दादाजी का व्यवहार और मेरा भय

‘हाँ भई! हाँ, मुझे तो इस घर में होना ही नहीं चाहिए।’ अड़सठ वर्षीय दादाजी क्षुब्ध, कुपित और आक्रोशित होकर अपने, दस वर्षीय पोते पर कटाक्ष कर रहे थे-घर के बाहर, ऐन सड़क पर आकर। इतनी जोर से कि आसपासवाले और आने-जानेवाले, न चाहकर भी सुन लें। ऐसा ही हुआ भी। सुनकर कुछ ने चैंककर देखा और अगले ही क्षण अनदेखा-अनसुना कर अपने-अपने काम में लग गए। मैं वहाँ पहुँचा ही था। सो, सुना तो मैंने भी। मैने भी कुछ नहीं कहा। पोते की तरफ देखा। वह कुछ भी समझ नहीं पा रहा था। समझता भी कैसे? उसकी उम्र तो अभी ‘अभिधा’ समझने की भी नहीं थी और दादाजी ‘व्यञ्जना’ में कहे जा रहे थे! सकपकाया हुआ पोता कुछ क्षण दरवाजे पर खड़ा रहा, फिर अन्दर चला गया।


दादाजी से मेरा परिचय कोई बीस वर्षों से है। घनिष्ठता और अनौपचारिक सहजता की सीढ़ियाँ चढ़ता हुआ यह परिचय आज घरोपा बन गया है। मैं उनके रसोईघर तक आता-जाता हूँ, खाने की कोई मनपसन्द चीज हो तो उठा लेता हूँ और बाज वक्त उनकी बहू से फरमाइशकर अपनी मनपसन्द चीज बनवा भी लेता हूँ। वास्तविकता तो भगवान ही जाने किन्तु मुझे लगता है कि मेरी ऐसी हरकतों से दादाजी ही नहीं, पूरा परिवार प्रसन्न होता है।


गुस्से के मामले में दादाजी अपने ‘पिता के आज्ञाकारी सुपुत्र’ हैं। उन्हें कब, किस बात पर गुस्सा आ जाएगा, वे खुद नहीं जानते। किन्तु जब तक उनकी पत्नी जीवित थीं तब तक वे फिर भी स्वयम् को नियन्त्रित कर लेते थे। कोई साढ़े चार-पाँच वर्ष पूर्व उनकी पत्‍नी की मृत्यु के बाद से उनके व्यवहार में अनपेक्षित परिवर्तन आ गया है जिसके चलते गुस्सा करना उनका मूल, प्राथमिक, अन्तिम तथा एक मात्र काम हो गया है। घर से बाहर वे पहले भी लोकप्रिय थे और आज भी हैं। किन्तु बाहरवालों के साथ किए जाने वाला उनका व्यवहार घर में तो पल भर भी नजर नहीं आता। यूँ तो हम सब दोहरी जिन्दगी ही जीते हैं - घर में कुछ और तथा बाहर कुछ और। किन्तु इतना अन्तर तो मैंने अब तक किसी के व्यवहार में नहीं देखा जैसा कि दादाजी के व्यवहार में है। घर में तो अब उनका ‘तामस स्वरूप’ ही स्थायी भाव बन गया है। इकलौता बेटा, उसकी पत्नी, एक पोती और एक पोता - सब चौबीसों घण्टों दहशत में ही रहते हैं। ये चारों कुछ भी करें, दादाजी सदैव कुपित, आक्रोशित ही रहते हैं। बेटा-बहू पूछते हैं - ‘आज खाने में क्या बनाएँ?’ दादाजी कहते हैं -‘जो तुम्हें जँचे, बनालो। मैं सब खाता हूँ।’ लेकिन जब थाली सामने आती है तो आँखें तरेरते हुए, सब्जी में से आलू निकाल कर एक तरफ कर देते हैं। इससे सबक लेकर अगले दिन बहू, भरवाँ शिमला मिर्च परोसने से पहले उसमें से आलू निकालने लगती है तो दादाजी कहते हैं -‘क्यों निकाल रही हो? मुझे आलू से परहेज थोड़े ही है।’ सवेरे बहू पूछती है -‘नाश्ते में क्या लेंगे? उपमा या पोहा?’ दादाजी कहते हैं -‘जो जँचे, बना लो। मैं सब खाता हूँ।’ बहू जब प्लेट में उमपा रखती है तो खिन्न हो, दादाजी कहते हैं -‘उपमा बना लिया? चलो, खा लेता हूँ। वैसे, पोहा बनाती तो अच्छा होता।’


‘थ्री इडियट्स’ लगी। पहले ही सप्ताह में बच्चों ने देखने का कार्यक्रम बनाया। चारों ने दादाजी से आग्रह किया। दादाजी ने तत्क्षण, दो-टूक मना कर दिया - ‘तुम लोग जाओ। सेकण्ड (नाइट) शो मुझे सूट नहीं करता। यह मेरे सोने का समय होता है।’ बहू ने कहा - ‘तो वहीं सो जाइएगा।’ दादाजी तैयार नहीं हुए। चारों ने सिनेमा हॉल में अपनी कुर्सियाँ सम्हाली ही थीं कि दादाजी ने बेटे को मोबाइल घनघनाया - ‘मेरे लिए टिकिट की व्यवस्था करो। मैं भी फिल्म देखने आ रहा हूँ।’ एडवांस बुकिंग वाले पहले सप्ताह में, करण्ट बुकिंग में एक टिकिट मिलना सम्भव ही नहीं था। बेटे ने कहा -‘टिकिट तो नहीं मिलेगा लेकिन आप तैयार रहिए। मैं आता हूँ। मेरे टिकिट पर आप फिल्म देख लीजिएगा। मैं घर पर रह लूँगा।’ दादाजी बिदक गए। फौरन बोले -‘मत आ। वहीं रह। तू मेरे साथ फिल्म नहीं देखना चाहता इसलिए बहाने बना रहा है।’ कल्पना की जा सकती है कि बेटे ने फिल्म कैसे देखी होगी और उसे कितना आनन्द आया होगा।


शाम को पोता पूछता है - ‘दादाजी! मैं खेलने जाऊँ?’ रूखेपन से दादाजी का जवाब होता है -‘मुझसे क्या पूछता है? जो तेरे जी में आए, कर।’ पोता किलकारी मारकर बच्चों के झुण्ड में शरीक हो जाता है। पाँच मिनिट भी नहीं बीतते कि दादाजी की टेर पूरे मुहल्ले में गूँजने लगती है - ‘क्यों रे! कहाँ चला गया तू? यह खेलने का वक्त है या पढ़ने का?’


छुट्टी के दिन, सवेरे-सवेरे पोती ने टेलिफोन की तरह हाथ बढ़ाया ही था कि दादाजी ने टोका -‘किसे फोन कर रही हो?’ सहमी हुई पोती ने घुटी-घुटी आवाज में कहा - ‘मेरी फ्रेण्ड का बर्थ डे है। उसे विश कर रही हूँ।’ ‘तो इसमें इतना डरने की क्या बात है? करो! करो! बर्थ डे पर ग्रीट करना तो बहुत अच्छी बात है।’ दादाजी ने कहा। उत्साहित हो, पोती ने फ्रेण्ड को फोन लगाया, विश किया और ‘कल मिलते हैं। तभी बात करेंगे।’ कह कर फोन रख दिया। दादाजी फौरन बोले -‘जब कल मिलना ही है और कल बात करनी ही है तो आज फोन करने की क्या जरूरत थी? फालतू में पैसा और वक्त बरबाद किया। ये फोन-वोन करने की आदत बदलो और पढ़ाई पर ध्यान दो।’


दादाजी यूँ तो रेल्वे में हेड क्लर्क थे किन्तु पढ़ाने का काम बहुत अच्छा कर सकते हैं। जिस भी घर में मिलने जाते हैं, वहाँ बच्चों को पढ़ाई में मदद करते हैं। किन्तु घर में ऐसा नहीं करते। बेटे ने जब-जब भी पोते को पढ़ाने का कहा तो हर बार जवाब मिला -‘मुझसे नहीं होता यह सब। अपने बच्चों की पढ़ाई की चिन्ता और व्यवस्था खुद करो।’ किन्तु अभी-अभी, जब परीक्षा शुरु हुई तो पोते को घेर कर बैठने लगे। उसकी कॉपियाँ देख-देख कर उसकी अध्यापिकाओं को कोसते हैं, उनकी आलोचना करते हैं और उनसे पूछे जाने वाले सवाल अपने पोते से करते हैं। अब दादाजी चाहते हैं कि उनका पोता लगातार छः-छः घण्टे उनके पास बैठकर पढ़े। इतनी देर, लगातार बैठ पाना और पढ़ते रहना पोते के लिए सम्भव नहीं होता। सो, वह ऊँचा-नीचा होने लगता है। उसकी ऐसी किसी भी हरकत पर दादाजी उसे प्रताड़ित करते हैं। उस दिन भी यही हुआ था। परेशान होकर पोते न कह दिया -‘क्या दादाजी! आप तो बहुत परेशान करते हैं।’ उसी के जवाब में, घर से बाहर, सड़क पर आकर दादाजी ने जोर से कहा था-‘हाँ भई! हाँ, मुझे तो इस घर में होना ही नहीं चाहिए।’


दादाजी का यह व्यवहार मुझे भयभीत कर रहा है। जो कुछ मैंने लिखा है, वह सब मेरे सामने ही हुआ है। उनके बेटे-बहू और पोती-पोते की दशा देखी नहीं जाती। किन्तु मैं उनकी कोई मदद भी नहीं कर पाता। दो-तीन बार दादाजी को टोका तो हर बार मासूमियत से प्रति प्रश्न किया -‘क्या कर रहा हूँ मैं? मैं तो कुछ भी नहीं करता। जो ये देते हैं, खा लेता हूँ। जैसा कहते हैं, वैसा कर लेता हूँ। मैं तो कभी कोई फरमाइश भी नहीं करता। ये जैसा रख रहे हैं, वैसा रह रहा हूँ। मैं तो किसी से कुछ नहीं कहता।’


मैं जब-जब उनसे मिल कर लौटता हूँ, अपने आप से डरने लगता हूँ। वे अड़सठ के हैं, मैं तरेसठ का। मैं उनके पीछे-पीछे ही चल रहा हूँ। कल को मैं भी दादाजी बनूँगा। क्या मैं भी ऐसा ही हो जाऊँगा? क्या मेरे कारण भी मेरे बेटे-बहू, पोते-पोती इसी तरह त्रस्त, चौबीसों घण्टे भयभीत, सहमे-सहमे रहेंगे? यह एक व्यक्ति विशेष का प्रकरण है या सामान्य मानव मनोविज्ञान का? क्या सब ऐसे ही हो जाते हैं?


दादाजी के इस व्यवहार का सीधा प्रभाव इस समय तो मुझ पर यह हुआ है कि घर में मेरा बोलना एकदम कम हो गया है। दो-दो, तीन-तीन घण्टे मैं बिना बोले रहने लगा हूँ। कहीं यह भी घरवालों पर अत्याचार तो नहीं?


जीवन के इस मोड़ पर स्वयम् के प्रति इतना अविश्वस्त, इतना भयभीत रहना मुझे असहज कर रहा है।
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6 comments:

  1. आपने तो संयुक्त परिवार की याद दिला दी!अब दादा जी जैसे. करेक्टर कहाँ होते है?

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  2. आपने बहुत ही सामयिक प्रश्‍न उठाया है। ऐसी स्थिति देखकर वाकयी हम मौन हो जाते हैं अपना भविष्‍य देखकर। मेरे साथ भी ऐसा ही हो रहा है, मैं भी समझ नहीं पा रही हूँ कि क्‍या करूं? नयी पीढ़ी के लिए प्रतिदिन परिवारों में जंग देखती हूँ, नयी बहुएं अपनी सत्ता स्‍थापित करने में लगी हैं। मेरी भी बहु आ गयी है और मैं दूसरों के कारण स्‍वयं को मौन पा रही हूँ। मुझे लगता है कि कुछ तो अस्‍वाभाविक है, मेरा व्‍यवहार। क्‍योंकि दुनिया को देखकर मुझे डर लगने लगा है। कहने का अर्थ यह है कि दुनिया को देखकर हम अस्‍वाभाविक होते जा रहे हैं। उससे पूरा परिवार ही संवादहीनता का शिकार बन जाता है।

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  3. बहुत बढ़िया लगे दादाजी के बारे में संस्मरण ..आभार

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  4. जब दादा जी बनूँगा तो यह पोस्ट काम आएगा....
    लड्डू बोलता है ....इंजीनियर के दिल से
    http://laddoospeaks.blogspot.com

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  5. फिलहाल तो मेरे पापा दादाजी बनकर इठलाते फिरते हैं.. भैया का बेटा भी अगर किसी के पास जाता है तो सिर्फ दादाजी के पास..

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  6. दादाजी की इस दादागिरी से सदुपयोग के लिए ही पूर्वजों ने संन्यास और वानप्रस्थ का प्रावधान सोचा था.

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