अधर्मी और धर्म-विरोधी मैं


मेरे कस्बे में आए दिनों किसी न किसी साधु-सन्त के प्रवचन आयोजित होते रहते हैं। जब-जब भी ऐसा होता है, मेरी शामत आ जाती है।

साधु-सन्त के अथवा/और उनके मत के अनुयायी आग्रह करते हैं कि मैं ऐसे प्रवचनों में नियमित रूप से अपनी उपस्थिति दर्ज कराऊँ। कोई पन्द्रह बरस पहले तक मैं ऐसा कर लिया करता था। अब नहीं करता। कर ही नहीं पाता।

बरसों तक ऐसे प्रवचन सुनने के बाद मुझे लगने लगा कि कोई भी साधु-सन्त नया कुछ भी नहीं कह रहा है। सनातन से चली आ रही, चिरपरिचित बातें दुहराई जा रही हैं। केवल भाषा का, वक्तृत्व शैली का और प्रस्तुति का अन्तर होता है। बातें सबकी सब, वही की वही। कुछ चीजों में जरूर अन्तर आया। ऐसे आयोजनों की संख्या बढ़ने लगी है, आयोजन अधिक व्यवस्थित होने लगे हैं, आयोजनों का प्रचार-प्रसार अधिक व्यवस्थित तथा अधिक आकर्षक तरीकों से होने लगा है। प्रचार-प्रसार में पहले आयोजन को प्राथमिकता दी जाती थी, अब सम्बन्धित साधु-सन्त को दी जाती है। याने, प्रचार अभियान व्यक्ति (साधु-सन्त) केन्द्रित हो गया है। साधु-सन्तों के नाम पर उनके अनुयायियों के संगठन बनने लगे हैं। आयोजनों की भव्यता और इस भव्यता के प्रदर्शन को प्रमुखता दी जाने लगी है। पाण्डालों में भीड़ बढ़ने लगी है। किसी-किसी साधु-सन्त के प्रवचानों में पाण्डाल छोटा पड़ जाता है।

एक घटना ने मेरा मोह-भंग न किया होता तो मैं भी इस सबका हिस्सा अब तक बना रहता। कोई पन्द्रह वर्ष पहले एक सन्त के, सात दिवसीय प्रवचन सुनने गया था। दो दिन तक तो सब ठीक-ठाक चला। तीसरे दिन गाड़ी पटरी से उतर गई। बिना किसी सन्दर्भ-प्रसंग के सन्तश्री ने अकस्मात कहना (इसे ‘सूचित करना’ कहना अधिक उचित होगा) शुरु कर दिया कि उनके अनुयायियों को आयकर विभाग के छापों का डर नहीं सताता। सन्तश्री के अनुसार, अनुयायियों का कहना था कि उन्होंने, सन्तश्री के चित्र अपने विभिन्न कमरों में और स्नानागारों के बाहर लगा रखे हैं। आयकर विभाग वाले जब-जब भी आते हैं, तब-तब वे, उन कमरों, स्नानागारों की तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखते। मुझे लगा, ये सन्त नहीं, साधु वेश में आयकर विभाग से सेटिंग कराने वाला कोई कुशल और प्रभावी मध्यस्थ है।

एक और सन्त की कथनी और करनी में दुस्साहसपूर्ण अन्तर देखकर मैं हतप्रभ रह गया। विचित्र शैली में व्याख्यान देनेवाले ये सन्त अपने प्रत्येक प्रवचन में राजनीति को शौचालय निरुपित करते। किन्तु, उनके प्रवास के दौरान एक दिन भी ऐसा नहीं गया जब उनके हाथों किसी राजनेता का सम्मान न हुआ हो। इन सन्तश्री ने मेरे कस्बे से प्रस्थान का अपना निर्धारित कार्यक्रम एक-एक कर पूरे तीन दिन स्थगित किया। वे चाहते थे कि राष्ट्रीय अथवा राज्य स्तर का कोई न कोई राजनेता उनके प्रस्थान के समय उपस्थित हो, उन्हें विदा दे। इसके लिए उन्हें मोबाइल पर एक के बाद एक अनेक राजनेताओं से बात करते देख कर मुझे गहरी निराशा हुई।

ये और ऐसे ही कुछ प्रसंग ऐसे रहे कि मैंने साधु-सन्तों के ऐसे प्रवचनों में जाना बन्द करना ही श्रेयस्कर समझा। सो, अब मैं ऐसे प्रवचन सुनने नहीं जाता और लोगों से चर्चा करने के बाद अनुभव करता हूँ कि मेरा निर्णय बिलकुल सही है।

लोग मुझसे पूछते हैं - ‘आप प्रवचन सुनने नहीं गए?’ मैं प्रति प्रश्न करता हूँ - ‘आप गए थे?’ वे हाँ में उत्तर देते हैं तो मैं पूछता हूँ - ‘महाराजजी की कौन सी बात आपको अच्छी लगी?’ जवाब मिलता है - ‘बात तो याद नहीं लेकिन महाराजजी व्याख्यान बहुत अच्छा देते हैं।’ मैं पूछता हूँ - ‘महाराजजी का कौन सा उपदेश आप अपने आचरण में उतार रहे हैं?’ जवाब मिलता है -‘उनका काम है कहना, अपना काम है सुनना। उन्होंने कह दिया, अपन ने सुन लिया। यह आचरण बीच में कहाँ से आ गया?’ मैं पूछता हूँ - ‘जब आप उनकी बात मानते नहीं तो सुनने क्यों जाते हैं?’ जवाब मिलता है - ‘जाना चाहिए। सब जाते हैं सो अपन को भी जाना चाहिए। नहीं जाएँगे तो लोग क्या कहेंगे? वहाँ जाकर आप भले ही कुछ मत सुनो। पर सबको नजर आना चाहिए कि आप धार्मिक हो, वहाँ गए हो।’ ऐसे जवाब सुनकर मुझे निराशा होती है।

मेरा विश्वास है कि इस देश के केवल सौ साधु-सन्त तय करलें तो देश की दशा और दिशा बदल सकती है। किन्तु एक भी सन्त ऐसा करने को तैयार नजर नहीं आता। मैं अनुभव करता हूँ कि सब अपने आप को, बड़ी सावधानी से केवल उपदेश तक सीमित रखते हैं, उपदेश से आगे बिलकुल नहीं बढ़ते। वे चाहें तो अतिक्रमण न करने, कर-चोरी न करने, यातायात के नियमों का पालन करने, वृक्षारोपण करने, पोलीथीन का उपयोग न करने जैसी ज्वलन्त बातों के लिए अपने अनुयायियों को संकल्पबद्ध कर सकते हैं। किन्तु एक भी साधु-सन्त यह जोखिम लेने को तैयार नजर नहीं आता। इन बिन्दुओं पर कुछ सन्तों से मेरी विस्तृत बात हुई। सबने निराश किया। मेरी धारणा है कि ये सब डरते हैं कि यदि इन्होंने लोगों को संकल्पबद्ध करना शुरु कर दिया तो इनके पाण्डाल खाली रह जाएँगे। कभी-कभी लगता है, सब अपनी-अपनी मार्केटिंग कर रहे हैं।

मेरे एक आत्मीय, अपने समाज के धार्मिक आयोजनों की व्यवस्थाएँ अत्यन्त सतर्कता, चिन्ता, समर्पण और निष्ठा से करते हैं। कभी-कभी ये आयोजन एक-एक माह की अवधि के होते हैं। वे अपना काम-धन्धा छोड़ कर आयोजन की व्यवस्थाएँ देखते हैं। मैं ने जब-जब उनसे कहा - ‘आप तो प्रतिदिन महाराजजी के प्रवचन सुनते हैं। आप भाग्यशाली हैं जो आपको इतना धर्म-लाभ होता है।’ तब-तब (हाँ, प्रत्येक बार) उन्होंने कहा - ‘मैं कोई व्याख्यान-आख्यान नहीं सुनता। व्यवस्थाओं की जिम्मेदारी लेता हूँ, सो व्यवस्थाओं तक ही सीमित रहता हूँ। बाकी सब फालतू बाते हैं। सब धतिंगेबाजी है।’ मैं हतप्रभ रह जाता हूँ और हर बार कहता हूँ - ‘आप सचमुच में धार्मिक हैं। इतनी स्पष्टता तथा ईमानदारी से सच बोल रहे हैं और अपना धर्म निभा रहे हैं।’


लोगों के आग्रह के बाद भी मैं प्रवचन सुनने नहीं जाता हूँ तो वे कहते हैं - ‘आप अधर्मी और धर्म विरोधी हैं।’ मैं प्रति प्रश्न करता हूँ -‘मैं प्रतिदिन अपने घर में देव पूजा करता हूँ, हनुमान चालीसा, आदित्यहृदय स्तोत्र और श्रीगणेश अथर्वशीर्ष का तथा प्रति मंगलवार और शनिवार को सुन्दरकाण्ड का पाठ करता हूँ। वैष्णव सम्प्रदाय का हूँ सो तुलसीमाला पहनता हूँ। फिर भी मैं अधर्मी और धर्म विरोधी हूँ?’ वे कहते हैं - ‘क्या गारण्टी कि आप सच बोल रहे हैं? आपको यह सब करते हमने तो एक बार भी नहीं देखा!’ मैं कहता हूँ - ‘आप किसी भी दिन, अकस्मात चेकिंग कर लीजिए।’ वे कहते हैं -‘हमें अब यही काम रह गया है?’ मैं कहता हूँ -‘आप न तो मेरी बात पर विश्वास करने को तैयार हैं और न ही चेकिंग करने को। बताइए! आपकी तसल्ली के लिए मैं क्या करूँ?’ मुझे उत्तर मिलता है - ‘आप कहते हो तो मान लेते हैं। पर आप धार्मिक दिखते तो नहीं।’


मुझे लगता है, लोगों की इसी बात में हमारे साधु-सन्तों के प्रवचन आयोजनों का लक्ष्य उजागर हो जाता है। लोग धार्मिक बनें, इसमें किसी की रुचि हो न हो, लोग धार्मिक दिखें, इसमें सबकी रुचि अवश्य है। यह भी एक बड़ा कारण है जो मुझे ऐसे आयोजनों में जाने से रोकता है। मैं आचरण में, धार्मिक होने में विश्वास करता हूँ, प्रदर्शन में, धार्मिक दिखने में नहीं।


ऐसे क्षणों में मुझे विवेकानन्द याद आते हैं जिन्होंने साधु-सन्तों की अकर्मण्य सामाजिक भूमिका के प्रति असन्तोष प्रकट करते हुए कहा था कि देश के साधु-सन्तों को कृषि कार्य में लगा देना चाहिए और जिस किसान के पास बैल न हों, वहाँ बैल की जगह साधु-सन्तों को जोत देना चाहिए। विवेकानन्द का कहना था कि (उस समय) देश के प्रत्येक गाँव में औसतन तीन साधु पाए जाते हैं। ये साधु यदि इन गाँवों को अक्षर-ज्ञान देना शुरु कर दें तो पूरा देश मात्र एक महीने में साक्षर हो जाए।
हिन्दी साहित्य का भक्ति-काल, सामाजिक चेतना और सामाजिक परिवर्तन के सन्दर्भों में साधु-सन्तों की नेतृत्ववाली भूमिका का सुन्दर उदाहरण है। साधु-सन्तों की बातों को लोग चूँकि श्रद्धा-भाव से सुनते हैं, इसलिए सामाजिक बदलाव में वे (साधु-सन्त) चमत्कारी भूमिका निभा सकते हैं।


माकपा के पूर्णकालिक कार्यकर्ता और प्रगतिशील लेखक जसविन्दरसिंहजी गए दिनों रतलाम आए थे। मैं उनके लेखों का मुरीद हूँ। उनसे मुलाकात हुई और ऐसी ही तमाम बातें हुईं तो उन्होंने प्रख्यात शायर मुनव्वर राना का यह शेर मुझे थमा दिया -
ये शेख-ओ-बरहमन हमें अच्छे नहीं लगते।

जितने हम हैं, ये उतने भी सच्चे नहीं लगते।

यह भली भाँति जानते हुए कि सभी साधु-सन्त एक जैसे नहीं होते। अपवाद सब जगह होते हैं और मैंने चीजों का साधारीकरण करने की मूर्खता नहीं करनी चाहिए-मेरी धारणाएँ, मेरे विश्वास, मेरे निष्कर्ष मेरे साथ।

मैं जैसा भी हूँ, हूँ। मैं ऐसा ही अधर्मी और धर्म विरोधी ही ठीक हूँ।

आज मेरा चौंसठवॉं जन्‍म दिनांक है। मैं स्‍वयम् को यही उपहार दे रहा हूँ।

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यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

धर्म और चक्करदार जलेबी

यह निठल्ला चिन्तन है। एकदम रूटीन वाला। फुरसतिया चिन्तन। जब करने को कोई काम न हो तो फिर यही काम हो जाता है।
हमारे जीवन में धर्म की भूमिका क्या है? वह हमें रास्ता दिखाता है या रास्ता रोकता है? बिना किसी बात के, गए कुछ दिनों से ये सवाल मेरी आँखों के आगे नाच रहे हैं।
नहीं। मैंने गलत कह दिया। बिना किसी बात के नहीं। बात तो हुई। तभी तो ये बातें मेरे मन में उगीं! कोई बात नहीं होती तो इन बातों की नौबत ही भला क्यों आती?
बढ़ती उम्र के साथ कुछ और बातों/चीजों में बढ़ोतरी होती जाती है। कुछ बीमारियाँ चुपचाप साथ हो लेती हैं और उन्हीं के साथ कुछ दवाइयाँ साथी बन जाती हैं। लेकिन इन सबसे पहले बढ़ोतरी होती है - चिन्ता में। परिवार छोटे हो गए, बच्चे पहले तो पढ़ने के लिए और अब पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरियों के लिए बाहर चले गए। घर में बूढ़े पति-पत्नी ही रह गए। ये पति-पत्नी अपनी जवानी के दिनों में अपने माता पिता का कहा/बताया काम करते थे, अब बच्चों का कहा/बताया काम करते हैं। तन साथ नहीं देता। मन तो उससे पहले ही साथ छोड़ चुका होता है। किन्तु काम तो करने ही पड़ते हैं। कभी बिजली का बिल भरना है , कभी टेलीफोन का तो कभी पानी का। कभी पेण्ट रफू करानी है तो कभी वाशिंग मशीन की दुरुस्ती के लिए मिस्त्री की तलाश करनी है। मन ही मन भुनभुनाते रहते हैं, खीझते, चिड़चिड़ाते रहते हैं और इसी तरह ‘भन्न-भन्न’ करते हुए सारे काम करते रहते हैं। ये और ऐसे सारे काम करते हुए एक चिन्ता सबसे ऊपर सवार रहती है - कहीं बीमार न पड़ जाएँ। पराश्रित न हो जाएँ। ऐसा कुछ हो गया तो सेवा-सुश्रुषा तो दूर की बात रही, पूछ-परख करने कौन आएगा? सो, बिना किसी के कहे, अपनी ही ओर से, जबरन ही बीसियों परहेज खुद पर लाद लेते हैं। हाथ-पैर चलते रहने चाहिएँ-यह बात चेतन और अचेतन में चैबीसों घण्टे बराबर बनी रहती है।
इसी चिन्ता से ग्रस्त हो, मैं और मेरी उत्तमार्द्ध प्रति शाम एक छोटे से जिम में जाते हैं। बीस-बीस मिनिट ट्रेड मिल पर चलते हैं और पाँच-पाँच मिनिट की कसरतें कुछ अन्य मशीनों पर करते हैं। सबसे अन्त में ‘योगा’ के नाम पर थोड़ी-बहुत कसरत कर लौट आते हैं। कोई पचास-पचपन मिनिट का यह उपक्रम हमें ‘फिट’ बने रहने के भ्रम का सुख प्रदान करता है।
गौशाला के सामने स्थित इस जिम पर जाने के लिए हमें काटजू नगर, सुभाष नगर, हाट रोड़ पार करना होता है।
कुछ दिन पहले, यही कोई पाँच-छः दिन पहले हमने जैसे ही काटजू नगर में प्रवेश किया तो सड़क बन्द मिली। ‘जगराते’ के लिए सड़क को तीनों ओर से घेर कर पाण्डाल बना दिया गया था। मंच बना था जिसके दोनों ओर, भारी-भरकम आकार वाले चार-चार स्पीकर चिंघाड़ रहे थे। सब तरफ मिला कर कोई अठारह-बीस हेलोजन जल रही थीं। बिजली का अस्थायी कनेक्शन लेने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। बिजली के तार से सीधे ही करण्ट ले लिया गया था। न तो मंच पर कोई था न पाण्डाल में। और तो और साउण्ड सिस्टम के पास भी कोई नहीं था। हमें चिढ़ तो हुई किन्तु मुख्य सड़क के पास ही छोटा रास्ता उपलब्ध था। हम उसी से निकल लिए।
किन्तु यह क्या? जैसे ही सुभाष नगर में जैसे ही घुसे तो पाया कि वैसा ही एक धर्म-पाण्डाल और मंच रास्ता रोके, तना खड़ा है। वैसी ही कानफोड़ू-प्राणलेवा ध्वनि व्यवस्था और वैसी ही चोरी की बिजली। फर्क एक ही था-काटजू नगर में मंच हमारे सामने था, यहाँ हम मंच के पिछवाड़े बाधित हो खड़े थे। यहाँ पास में कोई छोटा रास्ता नहीं था। श्रीकृष्ण सिनेमा के परिसर में होकर, लम्बा रास्ता पार कर हमने हाट रोड़ पकड़ी और जिम पहुँचे - लगभग दस/बारह मिनिट विलम्ब से।
लौटते में जानबूझकर बाजारवाला लम्बा रास्ता पकड़ा ताकि बिना किसी व्यवधान के घर पहुँच सकें। किन्तु ‘मेरे मन कछु और है, कर्ता के मन कछु और’ वाली बात हो गई। चाँदनी चौक वाले चक्कर पर पहुँचते ही देखा, हरदेवलाला की पीपली वाला चैराहा, चारों दिशाओं से बन्द था। यहाँ का पाण्डाल और मंच तो पहलेवाले दोनों पाण्डालों और मंचों का परदादा था और इसी कारण यहाँ लगी हेलोजन भी ‘शतकवीर’ बनी हुई थीं। हाँ, एक अन्तर था। पहलेवाले दोनों पाण्डालों के लिए एक-एक स्थान से ही बिजली चोरी की गई थी। यहाँ आठ-दस खम्भों से बिजली के तार जोड़े गए थे। पहलेवाले दोनों पाण्डालों के दोनों ओर ही स्पीकर लगे हुए थे जबकि यहाँ सड़क के दोनों ओर, छः-छः स्थानों पर दो-दो स्पीकर (याने कुल जमा चैबीस स्पीकर) टँगे हुए थे।
हमें कुछ देर रुकना पड़ा-यह तय करने के लिए कि अब कौन से रास्ते से घर जाया जाए। मैं कोई फैसला लेता उससे पहले ही, परम धर्मिक मानसिकतावाली मेरी उत्तमार्द्ध (वे, देव पूजा किए बिना अन्न ग्रहण नहीं करतीं और एकादशी, पूर्णिमा पर सत्यनारायण व्रत कथा का पाठ करती हैं) भन्ना गई। मानो दसों दिशाओं से पूछ रही हो, कुछ इसी तरह से, जोर से बोलीं - ‘यह सब क्या है?’ उन्होंने न तो मुझसे यह सवाल किया था और न ही मैं इस सबके लिए जवाबदार ही था। किन्तु उनक सवाल का जवाब देनेवाला वहाँ और कोई था भी तो नहीं? सो मैंने तसल्ली से कहा - ‘धर्म का मामला है।’ वे बोलीं - ‘ये ऐसा कैसा धर्म है? धर्म रास्ता रोकता है या रास्ता देता/बताता है?’ झुंझलाहट तो मुझे भी भरपूर हो रही थी (मोटरसायकिल जो मुझे चलानी पड़ रही थी!) किन्तु हम दोनों मिलकर भी वहाँ कर ही क्या सकते थे? सो मैंने और अधिक तसल्ली से कहा - ‘धर्म के मामले में मेरी जानकारी आपसे कम है। आप बेहतर जानती हैं। मैं क्या कहूँ?’ चूँकि जवाब देने की मूर्खता मैं कर चुका था सो पलटवार भी मुझ पर ही होना था। वे अधिक तैश में बोलीं -‘मुझे चिढ़ा रहे हैं? तो सुनिए! यह धर्म नहीं है। यह तो अधर्म है। धर्म तो जीवन को आसान और सहज-सुगम बनाता है। अवरोधों को हटाता है। मनुष्य को चक्करों में डालता नहीं, चक्करों से बचाता है। वह चोरी-चकारी के लिए प्रेरित और प्रवृत्त नहीं करता। वह तो खुद प्रकाश है। उसे प्रकाशवान बनाने की कोई भी कोशिश पाखण्ड है।’
मुझे अच्छा तो लगा किन्तु अचरज भी हुआ। सुनता आया हूँ कि आवेश के आते ही व्यक्ति का विवेक साथ छोड़ देता है। किन्तु यहाँ तो ‘भरपूर आवेशित’ मेरी उत्तमार्द्ध, विवेकवान बनी हुई थीं। मैंने उकसाया - ‘तो यह जो आज अपन दोनों ने देखा है, वह धर्म नहीं, पाखण्ड है?’ तुर्शी-ब-तुर्शी वे अविलम्ब बोलीं - ‘और नहीं तो क्या? यह पाखण्ड के सिवाय और क्या है?’
इसके बाद मेरे पास कहने-सुनने को कुछ भी नहीं बचा था। श्रीमतीजी ने धर्म को व्याख्यायित कर दिया था। देख रहा था कि उनका गुस्सा कम नहीं हो रहा था। उन्हें सहज करने के लिए पूछा -‘बताओ! कौन से रास्ते से चलें?’ मानो उन्हें इस सवाल का अनुमान हो गया था। छूटते ही बोली -‘जिस रास्ते में धर्म आड़े नहीं आए।’ चौमुखी पुल की तरफ गाड़ी मोड़ते हुए मेरी हँसी छूट गई। उन्होंने पूछा -‘क्यों? हँसे क्यों? मैंने कुछ गलत कहा?’ मैंने कहा -‘आपने बिलकुल गलत नहीं कहा। धर्म तो कभी किसी के आड़े नहीं आता। धर्म का निर्माण तो मनुष्य ने ही किया है। सो, वह तो अपने जन्मदाता के साथ ही चलता है। उसके आचरण से प्रकट होता है। धर्म के नाम पर किए जानेवाले कर्मकाण्ड, प्रदर्शन की शकल लेते हुए पाखण्ड में बदल जाते हैं। और तब, धार्मिक होने के बजाय धार्मिक दिखना अधिक जरूरी तथा अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है।’
मेरी बात सुनकर वे आवेश-मुक्त हो बोलीं - ‘आप तो उपदेश देने लगे। जल्दी चलिए वर्ना मुझे डर है कि आप इन तीनों में से किसी एक मंच पर विराजमान न हो जाएँ। इस क्षण आपका धर्म यही है कि जल्दी घर पहुँचाएँ। भूख लग रही है। आप तो कुछ करेंगे-धरेंगे नहीं। रोटी मुझे ही बनानी है। आप घर पहँचाने का धर्म निभाइए ताकि मैं पेट भरने का उपक्रम सम्पन्न करने का धर्म निभा सकूँ।’
तब से लेकर अब तक, इतना सारा विवेचन हो जाने के बाद भी मैं, मनुष्य के जीवन में धर्म की भूमिका को लेकर निठल्ला चिन्तन किए जा रहा हूँ। यह ऐसी चक्करदार जलेबी है जिसका न कोई आदि है न कोई अन्त।
इन दिनों इसी में व्यस्त हूँ।
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यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

दादाजी का व्यवहार और मेरा भय

‘हाँ भई! हाँ, मुझे तो इस घर में होना ही नहीं चाहिए।’ अड़सठ वर्षीय दादाजी क्षुब्ध, कुपित और आक्रोशित होकर अपने, दस वर्षीय पोते पर कटाक्ष कर रहे थे-घर के बाहर, ऐन सड़क पर आकर। इतनी जोर से कि आसपासवाले और आने-जानेवाले, न चाहकर भी सुन लें। ऐसा ही हुआ भी। सुनकर कुछ ने चैंककर देखा और अगले ही क्षण अनदेखा-अनसुना कर अपने-अपने काम में लग गए। मैं वहाँ पहुँचा ही था। सो, सुना तो मैंने भी। मैने भी कुछ नहीं कहा। पोते की तरफ देखा। वह कुछ भी समझ नहीं पा रहा था। समझता भी कैसे? उसकी उम्र तो अभी ‘अभिधा’ समझने की भी नहीं थी और दादाजी ‘व्यञ्जना’ में कहे जा रहे थे! सकपकाया हुआ पोता कुछ क्षण दरवाजे पर खड़ा रहा, फिर अन्दर चला गया।


दादाजी से मेरा परिचय कोई बीस वर्षों से है। घनिष्ठता और अनौपचारिक सहजता की सीढ़ियाँ चढ़ता हुआ यह परिचय आज घरोपा बन गया है। मैं उनके रसोईघर तक आता-जाता हूँ, खाने की कोई मनपसन्द चीज हो तो उठा लेता हूँ और बाज वक्त उनकी बहू से फरमाइशकर अपनी मनपसन्द चीज बनवा भी लेता हूँ। वास्तविकता तो भगवान ही जाने किन्तु मुझे लगता है कि मेरी ऐसी हरकतों से दादाजी ही नहीं, पूरा परिवार प्रसन्न होता है।


गुस्से के मामले में दादाजी अपने ‘पिता के आज्ञाकारी सुपुत्र’ हैं। उन्हें कब, किस बात पर गुस्सा आ जाएगा, वे खुद नहीं जानते। किन्तु जब तक उनकी पत्नी जीवित थीं तब तक वे फिर भी स्वयम् को नियन्त्रित कर लेते थे। कोई साढ़े चार-पाँच वर्ष पूर्व उनकी पत्‍नी की मृत्यु के बाद से उनके व्यवहार में अनपेक्षित परिवर्तन आ गया है जिसके चलते गुस्सा करना उनका मूल, प्राथमिक, अन्तिम तथा एक मात्र काम हो गया है। घर से बाहर वे पहले भी लोकप्रिय थे और आज भी हैं। किन्तु बाहरवालों के साथ किए जाने वाला उनका व्यवहार घर में तो पल भर भी नजर नहीं आता। यूँ तो हम सब दोहरी जिन्दगी ही जीते हैं - घर में कुछ और तथा बाहर कुछ और। किन्तु इतना अन्तर तो मैंने अब तक किसी के व्यवहार में नहीं देखा जैसा कि दादाजी के व्यवहार में है। घर में तो अब उनका ‘तामस स्वरूप’ ही स्थायी भाव बन गया है। इकलौता बेटा, उसकी पत्नी, एक पोती और एक पोता - सब चौबीसों घण्टों दहशत में ही रहते हैं। ये चारों कुछ भी करें, दादाजी सदैव कुपित, आक्रोशित ही रहते हैं। बेटा-बहू पूछते हैं - ‘आज खाने में क्या बनाएँ?’ दादाजी कहते हैं -‘जो तुम्हें जँचे, बनालो। मैं सब खाता हूँ।’ लेकिन जब थाली सामने आती है तो आँखें तरेरते हुए, सब्जी में से आलू निकाल कर एक तरफ कर देते हैं। इससे सबक लेकर अगले दिन बहू, भरवाँ शिमला मिर्च परोसने से पहले उसमें से आलू निकालने लगती है तो दादाजी कहते हैं -‘क्यों निकाल रही हो? मुझे आलू से परहेज थोड़े ही है।’ सवेरे बहू पूछती है -‘नाश्ते में क्या लेंगे? उपमा या पोहा?’ दादाजी कहते हैं -‘जो जँचे, बना लो। मैं सब खाता हूँ।’ बहू जब प्लेट में उमपा रखती है तो खिन्न हो, दादाजी कहते हैं -‘उपमा बना लिया? चलो, खा लेता हूँ। वैसे, पोहा बनाती तो अच्छा होता।’


‘थ्री इडियट्स’ लगी। पहले ही सप्ताह में बच्चों ने देखने का कार्यक्रम बनाया। चारों ने दादाजी से आग्रह किया। दादाजी ने तत्क्षण, दो-टूक मना कर दिया - ‘तुम लोग जाओ। सेकण्ड (नाइट) शो मुझे सूट नहीं करता। यह मेरे सोने का समय होता है।’ बहू ने कहा - ‘तो वहीं सो जाइएगा।’ दादाजी तैयार नहीं हुए। चारों ने सिनेमा हॉल में अपनी कुर्सियाँ सम्हाली ही थीं कि दादाजी ने बेटे को मोबाइल घनघनाया - ‘मेरे लिए टिकिट की व्यवस्था करो। मैं भी फिल्म देखने आ रहा हूँ।’ एडवांस बुकिंग वाले पहले सप्ताह में, करण्ट बुकिंग में एक टिकिट मिलना सम्भव ही नहीं था। बेटे ने कहा -‘टिकिट तो नहीं मिलेगा लेकिन आप तैयार रहिए। मैं आता हूँ। मेरे टिकिट पर आप फिल्म देख लीजिएगा। मैं घर पर रह लूँगा।’ दादाजी बिदक गए। फौरन बोले -‘मत आ। वहीं रह। तू मेरे साथ फिल्म नहीं देखना चाहता इसलिए बहाने बना रहा है।’ कल्पना की जा सकती है कि बेटे ने फिल्म कैसे देखी होगी और उसे कितना आनन्द आया होगा।


शाम को पोता पूछता है - ‘दादाजी! मैं खेलने जाऊँ?’ रूखेपन से दादाजी का जवाब होता है -‘मुझसे क्या पूछता है? जो तेरे जी में आए, कर।’ पोता किलकारी मारकर बच्चों के झुण्ड में शरीक हो जाता है। पाँच मिनिट भी नहीं बीतते कि दादाजी की टेर पूरे मुहल्ले में गूँजने लगती है - ‘क्यों रे! कहाँ चला गया तू? यह खेलने का वक्त है या पढ़ने का?’


छुट्टी के दिन, सवेरे-सवेरे पोती ने टेलिफोन की तरह हाथ बढ़ाया ही था कि दादाजी ने टोका -‘किसे फोन कर रही हो?’ सहमी हुई पोती ने घुटी-घुटी आवाज में कहा - ‘मेरी फ्रेण्ड का बर्थ डे है। उसे विश कर रही हूँ।’ ‘तो इसमें इतना डरने की क्या बात है? करो! करो! बर्थ डे पर ग्रीट करना तो बहुत अच्छी बात है।’ दादाजी ने कहा। उत्साहित हो, पोती ने फ्रेण्ड को फोन लगाया, विश किया और ‘कल मिलते हैं। तभी बात करेंगे।’ कह कर फोन रख दिया। दादाजी फौरन बोले -‘जब कल मिलना ही है और कल बात करनी ही है तो आज फोन करने की क्या जरूरत थी? फालतू में पैसा और वक्त बरबाद किया। ये फोन-वोन करने की आदत बदलो और पढ़ाई पर ध्यान दो।’


दादाजी यूँ तो रेल्वे में हेड क्लर्क थे किन्तु पढ़ाने का काम बहुत अच्छा कर सकते हैं। जिस भी घर में मिलने जाते हैं, वहाँ बच्चों को पढ़ाई में मदद करते हैं। किन्तु घर में ऐसा नहीं करते। बेटे ने जब-जब भी पोते को पढ़ाने का कहा तो हर बार जवाब मिला -‘मुझसे नहीं होता यह सब। अपने बच्चों की पढ़ाई की चिन्ता और व्यवस्था खुद करो।’ किन्तु अभी-अभी, जब परीक्षा शुरु हुई तो पोते को घेर कर बैठने लगे। उसकी कॉपियाँ देख-देख कर उसकी अध्यापिकाओं को कोसते हैं, उनकी आलोचना करते हैं और उनसे पूछे जाने वाले सवाल अपने पोते से करते हैं। अब दादाजी चाहते हैं कि उनका पोता लगातार छः-छः घण्टे उनके पास बैठकर पढ़े। इतनी देर, लगातार बैठ पाना और पढ़ते रहना पोते के लिए सम्भव नहीं होता। सो, वह ऊँचा-नीचा होने लगता है। उसकी ऐसी किसी भी हरकत पर दादाजी उसे प्रताड़ित करते हैं। उस दिन भी यही हुआ था। परेशान होकर पोते न कह दिया -‘क्या दादाजी! आप तो बहुत परेशान करते हैं।’ उसी के जवाब में, घर से बाहर, सड़क पर आकर दादाजी ने जोर से कहा था-‘हाँ भई! हाँ, मुझे तो इस घर में होना ही नहीं चाहिए।’


दादाजी का यह व्यवहार मुझे भयभीत कर रहा है। जो कुछ मैंने लिखा है, वह सब मेरे सामने ही हुआ है। उनके बेटे-बहू और पोती-पोते की दशा देखी नहीं जाती। किन्तु मैं उनकी कोई मदद भी नहीं कर पाता। दो-तीन बार दादाजी को टोका तो हर बार मासूमियत से प्रति प्रश्न किया -‘क्या कर रहा हूँ मैं? मैं तो कुछ भी नहीं करता। जो ये देते हैं, खा लेता हूँ। जैसा कहते हैं, वैसा कर लेता हूँ। मैं तो कभी कोई फरमाइश भी नहीं करता। ये जैसा रख रहे हैं, वैसा रह रहा हूँ। मैं तो किसी से कुछ नहीं कहता।’


मैं जब-जब उनसे मिल कर लौटता हूँ, अपने आप से डरने लगता हूँ। वे अड़सठ के हैं, मैं तरेसठ का। मैं उनके पीछे-पीछे ही चल रहा हूँ। कल को मैं भी दादाजी बनूँगा। क्या मैं भी ऐसा ही हो जाऊँगा? क्या मेरे कारण भी मेरे बेटे-बहू, पोते-पोती इसी तरह त्रस्त, चौबीसों घण्टे भयभीत, सहमे-सहमे रहेंगे? यह एक व्यक्ति विशेष का प्रकरण है या सामान्य मानव मनोविज्ञान का? क्या सब ऐसे ही हो जाते हैं?


दादाजी के इस व्यवहार का सीधा प्रभाव इस समय तो मुझ पर यह हुआ है कि घर में मेरा बोलना एकदम कम हो गया है। दो-दो, तीन-तीन घण्टे मैं बिना बोले रहने लगा हूँ। कहीं यह भी घरवालों पर अत्याचार तो नहीं?


जीवन के इस मोड़ पर स्वयम् के प्रति इतना अविश्वस्त, इतना भयभीत रहना मुझे असहज कर रहा है।
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।


यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

महिला दिवस का क्षेपक

यह घटना मेरे कस्बे में आठ मार्च को घटी। आठ मार्च याने अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस।

इन दिनों यहाँ नौंवीं और ग्यारहवीं कक्षाओं की परीक्षाएँ चल रही हैं। ये परीक्षाएँ स्थानीय स्तर पर हो रही हैं, बोर्ड स्तर पर नहीं। जैसा कि चलन हो गया है, नकल करने (और अध्यापकों द्वारा नकल कराने) का काम धड़ल्ले से चलता है। इसकी रोकथाम के लिए जाँच मण्डलियाँ घूम-घूम कर छापामारी करती रहती हैं। इसी क्रम में एक जाँच मण्डली ने, एक शासकीय कन्या उच्चतर माध्यमिक विद्यालय पर छापा मारा। वहाँ परीक्षा प्रारम्भ हुए दस-पाँच मिनिट ही हुए थे। एक-एक कमरे का चक्कर लगाने के बाद मण्डली के सदस्यों को सुखद आश्चर्य हुआ कि लगभग सवा दो सौ (नवमीं कक्षा की लगभग 150 और ग्यारहवीं कक्षा की लगभग 70) लड़कियों में से एक भी लड़की नकल नहीं कर रही थी।

किन्तु जाँच मण्डली की यह खुशी कुछ पल भी नहीं ठहर पाई। अचानक एक लड़की कसमसाई तो मण्डली के एक अनुभवी सदस्य को सन्देह हुआ। उसने लड़की को टोका और उसकी तलाशी ली। लड़की की जेबों में से अधिक नहीं, कोई पाँच-सात पर्चियाँ बरामद हुईं। बस! फिर क्या था? एक के बाद एक, सब लड़कियों की तलाशी ली गई तो सब हक्के-बक्के रह गए और सबके छक्के छूट गए। लगभग प्रत्येक लड़की के पास से, नकल करने के लिए तैयार की गई एक से अधिक पर्चियाँ बरामद हुईं। सब पर्चियों को एकत्र किया गया गया तो विद्यालय के कार्यालय की, कचरे की दो टोकरियाँ (डस्ट बिन) लबालब भर गईं।

प्रकरण तो खैर एक भी लड़की का नहीं बना क्योंकि नकल करते हुए कोई नहीं पकड़ी गई थी किन्तु जाँच दल के सदस्य हतप्रभ थे। घटना का विवरण सुनाते हुए उनमें से एक ने मुझसे कहा - ‘नकल करने के मामले में लड़कों को दुस्साहस की सीमा छू जाते देखना तो अब हमारी आदत में आ गया है। किन्तु लड़कियाँ ऐसा साहस प्रायः नहीं करतीं। लेकिन यहाँ? बाप रे! इन्होंने तो लड़कों को एक मुश्त, थोक के भाव, पीछे छोड़ दिया। यहाँ तो सबकी सब साहसी निकलीं।’

यह समाचार अलगे दिन अखबारों में तीन कॉलम शीर्षक सहित प्रकाशित हुआ। मुझे अपना जमाना याद आ गया। तब यदि कोई लड़का नकल करते पकड़ा जाता तो उसके माँ-बाप लज्जा के मारे, दो-तीन दिनों तक सहज नहीं हो पाते थे और लड़के की दुर्गत हो जाती थी। किसी लड़की के नकल करने की बात तो तब कल्पनातीत ही होती थी। आज मैं सोच रहा हूँ कि अखबारों में यह खबर पढ़कर कितने पालकों को शर्म आई होगी और कितनों ने अपनी लड़कियों को टोका होगा।

मेरी चिन्ता सुन कर मेरी उत्तमार्द्ध ने अपने सम्पूर्ण आत्म विश्वास से कहा - ‘माँ-बाप पूछते और उन्हें शर्म तब आती जब उन्होंने अखबार पढ़ा होगा। मँहगाई के इस जमाने में अखबार खरीद पाना उनके बस की बात नहीं। और रही पढ़ने की बात! तो उन बेचारों को दो जून की रोटी और अपनी बेटी की फीस की जुगाड़ से फुर्सत मिले तो अखबार पढ़ें। और योग-संयोग से यदि किसी ने पढ़ भी लिया होगा तो यही कहा होगा कि उनकी बेटी ने कौन सा अनोखा काम कर दिया? सारा जमाना यही तो कर रहा है?’

मैं निरुत्तर हो गया।

यह सब मेरे कस्बे में हुआ और ऐन अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस पर हुआ।
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हिन्दी का आश्वस्ति पुरुष

भगवान भला करे, कर सलाहकार इन्दरमलजी जैन वकील साहब का जो उन्होंने मुझे आयोजन का निमन्त्रण-पत्र दे दिया और मुझे अनामन्त्रित श्रोता होने से बचा लिया। यह निमन्त्रण-पत्र नहीं मिलता तो भी मैं उस आयोजन में जाता ही। आयोजन था - रतलाम चार्टर्ड अकाउण्टण्ट्स सोसायटी और कर सलाहकार परिषद् रतलाम द्वारा, केन्द्रीय बजट 2010 के प्रस्तावों पर परिचर्चा। बजट के प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रभाव मुझ पर भी वे ही और उतने ही होते हैं जो एक सामान्य मध्यमवर्गीय व्यक्ति पर होते हैं। किन्तु ऐसी परिचर्चाओं का लाभ मुझे मेरे बीमा व्यवसाय में मिलता है। ऐसी परिचर्चाओं में मिलनेवाली, विशेषज्ञता वाली महत्वपूर्ण सूचनाएँ मेरे भावी और वर्तमान पालिसीधारकों के बीच मुझे समझदार और प्रभावी बनाती हैं।


सूचनाएँ तो इस बार भी मुझे बहुत सारी मिलीं किन्तु इस बार मुझे, हिन्दी के सन्दर्भ में बोनस भी मिला। यह बोनस था - इन्दौर के युवा कर सलाहकार श्री मनीष डफरिया को सुनने का रोमांचक और आश्वस्तिदायक अनुभव।



मनीष अभी चालीस पार भी नहीं हुए होंगे। उनकी जड़ें रतलाम में ही हैं। उनका जन्म रतलाम में ही हुआ। उनके बारे में न तो पहले कुछ सुना और न ही उन्हें देखा। बस, दैनिक भास्कर में उनकी कुछ टिप्पणियाँ अवश्य पढ़ी थीं। किन्तु मुझ जैसा कुटिल व्यक्ति, ऐसी टिप्पणियों से आसनी से प्रभावित नहीं होता। सो, मैने मनीष का नोटिस कभी नहीं लिया। किन्तु सात मार्च को उनका व्याख्यान सुनने के बाद उनकी अनदेखी कर पाना न तो उस समय सम्भव हो पाया और न ही आगे हो सकेगा।



स्थिति यह रही कि कार्यक्रम समाप्ति के बाद मनीष से मिलने के लिए मैं देर तक रुका रहा और उनके उद्बोधन के लिए उन्हें विशेष रूप से बधाइयाँ दीं।



अपने उद्बोधन के पहले ही वाक्य से मनीष ने मेरा ध्यानाकर्षित किया। मुझे उम्मीद थी कि अपनी बात कहने के लिए वे अंग्रेजी का ही सहारा लेंगे जिसे समझने के लिए मुझे अतिरिक्त रूप से सतर्क/सावधान रहना पड़ेगा और अतिरिक्त परिश्रम भी करना पड़ेगा। किन्तु मनीष ने सुखद रूप से मुझे नाउम्मीद किया। वे हिन्दी में ही न केवल शुरु हुए अपितु आज के दौर के युवाओं की अपेक्षा बहुत ही सुन्दर और लगभग निर्दोष हिन्दी में बोले। किन्तु इसका मतलब यह नहीं कि उन्होंने अंग्रेजी से परहेज किया। वे अंग्रेजी में भी बोले और पूरी सहजता और धड़ल्ले से बोले। कोई पचहत्तर मिनिट का उनका व्याख्यान सचमुच में धाराप्रवाह था। वे या तो साँस लेने के लिए रुके या पानी पीने के लिए या फिर बिजली चले जाने के कारण। किन्तु केवल धराप्रवहता ही उनके व्याख्यान की विशेषता नहीं थी। स्पष्ट उच्चारण, धीर-गम्भीर स्वर, शब्दाघात का उन्होंने सुन्दर उपयोग किया। उन्हें शायद भली प्रकार पता था कि उनका विषय भाषा के सन्दर्भ में नीरस और ‘निर्जीव तकनीकी’ है। सो, रोचक उदाहरणों से उन्होंने इन दोनों दोषों को सफलतापूर्वक दूर किया। यही कारण था कि सवा घण्टे के उनके भाषण में लोगों को झपकी लेने का एक भी क्षण नहीं मिल पाया। उन्होंने श्रोताओं को भरपूर गुदगुदाया और लोगों की मुक्त कण्ठ वाहवाही लूटी। उनकी सफलता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि वे सहायक वक्ता थे किन्तु प्रमुख वक्ता के रूप में पहचाने और स्वीकार किए गए। किन्तु जिस बात ने मुझे सर्वाधिक प्रभावित किया वह थी - उनका व्याख्यान, अधिकार भाव और आत्म विश्वास से लबालब था। ये दोनों तत्व उन्हीं व्यक्तियों के व्याख्यानों में आ पाते हैं जिन्हें अपने विषय की केवल विशेषताएँ ही नहीं, कमियाँ और दोष भी मालूम हों। विषय मनीष पर क्षण भर भी हावी नहीं हो पाया। उल्टे, पूरे पचहत्तर मिनिट तक वे विषय को, एक कुशल नट की तरह, मन माफिक अन्दाज में अंगुलियों पर नचाते रहे।
बजट जैसे, तकनीकी शब्दावली वाले विषय पर निर्दोष हिन्दी में ऐसे अधिकार भाव और आत्म विश्वास से धाराप्रवाह बोलते हुए मैंने अब तक किसी को नहीं देखा। सो, मनीष डफरिया तो मेरे लिए ‘हिन्दी के आश्वस्ति पुरुष’ बन कर सामने आए। यही मेरे लिए बोनस रहा। हिन्दी की वर्तमान दुर्दशा को लेकर मेरे मन में जो निराशा, क्षोभ और आक्रामक-आवेश उपजता रहता है, मनीष के इस व्याख्यान से इस सबमें थोड़ी देर के लिए ही सही किन्तु भरपूर कमी मैने अपने आप में अनुभव की।



मुझे बाद में मालूम हुआ कि मनीष को ऐसे व्याख्यान देने का यथेष्ठ अभ्यास है और उनके श्रोताओं की संख्या प्रायः की ढाई-तीन सौ तो होती ही है। वे इन्दौर स्थित, आई आई एम में, आयकर विषय के प्राध्यापक भी हैं।



मनीष की सफलता और शिखरों पर उनकी कीर्ति पताका का लहराना सुनिश्चित और असंदिग्ध है। उम्मीद करें कि वे हिन्दी का हाथ और साथ कभी नहीं छोड़ेंगे अपितु हिन्दी को तथा हिन्दी के माध्यम से खुद को विशिष्ट रूप से स्थापित कर वैसी ही अपनी पहचान भी बनाएँगे।



मनीष! अच्छी हिन्दी आपकी और आप हिन्दी की पहचान बनें। यह आज की आवश्यकता है।



शुभ-कामनाएँ।
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मूर्तिभंजक शिल्पकारों का देश

देश के एक सौ सर्वाधिक विश्वसनीय लोगों की सूची बनाने के लिए, ‘रीडर्स डाइजेस्ट’ द्वारा कराए गए सर्वेक्षण के परिणामों वाला समाचार मैंने ध्यान से, एकाधिक बार पढ़ा। पढ़कर मुझे खुशी कम और हैरानी तथा चिन्ता अधिक हुई।


इस सूची के प्रथम दस व्यक्तियों में एक भी राजनीतिक व्यक्ति शामिल नहीं है। प्रथम दस में वैज्ञानिकों, उद्यमियों, कलाकारों, खिलाड़ियों को स्थान मिला है जबकि राजनीतिक व्यक्तियों को, सूची के अन्तिम दस में स्थान मिला है। मायावती ने, अन्तिम से प्रथम अर्थात् सौवें स्थान पर कब्जा किया। प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह को अवश्य ही सातवाँ स्थान मिला है किन्तु उन्हें ‘राजनीतिक’ मान लेना मेरे लिए सम्भव नहीं हो पा रहा है। मेरे कस्बे में आनेवाले किसी भी अखबार ने ग्यारहवें से लेकर नब्बेवें स्थान तक की सूची नहीं छापी है इसलिए नहीं पता कि इन अस्सी स्थानों पर कौन-कौन विराजमान हुए।


व्यावसायिक वर्गों की सूची में शिक्षकों को पहला, अग्नि शमन सेवाओं को दूसरा, किसानों को तीसरा, वैज्ञानिकों और सशस्त्र बलों को संयुक्त रूप से चैथा स्थान मिला है। चिकित्सकों, विमानचालकों और शल्य चिकित्सकों को इनके बाद स्थान मिला है।
‘रीडर्स डाइजेस्ट’ ने साफ-साफ कहा कि सर्वेक्षण के ये परिणाम पूरी तरह से वैज्ञानिक नहीं हैं किन्तु इसके बावजूद, ये जनमानस को प्रतिबिम्बित तो करते ही हैं।


इस सूची पर मैंने जितने भी मिलनेवालों से चर्चा की, राजनीतिक लोगों को खारिज किए जाने पर प्रत्येक ने, चहकते हुए प्रसन्नता ही व्यक्त की। साफ था कि यदि उन्हें भी सर्वेक्षण में शामिल होने का मौका मिलता तो वे भी नेताओं को अन्तिम स्थान ही देते।


मैं हैरान हूँ। चिन्तित भी। मैं अपने राजनेताओं को प्रथम दस में देखना चाहता हूँ। हमने संसदीय लोकतन्त्र अपनाया है जिसके संचालन और क्रियान्वयन का एक मात्र माध्यम है - राजनीति। यह त्रासद विडम्बना ही है कि आज राजनीति सबसे गन्दी चीज और राजनेता सबसे घटिया, सर्वथा अविश्वसनीय साबित किए जा चुके हैं। हमारे नेताओं को हमने ही तो ‘नेता’ बनाया हुआ है! हम ही इन्हें चुन कर भेजते हैं। जैसे हम हैं, वैसे ही हमारे नेता हैं। यदि ‘नेता’ हमारे समाज का सबसे घटिया और हेय कारक बन कर रह गया है तो यह तो हमारी ही विफलता नहीं है? हम अपने आप को ही नहीं लतिया रहे हैं? हम कैसे लोग हैं कि अपनी ही बनाई हुई मूर्तियों को अपूजनीय घोषित कर, उन्हें तोड़ कर खुश हो रहे हैं? हम ही तो वह कच्चा माल हैं जिससे नेता नामवाला ‘फिनिश्ड प्रॉडक्ट’ ‘लोक फैक्ट्री’ से बाहर आ रहा है। अपनी ही बनाई मूर्तियों को तोड़कर खुश होनेवाले हम लोग कब विचार करेंगे कि अपनी घटिया गुणवत्ता के लिए खुद मूर्ति कभी दोषी नहीं होती। कहा गया है कि मूर्ति इसलिए पूजनीय नहीं होती क्योंकि उसमें देवता वास करते हैं। वह तो इसलिए पूजनीय होती है क्योंकि वह हथौड़े-छेनियों के असंख्य प्रहार सहती है। हम मूर्तियाँ तो बनाते हैं किन्तु तराशने का परिश्रम करने से बचते हैं। भाटे (पत्थर) पर सिन्दूर पोत कर उसे देवता बना कर छोड़ देते हैं और जब यह देवता हमारी मनोकामनाएँ पूरी नहीं करता तो हम देवता को ही खारिज कर देते हैं।


मेरी सुनिश्चित धारणा है कि यदि ‘लोक’ अपनी भूमिका नहीं निभाएगा तो ‘तन्त्र’ हावी होकर ‘लोकतन्त्र’ को ‘तन्त्रलोक’ में बदल देगा। दिन-प्रति-दिन, आईएएस अफसरों के बिस्तरों, पेटियों से बरामद हो रहे करोड़ों रुपये यही साबित भी कर रहे हैं।


सो, नेताओं को सर्वाधिक अविश्वसनीय साबित कर, खुश होने के बजाय हमें अपनी गरेबाँ में झाँकना पड़ेगा और नेताओं को चुनने के बाद उन्हें नियन्त्रित करने की जिम्मेदारी भी निभानी पड़ेगी। हमारी, स्वार्थपरक चुप्पी के चलते प्रत्येक नेता यह मानने लगता है कि वह जो कर रहा है, कह रहा है वही उचित है क्योंकि उसकी किसी भी कारस्तानी पर लोग तो प्रतिवाद करते ही नहीं। मेरा सुनिश्चित मानना है कि हममें से प्रत्‍येक को ‘राजनीतिक’ होना चाहिए और होना पडेगा। ध्‍यान देनेवाली बात है कि मैं ‘राजनीतिक’ होने की बात कर रहा हूँ, ‘राजनीतिज्ञ’ होने की नहीं। आज हम राजनीति को सडांध मार रही गन्‍दी नाली मान कर, अव्‍वल तो उसके पास से गुजरने में ही परहेज करते हैं और यदि गुजरना पडता है तो नाक पर रूमाल रख कर, उससे ऑंख बचाकर निकल जाते हैं। अपने इस व्‍यवहार पर हमें अविलम्‍ब ही पुनर्विचार करने की आवश्‍यकता है।

मुझे इस बात की तो खुशी है कि विश्वसनीय व्यावसायकि वर्गों की सूची में शिक्षकों को पहला स्थान मिला किन्तु इससे अधिक चिन्ता इस बात पर हुई कि न्यायपालिका और पत्रकारिता को इस वर्ग-सूची में कहीं स्थान नहीं मिला। मैं बीमा एजेण्ट हूँ और प्रतिदिन अनेक लोगों से मिलता हूँ। मैंने अनुभव किया है कि तमाम स्खलनों के बाद भी लोगों को आज तीन संस्थानों में सर्वाधिक विश्वास और सर्वाधिक अपेक्षा है। ये हैं शिक्षक, न्यायपालिका और पत्रकारिता। किन्तु इस सूची में अन्तिम दो कहीं नहीं हैं।


तो क्या हमारे लोकतन्त्र के चारों स्तम्भ रसातल में धँस गए हैं? विधायिका (राजनेता) का नम्बर अन्तिम दस में आता है, कार्यपालिका (अधिकारी/कर्मचारी) के करिश्मों से अखबार पटे पड़े हैं। न्यायपालिका और पत्रकारिता को सर्वाधिक विश्वसनीयता की इस सूची में स्थान ही नहीं मिला।


क्या अब भी हम हाथ पर हाथ धरे, चुप ही बैठे रहेंगे? हम किस अवतार की, कौन से चमत्कार की प्रतीक्षा कर रहे हैं?
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वे बताएँगे और मनवाएँगे हमारे त्यौहार

क्या धुलेण्डी और क्या रंग पंचमी! दोनों ही इस बार लगभग बेरंगी निकलीं। कोई दूसरा त्यौहार होता तो इतना नहीं खटकता किन्तु होली ही तो वह इकलौता त्यौहार है हमारा जिसमें सब एक रंग हो जाते हैं। बाकी सारे त्यौहार तो कहीं न कहीं सीमा रेखा खींचे रखते हैं। होली ही तो वह त्यौहार है जो सबको निर्बन्ध, उन्मुक्त होने का और मुक्त कण्ठ से ‘होली है’ चिल्लाने का अवसर समान रूप से उपलब्ध कराता है। त्यौहारों और उत्सवों की भीड़ में यही तो एकमात्र समाजवादी त्यौहार है! किन्तु इस बार इसके रंगों की शोखी में और लोगों के उत्साह में एकदम कमी अनुभव हुई।


धुलेण्डी को सवेरे अचानक ही तबीयत गड़बड़ हो गई। रक्त चाप अचानक ही बढ़ गया। इतना कि बिस्तर पकड़ना पड़ा। दीपावली की तरह होली भी हमारी कॉलोनी में सामूहिक रूप से मनती है। पूरी कॉलोनी के पुरुष पूरी कॉलोनी में घर-घर जाकर होली खेलते हैं और मुँह मीठा करते हैं। प्रत्येक गली में, मकानों के सामने मिठाइयों और नमकीन पकवानों की टेबलें सज जाती हैं।


टेबलें तो इस बार भी उतनी ही सजीं लेकिन आने वालों की संख्या लगभग एक तिहाई रह गई। उन्हीं में से कुछ कृपालुओं ने अन्दर आकर मुझे रंग लगाया। मुझे लगता रहा, बाहर सब कुछ परम्परानुसार ही चल रहा होगा। किन्तु कोई पाँच-सात मिनिट में ही बड़ा बेटा वल्कल और मेरी उत्तमार्द्ध अन्दर आ गए। मैंने टोका - ‘दोनों अन्दर आ गए हो, बाहर, घर के सामने अपनी ओर से कौन खड़ा है?’ वल्कल ने कहा - ‘सब निपट गया पापा।’ मैंने अविश्वास से पूछा - ‘इतनी जल्दी? ऐसे कैसे?’ वल्कल ने जवाब दिया - ‘इस बार तो लोग आए ही नहीं।’ इस कॉलोनी में यह मेरी छठवीं होली थी। इससे पहलेवाले पाँच सालों में, हर बार हम लोगों को, आनेवालों का स्वागत करने में बीस-पचीस मिनिट लगते थे । उसके बाद भी लगता था कि कई लोग छूट गए हैं। किन्तु इस बार यह क्या हुआ? मुझे लगा कि मेरी तबीयत तो यह समाचार सुनने के बाद खराब होनी चाहिए थी।


लगभग पूरा दिन सोता रहा। किन्तु जब-जब भी आँख खुली, गली में आने-जानेवालों की हलचल ध्यान से सुनने की कोशिश करता रहा। मुझे निराशा मिली। मेरी गली के बच्चों के अलावा, हुड़दंगियों की एक भी टोली नहीं निकली। उधर टेलीविजन पर होली के सिवाय कुछ भी नहीं था। प्रत्येक चैनल पर होली के रंग, होली की बहार और होली की मस्ती छाई हुई थी। चैनलें तो सारे देश में होली की मौजूदगी की खबर दे रही थीं जबकि मेरी गली में सन्नाटा था।


रंग पंचमी तो इससे भी अधिक फीकी निकली। दिन भर घर में ही था। प्रतीक्षा करता रहा कि कोई न कोई तो रंग लगाने आएगा ही। लेकिन कोई नहीं आया। घबरा कर दो-एक बार गली में, इस छोर से उस छोर तक देखा - एक भी ऐसा संकेत या हलचल नहीं जो रंग पंचमी होने का अहसास कराए।


होली पर दोनों बेटे घर आए जरूर किन्तु मानो खानापूर्ति करने। वल्कल एक बहुराष्ट्रीय कम्प्यूटर कम्पनी में काम करता है। वह शनिवार की रात आठ बजे पहुँचा। आया बाद में, जाने की तैयारी पहले करने लगा। उसे धुलेण्डी के दिन ही लौटना था। सो, कौन सी ट्रेन, कितने बजे जाएगी, बार-बार यही चिन्ता करता रहा। इतना ही नहीं, नौकरी का काम भी लेकर आया जिसे शनिवार और रविवार की रातों में देर तक लेप टॉप पर निपटाता रहा।


छोटा बेटा रविवार रात कोई दस बजे पहुँचा। वह इंजीनीयरिंग के तीसरे साल (छठवें सेमेस्टर) में है। कोचिंग क्लास और डांस क्लास की एक प्रतियोगिता के कारण वह जल्दी नहीं आ पाया। वह आया तब तक मोहल्ले की होली जल चुकी थी। वह लस्त-पस्त हालत में आया था। आते ही जो सोया तो धुलेण्डी की दोपहर में उठा। तब तक सामूहिक होली मिलन की खानापूर्ति हो चुकी थी और गली में सन्नाटा छा चुका था। वल्कल तो चूँकि सामूहिक होली मिलन में घर का प्रतिनिधित्व कर रहा था सो उसे तो रंग लगा। किन्तु तथागत पर तो रंग का एक छींटा भी नहीं पड़ा।


घर में आनन्द तो छाया हुआ था किन्तु होली का नहीं, दोनों बेटों के आने का। मुझे लगा (और अभी भी लग रहा है) कि सब कुछ बदल रहा है। आनेवाले दिनों में, त्यौहारों पर बच्चे आएँ या न आएँ किन्तु बच्चों का घर आना ही त्यौहार होगा।


धुलेण्डी को मोबाइल दिन भर ‘बीप-बीप’ करता रहा। धड़ाधड़ एसएमएस आए जा रहे थे। एसएमएस के शुभ कामना सन्देश मुझे नहीं रुचते। फिर भी, भेजनेवाले का नाम जानने की उत्सुकता के अधीन एसएमएस पढ़ता रहा। सन्देशों की भीड़ में एक सन्देश ऐसा मिला जिसमें होली की बधाई के स्थान पर नसीहत दी गई और आग्रह किया गया था कि इस नसीहत को अधिकतम लोगों तक पहुँचाऊँ। नसीहत इस प्रकार थी - ‘कृपया होली, रंग पंचमी पर रंग खेलने से बचें और दूसरों को भी निरुत्साहित करें। अपना एक और अमूल्य दिन व्यर्थ न जाने दें। कामकाजी (प्रोडक्टिव) बनें। समय, ऊर्जा और पानी नष्ट न करें। कृपया इस सन्देश को अधिकाधिक लोगों को फारवर्ड भी करें।’


बदलाव की बयार चल पड़ी है। त्यौहार खानापूर्ति बन कर रह जानेवाले हैं। टेलीविजन की चैनलें और रेडियो के कार्यक्रम ही हमें त्यौहारों की सूचना देंगे और वे ही हमारे त्यौहार मनवाएँगे भी।
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