उधार की जिन्दगी : एक बार फिर

1991 के अप्रेल से मैं उधार की जिन्दगी जी रहा हूँ - मित्रों की दी हुई जिन्दगी। तब मैं चरम विपन्नता की स्थिति में आ गया था। मैं पत्राचार का व्यसनी किन्तु पोस्ट कार्ड के लिए पन्द्रह पैसे भी नहीं रह गए थे मेरे पास तब। लगने लगा था कि छठवीं-सातवीं कक्षा तक की गई, घर-घर जाकर, मुट्ठी-मुट्ठी आटा माँगने की भिक्षा-वृत्ति नहीं अपनानी पड़ जाए। तब मित्रों ने मुझे सम्हाला था। खड़े रहने के लिए पाँवों के नीचे जमीन नहीं थी। मित्रों ने अपनी हथेलियाँ बिछा दी थीं। उन्हीं के दम पर अब तक जिन्दा हूँ। हाँ! मेहनत मैंने की, चौबीस घण्टों में अट्ठाईस घण्टे काम किया। जिन्दा रहने के लिए जान झोंक दी थी मैंने अपनी। ‘जीना हो तो मरना सीखो’ का मतलब तभी समझ में आया था। आज मैं अभाव-मुक्त स्थिति में हूँ। लेकिन इस सबका निमित्त मेरे मित्र ही हैं। मेरी साँसे, मेरी धड़कन, मेरे पाँवों के नीचे की जमीन - सब कुछ मित्रों का दिया हुआ है। मैं केवल जी रहा हूँ - उधार की जिन्दगी। जैसे मित्र मुझे मिले, भगवान सबको दे। मुझ जैसा मित्र किसी को न दे जो सब पर जिम्मेदारी बना और बना हुआ है। 

अभी-अभी, 17 सितम्बर से, उधार की जिन्दगी का दूसरा खण्ड शुरु हुआ है। 

13-14 सितम्बर की सेतु-रात्रि को दो बजे नींद खुल गई। कण्ठ के नीचे और सीने से थोड़ा ऊपर दर्द हो रहा था। मानों, अनगिनत सुइयाँ चुभ रही हों। दर्द चूँकि छाती में नहीं था सो अनुमान किया - और भले ही कुछ हो, ‘दिल का दर्द’ तो नहीं ही है। लिखा-पढ़ी का छुट-पुट काम करते हुए सुबह तक का समय निकाला और 06 बजे ही आशीर्वाद नर्सिंग होम पहुँच गया। जाने से पहले डॉक्टर सुभेदार साहब को मोबाइल लगाया लेकिन बात नहीं हो पाई। उन्होंने ‘काल डाइवर्ट’ की व्यवस्था कर रखी थी। सो, बात हुई भी तो नर्सिंग होम की रिसिप्शनिस्ट से। पूरी तरह से मशीनी बात हुई। फौरन ही, सुभेदार साहब के सहायक डॉक्टर समीर व्यास को फोन लगाया। उनसे बात हो गई। वस्तुतः मैंने उन्हें नींद से उठा दिया। सब कुछ सुनकर बोले - ‘आप नर्सिंंग होम पहुँचिए। मैं फौरन आ रहा हूँ।’ हुआ भी यही। मैं पहुँचा और मेरी पूछ-परख शुरु हुई ही थी कि डॉक्टर समीर पहुँच गए। मुझे आईसीयू में लिटाया। ईसीजी मशीन और हृदय की हरकतों पर निगरानी करनेवाले मॉनीटर से मुझे जोड़ा। तब तक डॉक्ट सुभेदार भी पहुँच गए। डॉक्टर समीर ने रास्ते से ही उन्हें खबर कर दी थी। फटाफट ईसीजी लिया। सब कुछ सामान्य था। अनुमान रहा कि एसिडिटी का प्रभाव रहा होगा। इसी से जुड़ी दवाइयाँ दी गईं। मुझे थोड़ी ही देर में नींद आ गई - खूब गहरी और लम्बी। कोई दो-ढाई घण्टों की। दूसरा ईसीजी हुआ। वह भी सामान्य। मेरा दर्द तो आने के कुछ ही देर बाद काफूर हो ही चुका था। याने, खतरा तो दूर की बात रहा, चिन्ता की भी कोई बात नहीं थी।

पन्द्रह-सोलह सितम्बर के दिन-रात पूरी तरह सामान्य
निकले। सत्रह की सुबह भी और सुबहों की तरह ही सामान्य रही। नित्य कर्मों से फारिग हो, प्राणायाम किया। कुछ कागजी काम निपटाया। दस बजते-बजते सोचा - ‘अब नहा लिया जाए।’ तभी वही दर्द शुरु हुआ जो 13-14 की सेतु- रात्रि को हुआ था। इस बार चुभन तनिक अधिक थी। दो दिन पहले के अनुभव के दम पर इसकी अनदेखी करने की कोशिश की लेकिन कर नहीं पाया। चौदह की सुबह तो मैं खुद स्कूटर चला कर गया था लेकिन आज वैसा कर पाना सम्भव नहीं लगा। उत्तमार्द्ध से कह कर गुड्डू (अक्षय छाजेड़) को फोन-सन्देश दिया कि मुझे आशीर्वाद नर्सिंंग होम ले जाने के लिए तैयार रहे। फटाफट कपड़े बदले, बाहर आया। सवा दस बज रहे थे। गुड्डू एकदम तैयार खड़ा था - मोटर सायकल स्टार्ट किए हुए। गुड्डू के पीछे बैठते-बैठते लगा - दर्द कम हो रहा है, राहत हो रही है। उतरने का उपक्रम करते हुए बोला - ‘अब ठीक लग रहा है। अस्पताल चलने की जरूरत नहीं लग रही।’ गुड्डू ने सख्ती से रोक दिया - ‘नहीं अंकल! बैठे रहिए। अस्पताल चलिए। और कुछ नहीं तो डॉक्टर साहब से यही पूछेंगे कि आपको यह सब क्या हुआ और क्यों हुआ।’ गुड्डू के स्वर और मुख-मुद्रा ने मुझे ‘आज्ञाकारी’ बना दिया। 

नर्सिंग होम चहुँचते-पहुँचते तस्वीर पूरी तरह से बदल चुकी थी। डॉक्टर सुभेदार साहब और डॉक्टर समीर को खबर कर ही दी थी। दोनों ने मुझे हाथों-हाथ लिया। आईसीयू में भर्ती किया और पहले ही क्षण में ‘हृदय रोगी’ बन चुका था। आईसीयू में भागदौड़ मच गई। सब कुछ ‘पहली प्राथमिकता’ पर हो रहा था। मेरी तकदीर वाकई में अच्छी थी कि ‘एलेक्सिम 40 एमजी’ इंजेक्शन फौरन उपलब्ध हो गया। साढ़े दस बजे मैं भर्ती हुआ था और बारह बजते-बजते मैं पूरी तरह खतरे से बाहर हो चुका था। डेड़ घण्टे में मेरा पुनर्जन्म हो चुका था। लेकिन इस पूरे डेड़ घण्टे तक डॉक्टर सुभेदार साहब, डॉक्टर समीर और उनका अधीनस्थ समूचा अमला, बिना साँस लिए, पण-प्राण से लगा रहा ताकि मेरी साँसें चलती रहें, मेरे प्राण बच सकें।

दो बजते-बजते समूचा तनाव समाप्त हो चुका था। लेकिन अब मैं ‘घोषित हृदय रोगी’ था। तनाव का स्थान चिन्ता ने ले लिया था। उत्तमार्द्ध तो नर्सिंग होम में थीं ही। शाम होते-होते दोनों बेटे एक साथ  पहुँच गए। बड़ा बेटा वल्कल पुणे से और छोटा बेटा तथागत मुम्बई से, वायु सेवा से अलग-अलग इन्दौर पहुँचे थे। इन्दौर से एक साथ घर आए।

17 की रात अच्छी-भली निकली। लेकिन 18 की सुबह से रक्त चाप कम होने लगा। यह असामान्य बात थी। डॉक्टरों को एक बार फिर मेहनत करनी पड़ी। दोपहर होते-होते, मुझे अगली जाँचों के लिए बड़ौदा भेजने का निर्णय ले लिया गया। सुभाष भाई जैन ने आरक्षित-रेल-टिकिट वल्कल को थमा दिए। यह चमत्कार से कम नहीं था। 19 को मेरी एंजियोग्राफी हुई। मालूम हुआ कि बाँयी ओर की तीनों मुख्य धमनियों में कोई बाधा नहीं है। बस, सबसे पहली धमनी के छोर से निकली दो,  उप-धमनियों के जोड़ पर बाधा है। किन्तु इसे दवाइयों/गोलियों से ही उपचारित किया जा सकेगा - ऑपरेशन की कोई आवश्यकता नहीं। मुख्य कारण रहा - दाहिनी धमनी का, सामान्य से छोटा होना। किन्तु उसके लिए भी एंजियोग्राफी की आवश्यकता नहीं रही। परहेज, सावधानी और नियमित दिनचर्या से सब कुछ नियन्त्रित किया जा सकेगा - बशर्तें मैं ऐसा चाहूँ और ऐसा करूँ। याने, गेंद अब मेरे पाले में है।

वल्कल ने पूरे मामले को अतिरिक्त चिन्ता और सम्वेदना से लिया। उसने डॉक्टरों की सलाहों में अपना ‘पुट’ जोड़ते हुए मुझ पर कुछ अतिरिक्त निषेध आरोपित कर दिए - महीने भर तक फेस-बुक से दूरी, फोन पर या तो बात करूँ ही नहीं और करूँ तो उतनी ही जितनी कि काम-धन्धे के लिए अनिवार्य हो, काम-काज भी वही और उतना ही जितना और जो अपरिहार्य हो। शुरु-शुरु में तो गुस्सा आया। बतरस जिस आदमी की जिन्दगी हो, गप्प-गोष्ठियाँ से जिसे ऊर्जा और स्पन्दन मिलता हो, उस आदमी को चुप रहने और घर में बन्द होकर बैठने को कहा जा रहा है। लेकिन जल्दी ही अपनी नासमझी समझ में आ गई। ये सब मुझे प्यार करते हैं। मुझे अच्छा-भला, चंगा, घूमते-फिरते, ठहाके लगाते देखना चाहते हैं। यह समझ में आते ही मैं भी इन सबके साथ हो गया - ‘अच्छे बच्चे’ की तरह। 

अब सब कुछ लगभग सामान्य है। जिन्दगी ढर्रे पर लौट रही है। काम-काज के लिए बाहर निकलना, लोगों से मिलना-जुलना शुरु कर दिया है। वैसे भी, घर में जब काम करनेवाला और कोई नहीं हो तो अपने काम तो खुद को करने ही पड़ते हैं। (दोनों बेटे अपने-अपने काम पर लौट गए हैं।) सो, बाजार से सौदा-सुल्फ लाना, बिजली-फोन के बिल जमा कराना जैसे काम हाथ में अपने आप ही आ गए हैं।

हाँ! दो बातें जरूर विशेष हुईं - मेरा भ्रम दूर करने और मेरा दम्भ चूर करनेवाली। हृदयाघात के बाद से मुझे लगा था कि मेरे साथ कुछ अनोखा घटित हुआ है और मैं  सबसे अलग, असाधारण हो गया हूँ। लेकिन मेरा यह भ्रम शुरुआती तीन-चार दिनों में ही दूर हो गया। मिलनेवालों में से प्रत्येक चौथा-पाँचवा आदमी ‘हृदयाघात का अनुभवी’ मिला। इनमें से भी अधिकांश वे जिनकी एंजियोप्लास्टी हो चुकी है। ऐसे लोगों ने मुझे कुछ तो सन्तोष-भाव से और कुछ ने दया-भाव से देखा। सन्तोष-भाव यह कि मैं एंजियोग्राफी में ही निपट गया, एंजियोप्लास्टी नहीं करानी पड़ी। दया-भाव यह कि देखो हम तो एंजियोप्लास्टी तक पहुँच गए और यह बेचारा एंजियोग्राफी से आगे नहीं बढ़ पाया।

मित्रों के बीच मैं गर्व से कहा करता था कि मैं मृत्यु से नहीं डरता। तत्व-ज्ञानी की मुद्रा में शेखी बघारता था - ‘मौत तो आदमी के जन्म लेते ही उसके साथ हो लेती है। फिर भला मौत की क्या बात करना और मौत से क्या डरना?’ लेकिन इस दुर्घटना के बाद मेरा यह दम्भ चूर-चूर हो गया है। मैं मौत से डरने लगा हूँ और अपना यह डर सबके सामने कबूल भी कर रहा हूँ। लेकिन अपनी झेंप मिटाने के लिए शब्दाडम्बर रच रहा हूँ - ‘मृत्यु-भय और जीवन की लालसा, एक सिक्के के दो पहलू हैं और इन दिनों में यही सिक्का जेब में लिए चल रहा हूँ।’

लेकिन ईश्वर की कृपा है कि इस सबके बीच मैं क्षण भर भी नहीं भूला कि मेरा यह पुनर्जन्म गुड्डू, डॉक्टर सुभेदार साहब, डॉक्टर समीर व्यास जैसे मित्रों के कारण ही हुआ है। सत्रह की सुबह यदि गुड्डू जिद करके मुझे आशीर्वाद नर्सिंग होम नहीं ले गया होता और डॉक्टर सुभेदार तथा डॉक्टर समीर ने नहीं सम्हाला होता तो आज यह सब लिख रहा होता? बिलकुल नहीं। तब, मैं स्वर्गीय हो चुका होता। उठावना, पगड़ी जैसी तमाम उत्तरक्रियाएँ हो चुकी होतीं, मेरी उत्तमार्द्ध, दोनों बेटे मेरी अनुपस्थिति में की जानेवाली तमाम कानूनी खानापूर्तियाँ कर रहे होते। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ और केवल मित्रों की कृपा के कारण ही नहीं हुआ।

सो, इस 17 सितम्बर से मैं एक बार फिर उधार की जिन्दगी जी रहा हूँ - पूरी तरह से मित्रों की दी हुई जिन्दगी।

लगता है, उधार की जिन्दगी मुझे मेरी अपनी जिन्दगी के मुकाबले अधिक मुफीद होती है। 

सबसे ऊपरवाले चित्र में बाँयी ओर डॉक्टर सुभेदार तथा दाहिनी ओर डॉक्टर समीर व्यास। मध्यवाले चित्र में गुड्डू (अक्षय छाजेड़)।