत्म विश्‍वास से कहा कि वे जल्दी ही ‘वाकर’ को मुक्त कर देंगे । उन्हें देख कर और उनसे बातें कर, मेरे मन में जो आया, वही सब ‘एक झटके में’ (सिंगल स्ट्रोक) कागज पर कुछ इस तरह उतर आया ।


भालेरावजी





‘सपने वे नहीं होते
जो आ जाते हैं
बिल्ली के पाँवों
हमारी नींद में ।
सपने तो वे ही होते हैं
जो हमें सोने नहीं देते ।’
पढ़ा रहे थे हमें,
भालेरावजी ।


हुमक कर
घुटनों के बल दौड़कर
माँ की गोद की ओर
किलकारी मारता हुआ
लपकने वाला बच्चा
बन गए थे भोलरावजी
ब्रांच आफिस की
तेरह सीढ़ियाँ चढ़ते हुए ।


‘कैसे हो ?’
झबरीली मूँछों के बीच
मुस्कुराते हुए,
मेरे कन्धे पर
हौले से हाथ रख कर
पूछ रहे थे
चौपन साला भालेरावजी
बिना हाँफे ।



जंगल में
हवा को मात देते
दौड़ रहे खरगोश को
झपट्टा मारकर दबोच ले
अनन्त आकाश में
छुटटे सांड की तरह तैरता
धरती-भेदी आँखों वाला
शिकारी बाज ।
ऐसे ही आया था
अभ्यागत-लकवा,
भालेरावजी के पास ।


‘अभी नहीं, फिर कभी आना’
कह कर लौटाया नहीं,
अगवानी, आव-भगत की
अतिथि-देव की
आत्मीय ऊष्‍‍मा और ऊर्जा से
भालेरावजी ने ।


मेहमान है तो
मेहमान की तरह रहे
चार दिन बाद
मेहमान कैसा ?



उसके होते हुए
उसे न होने देने लगे
और न होने का अहसास
कराने लगे लकवे को
भालेरावजी,
उसकी खातिरदारी करते हुए ।


‘बच्चों को पढ़ाकर
आता हूँ थोड़ी देर में,
तब तक आप आराम करें’
कह कर,
वाकर के पाँवों चलकर
आ गए
भोलरावजी क्लास में ।



टुकुर-टुकुर ताकता
हक्का-बक्का हो
उन्हें देखता रह गया था
लस्त-पस्त
बाज के झपट्टे में
आ गया हो जैसे खुद लकवा ।



‘घर पर अकेले
बोर हो गए होंगे,
कल थोड़ा
बाहर टहल आईएगा ।
मेरा क्या है,
मैं तो चला जाऊँगा
यूँ ही घूमते फिरते,
छोड़ जाऊँगा
आपके लिए वाकर’
कह रहे थे
लकवे से भालेरावजी
शाम को लौटकर ।



जड़वत लकवे ने क्या सुना
उसकी वो जाने
मैं ने तो सुना
सपने तो
वे ही होते हैं
जो हमें सोने नहीं देते
कह रहे थे
हमें पढ़ाते हुए
भालेरावजी ।

भोपाल में मिलिए

बीमा प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए मैं 2 सितम्बर की शाम को भोपाल पहुँचूँगा और 5 सितम्बर की शाम को रतलाम के लिए निकलूँगा । भोपाल में मेरा आवास, भारतीय जीवन बीमा निगम के क्षेत्रीय प्रशिक्षण केन्द्र में ही रहेगा । यह केन्द्र, होशंगाबाद मार्ग पर स्थित गायत्री मन्दिर (एम. पी. नगर) के सामने, पेट्रोल पम्प के पास स्थित है । प्रशिक्षण प्रातः दस बजे से शाम साढ़े पाँच बजे तक चलेगा । इस बीच मेरा मोबाइल ‘सायलेण्ट मोड’ पर रहेगा - याने, यदि आपमें से कोई उपरोक्त समयावधि में मुझे फोन करेंगे तो वह मेरे मोबाइल में ‘मिस्ड काल’ में दर्ज हो जाएगा ।

यदि कोई ब्लागर बन्धु सम्पर्क करेंगे तो मुझे आत्मीय प्रसन्नता होगी ।

मेरा मोबाइल नम्बर है - 98270 61799

लोकतन्त्र का त्रासद कोलाज

तीन-सवा तीन लाख की आबादी वाले मेरे नगर रतलाम में, पिछले पखवाड़े, अलग-अलग समय और सन्दर्भों में हुई कुछ घटनाओं का ‘कोलाज’ अपनी सकलता में न केवल निराश करता है बल्कि यह सब सहजता से हो जाने और लोगों द्वारा स्वीकार कर लिए जाने पर चैंकाता भी है ।

स्वाधीनता दिवस पर आयोजित मुख्य शासकीय समारोह में तिरंगा फहराने का जिम्मा किसी जन प्रतिनिधि के बजाय कलेक्टर को (याने ‘गण’ के अनुचर ‘तन्त्र’ को) दिया गया । लोकतन्त्र की अवमानना का ऐसा निर्लज्ज उदाहरण रतलाम में यह पहला नहीं था । इससे पहले भी, ‘गण’ की उपेक्षा कर, कलेक्टर (‘तन्त्र’) को यह सम्मान दिया जा चुका है । पूर्णतः क्षुद्र और हीन राजनीतिक लक्ष्य पूर्ति के लिए यह घिनौनी हरकत की गई । मेरे प्रदेश में भाजपा की सरकार है और स्थानीय विधायकजी इन दिनों प्रदेश के मन्त्रि-मण्डल के सदस्य हैं जिन्हें प्रदेश में अन्यत्र ध्वजारोहण का जिम्मा दिया गया था । उनकी अनुपस्थिति में, सरकार को, भाजपा का ऐसा कोई निर्वाचित‘ उत्तरदायी जनप्रतिनिधि नजर नहीं आया जो ध्वजारोहण कर सके । इस पुनीत काम का अधिकार मिलता था जिला पंचायत के अध्यक्ष को जो प्रतिपक्ष (कांग्रेस) का है । भला अपनी सरकार में प्रतिपक्ष को ऐसा स्वर्णिम अवसर क्यों (और कैसे) दे दिया जाए ? सो, ‘लोक’ की अवहेलना, अवमानना कर, ‘तन्‍त्र' को यह सम्मान देने में किसी को तनिक भी हिचक नहीं हुई । रतलाम के कांग्रेसियों ने इसे लोकतन्त्र का मखौल और अपमान निरूपित करते हुए समारोह का ही बहिष्‍कार कर दिया । भाजपाइयों ने कांग्रेसियों के इस बहिष्‍कार को राष्‍ट्रीय अपमान कहा और बहिष्‍कार करने वाले तमाम कांग्रेसियों के खिलाफ कार्रवाई की माँग की । यह न केवल 'मूल क्रिया को क्षमा करो और प्रतिक्रया को दण्डित करो' का आग्रह था अपितु 'आक्रमण ही श्रेष्‍ठ बचाव है' वाली कहावत पर श्रेष्‍ठ अमल भी था ।

मेरे प्रदेश में जल्दी ही विधान सभा चुनाव होने वाले हैं । शिवराजसिंह चैहान प्रदेश सरकार के मुखिया हैं । अपनी और अपनी पार्टी की सरकार की पुनः सत्ता वापसी के लिए उन्होंने, गत एक वर्ष से लोक-लुभावन घोषणाओं की बाढ़ ला दी है । वर्ष 2003 में, भाजपा सरकार बनने के ठीक बाद से नागरिक और कर्मचारी भाजपा को अपने चुनावी वादे याद दिला कर उन्हें हकीकत में बदलने की माँग करते रहे हैं । लेकिन चार वर्षो तक कोई सुनवाई नहीं हुई । सुनवाई तो दूर की बात रही, चुनावी घोषणा पत्र के एक वादे को ‘छपाई की गलती’ कह कर नकार दिया गया और कुछ अन्य वादों को ‘घोषणा पत्र में कही गई हर बात पूरी की जाए, यह जरूरी नहीं’ जैसे सीनाजोर तर्क देकर मुँह फेर लिया गया । और तो और, शिक्षाकर्मियों, सम्विदा शिक्षकों को शिक्षकों की बराबरी देने का, घोषणा पत्र का वादा याद दिलाते हुए इन वर्गों के कर्मचारियों ने भोपाल में आन्दोलन किया तो उनकी निर्मम पिटाई की गई, अनेकों को जेल में डाल दिया गया और कई लोग, काफी दिनों बाद अपने घर पहुँच पाए । वही वादा, सराकर ने आखिरी वर्ष में पूरा कर दिया गया । ‘लोक कल्याण के सन्निपात से ग्रस्त’ सरकार को ये सारी बातें अपने पहले चार वर्षों में याद क्यों नहीं आई-इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है ।

बहरहाल, अपनी और अपनी पार्टी की सरकार की दुबारा वापसी के लिए, शिवराज सिंह चैहान 28 अगस्त से प्रदेश में ‘जन आशीर्वाद रथ यात्रा’ पर निकले और पहले ही दिन मेरे शहर आए । उन्हें रात आठ बजे पहुँच कर आम सभा को सम्बोधित करना था । जैसा कि ऐसी रथ यात्राओं के साथ होता है, चैहान की रथ यात्रा भी कोई पाँच घण्टे देरी से, रात डेड़ बजे पहुँची । उस समय भी भाजपा कार्यकर्ताओं की अच्छी-खासी भीड़ मौजूद थी । चैहान ने आम सभा को सम्बोधित किया ।

अगले ही दिन कांग्रेसी हरकत में आए । उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का हवाला दिया जिसमें साफ-साफ कहा गया था कि ध्वनि विस्तारक यन्त्र का उपयोग रात दस बजे तक ही किया जा सकता है । इस आम सभा के लिए भाजपा ने, जिला प्रशासन से जो अनुमति ली थी, वह भी रात दस बजे तक की ही थी । कांग्रेस ने मुख्यमन्त्री की आमसभा को सर्वोच्च न्यायालय के आदेश की अवहेलना कहते हुए मुख्यमन्त्री सहित कई लोगों के खिलाफ कार्रवाई की माँग की । पत्रकारों ने कलेक्टर से इस मामले में पूछताछ की तो कलेक्टर ने मासूमियत से जवाब दिया - मैं मामले को देखूँगा ।

ये घटनाएँ यूँ तो रोजमर्रा की सामान्य घटनाएँ हैं और देश में प्रतिदिन कहीं न कहीं होजी ही रहती हैं । कोई भी पार्टी हो, ऐसी हरकतें करने में कोई पीछे नहीं है । लेकिन इन सबको जोड़कर देखने पर हमारे लोकतन्त्र की दशा, दिशा और बेचारगी ही सामने आती है ।

निर्वाचित जन प्रतिनिधि को ध्वजारोहण करने से केवल इसलिए वंचित कर देना कि वह अपनी पार्टी का नहीं है और ऐसा अवसर देने से प्रतिपक्ष को राजनीतिक लाभ हो जाएगा - न केवल घटिया मानसिकता का द्योतक है बल्कि अपने आप में लोकतन्त्र विरोधी हरकत भी है । ऐसा करते समय यह तथ्य भुला दिया गया कि सरकार में जो भी पहुँचे हैं वे ‘लोकतन्त्र’ के कारण और लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के माध्यम से ही पहुँचे हैं । क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ के लिए व्यापक राष्‍ट्रहित और लोकहित को परे रख देना किसी भी दशा में उचित नहीं हो सकता ।

इस मामले में कांग्रेसियों ने भी मूर्खता का जवाब मूर्खता से दिया । विरोध प्रकट करने के लिए कांग्रेस के पास श्रेष्‍ठ उपायों की शानदार विरासत है । लेकिन यह विरासत भुला दी गई । वे अपना विरोध प्रकट कर न केवल समारोह में बने रह सकते थे अपितु उन्हें बने रहना चाहिए था ।

लोकतन्त्र का निर्वहन इसके आचरण में निहित होता है । लेकिन आचरण की चिन्ता आज कहीं नजर नहीं आ रही । सबको अपना-अपना आचरण-धर्म निभाना चाहिए । राजा को ईमानदार होना तो चाहिए ही, उसे ईमानदार दिखना भी चाहिए । जाहिर है कि सत्ता में बैठने वाले को अतिरिक्त जिम्मेदार और लोकोपवाद के प्रति सतर्क होना चाहिए । ऐसे में होना तो यह चाहिए था कि खुद शिवराज सिंह आम सभा को सम्बोधित करने से मना कर देते । वे प्रदेश सरकार के मुखिया हैं और चूंकि हम ‘आदर्श प्रेरित समाज’ हैं, इसलिए मुखियाओं को तो और अधिक सजग, सावधान रहना चाहिए । मुखिया ही यदि अपनी व्यवस्थाओं की धज्जियाँ उड़ाने लगे तो बाकी क्या रह जाएगा ? लेकिन उन्होंने तो इस बारे में क्षण भर को सोचा भी होगा - ऐसा बिलकुल ही नहीं लगा और अपनी ही सरकार के आदेश की सार्वजनिक अवहेलना करने का, चकित कर देने वाला लोकोपवाद कर बैठे ।

कलेक्टर का वक्तव्य न केवल सर्वाधिक चैंकाने वाला और निराशाजनक रहा बल्कि अत्यधिक आपत्तिजनक भी रहा । कलेक्टर जिला प्रशासन का मुखिया होता है । उसे तो राई-रत्ती की खबर होती है और होनी ही चाहिए । यदि उन्हें आँख की शरम बनाए रखनी ही थी अपने किसी अधीनस्थ से वह सब कहलवा देते जो उन्होंने ,खुद कह दिया - हालाँकि वह भी ‘लेम एक्स्क्यूज’ से कम या ज्यादा कुछ भी नहीं होता । फिर भी ‘तिनके की ओट’ तो बनी रह जाती ।

यह कैसे सम्भव है कि आधी रात में हजारों लोगों की मौजूदगी में और सैंकड़ों सरकारी कर्मचारियों-अधिकारियों की उपस्थिति में हुआ जलसा कलेक्टर की जानकारी में न रहा हो ? जिस कार्यक्रम के समाचार तमाम अखबार मुखपृष्‍ठ पर छापें और स्थानीय समाचार चैनलें लगातार प्रसारित करें, उस आयोजन के लिए कलेक्टर को कहना पड़े कि वे मामले को देखेंगे तो उनके कलेक्टर होने पर ही सवाल उठ जाते हैं। ‘तन्त्र’ के राजनीतीकरण का और उसके लाचार, पंगु, रीढ़विहीन हो जाने का यह त्रासद उदाहरण है ।

लेकिन मुझे जो बात परेशान करती है वह है - इन सारी बातों पर लोगों की उदासीनता भरी चुप्पी । ऐसी चुप्पी मानो इन सारी बातों से किसी का कोई लेना-देना ही नहीं रह गया हो । किसी को इस सबसे कहीं कोई फर्क ही नहीं पड़ता हो । यह स्थिति और आचरण ‘घातक’ नहीं, ‘आत्म घाती’ है ।

क्या यह उदासीनता और चुप्पी सहज-स्वाभाविक है ? यकीनन आम नागरिक असंगठित और दो वक्त की रोटी की जुगाड़ में भीषण रुप से व्यस्त है । लेकिन क्या सबके सब ? नागरिकों के किसी भी वर्ग के पास इस सबकी ओर देखने की फुर्सत और जरुरत ही नहीं रह गई है ? जो भी बोला, अपने-अपने राजनीतिक कारणों, स्वार्थों से बोला ।

विधायिका, न्याय पालिका, कार्य पालिका और पत्रकारिता यदि लोकतन्त्र के स्तम्भ हैं तो ‘लोक’ तो इन सबकी वह ‘जमीन’ है जिस पर ये स्तम्भ खड़े हैं । इस जमीन को अपने होने न होने की और अपने साथ हो रहे की कोई चिन्ता ही नहीं रह गई है ?

लोकतन्त्र का यह कैसा ‘कोलाज’ है ?