अपनी खुशी प्रकट करने के लिए कोई किसी को डाँट भी सकता है - यह मैंने नरेश से जाना। कह रहा था - ‘सरजी! इतराइए नहीं! आप जैसे और भी लोग हैं दुनिया में।’ पूरी बात सुनकर मुझे आत्मीय प्रसन्नता हुई।
नरेश का पूरा नाम नरेश चौधरी है। उस उम्र में पितृविहीन हो गया कि अपने पिता का चेहरा भी बराबर याद नहीं है उसे। परिवार में छः बहनें और उनका इकलौता भाई नरेश। माँ ने हाड़तोड़ परिश्रम कर सातों को पाला-पोसा, बड़ा किया, पढ़ाया-लिखाया। बचपन में नरेश को खेलने के लिए जो खिलौना मिला वह था - संघर्ष। यह परिवार खुद को कैसे बचाए रख पाया, किस तरह सब बहनों-भाई ने माँ के कन्धे से कन्धा मिलाया, अपनी इच्छाओं पर सात ताले जड़े और किस तरह सबने अपना-अपना मुकाम हासिल किया, वह अविश्वसनीय और प्रेरक संघर्ष-गाथा अपने आप में एक स्वतन्त्र पोथी की सामग्री है।
होश सम्हालने से पहले ही नरेश को घर की जिम्मेदारियाँ सम्हालनी पड़ीं। परिवार का इकलौता पुरुष सदस्य होने के कारण उसे बचपन में ही सयाना हो जाना पड़ा।
नरेश से मेरा परिचय ढाई-तीन दशकों का है। उम्र में वह मुझसे छोटा है किन्तु उसका संघर्ष, उसका जीवट, उसकी जिजीविषा के चलते वह मेरे लिए प्रणम्य है। उससे मैं व्यापारिक, पारिवारिक और व्यक्तिगत रूप से उपकृत हूँ। अपने आचरण से उसीने समझाया कि किसी की सहायता करने के लिए न तो पैसों की जरूरत होती है न ही पैसेवाला बनना पड़ता है। यह सब भी तब, जबकि हमारे व्यापारिक कारणों से उसे आर्थिक विपत्तियाँ और अपने निजी/व्यापारिक क्षेत्रों में अवमानना झेलनी पड़ी। एक व्यापारिक भागीदारी फर्म के हम तत्कालीन तीन भगीदारों में से मेरे शेष दो भगीदारों की तो मैं नहीं जानता किन्तु मैं खुद को इस क्षण तक नरेश का अपराधी मानता हूँ।
वही नरेश मुझे डाँट रहा था।
हिन्दी के प्रति अपने प्रेम को दुराग्रह में बदल लेना मेरी फितरत हो गई है। इसी के चलते मैंने अपने लेटर हेड पर एक वाक्य छपवा रखा है। वही वाक्य मैंने इस वर्ष अपने दीपावली अभिनन्दन-पत्र पर भी छपवाया था। उसी को लेकर नरेश मुझे टोक रहा था।
हिन्दी के मामले में नरेश ‘खानदानी’ है। साधारण बीमा करनेवाली एक सरकारी कम्पनी में विकास अधिकारी है। परिवार का अच्छा-भला व्यापार है। इस सबमें, जहाँ तनिक भी सम्भावना बनती है, वहाँ अधिकतक काम हिन्दी में करता है। हस्ताक्षरों के बारे में नरेश ने कहा - ‘‘मुझे तो याद भी नहीं आता कि हस्ताक्षर के नाम पर मैंने कभी ‘नरेश’ का ‘न’ भी अंग्रेजी में लिखा हो।’’ ग्यारह जून 1979 को नरेश का विवाह हुआ। सुश्री पूर्णिमा गोयल ( अब हम सबकी पूर्णिमा भाभी) उसकी जीवन संगिनी बनी। वे एक सार्वजनिक बैंक में सेवारत थीं और अपने हस्ताक्षर ‘पी गोयल’ के नाम से करती थीं। किन्तु विवाह के तत्काल बाद से ही वे हिन्दी में हस्ताक्षर करने लगीं और अब तक कर रही हैं। बेटे अपूर्व ने बीई उपाधि भारत में और एमबीए उपाधि अमेरीका में प्राप्त की। गत बारह बरसों से अमेरीका में है। लेकिन हस्ताक्षर और निजी व्यवहार हिन्दी में ही कर रहा है। नरेश की बहू श्वेता अवश्य अंग्रेजी में हस्ताक्षर कर रही है। अमेरीका में रहते हुए उसकी नौकरी के अभिलेखों में उसके हस्ताक्षर शुरु से ही अंग्रेजी में हैं जिन्हें बदल पाना उसके लिए सम्भव नहीं हो पा रहा है। किन्तु उसने घोषित कर दिया है कि स्वदेश वापसी के पहले ही दिन से वह हिन्दी में ही हस्ताक्षर करेगी। नरेश-पूर्णिमा के बेटी प्राची ने अपनी बीई और एमबीए की उपाधियाँ विदेश में ही प्राप्त कीं किन्तु वह अपने हस्ताक्षर हिन्दी में ही करती है। उसने आज तक अंग्रेजी में हस्ताक्षर नहीं किए।
बैठे हुए नरेश के आसपास खडे हुए बॉंये से प्राची, श्वेता, अपूर्व और पूर्णिमा भाभी
नरेश से ये सारी बातें जानकर मुझे आत्मीय प्रसन्नता हुई। उस पर गर्व-गुमान तो पहले से ही था। उसमें और बढ़ोतरी हो गई। नरेश का यह उदाहरण साबित करता है कि यदि हम सब अपना-अपना घर सम्हाल लें, जैसे कि नरेश ने सम्हाला है तो हमारे भाषागत संकट सहजता से समाप्त हो सकते हैं। हमारी हिन्दी अपना वह स्थान प्राप्त कर सकती है जहाँ से हम ही ने उसे विस्थापित कर दिया है।
मैं, मेरी उत्तमार्द्धजी और मेरे दोनों बेटे भी हिन्दी में ही हस्ताक्षर करते हैं। मेरे बेटे हिन्दी में हस्ताक्षर करें, इस हेतु मुझे दो वर्षों तक निरन्तर प्रयास करने पड़े। हमारी बहू प्रशा, विवाह के चार बरस पूरे होने के बाद, अभी अंग्रेजी में ही हस्ताक्षर कर रही है। मैं उसे टोकता रहता हूँ, इस आशा से कि मेरे टोकने को वह कभी न कभी तो गम्भीरता से लेगी।
अपनी मातृभाषा की रक्षा कैसे की जाती है, कैसे उसे सहेजा-सँवारा जाता है, यह नरेश के इस उदाहरण से अनुभव से किया जा सकता है। जो लोग खुद तो कुछ नहीं करना चाहते किन्तु हिन्दी का रोना रोते रहते हैं, उनके लिए नरेश से बेहतर उत्प्रेरक और क्या होगा? ऐसे तमाम लोग जान लें कि ‘नरेश’ बने बिना वे हिन्दी का भला कभी नहीं कर सकेंगे।
नरेश इन्दौर में रहता है और मोबाइल नम्बर 093021 12233 पर उससे मेरी बातों की पुष्टि की जा सकती है।
हिन्दी में हम भी हस्ताक्षर करते हैं और उस पर गर्व करते है।
ReplyDeleteनरेश भाई सहित पुरे परिवार को प्रणाम उनके हिंदी प्रेम के लिए और आपको इनसे पीछे देरी से करवाने के लिए नाराज़गी भेजता हूँ . उसे खाइए और शांतिपूर्वक विश्राम कीजिये.
ReplyDeleteअगर हर आदमी नरेश जी की तरह ठान ले तो वह दिन दूर नहीं जब हिंदी अपना उचित स्थान पा लेगी !!
ReplyDeleteप्रेरक आलेख...आगे से हम भी ध्यान रखेगें..
ReplyDeleteमैं भी हिन्दी मे ही हस्ताक्षर करता हूँ । पत्नी पुष्पा और बड़ी बेटी पूर्वा भी हिन्दी मे हस्ताक्षर करती है । पुत्र पूरब हिन्दी और अङ्ग्रेज़ी दोनों मे हस्ताक्षर करता है । हाँ,उत्तरा ज़रूर शुरू से ही अङ्ग्रेज़ी मे हस्ताक्षर करती है । आपका लेख पढ़ने के बाद उसे भी हिन्दी हिन्दी मे हस्ताक्षर करने के लिए प्रेरित करूंगा । आपको और नरेश को हिन्दी को आगे बढ़ाने के लिए साधुवाद ।
ReplyDelete।। श्री राधे।।
ReplyDeleteआदरणीय श्री नरेश बाबु चौधरीजी की जीवन की गाथा सुनकर यह बात तो सिद्ध है की वही व्यक्ति सबसे तेज़ चलता है जो अकेले चलता है. इनका जीवन एक प्रेरणा का स्त्रोत्र है, यदि हर भारतीय अपनी मातृभाषा को पहली प्राथमिकता दे तो हिंदी भाषा का स्थर नए ही मुकाम पे पहुच जायेगा.
भारतीय तो हम सब है लेकिन हमारे रोजाना जीवन में हम पश्चिमी सभ्यता का आचारण करते है और कहीं न कहीं जाने अनजाने अपनी सभ्यता और अपनी भाषा का निरादर कर बैठते है.
नरेश जी का एक साधारणसा उदहारण हमें सीखता है की सिर्फ बोलने से भारतीय नहीं बनते कर्म से भारतीय बनते है हम.
शंकर मुरारका
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