कुछ न कह कर सब कुछ कह जाना

कुछ  कहूँ, उससे पहले यह वीडियो अंश देखिए। यदि पहले देख चुके हैं तो एक बार फिर देखिए, ध्यान से।
 
 
 
यह वीडियो अंश मैंने फेस बुक पर, एक ‘फेस बुक मित्र’ से साझा किया था और इसका शीर्षक दिया था - “यह कला भी है और करिश्मा भी। अद्भुत है यह।”
 
इस पर, जैसा कि फेस बुक का चलन है, कुछ लोगों ने इसे ‘लाइक’ किया तो कुछ लोगों ने टिप्पणी करने की रस्म अदायगी की।
 
किन्तु एक टिप्पणी सबसे अलग हटकर थी। यह टिप्पणी थी श्री मंसूर अलीजी हाश्मी की। ब्लॉग की दुनिया मे हाश्मीजी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। गिनती के शब्दों में, बारीकी से अपनी बात कहने की जो महारत हाश्मीजी के पास है, वह मुझे आज के हिन्दी और उर्दू जगत में (मुझे उर्दू की समझ शून्यवत है किन्तु जितनी भी है, उसी के आधार पर कहने दें कि) कोसों दूर तक नजर नहीं आई। उनकी प्रत्येक प्रस्तुति मुझे ‘बिहारी’ के ‘सतसैया के दोहरे’ याद दिला देती है। मेरा बस चले तो मैं उन्हें हिन्दी साहित्य के, श्रृंगार रस के कवियों के वर्ग में शामिल करा दूँ।
 
इस पोस्ट का आनन्द लेने के लिए अब आप, वीडियों अंश, हम दोनों की उम्र और मेरा कुलनाम ‘बैरागी’ अवश्य ध्यान में रखिएगा। मैं इस समय अपन अवस्था के  66वें वर्ष में चल रहा हूँ। उम्र के लिहाज से हाश्मीजी मुझसे कम से कम एक वर्ष छोटे हैं।
 
इन्हीं हाश्मीजी ने, उपरोक्त वीडियो अंश पर यह टिप्पणी की - 
 
“बैरागी”! देखो कैसा करिश्मा दिखा गए!!
खोटी “चवन्नियों” को भी कैसे चला गए!!
नाज़ुक कटि से काम ये कैसा करा गए!
वाह! भई कला के नाम पे “क्या-क्या” दिखा गए!!
 
हाश्मीजी की नजर के मुकाम का अनुमान लगा लेता तो भला उनमें और मुझमें फर्क ही क्या रह जाता? सो, अपनी ‘समझ और दूर-दृष्टि की निरक्षरता‘ कबूल करते हुए मैंने प्रति-टिप्पणी कर पूछा -
 
“मैं तो वही देख पाया जो इस वीडियो क्लिप में नजर आया। आपकी बात पढ़कर जानने को जी मचल रहा है कि आपकी पारखी नजरों ने ‘क्या-क्या’ देख लिया। कहते हैं, आनन्ददायक बातें बाँटने से आनन्द में गुणात्मक वृध्दि होती है। उम्मीद है, आनन्द बाँटने में आप न तो कंजूसी करेंगे और न ही देर। सारी दुनिया आपका इन्तजार, बेकरारी से कर रही है।”
 
अन्तरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त,  कैमरा कलाकार श्री नवल जायसवाल (भोपाल) ने, बरसों पहले, अपनी पारदर्शियाँ (ट्रांसपरेसियाँ) (फोटोग्राफी का वह ‘ट्रांसपरेसी युग’ था) दिखाते हुए कहा था - ‘कलाकार की सफलता वह होती है कि अनावृत्त देह प्रस्तुत नहीं करे किन्तु दर्शक खुद-ब-खुद, अनावृदेह देख ले।’ हाश्मीजी की टिप्पणी ने मुझे बरबस ही नवल भाई की वह टिप्पणी याद दिला दी। 
 
कुछ भी नहीं कहे बगैर सब कुछ कह जाना, भाषा का वह कौशल और विशेषज्ञता होती है जो या तो ईश्वर प्रदत्त होती है या फिर बरसों की कठोर-अनवरत-साधना का हासिल। हाश्मीजी की जवाबी टिप्पणी आपको निश्चय ही इसी की उत्कृष्ट मिसाल लगेगी  -
 
“खाई” जो इक तरफ थी तो “पर्वत” थे दूजी ओर,
अब क्या कहें जो आप ही करना न चाहें गौर ?
 
इस टिप्पणी का आनन्द तो अपनी जगह है ही, बात कहने का सलीका क्या होता है - यह आनन्द भी हाश्मीजी प्रदान करते हैं।

लेकिन मैं भी भाषा का आनन्‍द लेने  के अवसर का लाभ उठाने का लोभ सँवरण नहीं कर पा रहा हूँ। 'मन्‍सूर' का अर्थ हाश्‍मीजी ने बताया - जिसे जीत (विजय) सौंप दी गई हो। अब आप ही मुझ पर दया कीजिए कि मैं 'बैरागी' तो 'चवन्नियॉं' ही गिनता रह गया और 'मन्‍सूर' ने 'न जाने क्‍या-क्‍या' अपनी जीत में शामिल कर लिया।
 
भाषा की शालीनता बनाए रखते हुए अपनी बात खुल कर कह देने की, हाश्मीजी की इस महारत पर मैं तो बलिहारी।
 
सौ-सौ सलाम आपको हाश्मीजी।

(इस पोस्‍ट में प्रयुक्‍त वीडियो अंश किसी व्‍यापारिक/व्‍यावसायिक/आर्थिक लाभ के लिए प्रयुक्‍त नहीं किया गया है। यदि आपत्ति हो तो सूचित करें, इसे तत्‍क्षण ही हटा लिया जाएगा।)



दामिनी : न पहली, न अन्तिम

27 और 28 दिसम्बर के दो दिनो में, याने पूरे 48 घण्टों तक मैंने, टीवी पर कोई समाचार नहीं देखे। आवश्यकता ही अनुभव नहीं हुई। लगा ही नहीं कि मुझसे कुछ छूट रहा है या छूट गया है।
 
कल, 29 दिसम्बर की सुबह भी इसी मनःस्थिति में था। अपनी डाक पेटी खोलते-खोलते, पता नहीं कैसे, फेस बुक खुल गई। उसे बन्द कर, डाक पेटी खोलता, उससे पहले ही इन्दौरवाले अशोकजी मण्डलोई प्रकट हो गए। कह रहे थे - ‘लड़की की मौत से दुःखी हूँ।’ मैंने पूछा - ‘कौन सी लड़की?’ उन्होंने जवाब दिया - ‘वही! दिल्लीवाली। बलात्कार पीड़िता। अपनी दामिनी।’ इसके बाद कुछ भी कहना-सुनना कोई मायने नहीं रखता था।
 
मन पर उदासी तैर आई। दामिनी से जुड़ी, अस्पताल से मिलती रही सूचनाएँ पहले से ही आशंकित किए हुए थीं। प्रतिदिन ही, ईश्वर से प्रार्थना कर रहा था - आशंकाएँ सच न हों। लेकिन ईश्वर ने मेरी नहीं सुनी।
 
तनिक सामान्य होने के बाद पहली बात जो मन में आई, वह धारा के सर्वथा प्रतिकूल है। अच्छा हुआ जो वह मर गई। वर्ना हम उसे जीने नहीं देते। भले ही उसे राष्ट्र नायिका बनाए रहते, किन्तु उससे दूर ही रहते। उसका वीरोचित सम्मान करते, लेकिन अपने चौके में शायद ही बुलाते-बैठाते। जिस समाज में बलात्कारी, वीरोचित मुद्रा में इठलाता-इतराता फिरे और हमें बुरा नहीं लगे, वहाँ बलात्कृत दामिनियों का दिवंगत हो जाना ही उनके लिए श्रेष्ठ है। किसी के यहाँ डकैती हो जाए तो हम सबकी सहानुभति, डकैती झेलनेवाले के प्रति होती है। हम उसके घर जाकर, सम्वेदनाएँ जताते हैं, नुकसान की विस्तृत पूछताछ करते हैं, ढाढस बँधाते हैं, भरोसा दिलाते हैं कि वह अपने को अकेला न समझे। हम सब उसके साथ हैं। किन्तु बलात्कार के मामले में हम ऐसा नहीं करते। सबसे पहला काम करते हैं - पीड़ित परिवार से छिटकने का। पीड़ित परिवार की दशा यह हो जाती है मानो उसने अक्षम्य, जघन्य अपराध कर लिया है। वह सारी दुनिया से मुँह छिपाता है। और बलात्कृत लड़की? उसे तो पहले ही क्षण से ‘चरित्रहीन’ का स्थायी प्रमाण-पत्र दे दिया जाता है। ऐसे में, दामिनी का मर जाना मुझे उसके हित में अधिक ही लग रहा है। वैसे भी हम जीवितों की चिन्ता कहाँ करते हैं? ऐसे मामलों में, मरे हुए ही हमें अधिक सहायक और उपयोगी साबित होते हैं। सो, दामिनी का मर जाना न केवल उसके लिए अपितु हमारे लिए भी अच्छा ही हुआ।
 
कल, थोड़ी देर के लिए टीवी खोला। लगभग सारे के सारे समाचार चैनलों पर थोड़ी-थाड़ी देर के लिए रुका। कोई विशेष अन्तर नहीं लगा सिवाय इसके कि समाचार वाचकों और प्रस्तोताओं की आवाज धीमी और मुखमुद्राएँ म्लान थीं। सहज ही उत्सुकता जागी और मनोरंजन चैनलें देखीं। दामिनी का प्रभाव कहीं नहीं था। सब, अपने-अपने पूर्वघोषित कार्यक्रम प्रस्तुत कर रहे थे। समाचार और मनोरंजन चैनलों को, रात को फिर टटोला। सब कुछ वैसा ही था जो दिन भर से चल रहा था।
 
लायन्स क्लब के डिस्ट्रिक्ट गवर्नर कल, अपनी सद्भावना यात्रा के अन्तर्गत मेरे कस्बे में थे। कार्यक्रम का बुलावा मुझे भी मिला था। इन दिनों मेरी उत्तमार्द्धजी, बेटों के पास, इन्दौर गई हुई हैं। घर पर अकेला हूँ। भोजन की व्यवस्था सबसे बड़ा काम बना हुआ है। लायन्स क्लब के आयोजन में भोजन का न्यौता भी था। आयोजन स्थल और मेरे निवास की दूरी मुश्किल से डेड़ सौ कदम है। किन्तु नहीं जा पाया। मन ही नहीं हुआ।
 
जैसा कि होना ही था, आज के सारे अखबारों पर दामिनी छाई हुई है। इस मृत्यु से अनगिनत अपेक्षाएँ-आशाएँ प्रकट की गई हैं। जितनी भी सचित्र प्रतिक्रियाएँ छपी हैं - सब की सब, ‘सेलीब्रिटियों’ की ही हैं - जीवित सामान्य दामिनियों में से एक को भी जगह नहीं मिली है। सरकार को भी कोसा गया है। अच्छी बात यही नजर आई कि सबने इसे सामाजिक परिवर्तन की आवश्यकता से ही जोड़ा है।
 
मैं मूलतः आशावादी आदमी हूँ। किन्तु ‘अति आशावादी’ नहीं। आज जो कुछ अखबारों में और समाचार चैनलों में नजर आ रहा है, वह मुझे ‘अति आशावाद’ ही लग रहा है। इसमें भी जो चिन्ताजनक बात मुझे लग रही है वह है - दूसरों से आशा/अपेक्षा। कोई नहीं कह रहा कि वह खुद कुछ करेगा। हर कोई ‘चाहिए’ की भाषा प्रयुक्त कर रहा है। इसी से मुझे परेशानी हो रही है।
 
दामिनी की मृत्यु मुझे, उपदेश बघारने की नहीं, कुछ कर गुजरने का संकल्प लेने की चुनौती लगती है। मैं इस मृत्यु को ‘सम्भावना’ भी मानता हूँ - कुछ अच्छी शुरुआत होने की प्रेरणा देनेवाली सम्भावनाएँ।
 
हमने अपने आप को जिस सीनाजोरी से सरकारों के भरोसे छोड़ रखा है, उससे उबरने की प्रेरणा यह मृत्यु हमें दे सकती है। जिस तरह से दिल्ली की सड़कों पर सवाल पूछे गए हैं, उसी तरह से देश की गली-गली में सवाल पूछने की शुरुआत करने की प्रेरणा यह मौत दे सकती है। अपने नेताओं/नियन्ताओं को नियिन्त्रत करने की चेतना और हिम्मत देने की प्रेरणा यह मृत्यु दे सकती है। दूसरों के सुधरने की चिन्ता छोड़ खुद को सुधारने की प्रेरणा इससे मिल सकती है।
 
आज सुबह मेरा बड़ा बेटा वल्कल फोन पर बता रहा था कि गई रात ही उसके एक मित्र ने, एक मनचले कारवाले की पिटाई की। एक दुपहिया वाहन पर जा रही तीन लड़कियों को परेशान कर रहा वह कारवाला, निश्चय ही किसी नव-कुबेर का बिगड़ैल बेटा रहा होगा। वल्कल के मित्र ने उसे टोका तो वह ‘बिगड़ैल बेटा’ और अधिक बदतमीजी पर उतर आया। जवाब में, वल्कल के मित्र ने उसकी पिटाई कर दी। वल्कल कह रहा था कि उसके मित्र को अपने किए पर खुशी कम, आत्म सन्तोष अधिक था। किन्तु इसके समानान्तर उसने इस बात पर भी चिन्ता जताई कि माँ-बाप अपनी बेटियों को, खुद को बचाने के लिए तो ढेरों सीख देते हैं किन्तु अपने बेटों को, लड़कियों के साथ शिष्टता से पेश आने के लिए, लड़कियों का सम्मान करने के लिए कभी नहीं कहते।
 
मुझे लगता है, अपने-अपने घरों में, अपने-अपने बेटों से ऐसा कहने के लिए दामिनी की यह मौत हमें प्रेरित कर सकती है।
 
व्यक्तिगत स्तर मैं दुःखी तो बहुत हूँ किन्तु सुधार की बहुत अधिक उम्मीद मुझे नजर नहीं आ रही। अपने सम्पूर्ण आशावाद के होते हुए भी मैं दहशत में हूँ - दामिनी की, शहदात का दर्जा पानेवाली यह मौत कहीं बेकार न चली जाए। इस मौत से उपजी यह सम्भावना, यह मौका हम गँवा न दें। इस मौत ने जो चुनौती हमारे सामने खड़ी की है - उससे मुँह चुराने का स्वभावगत अपराध न कर लें। दुर्भाग्यवश ऐसा हो गया तो मानना ही पड़ेगा कि यह दामिनी न तो पहली थी और न ही अन्तिम होगी।
 
दूसरे क्या करें, क्या न करें, इस पर तो मेरा कोई नियन्त्रण नहीं। इसलिए अपने स्तर मैं संकल्प ले रहा हूँ कि मैं अपने मन में दामिनी की मौत को मरने नहीं दूँगा। खुद के स्तर पर, अपने परिवार के स्तर पर वह सब करूँगा जिससे फिर किसी दामिनी को ऐसी मौत न मरनी पड़े।
 
ईश्वर मुझे आत्म-बल दे कि मैं निरपेक्ष भाव से अपने संकल्प पर कायम रह सकूँ।

देश बनाने का आधारभूत ‘गाँधी तत्व’

गाँधी तो अचेतन में भी बने रहते हैं किन्तु उनके जीवन की सारी घटनाएँ एक साथ याद रख पाना सम्भव नहीं हो पाता। हाँ, प्रसंगानुसार वे सब याद अवश्य आ जाती हैं। अपने आप ही। कोई विशेष तथा अतिरिक्त प्रयास नहीं करने पड़ते।
 
इन दिनों, नारायण भाई देसाई के विवाह को लेकर बापू का व्यवहार याद आ रहा है। बार-बार। लगातार।
 
गाँधी के लिए ‘अपने’ कभी अपवाद नहीं हो पाए। अपने निर्णयों को बापू स्वयम् पर तो अपनी सम्पूर्ण कठोरता, दृढ़ता और आत्म-बल से लागू करते ही, सब पर भी उसी समानता से लागू करते थे।
 
उन्होंने निर्णय कर लिया था कि वे उसी विवाह समारोह में नव-युगल को आशीर्वाद देने जाएँगे जब एक सवर्ण और दूसरा हरिजन हो। बापू के इस निर्णय के बाद नारायण भाई देसाई का विवाह तय हुआ। वर-वधू, दोनों सवर्ण थे। तब तक महादेव भाई देसाई (नारायण भाई के पिताजी) का देहावसान हो चुका था।
 
महादेव भाई देसाई और गाँधी का रिश्ता किसी विवरण की माँग नहीं करता। फिर भी कहने से रुका नहीं जा रहा। महादेव भाई देसाई को गाँधीजी अपना पुत्र मानते थे और जब महादेव भाई का निधन हुआ तो गाँधीजी ने उन्हें मुखाग्नि दी थी। यह कहते हुए कि ‘वह आजीवन मेरा पुत्र रहा किन्तु आज मैं उसका पुत्र बन कर उसे मुखाग्नि दूँगा।’
 
आज, गाँधी-कथा-वाचन को अपने जीवन का लक्ष्य बना कर जी रहे नारायण भाई देसाई, उन्हीं महादेव भाई के बेटे हैं।
 
नारायण भाई का, घर का नाम ‘बाबला’ था। बाबला की माँ दुर्गाबाई की चिन्ता थी - बाबला के विवाह में बापू का आशीर्वाद तो चाहिए ही चाहिए। उन्होंने, अपने पारिवारिक हितैषी नरहरि भाई परिख को बापू से बात करने भेजा। ‘बापू! आपसे कुछ प्रायवेट बात करनी है।’ कह कर नरहरि भाई ने समय माँगा। बापू ने सन्ध्या भ्रमण का समय दिया। शाम को, घूमने के दौरान, साथ चलते हुए, भूमिका बनाते हुए नरहरि भाई ने कहा - ‘बापू! अपने बाबला का विवाह तय हो गया है।’ सुनकर बापू ठिठके। अचरज प्रकट करते हुए बोले - ‘अच्छा! बाबला इतना बड़ा हो गया?’ नरहरि भाई ने पूरी बात बताई। यह भी बताया कि दोनों पक्ष सवर्ण हैं। सुनकर और सारी बात समझकर बापू खिलखिलाकर बोलेे - ‘अच्छा! तो दुर्गा ने तुम्हें वकील बनाकर भेजा है। फिर बोले - ‘बाबला तो अपने परिवार का बच्चा है। उसके लिए अपवाद नहीं हो सकता। दुर्गा से कहना, मेरे आशीर्वाद तो बच्चों को मिलेंगे लेकिन उपस्थिति नहीं।’ और बापू विवाह में नहीं गए। ठीक विवाह वाले दिन उनका आशीर्वाद-पत्र वहाँ जरूर पहुँच गया।
 
बापू का कहना था - ‘जो सोचो वही बोलो और जो बोलो वही करो। मन-वचन-कर्म में एकरूपता इसी का तो पर्याय है!
 
लालच, मोह, स्वार्थ दिमाग में चढ़ने पर आदमी के मन पर भय का आवरण चढ़ जाता है। बापू निरावरण थे और यही उन्हें हम सबसे अलग करता है। उन्होंने बड़ी ही सहजता से कहा है - ‘सत्य मेरे लिए सहज था। बाकी गुणों के लिए मुझे प्रयत्न करने पड़े।’
 
इन दिनों, अपराधों-अपराधियों और शासकों-प्रशासकों के व्यवहार के प्रति हमारे आचरण को लेकर मुझ यह प्रसंग चौबीसों घण्टे याद आ रहा है। हम सारी बातों को निरपेक्ष, निरावरण भाव से न देखने का अपराध कर रहे हैं और इसीलिए अपराधविहीन समाज नहीं बन पा रहे हैं।
 
बलात्कार को लेकर इन दिनों यही हो रहा है। देख रहा हूँ कि हमारी चिन्ता का विषय बलात्कार कम और, बलात्कार कहाँ, किसकी सरकार में हुआ है - यह महत्वपूर्ण हो गया है। बलात्कार ही नहीं, सभी प्रकार के अपराध, सर्वकालिक और सर्वदेशीय हैं। कोई भी राज्य, कोई भी अंचल इससे अछूता नहीं है।

मैं मध्य प्रदेश में रह रहा हूँ। उन्नत तकनीक के कारण, राष्ट्रीय अखबार भी स्थानीय बनकर रह गए हैं। राष्ट्रीय समाचार नाम मात्र की संख्या में, प्रदेश के समाचार उनसे तनिक अधिक संख्या में, रतलाम जिले के समाचार उससे अधिक संख्या में और रतलाम कस्बे के समाचार सर्वाधिक संख्या में पढ़ने को मिलते हैं। मैं जानबूझकर, उन अपराध घटनाओं के (विशेषतः, महिलाओं से जुड़ी आपराधिक घटनाओं के) समाचारों की कतरनें फेस बेक पर चिपका रहा हूँ और व्यंग्योक्तियाँ-तीखे कटाक्ष रह रहा हूँ जो मध्य प्रदेश में घट रही हैं। दिल्ली और केन्द्र में काँग्रेसी सरकारें हैं और मध्य प्रदेश में भाजपा की। दिल्ली की और मध्य प्रदेश की, समान स्तर की आपराधिक घटनाओं पर भाजपाइयों की प्रतिक्रियाएँ अलग-अलग हो रही हैं। अपनी सुविधा और आवश्यकतानुसार, काँग्रेसी भी ऐसा ही करते हैं। और केवल काँग्रेसी या भाजपाई ही क्यों? सबके सब ऐसा ही करते हैं।
जानता हूँ कि ‘वोट’ की राजनीति के चलते ही ऐसा हो रहा है। इस स्थिति पर मुझे न तो हँसी आ रही न ही आवेश-आक्रोश। हाँ, उदासी अवश्य आती है। क्या कोई ‘अपराध’ केवल इसलिए ‘अपराध’ माना जाए क्योंकि वह हमारी विरोधी दल की सरकार के राज में हुआ? क्या वही ‘अपराध’ इसलिए ‘अपराध’ न माना जाए क्योंकि वह हमारी सरकार के राज में हुआ है? क्या सच भी सापेक्षिक हो सकता है? क्या ऐसी ‘सापेक्षिक’ मानसिकता और सोच के चलते हम अपराधविहीन समाज बना सकेंगे और बन सकेंगे?
 
अचरज और कष्ट यह देख कर होता है कि ऐसी स्थिति में ‘सामनेवाले’ की आलोचना करनेवाले, ऐसी ही स्थिति में आए ‘अपनेवाले’ के बचाव में ढेरों ‘किन्तु-परन्तु’ लेकर, चकित कर देनेवाली सहजता से खड़े हो जाते हैं।
 
ऐसे आचरण से वोट हासिल किए जा सकते हैं, सरकारें भी बनाई जा सकती हैं, सरकारें बनाए रखी जा सकती हैं। किन्तु देश नहीं बनाया जा सकता।
 
‘अपनेवाले’ को अपवाद बनाने से हम सरकारें भले ही बना लें, देश नहीं बना सकते। देश बनाने के लिए तो हमें, ‘अपनेवाले’ को अपवाद बनाने से बचना ही होगा।
 

भीमा नदी किनारे विराजे भीमा शंकर

ज्योतिर्लिंग भीमा शंकर की यात्रा प्रारम्भ में जितनी उत्सुकता भरी थी, समापन में उसका रोमांच नाम मात्र का भी नहीं था। बस! एक ही आनन्द था - एक और ज्योतिर्लिंग के दर्शन कर लिए।
 
पुणे से कोई सवा सौ-एक सौ तीस किलामीटर की यह यात्रा हरी-भरी तो होती है किन्तु नयनाभिराम नहीं। हाँ, आप यदि सौन्दर्य-बोध के धनी हैं और सुन्दरता आपकी आँखों में बसी है तो आप निराश नहीं होंगे।
 
आधे रास्ते की सड़क अच्छी है और आधे रास्ते की ठीक-ठीक। अच्छीवाली सड़क पर यातायात की अधिकता के कारण और ठीक-ठीकवाली सड़क पर ‘ठीक-ठीकपन’ के कारण वाहन की गति अपने आप ही सीमित और नियन्त्रित रहती है। जाते समय हमने बस यात्रा की थी और लौटते में, अनियमित रूप से चलनेवाली प्रायवेट टैक्सी से। लेकिन आते-जाते यात्रा का समय बराबर ही रहा। ‘ठीक-ठीक’ सड़क ‘सिंगल लेन’ होने के कारण सामने से और पीछे से आ रहे वाहनों को रास्ता देने के कारण, चालक को वाहन की गति अनचाहे ही धीमी करनी पड़ती है।
 
वाहन आपको मन्दिर पहुँच मार्ग के लगभग प्रारम्भिक छोर पर पहुँचा देते हैं। मुश्किल से सौ-डेड़ सौ मीटर की दूरी पर, मन्दिर की सीढ़ियाँ शुरु हो जाती हैं। मन्दिर पहाड़ी की तलहटी में है। सो जाते समय आपको सीढ़ियाँ उतरनी पड़ती हैं और आते समय चढ़नी पड़ती है। सीढ़ियों की संख्या 227 हैं। सीढ़ियाँ बहुत ही आरामदायक हैं - खूब चौड़ी और दो सीढ़ियों के बीच सामान्य से भी कम अन्तरवाली। फिर भी, लौटते समय, चढ़ते-चढ़ते हम पति-पत्नी की साँस फूल आई। उम्र और मोटापा ही कारण रहे। अन्यथा, अन्य लोग सहजता से चढ़ रहे थे। सीढियॉं आपको मन्दिर के पीछेवाले हिस्‍से में पहुँचाती हैं। अर्थात्, मन्दिर के प्रवेश द्वार के लिए आपको घूम कर जाना पडता है।
 
मन्दिर काफी पुराना है। खिन्नतावाली बात यही कि इसके बारे में और ज्योतिर्लिंग के बारे में न तो मन्दिर में कोई जानकारी प्रदर्शित है और न ही कोई बतानेवाला। न तो मन्दिर का प्रांगण भव्य और लम्बा-चौड़ा है न ही मन्दिर का मण्डप। सब कुछ मझौले आकार का।
 
शिवलिंग बहुत ही छोटे आकार और कम उँचाई का है। गर्भगृह में जन सामान्य का प्रवेश वर्जित है। सनातनधर्मियों के तमाम तीर्थ स्थानों की तरह यहाँ भी शिव लिंग के चित्र लेना निषेधित है। गर्भगृह के बाहर, एक दर्पण लगाकर ऐसी व्यवस्था की गई है कि मण्डप में खड़े रहकर आप शिवलिंग के दर्शन कर सकें। यहाँ एक ही चित्र, दो स्थितियों में दे रहा हूँ जिससे यह बात अधिक स्पष्टता से समझी जा सकेगी।
 
रख-रखाव और साफ-सफाई ठीक-ठाक है। भीमा नदी इस मन्दिर के पास से ही निकली है। इसीलिए इस ज्योतिर्लिंग को भीमा शंकर कहा गया।
किन्तु हमें यह देखकर निराशा हुई कि नदी के नाम पर एक बावड़ी जैसी आकृति बनी हुई है। अब तक हमने जितने शिव स्थान देखे, उनमें यह पहला ऐसा स्थान था जहाँ ‘बहती जल धारा’ नहीं थी।
 
पण्डित-पण्डों वाली परेशानी यहाँ बिलकुल ही नजर नहीं आई। सब कुछ आपकी इच्छा और श्रद्धानुसार। मन्दिर आने के लिए पहली सीढ़ी से लेकर अन्तिम सीढ़ी तक, पूरे रास्ते पूजन सामग्री और फूलों की तथा ‘लिम्बू-पाणी’ की  दुकानें आपको निमन्त्रित करती चलती हैं। पीने का सामान्य पानी बिलकुल नहीं मिलता है। ‘लिम्बू-पाणी’ की प्रत्येक दुकान पर बोतलबन्द पानी बिक्री के लिए उपलब्ध है। अन्य तीर्थ क्षेत्रों की तरह प्याऊ की व्यवस्था बिलकुल ही नहीं है। लौटते में हमने एक होटल से पीने का पानी माँगा तो बेरुखी से मना कर दिया गया।
 
आहार और स्वल्पाहार की काम चलाऊ व्यवस्था यहाँ है। एक-दो मकानों पर रहने की व्यवस्था के सूचना फलक भी नजर आए। हमें ताज्जुब हुआ - भला यहाँ कौन ठहरता होगा!
 
बिना माँगी सलाह यह है कि यहाँ पहुँचने से पहले लौटने की चिन्ता और व्यवस्था कर लें। पुणे के शिवाजीनगर बस स्थानक से, प्रायः हर घण्टे में भीमाशंकर के लिए बस मिलती है। किन्तु लौटते समय अन्तिम बस (भीमा शंकर से) शाम 6 बजे है। शिवाजी नगर बस स्थानक के पास से ही प्रायवेट टैक्सियाँ भी मिलती हैं लेकिन उनकी नियमितता  निश्चित नहीं है। इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि लौटते समय हमें ऐसी ही एक टैक्सी में आसानी से जगह मिल गई।
 
देव दर्शन की तृप्ति इस यात्रा की हमारी सबसे बड़ी और एक मात्र उपलब्धि रही।
 

मन्दिर का मण्डप
 
 
 
 
दर्पण के माध्यम से शिवलिंग के दर्शन करानेवाला एक ही चित्र दो स्थितियों में।
 
 
 
 
मन्दिर के पीछे वाले हिस्से में खड़ी, मेरी उत्तमार्द्ध वीणाजी।

जब शरद जोशी ने मंच से नन्दनजी को गाली दी

 भाषा और अणु बम मुझे समान लगते हैं - चाहें तो शान्ति के लिए प्रयुक्त कर लें या ध्वंस के लिए। गोया, भाषा जैसी है, वैसी ही है। यह हम पर ही निर्भर करता है कि हम उसे हँसिया बनाएँ या हल। गला काटें या पोषक अन्न उपजाएँ। इसके लिए शायद एक ही बात आवश्यक है - उसकी जानकारी। इसीलिए कहा जाता है कि हमारे कपड़े तब तक ही हमारा साथ देते हैं जब तक हम बोलते नहीं।

इस मायने में भाषा से खेलना याने शेर की सवारी करने के बराबर ही होता होगा। नियन्त्रण की क्षमता और कौशल न हुआ तो खुद शिकार हो जाना पड़ता है।

प्रख्यात व्यंग्यकार (स्वर्गीय) शरद जोशी ऐसे की कौशल और क्षमता के धनी थे। उनका यह रूप देखने का सुख-सौभाग्य मुझे एकाधिक बार देखने को मिला। यहाँ एक प्रसंग की चर्चा करने से अपने आप को रोक नहीं पा रहा हूँ।

यह 1975 या 1976 की पहली अप्रेल की शाम की बात है। अवसर था, उज्जैन में आयोजित ‘टेपा सम्मेलन।’ स्वर्गीय कन्हैयालालजी नन्दन प्रमुख पात्र थे। उनका अभिनन्दन पत्र पढ़ने का जिम्मा शरद भाई का था। संयोग ही रहा कि देवास से उज्जैन तक की यात्रा हम दोनों ने एक ही बस से की थी। (उन दिनों मैं, भोपाल से प्रकाशित अंग्रेजी दैनिक ‘हितवाद’ के प्रबन्ध विभाग में नौकरी कर रहा था।) उस बस यात्रा के दौरान शरद भाई ने, नन्दनजी के लिए लिखा अभिनन्दन-पत्र दो-तीन बार पढ़ कर मानो खुद को इतमीनान दिलाया था।


शरद भाई पुलकित और आह्लादित थे कि नन्दनजी का अभिनन्दन पत्र
उन्हें पढना है। दोनों ‘आत्मीय’ थे-एक के कहे बिना दूसरे का मन समझने वाले। शरद भाई ने ही बताया था कि इण्डियन एक्सप्रेस की साप्ताहिक पत्रिका के सम्पादन के लिए वे मुम्बई गए तो उनके आवास की व्यवस्था, नन्दनजी ने पहले ही कर दी थी।
                                                                                                                                      
शाम को टेपा सम्मेलन शुरु हुआ। परिसर का नाम मुझे इस समय याद नहीं आ रहा किन्तु श्रोताओं ने जगह छोटी साबित कर दी थी। डॉक्टर शिव शर्मा टेपा सम्मेलन के कर्ता-धर्ता थे। आज भी हैं। मालवी परम्परा और  ‘टेपा शैली’ में मंचासीन विभूतियों का स्वागत किया। रंग-बिरंगे अंगरखे, विचित्र  आकार-प्रकार की टोपियाँ और उतनी ही विचित्र सामग्री से बनी मालाएँ। समूचा वातावरण इन्द्रधनुषी और तालियों-किलकारियों-ठहाकों से ओतप्रोत।

एक के बाद एक विभूतियों का अभिनन्दन शुरु हुआ। और अन्ततः बारी आई नन्दनजी की। अपने लिखे अभिनन्दन-पत्र के पन्ने हाथ में लिए शरद भाई माइक पर आए। समूचा सभागार यह देखने-जानने को उतावला बना हुआ था कि देखें! शरद भाई दोस्ती और प्रसंग, दोनों का निभाव किस तरह करते हैं।

हाथों में थामे पन्नों को दो-एक बार ऊपर-नीचे करते हुए शरद भाई ने पूरे सभागार पर नजरें दौड़ाई। फिर पलट कर मंचासीन विभूतियों को देखा। उनकी नजरें, नन्दनजी पर कुछ क्षण टिकी रहीं। फिर माइक की ओर गर्दन घुमाई, गला खँखारा और बोलना शुरु किया।

अब मुझे सब कुछ शब्दशः तो याद नहीं किन्तु भूमिका बाँधने के बाद शरद भाई कुछ ऐसा बोले - ‘हमारे यहाँ कई तरह के नन्दन पाए जाते हैं। साहित्य में कन्हैयालाल नन्दन। लोक-जीवन में वैशाखी नन्दन। एक और किसम के नन्दन पाए जाते हैं जिसे च में बड़े ऊ की मात्रा, त में छोटी इ की मात्रा और य में आ की मात्रा लगाकर नन्दन कहा जाता है।’ कह कर शरद भाई साँस लेने को रुकते, उससे पहले ही समूचा सभागार तालियों और ठहाकों से गूँज उठा और देर तक गूँजता रहा।

नन्दनजी की दशा देखते ही बनती थी। वे अपना पेट दबा कर हँसे जा रहे थे। इसी दशा में उठे और शरद भाई को गले लगा लिया। देर तक दोनों इसी दशा में, लिपटे खड़े रहे और लोग तालियाँ बजाते रहे।

आयोजन तो उसके बाद भी बड़ी देर तक चला। किन्तु मेरा काम यहीं पूरा हुआ। बाद में, भोपाल में हुई मुलाकातों में शरद भाई ने बताया था कि प्रसंग टेपा सम्मेलन का हो, ‘नन्दन‘ मुख्य अतिथि हो और तीसरे ‘नन्दन’ का उल्लेख न हो तो ‘बात नहीं बनती।’ तो क्या किया जाय? इसके जवाब में उन्हें भाषा का सहारा मिला। उनका कौशल और भाषा की शक्ति ने ‘मौका भी है और दस्तूर भी’ मुहावरे को साकार कर दिया। सैंकड़ों स्त्री-पुरुषों के जमावड़े में उन्होंने गाली भी दी और क्षण भर को अशिष्टता नहीं बरती।

भाषा तो वही की वही थी। बस! उसे वापरनेवाले की सूझ-समझ, क्षमता और कौशल का ही चमत्कार था कि दोस्ती भी निभ गई और रस्म भी पूरी हो गई।

आज जब लोगों को घटिया शब्दावली और अशालीन भाषा प्रयुक्त करते देखता हूँ तो दुखी होते हुए, बरबस ही यह प्रसंग याद आ जाता है।

उसने माँ की गाली दी

भाषा सम्प्रेषण का माध्यम होती है और सम्प्रेषण के लिए प्रयुक्त शब्दावली हमारे व्यक्तित्व तथा मानसिकता की परिचायक होती है। इस मुद्दे पर काफी-कुछ कहा गया है। जैसे कि - विज्ञान कहता है कि जबान का घाव ठीक हो जाता है लेकिन ज्ञान कहता है कि जबान से लगा घाव कभी ठीक नहीं हो पाता। यह भी कि मुँह से निकली बात और कमान से छोड़ा गया तीर कभी नहीं लौटाए जा सकते।
 
ऐसे अनेक उदाहरण इन दिनों मैं फेस बुक पर देख रहा हूँ और चकित होता हूँ कि न तो बोलने/लिखने से पहले सोचा जा रहा है और न ही बाद में। सोनिया गाँधी, मनमोहन सिंह, राहुल गाँधी इन दिनों अधिसंख्य भारतीयों के ‘प्रिय पात्र’ बने हुए हैं। इनके लिए प्रयुक्त विशेषण इन सब तक पहुँचते हैं या नहीं किन्तु प्रयोक्ता का मानसिक स्तर और रुचि अवश्य सार्वजनिक हो जाती है। कई बार यह सब, कहनेवाले के संगठन की संस्कृति का भी परिचायक बन जाता है।
 
 
घटिया शब्दावली से दूर  रहने का संकेत देते हुए मैंने, अपने लेटर हेड पर छाप कर, कुछ पन्ने फेस बुक पर लगाए थे। उनमें से दो पन्नों को भरपूर प्रशंसा मिली थी। इस समय तो वे नहीं मिल रहे किन्तु वे कुछ इस तरह थे - ‘घटिया भाषा/शब्दावली में कही गई अच्छी बात भी अनदेखी रह जाती है।’ और ‘घटिया शब्दावली/भाषा सबसे पहले हमारी पहचान उजागर करती है।’
 
बोलचाल की भाषा  और लेखन की भाषा में जमीन-आसमान का अन्तर होता है - शब्दावली के लिहाज से भी और व्याकरण के लिहाज से भी। लेकिन बोलचाल की भाषा भी दो स्तरों पर प्रयुक्त होती है - बन्द कमरों में और सार्वजनिक स्थानों/मंचों पर। कहना न होगा कि दोनों ही के स्वरूप अलग-अलग होते हैं। जो इनका ध्यान नहीं रखता, लोक निन्दा का पात्र बनता है। टीवी चैनलों पर होने वाली बहसों में, जगहँसाई के ऐसे प्रसंग इन दिनों आसानी से देखने में आ रहे हैं जहाँ अच्छे-अच्छों के आभिजात्य और शालीनता का मुलम्मा उतर कर नालियों में बहा जा रहा है।
 
ऐसे में मुझे, कोई पचीस बरस पहले की एक घटना बार-बार याद आ जाती है। वस्तुतः याद नहीं आती, वह अमीबा की तरह जीवित/सक्रिय हो उठती है। भाषा का वह चमत्कार मैं कभी नहीं भूल पाता।
 
यह सम्भवतः 1984-85 की बात होगी। अपनी, एक व्यापारिक यात्रा से मैं गुवाहाटी से लौट रहा था। मेरी रेल बिहार अंचल से गुजर रही थी। अचानक ही किसी के, जोर-जोर से बोलने की आवाज आने लगी। आवाज में तैश तो था ही, शब्दावली भी अभद्र-अशालीन थी। सार्वजनिक रूप से जितनी भद्दी गालियाँ दी जा सकती थीं, दी जा रही थीं। कुछ क्षण तो मेरा ध्यान नहीं गया किन्तु ज्यादा देर तक अनसुनी नहीं कर सका। विशेष बात यह थी कि एक ही आदमी के चिल्लाने की आवाज आ रही थी। यह तो साफ था कि वह किसी न किसी को सम्बोधित कर रहा था किन्तु दूसरे की आवाज कहीं नहीं थी। इसी बात ने मेरा ध्यानाकर्षित किया। झगड़ा या कि विवाद तो दो लोगों में होता है! झगड़े में कम से कम दो पक्ष तो होते ही हैं। यहाँ दूसरा पक्ष अनुभव ही नहीं हो रहा था!
 
मुझसे रहा नहीं गया। उठकर, मौका-ए-बवाल पर पहुँचा। देखा - एक आदमी, उस स्लीपर डिब्बे में, आने-जानेवाली जगह में खड़ा होकर, खिड़की के पास बैठे दूसरे आदमी पर गालियों की बरसात किए जा रहा था। खिड़की के पास बैठा आदमी, पल-दो पल के लिए गर्दन फेर कर बोलनेवाले की ओर देख लेता और फिर बाहर देखने लगता। आठ यात्रियोंवाले उस खाँचे के आस-पास, मुझ जैसे ही दो-चार लोग और आकर खड़े हो गए थे। स्थिति यह कि बोलनेवाला लगातार बोले जा रहा और खिड़की के पास बैठनेवाला उसे ‘क्षणिक दृष्टिपात’ से अधिक के लिए उपकृत नहीं कर रहा।

कोई आठ-दस मिनिट के बाद, बोलनेवाला चुप हो गया और तमतमाए चेहरा लिए, खड़ा-खड़ा, खिड़की के पास बैठे आदमी को घूरने लगा।
 
कुछ पलों की चुप्पी के बाद, खिड़की के पास बैठा आदमी, बहुत ही शान्त, संयत और ठण्डी आवाज में बोला - ‘बस! बोल लिए आप? कहना था जो कह लिया? खुश हो गए हमें चुप देखकर? जनाब! जो कुछ आपने कहा, वैसा/वह सब कहने के लिए न तो देर लगती है और न ही अकल। लेकिन वैसा कहना हमारी फितरत में नहीं है। बोलना हमें भी आता है। जनाब! अपनीवाली पर आ जाएँगे तो आपकी वालिदा से रिश्ता जोड़ने में हमें एक लमहा भी नहीं लगेगा। बोलिए! करें वैसा?’
 
यह सुनना था कि मानो डिब्बे में मोगरा-गुलाब महक गए। लोग ‘अश!-अश!’ कर उठे। और वह, गालियाँदेनेवाला? वह ऐसा झेंपा कि माफी माँगने की दशा में भी नहीं रह पाया। गर्दन नीची किए, चुपचाप चला गया।
 
इस घटना का और बखान कर पाना मेरे लिए सम्भव नहीं हो पा रहा। जितनी सुन्दरता से उस आदमी ने माँ की गाली दी, वैसी सुन्दरतावाली भाषा मेरे पास नहीं है। इस घटना का आनन्द तो ‘गूँगे के गुड़’ की तरह ही लिया जाना चाहिए। 

उपभोक्ता की शुद्ध बचत

भारतीय जीवन बीमा निगम की मेरी शाखा के एम पूर्व शाखा प्रबन्धक श्री हरिश्चन्द्र जोशी का, कुछ दिनों पहले दिया एक नुस्खा मैंने आज आजमाया। कोई बारह घण्टे पहले आजमाया यह नुस्खा मुझे ‘एक में तीन’ जैसा लग रहा है।
 
आप भी इसे जानिए।
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
जोशीजी की कार में बैठा तो जानी-पहचानी, सुखद गन्ध नथुनों में भर आई। लगा, किसी मन्दिर के आँगन में आ गया हूँ। किन्तु गन्ध नहीं पहचान पाया। जोशीजी से पूछा तो बोले - ‘ये? ये तो कपूर है।’ भला, कार में कपूर का क्या काम? जोशीजी ने बताया कि वे दुर्गन्धनाशक (डीऑडोरेण्ट) के स्थान पर कपूर का उपयोग करते हैं। यह दुर्गन्धनाशक तो है ही, कीटाणुनाशक भी है और रंगीन-चमचमाते पेकिंगवाले मँहगे दुर्गन्धनाशकों की तुलना में अत्यधिक सस्ता है।
 
कल अपने घर के शौचालयों और स्नानघरों की सफाई करते-करते जोशीजी की बात याद आ गई। शाम को देशी कपूर खरीदी और आज सुबह शौचालयों और स्नानघरों में उसके कुछ टुकड़े रख दिए। यहाँ तीनों चित्र उन्हीं टुकड़ों के हैं।
 
आज सुबह से मेरा पूरा घर इसी देशी कपूर से महक रहा है। लगता है, मैंने कुछ अधिक ही मात्रा में रख दी है। गन्ध अच्छी लगी तो एक टुकड़ा मैंने अपनी टेबल पर भी रख लिया है।

देशी कपूर मुझे चालीस रुपयों की एक सौ ग्राम मिली है। मात्रा देखकर अनुमान लगा रहा हूँ कि कम से कम चार माह तो आसानी से चल जाएगी।
बाजार में मिलनेवाले दुर्गन्धनाशक एक ही काम करते हैं - दुर्गन्धनाशक का। जबकि देशी कपूर तीन काम करता है और पेकिंगवाले दुर्गन्धनाशकों से काफी सस्ता भी है।
 
खेरची बाजार में एफडीआई के प्रवेशवाले माहौल में और मँहगाई के इस जमाने में मुझे यह ‘उपभोक्ता की शुद्ध बचत’ की सुखद अनुभूति दे रहा है।

हर गली दिल्ली बने, ताकि फिर ‘दिल्ली’ न हो

दिल्ली की मनमोहन सरकार और शीला सरकार परेशान है - कोई एक सप्ताह से दिल्ली में जो हो रहा है उससे। तमाम गैर काँग्रसी दल खुश हैं - कोई एक सप्ताह से दिल्ली में जो हो रहा है उससे। दोनों की परेशानी और खुशी ज्याद दिन टिकती नहीं लगती। आज का सच तो यही है कि आनेवाले कल में दोनों के पाले बदल जाएँगे। आमने-सामने तो दोनों तब भी होगी किन्तु दिशाएँ बदल जाँएगी।
 
दोनों की सापेक्षिक प्रतिक्रियाएँ अपनी जगह किन्तु मेरी निरपेक्ष अनुभूति इस सबको एक ‘शुभ-शकुन’ मान रही है। यह वह शुरुआत है जो सोलह अगस्त 1947 से ही हो जानी चाहिए थी। देर से ही सही, शुरुआत तो हुई! अपने सूने आवास में, अपने लेपटॉप पर यह सब मैं ‘मुदित-मन‘ और ‘प्रफुल्ल वदन’ से लिख रहा हूँ। आधी सदी से भी अधिक देर से ही सही, मेरा ‘गण-देवता’ जागा तो! अचेतन में आशंका या कि भय है तो बस यही कि यह सब कहीं एक घटना से शुरु होकर एक घटना पर ही समाप्त न हो जाए। नेतृत्वविहीन जो जमावड़ा आज दिल्ली की सड़कों पर उमड़ा है, वह देश की गली-गली में उमड़ना चाहिए - स्वस्थ और सजग लोकतन्त्र की अनिवार्य आवश्यकता है यह। दिल्ली की दोनों सरकारें यदि इसे केवल राजनीतिक साजिश समझ रही हैं (जो कि कमोबेश हो भी गई है) तो यह ‘सत्ता से बेदखली के डर से उपजी सहज बेचैनी’ ही है। और जो प्रतिपक्ष मन ही मन बल्लियों उछल रहा है वह नहीं जान रहा कि मनमोहन और शीला का यह ‘आज’, उसका ‘कल’ है। सत्ता का पविर्तन, अविराम समय चक्र का स्वभाव भी है और सच भी।
 
आजादी के ठीक बाद से एक अपराध इस देश ने स्वीकार कर रखा है - अत्यधिक प्रसन्नतापूर्वक। अपराध यह कि वोट देने के बाद हम अपने आप को तमाम जिम्मेदारियों से मुक्त मान लेते हैं। हमने वोट दे दिया, सरकार बना दी। बस! हमारा काम खतम! अब जो भी करना है, सरकार करेगी। हमें कुछ नहीं करना है। और यही विचार, यही मानसिकता हमारी सारी समस्याओं की जड़ बनी बैठी है। सरकार न हुई गोया, कोई ऐसा तीसरा पक्ष है जिससे हमें कोई लेना-देना नहीं है। सरकार को चाहे जो चलाए, चाहे जिस तरह से चलाए - हमें कोई लेना-देना नहीं। हमारी आत्म-वंचना का चरम यह कि जिसे हम ही नेता बनाते हैं, उसे जी भर कर गालियाँ देते हैं। जिनके हाथों सरकार सौंपते हैं, उन्हें पहले ही क्षण से चोर-डकैत कहना शुरु कर देते हैं। उन्हें छुट्टा छोड़ देते हैं - इतना कि वे निरंकुश होने की सीमा तक उच्छृंखल हो जाएँ। लेकिन हम यहीं नहीं रुकते। यह सब कर हम खुद को निर्दोष मानने की सीनाजोरी भी कर लेते हैं और फिर शुरु कर देते हैं अपनी निरीहता, दयनीयता, विवशता का विलाप/प्रलाप - उसी नेता को इस सबके लिए जिम्मेदार घोषित करते हुए। अपनी तकदीर उसे सौंप कर हम उससे कभी-कोई सवाल नहीं करते। इस चुप्पी के पीछे भय नहीं होता। होती है हमारी स्वार्थी मानसिकता। क्या पता - सवाल पूछने पर नेता नाराज हो जाएगा और हमारा नुकसान कर देगा। ‘खोने का खतरा’ उठाने को हम बिलकुल ही तैयार ही नहीं। यह जानते हुए भी कि बिना कुछ खाये, कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता। नो रिस्क, नो गेन। मोअर रिस्क, मोअर गेन्स। हम ऐसा समाज बन गए हैं जो कुछ भी खोए बिना सब कुछ हासिल कर लेना चाहता है। ऐसे मे ‘कुछ’ हासिल हो तो कैसे? हो ही नहीं सकता। इसीलिए हम चौबीसों घण्टे, खुद को ‘लुटे-पिटे’ माने बैठे रहते हैं और इसी का विलाप-प्रलाप करते रहते हैं।
 
लेकिन दिल्ली का यह जमावड़ा इस सबको, स्लेट पर लिखी इबारत को पोंछने की प्रभावी शुरुआत हो सकती है। बलात्कार का मुद्दा सर्वकालिक, सर्वदेशीय है। मध्य प्रदेश भाजपा के सन्त नेता कैलाश जोशी ने, एक पुलिस जवान द्वारा किए गए बलात्कार के बचाव में, विधान सभा में, मुख्यमन्त्री पद से बोलते हुए कहा था - ‘बलात्कार सहज मानवीय स्वभाव है।’ गलत नहीं कहा था उन्होंने। लेकिन बरसों पहले जब उन्होंने यह कहा था तब बलात्कार की घटनाएँ आपवादिक होती थीं - अंगुलियोंके पोरों पर गिनने लायक। भौतिकता और उपभोक्तावाद के अतिगतिवान विकास ने आज हमारी सम्वेदनाएँ मानो भोथरी कर दी हैं। विलासिता के उपकरणों/कारकों के आक्रामक विज्ञापनों ने ‘स्त्री’ को ‘चीज’ में बदल दिया है। हम ‘आदिम और चरम आत्मकेन्द्रित’ बनते जा रहे हैं। पड़ौसी का दर्द अब हमारा दर्द नहीं रह गया। ऐसे में बलात्कार की घटनाएँ अब हमारे दैनन्दिन जीवन का दुर्भाग्यपूर्ण अनिवार्य हिस्सा बनी रहेंगी। जिस तरह, आज की दशा अचानक नहीं हुई, उसी तरह इसे सुधरने में कम से कम उतना ही समय नहीं, उससे कई गुना अधिक समय लगेगा। बिगाड़ तेजी से होता है और सुधार बहुत धीमी गति से।
 
सो, बुराई में अच्छाई देखने की कोशिश करते हुए आशा की जा सकती है कि जो सवाल आज दिल्ली में पूछे जा रहे हैं, वे ही सवाल आनेवाले दिनों में, गली-गली में पूछे जाएँगे। केवल दिल्ली में हुआ बलात्कार, बलात्कार नहीं माना जाएगा। तब, जो लोग आज, दिल्ली के नेतृत्वविहीन जमावड़े के पीछे खड़े होकर खुश हो रहे हैं, उनसे सवाल पूछे जाएँगे। तब उनके पास कोई बहाने नहीं होंगे। तब, आज, शीला और मनमोहनसिंह की सरकारों द्वारा दिए जा रहे जवाब वे नहीं दोहरा सकेंगे। अवसरवादी राजनीति सदैव ही दुधारी तलवार होती है।
 
इसीलिए दिल्ली की यह शुरुआत - अपने नेताओं से सवाल पूछने की शुरुआत ‘शुभ-शकुन’ अनुभव होती है।
 
आनेवाले कल में फिर (बलात्कारवाली) ‘दिल्ली’ न हो, इसलिए जरूरी है कि हर गली, नेतृत्वविहीन जमावड़ेवाली दिल्ली बने।
 
हे! गण-देवता! देर आयद, दुरुस्त आयद। दिल्ली की सड़कों पर आ गए हो। अच्छा है। लेकिन गली-गली में, सड़कों पर उतरो। नेताओं को सत्ता की माँद से निकालने के लिए तुम्हारा सड़कों पर बने रहना जरूरी है।

पक्षपाती नजर से निष्पक्ष कार्रवाई की माँग याने अगले जघन्‍य सामूहिक बलात्कार की प्रतीक्षा

बेईमानी भरे दिल-दिमाग-नजर से की गई, ईमानदार कार्रवाई की माँग अपने आप में बेईमानी होती है। चूँकि हम सब यही कर रहे हैं, इसलिए, दिल्ली में हुई, सामूहिक बलात्कार जैसी घटनाएँ होती रहेंगी। कभी नहीं रुकेंगी क्योंकि हम ही रोकना नहीं चाहते। बस! रोकने की माँग करते रहते दीखना चाहते हैं। हम ‘करने’ में नहीं, ‘करते रहते दीखने’ में भरोसा करते हैं।
 
देश तो बहुत छोटी बात है, पूरी दुनिया में कौन होगा जो दुराचार-दुष्कृत्य का समर्थन करेगा? इनका विरोध तो सहज-स्वाभाविक है। विरोध करना ही चाहिए। किन्तु यह विरोध ईमानदार होना चाहिए। यहीं हम मात खा जाते हैं।
 
आज के अखबार भी दिल्ली की खबरों से अटे पड़े हैं। रविवार है तो, ‘बाजार के चलन‘ के चलते, जेकेट भी लगे हैं। जेकेटों पर भी दिल्ली ही दिल्ली है। विस्फोटक जनाक्रोश और उसका निरंकुश दमन। साफ लग रहा है कि केन्द्र की और दिल्ली की सरकारें आज भले ही बनी रहें किन्तु अगले चुनावों में सब कुछ बदल जाएगा। लेकिन उस बदलाव के बाद भी ‘यह सब’ या ‘ऐसा कुछ’ नहीं होगा, इसकी गारण्टी लेने-देने की बात न तो कोई कर रहा है न ही किसी अखबार में नजर आ रही है। हमारा आनेवाला कल भले ही आज से भी बदतर हो लेकिन हमें हमारा आज ठीक-ठाक चाहिए। बस! आज सब ठीक हो जाए। कल की कल देखेंगे।
 
लग रहा कि दिल्ली ही देश बन कर रह गया है। दिल्ली के अलावा या तो देश है ही नहीं या फिर है तो वह सब देश में नहीं है। इसीलिए, जो कुछ दिल्ली में हो रहा है, वैसा ही सब कुछ बाकी हिस्सों में होता है तो होता रहे। कोई फर्क नहीं पड़ता।
 
देश का कौन सा राज्य है जहाँ ऐसे जघन्य बलात्कार नहीं हो रहे? देश का लगभग प्रत्येक दल, किसी न किसी राज्य में सत्तारूढ़ है और सबके सब ‘हमाम के नंगे’ हैं। जिस घटना के विरोध में लोगों ने दिल्ली की सड़कें छोटी और सँकरी कर दी हैं, वे सारी घटनाएँ पूरे देश में हो रही हैं। लेकिन दिल्ली के अलावा शेष देश में, फिल्मी जेल के पहरुए की, आधी रात में दी जा रही ‘स ऽ ऽ ऽ ब ऽ ऽ ठी ऽ ऽ ई ऽ ई ऽ ऽ क है ऽ ऽ ऐ’ की हाँक गूँज रही है।
 
मेरे यहाँ तीन अखबार आते हैं - दैनिक भास्कर, पत्रिका और जनसत्ता। जनसत्ता मेरा प्रिय अखबार है किन्तु इसका नाम तीसरे क्रम पर इसलिए रख रहा हूँ क्यों कि यह एक दिन देर से आता है। दैनिक भास्कर रतलाम में ही छपता है और पत्रिका इन्दौर से छपकर आता है। सो, पहले दोनों अखबार तो आज के ही हैं। जनसत्ता कल का है।
 
पहले दैनिक भास्कर के, जेकेट के बाद वाले मुखपृष्ठ के मध्य भाग में छपी खबर की स्केन प्रति देखिए (डिजिटल प्रति निकालना मुझे अब तक नहीं आया है) जिसमें मध्य प्रदेश की तीन खबरें एक साथ हैं और तीनों ही ‘स्त्री पर अत्याचार’ के हैं।
 
 
पहली खबर के मुताबिक, सो रही एक नाबालिग लड़की को दो लोग घर से उठाकर ले गए। अगली सुबह यह लड़की एक सड़क किनारे मिली। उसके हाथ, पैर और मुँह बँधे हुए थे। लड़की के परिजनों ने दो लोगों पर, लड़की के साथ ज्यादती करने के नामजद आरोप लगाए। पुलिस ने चिकित्सकीय जाँच के बाद अपहरण और छेड़खानी का मामला दर्ज किया।
 
दूसरी खबर के मुताबिक एक महिला ने आत्महत्या कर ली। इस महिला के साथ एक महीना पहले, उसके साथ हुई  छेड़छाड़ और ज्यादती की रिपोर्ट पुलिस में कराई थी। पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की तो महिला ने खुद को समाप्त करने की कार्रवाई कर ली। इस मामले में भी महिला ने दो लोगों के नाम बताए थे।
 
तीसरी खबर में एक शिक्षक पर, पन्द्रह वर्षीय एक आदिवासी छात्रा के साथ ज्यादती करने की बात कही गई है। पुलिस ने छात्रा की डॉक्टरी जाँच कराई। शिक्षक को हिरासत में ले लिया। शिक्षक इस मामले को साजिश बता रहा है।
 
तीन समाचारों वाले इस समाचार की ‘इण्ट्रो’ में अखबार ने लिखा है - ‘‘दिल्ली में गेंगरेप की घटना के बाद देश भर में इसके खिलाफ प्रदर्शन हो रहे हैं लेकिन मध्य प्रदेश में महिलाओं से ज्यादती और छेड़छाड़ की घटनाएँ कम नहीं हो रही हैं। कई क्षेत्रों में नाबालिग छात्रों, महिलाओं से ज्यादती के मामले सामने आए हैं......’’
 
अब, ‘जनसत्ता’ के कल, 22 दिसम्बर 2012 के मुखपृष्ठ पर ‘बॉटम लीड’ के रूप में प्रकाशित, धीरज चतुर्वेदी की रपट की स्केन प्रति देखिए। मध्य प्रदेश के बुन्देलखण्ड अंचल पर केन्द्रित इस समाचार कथा का मुख्य शीर्षक और उप शीर्षक ही पर्याप्त हैं सारी बात समझने के लिए। आँकड़े डरावाने तो हैं ही, किसी भी जिम्मेदार व्यवस्था और समाज के लिए लज्जाजनक भी हैं।
 
 
इसे मात्र ‘योग-संयोग या कि दुर्योग’ ही कहा जा सकता है कि मध्य प्रदेश में भाजपा की सरकार है और लोकसभा में प्रतिपक्ष की नेता सुषमा स्वराज, मध्य प्रदेश से ही निर्वाचित होकर लोक सभा में पहुँची हैं। दिल्ली के सामूहिक गेंग रेप की भीषणता और जघन्यता को रेखांकित करते हुए सुषमाजी ने इस पर चर्चा करने के लिए लोक सभा का विशेष सत्र बुलाने की माँग कर, इस मामले की गम्भीरता और महत्व को भी रेखांकित किया है।
 
 
सुषमाजी ने वही किया जो एक सजग और जिम्मेदार नेता-प्रतिपक्ष को करना ही चाहिए था। किन्तु उनका कहना एक खानापूर्ति बन कर रह गया। उनकी आवाज में ‘दम’ ही नहीं था। हो भी नहीं सकता था। क्योंकि, उनके पास वह आत्म-बल था ही नहीं जिसके दम पर वे ‘दहाड़’ पातीं। जिस दल से वे आती हैं, उसी की सरकार वाले प्रदेश में (और उनके संसदीय क्षेत्र के बगलवाले अंचल में) वही सब हो रहा है, होता चला आ रहा है, जिसके लिए वे दिल्ली की और केन्द्र की सरकार को कटघरे में खड़ा करना चाह रही हैं।
 
विडम्बना यह कि इस दशा में सुषमाजी अकेली नहीं हैं। सबके सब बराबर के अपराधी हैं। यही कारण रहा कि दिल्ली के नौजवान जब सड़कों पर उतरे तो उनके साथ उतरने की हिम्मत इनमें से कोई नहीं कर सका। केवल दो दलों के लोग इन बच्चों के साथ सड़कों पर आए - वामपंथी वृन्दा करात और नवजात ‘आआपा’ के कुछ नेता। इनकी ईमानदारी पर सन्देह नहीं किया जाना चाहिए किन्तु यह भी एक सचाई है कि ये दोनों ही दल जानते हैं कि वे कभी भी दिल्ली में सरकार नहीं बना सकते। उनके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है। जगजाहिर इस तथ्य ने इन्हें अतिरिक्त आत्म बल दिया हो तो आश्चर्य क्या?
 
यही वह बिन्दु है जहाँ आकर लगता है कि दिल्ली ही देश बन गया है। ऐसा नहीं होता तो जो जनाक्रोश दिल्ली की सड़कों पर जाहिर हुआ है, वही का वही देश के अन्य भागों में भी होना चाहिए था। लेकिन नहीं हुआ। होगा भी नहीं। दिल्ली की सड़कों पर उतरे ‘जन’ की प्रशंसा में, आश्चर्य प्रकट करते हुए एक बात विशेष रूप से कही जा रही है - बिना किसी राजनीतिक नेतृत्व के सड़कों पर आना। सब कुछ स्वैच्छिक, स्वस्फूर्त, स्वआन्दोलित, स्वउद्वेलित। इसीलिए ये सब अधिकारपूर्वक और आत्मबलपूर्वक शीला दीक्षित और मनमोहनसिंह से सवाल पूछ पा रहे हैं। ये हमाम के नंगों में शरीक नहीं हैं। ये न तो सरकार में हैं और न ही कभी सरकार में आएँगे। इनकी भूमिका, ‘इनकी या उनकी’ सरकार बनाने में और ‘इन्हें या उन्हें’ सरकार से उखाड़ फेंक देने की है। सरकारों में बैठे हुए या सरकारों में बैठने के लिए बेकरारी से कतार में खड़े हुओं में से कोई भी इनके आगे चलने की हिम्मत नहीं कर पा रहा। कर भी नहीं सकता। वे सवाल पूछें तो कैसे पूछें? किससे पूछें? अपनी-अपनी सरकारोंवाले राज्यों में वे भी तो उसी सबके अपराधी हैं जिसके अपराधी शीला दीक्षित और मनमोहनसिंह को माना जा रहा है। सुषमा स्वराज से पूछा जा सकता है कि मध्य प्रदेश में तो उन्हीं की सरकार है! वहाँ तो उन्हें किसी से माँग नहीं करनी है! वहाँ तो उन्हें शिवराज सिंह को निर्देश/आदेश ही देना है! फिर वे ऐसा क्यों नहीं कर पाईं? और यदि अब तक नहीं कर पाईं तो अब क्यों नहीं कर रहीं?
 
दिल्ली के इस वीभत्स और जघन्य काण्ड के विरोध में देश भर में जहाँ-जहाँ भी प्रदर्शन हो रहे हैं, उनमें से एक भी प्रदर्शन से भी कोई भी राजनीतिक दल आधिकारिक रूप से नहीं जुड़ा है। उनमें हिम्मत ही नहीं है जुड़ने की। जुड़ने पर, सवाल पूछने से पहले उन्हें जवाब जो देना पड़ेगा! और सवाल वही पूछ सकता है जिसका दामन दागदार न हो। सबे सब, ‘दागदार चुनरिया’ वाले हैं। इस घटना के विरोध में मेरे कस्बे के काँग्रेसी सड़कों पर उतरे तो उन्हें जो जगहँसाई झेलनी पड़ी उसके वर्णन के लिए पूरा शब्दकोश और सारे मुहावरे अपर्याप्त होते हैं। वे किससे सवाल पूछ रहे थे? शिवराज सिंह चौहान से? कैसे पूछ सकते थे? शिवराज से पहले उन्हें शीला दीक्षित से जवाब लेना था। जिनके पास अपनी करतूतों के जवाब नहीं, वे औरों से सवाल कैसे कर सकते हैं?
 
यही वह बेईमानी है जो ईमानदार कार्रवाई करने की माँग को अविश्वसनीय और हास्यास्पद बना रही है। अब वक्त सवाल पूछने का नहीं, जवाब देने का है। और यदि सवाल पूछने भी हैं तो अपने आप से, अपनेवालों से पूछने पड़ेंगे। पहले अपना घर-आँगन साफ-सुथरा करना पड़ेगा। तब ही दूसरों की गन्दगी पर सवाल उठाए जा सकेंगे। और चूँकि सबके सब दूसरों की गन्दगी बता रहे हैं इसीलिए जो कुछ दिल्ली में हुआ है, वह आगे भी होता रहेगा। क्योंकि हम ही रोकना नहीं चाहते।
 
जब तक हम ‘अपराध’ को ‘अपराध’ मानने की निरपेक्ष दृष्टि नहीं अपनाएँगे, ‘अपराध’ को ‘अपने अपराध’ और/या ‘उनके अपराध’ में विभाजित करेंगे तब तक हम अपराधविहीन समाज नहीं बन पाएँगे। सापेक्षिक आचरण या कि सापेक्षिक नजर रख कर निरपेक्ष कार्रवाई की माँग अपने आप में बेईमान ही नहीं है, यह बेईमानी को मजबूत करने का अपराध भी है।
 
यह आत्म निरीक्षण, आत्म विश्लेषण, आत्म शोधन, आत्म शुद्धि और आत्मोन्नति का मुद्दा है जिसे मैं हर बार की तरह इस बार भी यूँ कह रहा हूँ कि निकृष्ट कच्चे माले से उत्कृष्ट उत्पाद हासिल नहीं किए जा सकते।
 
आईए! सामूहिक बलात्कार की ऐसी ही, अगली जघन्य घटना की प्रतीक्षा करें।

मेरा फलसफा और मेरा इम्तिहान

कल अपराह्न, मोबाइल की घण्टी से झपकी खुली। उन्होंने न तो अपना नाम बताया और न ही शहर का। मेरी, कलवाली पोस्ट का हवाला देते हुए बोले - ‘आपकी बातें सच कम और नसीहतें ज्यादा लगती हैं। अच्छी तो लगती हैं लेकिन विश्वास नहीं हो पाता। सच-सच बताइए! आपकी कथनी और करनी में कोई अन्तर नहीं होता?’ मैंने कहा - ‘होता है। किन्तु यथासम्भव कम से कम। किन्तु मैंने ब्लॉग में जो कुछ भी लिखा है, वह सब सच है। लेकिन आपका यह सोचना सही है कि मेरी कथनी-करनी में अन्तर होता है।’ बोले - ‘आपका यह कबूलनामा सुनकर लगता है कि आप सच ही बोल रहे होंगे। आप दो-एक बातों की मिसाल दे सकते हैं जिनके लिए आपने ब्लॉग पर फलसफा झाड़ा और जिन पर आपने अमल किया हो?’ मैंने कहा - ‘आप यदि कोई मुद्दा या विषय साफ-साफ बताएँ तो शायद कुछ बता सकूँ।’ बोले - ‘ आज आपने बच्चों को तहजीब और तमीज सिखाने का जो फलसफा झाड़ा है, उसी मुद्दे पर बता दीजिए। आप मुझे फोन पर मत बताइए। ब्लॉग पर ही लिख दीजिएगा। और हाँ! अपना यह कबूलनामा भी जाहिर कीजिएगा।’ मैंने उनका नाम जानना चाहा तो शेक्सपीयर बन गए। बोले - ‘नाम में क्या रखा है। आप तो बरा-ए-महरबानी, जो कहा है, उसे अपना इम्तिहान समझ कर, कर दिखाएगा।’

ईश्वर के सिवाय और कोई साक्षी नहीं है इस सम्वाद का। इसलिए, यह सचमुच में परीक्षा है - मेरी व्यक्तिगत ईमानदारी की। अब यह बात अर्थहीन ही है कि वे कौन थे और कहाँ से बोल रहे थे। इतना अवश्य अनुभव कर रहा हूँ कि वे, इस मामले में मेरी पोस्ट की प्रतीक्षा अवश्य करेंगे।
कई बातें बता सकता हूँ इस मुद्दे पर। किन्तु यहाँ दो-तीन बातें ही रख रहा हूँ - बानगी के तौर पर।

हिन्दी के प्रति मेरा ‘दुराग्रह’ सार्वजनिक है। मेरे दोनों बेटे अंग्रेजी में हस्ताक्षर करते थे। मैंने दोनों को भरपूर समझाया। छोटे-छोटे उदाहरण देकर। कभी विदेशियों के तो कभी भारतीयों के। कभी अखबारों से तो कभी पत्रिकाओं/टी वी से। पूरे दो वर्ष लगे मुझे अपनी बात समझाने में। अन्ततः मुझे सफलता मिली और गए कुछ बरसों से वे दोनों हिन्दी में हस्ताक्षर कर रहे हैं। दोनों में नौ वर्ष का अन्तर है। बड़े का जन्म 1980 में और छोटे का जन्म 1989 में हुआ। अनुमान लगाया जा सकता है छोटे बेटे को समझाना कितना कठिन रहा होगा। किन्तु सफलता मिली।

मेरे पास दुपहिया वाहन आया तब बड़ा बेटा आठ-साढ़े आठ वर्ष का था। पता नहीं वह मेरी बात समझता भी था या नहीं, किन्तु मैं यह बात बार-बार कहता रहता था कि अठारह वर्ष से कम आयु के बच्चों का वाहन चलाना गैर कानूनी है। वह जब नवीं कक्षा में गया तो वाहन चलाने के लिए उसके हाथ कसमसाने लगे। लेकिन मैं नहीं पिघला। पड़ौसियों ने मुझे खूब ‘समझाया’ किन्तु मैं नहीं समझा। इस मामले में मेरी उत्तमार्द्ध ने, मुझसे भी अधिक दृढ़ता से मेरा साथ दिया। मैं जानता था कि मेरा बेटा, अपने मित्रों के वाहन चलाता है। किन्तु वह डरता था कि ऐसा करते हुए मुझे नजर न आ जाए। मैं उसे बराबर टोकता था कि वह अनुचित कर रहा है और कभी पकड़ा गया तो मैं उसकी सहायता के लिए नहीं आऊँगा। यातायात प्रभारी मेरा परिचित था। मैंने उससे कह रखा था कि मेरा बेटा कभी वाहन चलाते हुए पकड़ा जाए तो उस पर जुर्माना अवश्य करे। एक बार ऐसा हुआ भी। यातायात प्रभारी ने मुझे बताया। किन्तु मेरे कुछ कहने से पहले ही इस घटना की सूचना देकर मेरे बेटे ने मुझे निहाल कर दिया। उसके बाद उसने वाहन तभी चलाया जब वह अठारह बरस का हो गया। मैंने इतनी सावधानी अवश्य बरती कि जैसे ही वह सोलह वर्ष का हुआ, उसका, बिना गीयरवाले वाहन का ड्रायविंग लायसेन्स बनवा दिया था। इसका लाभ यह हुआ कि अठारह बरस का होने पर उसका दूसरा लायसेन्स बनने में देर नहीं लगी। छोटे बेटे को तनिक छूट मिल गई थी। लेकिन स्थितियों में उन्नीस-बीस का ही फर्क रहा और वह भी कानून-कायदों में ही रहा।


 दोनों के लिए मैंने बाल पत्रिकाएँ लगवा रखी थीं। बड़ा बेटा जब नवीं कक्षा में आया तो, चैन्नई से प्रकाशित हो रही, अंग्रेजी मासिक पत्रिका ‘विजडम’ मँगवानी शुरु कर दी। सामान्य ज्ञान से जुड़ी, छोटी-छोटी जानकारियों के मामले में यह पत्रिका मुझे बहुत अच्छी लगी। इसका प्रभाव यह हुआ कि जानकारियों के मामले में मेरे दोनों बेटे अपने सहपाठियों की अपेक्षा अधिक समृद्ध बने रहे। दोनों की हिन्दी पर मुझे अतिरिक्त रूप से ध्यान नहीं देना पड़ा क्योंकि मेरे घर में वातावारण शुरु से ही ‘हिन्दीमय’ है। मैंने बस इतनी सावधानी बरती कि वे जब भी कोई चूक करते, मैं फौरन टोकता। इसका असर यह हुआ कि अपने आयु समूह के बच्चों के बीच मेरे दोनों बेटों की हिन्दी अलग से ही पहचानी जाती रही।

‘आइए’, ‘पधारिए’, ‘कहिए’, ‘बैठिए’, ‘लीजिए’, ‘दीजिए’, ‘पीजिए’ जैसे शब्दों पर अतिरिक्त सतर्कता बरतते हुए ध्यान दिया। जब तक दोनों हमारे साथ रहे, तब तक तो सब ठीक-ठाक ही रहा। अब गए कुछ बरसों से दोनों ही घर से दूर रह रहे हैं। नहीं जानता की वे ‘जस के तस’ हैं या जमाने के हिसाब से बदल गए हैं। लेकिन जब तक हमारे सामने रहे, वैसे ही रहे जैसा कि फलसफा मैंने अपनी कलवाली पोस्ट में झाड़ा है।

एक बात और मैंने दोनों को अनुभव कराई जिसमें भी मेरी उत्तमार्द्ध ने मुझसे आगे बढ़कर सहायता की। घर में फोन की घण्टी जब भी बजती, दोनों में से कोई उठाता और ‘हैलो’ कहते ही, ‘पा ऽ ऽ पा ऽ ऽ आ!’ या ‘म ऽ ऽ म्मी ऽ ऽ ई!’ की हाँक लगाता। मैंने उन्हें टेलिफोन-शिष्टाचार सिखाया और अनुपस्थिति में सन्देश लेकर, उसे पूरा-पूरा सम्प्रेषित करना सिखाया। यह भी सिखाया कि कोई भी काम किसी एक का काम नहीं है। सारे काम, हम चारों के काम है। यदि मैं बीमा करता हूँ तो बाकी तीनों भी यह काम कर रहे हैं। यदि उनकी माँ नौकरी कर रही है तो वह अकेली नहीं, हम चारों ही नौकरी कर रहे हैं। वे दोनों पढ़ रहे हैं तो वे दोनों ही नहीं, उनके साथ-साथ हम दोनों भी पढ़ रहे हैं। एक-दूसरे की सहायता के बिना हममें से कोई भी अपना काम नहीं कर पाएगा - यह बात समझाने की कोशिश की और मुझे यह कहते हुए गर्व और परम् सन्तोष अनुभव हो रहा है कि हमारे बेटों ने हमें कभी निराश नहीं किया।

दोनों ने सूचना प्रौद्योगिकी (आई.टी.) में बी. ई. किया है। बड़े ने एम. बी. ए. भी किया। दोनों जब इंजीनीयरिंग कॉलेज में गए तो दोनों को साफ-साफ बता दिया था कि यदि ‘रेगिंग’ को लेकर उनकी कोई शिकायत आई (फिर भले ही शिकायत झूठी ही क्यों न हो) तो मैं उनके बचाव में खड़ा नहीं होऊँगा, इस निमित्त कोई जुर्माना नहीं भरूँगा और उन्हें कॉलेज से निकलवा कर ले आऊँगा। इस चेतावनी का असर यह हुआ किवे ऐसे बच्चों से जुड़े ही नहीं जो रेगिंग में रुचि रखते थे।
ऐसी असंख्य छोटी-छोटी बातों की पूरी पोथी लिखी जा सकती है। हमारे बेटों से ही हमें यह कहने का विश्वास मिल पाया है कि यदि बच्चों को विश्वास में रखा जाए, उन पर भरोसा किया जाए तो वे बड़ों को कभी निराश नहीं करते।

मुझे लग रहा है, आज के इम्तिहान के लिए इतने जवाब ही काफी होंगे। उत्तीर्ण होने लायक अंक देने में ‘उन्हें’ असुविधा नहीं होगी। फिर भी, यह सब लिखने के अगले ही क्षण से, अपना परिणाम जानने को उत्सुक हो गया हूँ। आशा कर रहा हूँ कि कल की ही तरह, आज भी ‘वे’ मुझे मोबाइल पर घण्टी देंगे और मेरा परिणाम सूचित करेंगे।

तब तक, आप ही बताइएगा कि आप मुझे कितने अंकों का अधिकारी मानते हैं।  

नाव के छोटे-छोटे छेद

पिघलता हिमालय है किन्तु बाढ़ मैदानों में आती है। बचाव के उपाय मैदानों में रहनेवालों को ही करने पड़ेंगे। उन्हीं भवनों के शिखर अविचल रहते हैं जिनकी नींव मजबूत होती है। यदि शिखर दरक रहे हैं तो मतलब है कि नींव कमजोर हो गई है। तब, शिखर की मरम्मत से काम नहीं चलेगा। नींव ही मजबूत करनी पड़ेगी। लेकिन हम ऐसा नहीं कर रहे हैं। चाह रहे हैं कि हिमालय न पिघले और कमजोर नींव के रहते हुए भी शिखर यथावत बने रहें।

यह सब कुछ दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार की नृशंस घटना को लेकर कह रहा हूँ। मित्र लोग मुझ पर चिढ़ते हैं,  झुंझलाते हैं। कहते हैं, मैं छोटी-छोटी बातों को लेकर बैठ जाता हूँ। बात का बतंगड़ बना देता हूँ। मेरी खिल्ली उड़ाते हुए कहते हैं - ‘चिन्दी का थान बनाना कोई तुमसे सीखे।’ मुझे अपनी खिल्ली उड़ाने का बुरा नहीं लगता। बुरा इस बात का लगता है कि जिसे वे छोटी बात कह/मान कर उसकी अनदेखी कर रहे हैं, वह दूरगामी, बड़े और गम्भीर प्रभाव छोड़ती है। नाव का छेद कितना ही छोटा या बारीक हो, नाव को डुबाने के लिए पर्याप्त होता है।

बीमा एजेण्ट हूँ। घर-घर जाता हूँ और देखता हूँ कि छोटे-छोटे छेदों की अनदेखी करते-करते, किस तरह हमने देश को डूबती नाव में बदल दिया है।

मुझे किसी भी घर में बाल पत्रिकाएँ देखने को नहीं मिलती। महापुरुषों, शहीदों के जीवन चरित की चर्चा कोई नहीं करता। नैतिकता और आदर्शों की बातें सबको विकर्षित करती हैं। बच्चों की अनुचित बातों पर कोई नहीं टोकता। बच्चे अपने/अपनी अध्यापक की खिल्ली उड़ाते हैं और माता-पिता उसमें रस लेते हैं। डाँटना तो दूर रहा, टोकते भी नहीं।

माता-पिता और बच्चों की बातें ध्यान से सुनता हूँ और दुःखी होता हूँ। सबके सब, अपने-अपने बच्चे को, उसके सहपाठियों का ‘प्रतिद्वन्द्वी’ बना रहे हैं। वे ‘प्रतिभागी’ और ‘प्रतिद्वन्द्वी’ का अर्थ भूल चुके हैं। सहपाठी की चिन्ता करने, उसकी सहायता करने की सीख कोई नहीं देता। इसके विपरीत शिकायत करते हैं कि कक्षा का कोई भी बच्चा उनके बच्चे की मदद नहीं करता। होमवर्क के लिए कॉपी नहीं देता। ऐसी शिकायत करते समय वे भूल जाते हैं कि दूसरे माता-पिता भी अपने बच्चे को वही सब सिखा रहे हैं जो वे अपने बच्चे को सिखा रहे हैं। ‘सबके भले में ही अपना भला है’ वाली सूक्ति अक कहीं सुनने को नहीं मिलती। इसके उल्टे, प्रतियोगिता के लिए तैयार करते हुए एक पिता ने अपने बच्चे को रटाया - ‘तोड़ दूँगा, फोड़ दूँगा। सबको पीछे छोड़ दूँगा।’ कोई महसूस करने को तैयार नहीं कि अपने बच्चे को सबसे आगे देखने की उतावली में वे देश को पीछे धकेल रहे हैं।

सामाजिक व्यवहार को लेकर बच्चों और बड़ों के बीच अब कोई सम्वाद नहीं होता। पढ़ो-पढ़ो और केवल पढ़ो। सुबह स्कूल जाओ, दोपहर को ट्यूशन और शाम को कोचिंग क्लास। पारिवारिकता और रिश्तेदारियाँ, बच्चों के लिए कौतूहल का विषय बनती जा रही हैं। कोई रिश्तेदार आता है तो भी बच्चा अपने कमरे में बैठकर पढ़ता रहता है। उसे ‘डिस्टर्ब’ नहीं किया जाता। जात-बिरादरी के आयोजनों, भोजनों में जाने से वह बेरुखी से मना कर देता है। माँ-बाप भी पहले ही इंकार में मान जाते हैं - ‘हाँ। क्या करेगा वहाँ चलकर? उसे कम्पनी नहीं मिलेगी।’ ऐसे में सामूहिकता, सामाजिकता जैसी भववाचक संज्ञाएँ उसकी जिन्दगी में कैसे आ सकती हैं? दया, करुणा, सहानुभूति, सम्वेदना जैसे शब्द अब बच्चों की जिन्दगी से लुप्त होते जा रहे हैं। ‘खुद की चिन्ता करो। दुनिया जाए भाड़ में’ सिखाया जा रहा है। प्रायः हर घर में अब एक ही बच्चा है। सो, अतिरिक्त चिन्ता की जाती है बच्चे की। इतनी कि बच्चे को घर के अभावों की भी जानकारी नहीं हो पाती। नतीजा यह है कि बच्चा अपनी हर माँग को फौरन ही पूरी होते देखना चाहता है। उसे अपनी कक्षा में दूसरों बच्चों के मुकाबले किसी भी मामले में दूसरे नम्बर पर नहीं रहना है। इसलिए, साथी बच्चे के पास कोई ‘लेटेस्ट चीज’ आए, उससे पहले, उसे चाहिए। हर कीमत पर। माँ-बाप हैं कि डरे हुए। इकलौता बच्चा है! पता नहीं क्या कर बैठे? इसलिए कहने की हिम्मत ही नहीं होती कि अभी जेब में पैसे नहीं है, पहली तारीख पर ले आएँगे।

बच्चों की भाषा से आदरसूचक शब्द गुम होते जा रहे हैं। ‘आईए’, ‘बैठिए’, ‘कहिए’ की जगह ‘आओ अंकल’, ‘बैठो अंकल’, ‘कहो अंकल’ ने ले ली है। बच्चे की आँखों में असम्मान नहीं है किन्तु नहीं जानता कि भाषा के भी संस्कार होते हैं। कैसे जाने?

ऐसी ‘छोटी-छोटी’ बातें ही हमें हिमालय के पिघलने से आनेवाली बाढ़ से बचा पाएँगी। ऐसी ‘छोटी-छोटी बातें’ ही हमारे शिखर को मजबूती दे पाएँगी। लेकिन ये बातें काफी मेहनत, असीमित धैर्य माँगती हैं। वह हमारे पास नहीं है। इसीलिए हमें हिमालय का पिघलते रहना और शिखरों का दरकते रहना झेलना ही पड़ेगा।

छोटी-छोटी बातें, छोटी नहीं होतीं। यह छोटी सी बात हम इसी क्षण समझ लें, इसी में हमारी भलाई है, इसी में हमारा बचाव है और इसी मे हमारी बेहतरी है।

जनाक्रोश या निर्वीर्यों द्वारा पुंसत्व का उद्घोष?

मर्मान्तक पीड़ा और उतनी ही शर्मिन्दगी से यह सब लिख रहा हूँ। रुका नहीं जा रहा। पीड़ा इसलिए कि सहा नहीं जा रहा और शर्म इसलिए कि इस सबमें मैं भी बराबर से शरीक हूँ।
 
दिल्ली में, चलती बस में हुए सामूहिक बलात्कार से पूरा देश उद्वेलित है। लेकिन यह सब मुझे क्षणिक लग रहा है। बिलकुल, पानी के बुलबुले की तरह या कि सोड़ा वाटर बोतल के उफान की तरह - जो ‘देखत ही बुझ जाएगा’ या जितनी तेजी से बोतल से बाहर आएगा उससे अधिक तेजी से बैठ जाएगा।
तात्कालिक रूप से भले ही कुछ हो जाए, लोगों के मन को समझा दिया जाए लेकिन स्थायी रूप से कुछ भी नहीं होगा। होगा वही जो हम सब अब तक करते चले आ रहे हैं - भूल जाएँगे। भूलने में माहिर जो हैं हम लोग!
 
बिना किसी मेहनत के कुछ बातें मुझे नजर आती हैं जिनके कारण यह जघन्य दुष्कृत्य इस तरह से राष्ट्रीय मुद्दा बन गया। पहली - यह दिल्ली में हुआ। दूसरी - चूँकि हमारा मीडिया दिल्ली केन्द्रित है, इसलिए यह राष्ट्रीय मुद्दा बना। और तीसरी बात - दुष्कृत्य की शिकार लड़की का किसी राजनीतिक दल या नेता से सम्बद्ध नहीं होना। एक चौथी बात की भी अनदेखी नहीं की जा सकती। वह यह कि दिल्ली और केन्द्र में एक ही दल की सरकार होने कारण इस पर राजनीति का परोक्ष प्रभाव।
 
मेरी इन चारों बातों को एक सूत्र में सामहित किया जा सकता है - ‘देश में कानून का शासन न होना।’ यदि देश में कानून का शासन हुआ होता तो ऐसी नौबत आना तो दूर रहा, ऐसी नौबत आने की आशंका भी नहीं हो पाती। किन्तु ऐसा है नहीं तथा यदि सब कुछ आज जैसा ही बना रहे तो होने की सम्भावना तो छोड़िए, कानून का शासन होने की आशंका भी नहीं होगी।
 
हम लोग कानून का शासन चाहते तो हैं किन्तु होने नहीं देते। उसके लिए निरपेक्ष भाव चाहिए जो हमारे खून से, हमारे चरित्र से, हमारे आचरण से तिरोहित हो चुका है। हमें कानून का शासन तो चाहिए किन्तु हमें छोड़कर बाकी पूरे देश पर हो।
 
न्यायपालिका यदि न हो तो हमारे देश में कानून, सत्तारूढ़ दल की रखैल बन कर रह गया है। ‘क्या अपराध हुआ है?’ इससे पहले देखा जाता है कि अपराध किसने किया है। यदि अपनेवाले (सत्तारूढ़ दल के समर्थक) ने किया है तो कानून कुछ नहीं देखेगा, कुछ नहीं कहेगा और कुछ नहीं करेगा। अपराध यदि अपने सामनेवाले (प्रतिपक्ष के समर्थक) ने किया है तो उस सबके लिए भी कार्रवाई हो जाएगी जो उसने किया ही नहीं। यदि किसी तीसरे ने किया है तो कानून अपनी मर्जी और अपनी सुविधा से काम करेगा।
 
जो कुछ दिल्ली में हुआ वही सब देश के कौन से राज्य में नहीं हो रहा? अखबार उठा कर देख लीजिए, सारी की सारी राज्य सरकारें मानो दिल्ली और केन्द्र सरकार को मात देने में लगी हुई हैं। मेरे कस्बे में गए दिनों तीन साल की तथा छः साल की, दो बच्चियों पर, अलग-अलग बलात्कार हुए किन्तु सच मानिए, अखबारों में दो/तीन कॉलम शीर्षक समाचारों से आगे कुछ भी नहीं हुआ और इन घटनाओं की चर्चा दूसरे दिन तक भी नहीं टिक पाईं।
 
दलित महिलाओं के साथ दुराचार से लेकर उन्हें निर्वस्त्र कर, गाँव में उनका जुलूस निकालने की घटनाएँ आए दिनों होती रहती हैं। किन्तु कोई नोटिस नहीं लेता। सरकारी छात्रावास में रह रहीं नाबालिग बच्चियों के गर्भवती होने की घटनाएँ उजागर होने के बाद भी कुछ नहीं होता। अखबार भी रस्म अदायगी करके रह जाते हैं। पत्ता भी नहीं खड़कता। सब कुछ इस तरह होता है मानो यह तो होता ही रहता है और होता ही रहेगा।
 
जिस देश में किसी मुख्य मन्त्री को, कॉलेज प्राध्यापक की हत्या के आरोपित से मिलने के लिए जेल में जाने में कोई हिचक न हो, कोई सरकार ऐसे आरोपित के विरुद्ध कोर्ट में हारने पर उत्सव मनाए, उस देश में यह हो हल्ला चकित ही करता है। कानून का शासन होता तो ऐसे दृष्यों की कल्पना भी की जा सकती? मेरे प्रदेश में शिवराज सिंह के नेतृत्व में भाजपा की सरकार सत्ता पर काबिज है। दिल्ली की इस घटना पर मेरे प्रदेश के गृह मन्त्री उमा शंकर गुप्ता की प्रतिक्रिया में वह तल्खी, वह उत्तेजना, वह आक्रोश, वह क्षोभ कहीं नहीं था जो लोकसभा में प्रतिपक्ष की नेता सुषमा स्वराज के भाषण और मुख मुद्रा में था। गुप्ता ने घटना पर टिप्पणी करने से बचते हुए, शान्त और संयत स्वरों में, घटना के बाद पुलिस कार्रवाई में बरती जानेवाली तत्परता को महत्वपूर्ण बताया। जाहिर है कि उन्हें अपने प्रदेश की दशा ने ही ऐसा करने/कहने के लिए मजबूर किया। यदि कानून पर सत्ता का नियन्त्रण नहीं होता तो सुषमा स्वराज और उमा शंकर गुप्ता की प्रतिक्रियाओं में कोई अन्तर नहीं होना चाहिए था। लेकिन ऐसा हुआ। ऐसा ही होता है। सबके सब ऐसा ही करते हैं। कोई भी कानून को अपना काम नहीं करने देना चाहता।
 
और जो मीडिया आज हलकान हुआ जा रहा है उसे कभी गाँवों में जाने की फुरसत मिली? उसके लिए तो घटना वही होती है जो दिल्ली में होती है। दूरदराज के किसी गाँव में, उस घटना से सौ गुना अधिक जघन्य घटना, मीडिया के लिए घटना नहीं होती। हो भी कैसे? उसे दिल्ली से फुरसत मिले तो!
 
उद्वेलित लोगों में खुद को शरीक करते हुए भी यह कहने से अपने आप को रोक नहीं पा रहा हूँ कि यह सब मुझे किसी निर्वीर्य द्वारा खुद को पुंसवान घोषित किए जाने के व्यर्थ प्रयास से अधिक नहीं लग रहा।
 
हर कोई, अपराधियों को फाँसी पर चढ़ाने की माँग कर रहा है। व्यथातिरेक और भावातिरेक में यह स्वाभाविक  ही है। किन्तु जब आवश्यकता होगी और अवसर आएगा तब कितने लोग गवाही देने न्यायालय जाएँगे? कौन इसके लिए अपना काम छोड़ कर जाएगा? कौन नौकरी से सी एल लेगा और कौन अपनी दुकान बन्द करने का नुकसान उठाएगा? ऐसे प्रकरणों को तलाश करने में ज्यादा परिश्रम नहीं करना पड़ेगा जिनमें गवाह या तो आए ही नहीं या फिर पलट गए। ऐसे असंख्य मामले आसानी ये याद आ जाएँगे जिनमें अपराधियों को दोष मुक्त करते हुए न्यायाधीशों ने अपनी आक्रोशित विवशता प्रकट की है।
 
दिल्ली की यह शापित लड़की कम से कम इस मामले में सचमुच में भाग्यशाली रही कि वह दिल्ली में दरिन्दों की शिकार हुई और किसी राजनीतिक पार्टी या नेता से जुड़ी हुई नहीं थी। इनमें से यदि एक भी बात होती तो उसे कोई नहीं पूछता। उसका इलाज होना तो दूर, उसका नाम लेने की फुरसत भी किसी को नहीं होती।
 
दिल्ली की यह घटना और इस पर हुई जन-प्रतिक्रिया वस्तुतः हमारे खोखलेपन और दोहरे पैमाने अपनाने के दुराचरण को ही उजागर करती है। ‘घटना’ को जब तक हम ‘घटना’ नहीं मानेंगे, उसे निरपेक्षता से नहीं देखेंगे, तक तब ऐसा ‘हो हल्ला’ (ऐसे जघन्य दुष्कृत्य पर जन-प्रतिक्रिया को ‘हो-हल्ला’ कहने का मुझे दुःख तो है लेकिन क्या करूँ? मुझे यह ‘हो-हल्ला’ ही लग रहा है) होता रहेगा। कानून का शासन कभी नहीं हो पाएगा। हम होने ही नहीं देगें।

यहाँ शहीद आपस में बतिया रहे हैं

यहाँ शहीद आपस में बतिया रहे हैं
- आशीष दशोत्तर
 
‘‘शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पे मरने वालों का यही बाकी निशाँ होगा।’’ शहीदों की शहादत का मान ही देश के सम्मान को बढ़ाता रहा है और आज भी उनकी प्रेरणा से ही आजाद भारत में अमन चैन और सुकून कायम है। शहीदों के प्रति सम्मान व्यक्त करना, स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों के प्रति आदर भाव व्यक्त करना हमारा कर्तव्य भी है और धर्म भी। सही अर्थो में इन सेनानियों के प्रति मन में सम्मान का भाव बना रहे, वही अपना धर्म है, वही अपनी परम्परा है, वही अपनी रीति है।
 
शहीदों के सम्मान में देशभर में अनेक स्मारक स्थापित हैं मगर धार जिले की बदनावर तहसील में ‘भारतमाता मन्दिर’ एवम् ‘शहीद गैलेरी’ ऐसा प्रयास है जो पूरे प्रदेश में अनूठा और अद्भुत है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह स्थल पूर्णतः जनसहयोग द्वारा विकसित किया गया है। बदनवार तहसील से पाँच किलोमीटर दूर स्थित नागेश्वर को यूँ तो धार्मिक एवं अन्तिम स्थल के रूप में जाना जाता है। मगर इसे एक व्यक्ति के प्रयासों ने शहीदों के तीर्थ  स्थल के रूप में पहचान दिला दी है। भारतमाता मन्दिर एवम् शहीद गैलेरी की स्थापना का प्रयास श्री शेखर यादव ने किया जो शहीदों के प्रति अगाध श्रद्धाभाव रखते है। श्री यादव ने बताया कि शहीदों की मूर्तियाँ जगह-जगह स्थापित तो की जाती हैं, किन्तु देखरेख के अभाव में उपेक्षा का शिकार हो जाती हैं। इससे शहीदों का अपमान होता है। ऐसी कई उपेक्षित मूर्तियों को देखकर मन व्यथित हुआ और विचार आया कि क्यों न एक ऐसे स्थान बनाया जाए जहाँ भारतमाता भी हों और उनके सपूत भी। इस विचार को श्री यादव ने अपने साथियों को बताया तो किसी ने भी इससे असहमति नहीं जताई। सभी ने आश्वासन दिया कि यदि ऐसा कोई प्रयास किया जाता है तो वे अपनी क्षमता अनुसार सहयोग करेंगे। यहीं श्री यादव का विश्वास मजबूत हुआ और इन्होंने यह ठाना कि इस स्थान का विकास जनसहयोग से ही किया जाएगा।
 
गैलरी परिसर के प्रवेश द्वार पर लगा संकेत शिलालेख
 
 
 
गैलरी का प्रवेश द्वार
 
किसने अपने कौन से नायक की मूर्ति लगवाई
 
जनसहयोग एवम् स्थानीय जनप्रतिनिधियों के सहयोग से प्रथम तल पर एक सभाकक्ष और द्वितीय तल पर प्रतिमाओं हेतु एक कक्ष निर्मित किया गया। इस कक्ष में मूर्तियाँ किस तरह स्थापित हो सकती हैं, इस पर विचार हुआ। श्री यादव ने सभी साथियों से कहा कि अपनी श्रद्धा के अनुसार अपने आदर्श महापुरुष की प्रतिमा गैलेरी में स्थापित की जाए। देखते ही देखते सभी ने अपने-अपने प्रिय महापुरुष की प्रतिमा इस गैलेरी को भेंट कर दी।
भारतमाता की प्रतिमा सहित इस गैलेरी में 21 शहीदों-महापुरुषों की प्रतिमाएँ स्थापित हैं। इनमें शहीद मंगल पाण्डे, शहीद-ए-आजम भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद, सुखदेव, राजगुरु, वीरांगना लक्ष्मीबाई, स्वामी विवेकानन्द, महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, खुदीराम बोस, सरदार वल्लभभाई पटेल, तात्याटोपे, रामप्रसाद बिस्मिल, लाला लाजपतराय, गणेश शंकर विद्यार्थी, वीरांगना उदादेवी, नानाजी पेशवा, राजा बख्तावरसिंह, वीर सावरकर, सुभाषचन्द्र बोस की प्रतिमाएँ शामिल हैं। आमने-सामने पंक्तिबद्ध स्थापित ये मूर्तियाँ आपस में बातें करती अनुभव होती हैं।
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
आमने-सामने पंक्तियों  में स्‍थापित, शहीदों की मूर्तियॉं
 
 
अज्ञात/अनजान प्रायः वीरांगना उदादेवी की प्रतिमा सहसा ही ध्यानाकर्षित करती है। वनवासी समाज की इस महिला ने, संघर्ष करते हुए अकेले ही यूरोपीय सेना के 36 अंग्रेज अधिकारियों को यमलोक भेज दिया था। इनका बलिदान 16 नवम्बर 1857 को हुआ।
 
प्रत्येक मूर्ति के साथ उस महापुरुष के प्रमुख कार्यों का विवरण तथा जन्म एवं अवसान तिथि के साथ उसका प्रसिद्ध सूत्र वाक्य भी लिखा गया है। इससे अनजान व्यक्ति को भी इन शहीदों से परिचित होने में किसी तरह की दिक्कत नहीं होती है। श्री यादव ने बताया कि गैलेरी में स्थापित सभी मूर्तियों को दानदाताओं ने स्वेच्छा से प्रदान किया।

इस गैलेरी का औपचारिक लोकार्पण 1857 के स्वाधीनता संग्राम की डेढ़ सौंवी वर्षगाँठ के अवसर पर 4 जून 2008 को किया गया था। अपने आप में महत्वपूर्ण होने के साथ गैलेरी की कुछ विशेषताएँ भी हैं। श्री यादव एवम् उनके समस्त साथी सभी महापुरुषों के बलिदान दिवस एवम् जयन्ती पर इसी स्थान पर संगोष्ठी का आयोजन करते हैं। शहीदों की प्रतिमा पर माल्यार्पण के साथ ही उनके विचारों पर चर्चा की जाती है जिसमें युवाओं की भागीदारी पर बल दिया जाता है ताकि युवावर्ग भी इन महापुरुषों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व से परिचित हों। इसके अतिरिक्त प्रतिवर्ष सर्वपितृ मोक्ष अमावस्या को यहाँ तर्पण कर शहीदों की आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना की जाती है।
 
प्रतिमाओं को पानी, हवा एवं धूप से बचाने के लिए गैलेरी के ऊपर शेड निर्मित किया हुआ है। प्रतिदिन इन मूर्तियों की सफाई औरभारतमाता की पूजा की जाती है। यहाँ की मूर्तियों को देखकर ही शहीदों के प्रति मन में श्रद्धाभाव उत्पन्न हो जाता है। मूर्तियों को एक समान आकार में बनवाया गया है और एक समान ऊँचाई पर ही स्थापित किया गया है। इससे इस स्थान की भव्यता में वृद्धि हो गई है। एक बात और भी कि इस स्थल पर आने वाले लोगों की संख्या प्रतिदिन बनी रहती है। चूँकि यह स्थान धार्मिक क्षेत्र में ही शामिल है इसलिए दर्शनार्थ आने वाला व्यक्ति शहीदों के दर्शन करना नहीं भूलता है।
 
भारतमाता मन्दिर एवं शहीद गैलेरी का सपना संजोने वाले श्री शेखर यादव की योजना है कि इसका और विस्तार किया जाए। अपने-अपने आदर्श महापुरुषों की प्रतिमाएँ स्थापित करने के लिए वे और लोगों को निरन्तर प्रेरित-प्रत्साहित कर रहे हैं और उम्मीद है कि शहीदों-महापुरुषों की प्रतिमाओं की संख्या में जल्दी ही वृद्धि होगी। इसके साथ ही वे चाहते हैं कि विद्यार्थियों, युवाओं को इस स्थान पर लाने के लिये विद्यालय स्तर पर प्रयास होने चाहिए। इससे नई पीढ़ी हमारे महापुरुषों का जीवन चरित्र सिर्फ याद ही नहीं रखेगी अपितु उन्हें महसूस भी करेगी। आज जब शहीदों की शहादत को भुलाने का दौर सा चल पड़ा है, ऐसे में शहीद गैलेरी जैसे प्रयास मन में एक उम्मीद जगाते हैं। शहीदों के प्रति मन में सम्मान बना रहे और नई पीढ़ी शहीदों के प्रति आकर्षित हो, अपने आदर्श गढ़ सके, उनको पहचान सके, उनके कार्यों से प्रेरणा ले सके, इसलिए ऐसे प्रयास आवश्यक हैं। एक छोटे से गाँव में बहुत ही छोटे स्तर पर किये गए इस प्रयास ने बहुत बड़ा सन्देश दिया है कि यदि भावना पवित्र हो, कर्म में कुनीति नहीं हो, कोशिशों मे कुछ कर गुजरने का जज्बा हो, तो हर राह आसान बन जाती है। एक छोटे स्थान पर जनसहयोग से निर्मित यह गैलेरी देश प्रेम की ऐसी ही राह दिखा रही है।
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गजलों के जरिये अपनी बात पुख्‍तगी और बेहद खूबी से कहनेवाले, आनेवाले वक्‍त के मकबूल शायर आशीष दशोत्‍तर रतलाम में रहते हैं। कुछ महीनों पहले, साप्‍ताहिक 'उपग्रह' में प्रकाशित उनका यह लेख सम्‍पादित रूप में देने की अनुमति उन्‍होंने सहर्ष प्रदान की। उनकी कई गजलें आप यहॉं पढ सकते हैं। मोबाइल नम्‍बर 098270 84966  पर उनसे गुफ्तगू की जा सकती है।