इसका भान तो मुझे था अवश्य किन्तु इस ओर ध्यान कभी नहीं गया। यह तो, गए दिनों, लगातार तीन बार ऐसा हुआ कि इस ओर ध्यान चला गया।
इस बरस या तो विवाह अधिक हुए या फिर हम लोगों को न्यौते अधिक मिले। सब के सब ऐसे के किसी को टाल पाना सम्भव नहीं था। लिहाजा, हम दोनों, पति-पत्नी, ने अपनी-अपनी पसन्द से आयोजन छाँट लिए। इस तरह हम दो लोगों ने 6 आयोजनों में उपस्थित रहने का व्यवहार निभा लिया। किन्तु हम दोनों को, अपने-अपनेवाले तीनों आयोजनों में एक ही सवाल का सामना करना पड़ा। मेरी उत्तमार्द्धजी से पूछा गया - ‘दादा नहीं आए?’ और मुझसे पूछा गया - ‘भाभीजी को नहीं लाए?’ मेरी उत्तमार्द्धजी तो कहीं कुछ नहीं बोली लेकिन, तीसरी बार जब मुझसे पूछा गया तो चुप नहीं रहा गया। मैंने कहा - ‘भैया! जो सामने खड़ा है उसकी पूछ-परख तो गई भाड़ में और जो नहीं आया है, उसकी तलाश कर रहे हो? मेरा अकेला आना अच्छा नहीं लग रहा हो तो वापस चला जाऊँ?’ मेजबान झेंप गया। बोला - ‘अरे! कैसी बात कर दी आपने? आपका आना अच्छा नहीं लगता तो आपको बुलाते ही क्यों? लेकिन भाभीजी भी आते तो और अच्छा लगता।’
इसी कारण इस ओर ध्यान गया। जो सामने है, उसकी अनदेखी करना और जो सामने है ही नहीं, उसकी पूछ-परख, तलाश, प्रतीक्षा करना। यह क्या है? क्यों है?
शायद यह मनुष्य स्वभाव ही है या कि यही मनुष्य स्वभाव है - जो हाथ में है, उसकी अनदेखी कर, जो हाथ में नहीं है, उसकी तलाश करना। यह, कुछ अतिरिक्त प्राप्त करने का लालच है या मनुष्य की आदिम प्रवृत्ति? या, दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं?
सयानों से सुनता आया हूँ कि मृत्यु मनुष्य की सहोदर है। मनुष्य के जन्म लेते ही उसकी मृत्यु सुनिश्चित हो जाती है। प्रति पल, उसके सर पर मँडराती, उसके साथ-साथ चलती है। किन्तु अब लग रहा है कि केवल मृत्यु ही नहीं, दुःख भी मनुष्य का सहोदर है। इसीलिए, मनुष्य आजीवन मृत्यु से कन्नी काटता रहता है और सुख की तलाश में खुद को झोंके रखता है। सुख की तलाश की यह आदिम प्रवृत्ति ही मनुष्य के दुःखों का मूल है। अन्यथा, सुख-दुःख तो मानसिक अवस्थाओं के अतिरिक्त और कुछ भी तो नहीं! ‘दर्द का हद से गुजर जाना है दवा हो जाना’ की तर्ज पर दुःख में भी सुख को तलाशा जा सकता है और सुखी रहा जा सकता है। इसी के समानान्तर कहा जाता है कि दुःखी होने के लिए मनुष्य को किसी और की आवश्यकता नहीं होती। इसका विलोम सूत्र अपने आप ही सामने आ जाता है - मनुष्य चाहे तो परम् सुखी रह सकता है। बात वही है - मनःस्थिति की। जिस तरह ‘मन के जीते जीत है, मन के हारे हार’ होती है। उसी तरह मानो तो दुख ही दुख और मानो तो सुख ही सुख।
यह मनःस्थिति ही तो है कि टेकरी पर बनी फूस की अकेली टपरिया में आदमी घोड़े बेच कर सो लेता है और अट्टालिकाओं/प्रासादों में, गुदगुदे बिस्तरों पर लेटे आदमी को, सोने के लिए नींद की गोलियाँ खानी पड़ती हैं। मनुष्य ने भले ही गरीबी और अमीरी के भौतिक पैमाने बना लिए हों किन्तु हमारा ‘लोक’ तो इन्हें भी मनःस्थिति ही मानता है। कोई साढ़े चार बरस पहले की मेरी इस पोस्ट के तीसरे हिस्से में लिखी मालवी लोक कथा ‘गरीब’ काफी-कुछ कह देती है।
किन्तु इसके समानान्तर एक सच और है - ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ वाला सच। उपदेश या सलाह तो होती ही है दूसरों के लिए! उस पर आचरण कर लिया तो वह ‘उपदेश’ या ‘सलाह’ का गुण नहीं खो देगी? इसी के चलते, मुझे आकण्ठ विश्वास है कि मैं भी सुखी नहीं रह पाऊँगा। अन्ततः हूँ तो एक सामान्य मनुष्य ही - सुख की तलाश में घूमने की आदिम प्रवृत्ति से संचालित।
अत्यंत सुन्दर ...
ReplyDeleteअत्यंत सुन्दर और मन की पृकृति का कुशल चित्रण
" अनुपस्थित की तलाश "
जितना गहरा राग हैं , उतना गहरा द्वेष।
जितना गहरा द्वेष हैं , उतना गहरा क्लेश ।। .....
अतः राग और द्वेष दोनों से हटकर अनासक्त बन जाना ही हर समस्या का हल हुआ ... और जब यह तय हो जाएँ की "हाँ " .... अनासक्त बनना ही सब झगड़ों की जड़ है तो ... अनासक्त बनने की कोई राह भी होगी .... क्योंकि जब दर्द है तो दवा भी होगी ... यह भाव मन में बराबर बना रहे तो निराशा घर नहीं करेगी ....
अब .... अनासक्त बने ...अनासक्त बने ...अनासक्त बने ...यह उपदेश ही हुआ ... जिसे हर कोई दे सकता हैं ... भाषा शैली ... या कहे तरीका और बाहरी आडम्बर अलग हो सकते हैं ... चेहरे मोहरे ..वेश भूषा अलग हो सकती हैं ... तीज-त्यौहार ... रीति -रिवाज ... जुदा हो सकते हैं ...पर जब तक जहाँ कहीं ... केवल यह शोर सुनाई दे ... की ... " अनासक्त बने ...अनासक्त बने ...अनासक्त बने .." तब तक ...केवल उपदेश ही हैं ... यह विवेक जाग्रत रहे .... कोई अगर यह कहे की आओ मैं सिखाता हूँ ... सचमुच अनासक्त कैसे बना जाएँ ... समझो वही ... हमारा " कल्याण मित्र " हैं ।
..... भला हो !!!।।
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा 14/12/12,कल के चर्चा मंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका हार्दिक स्वागत है
ReplyDeleteमानव स्वभाव है कि गिलास आधा खाली देखता है।
ReplyDeleteमानव व्यवहार का सुन्दर चित्रण
ReplyDeleteजगजीतसिंह की गजल याद आ रही है-दुनिया जिसे कहते है जादू का खिलौना है,मिल जाये तो मिट्टी है खो जाए तो सोना है । आप सामने हो तो कद्र नही,जो सामने नही उसकी फिक्र बड़ी ।
ReplyDeletesamne wale ko dekhate hi santosh ho jata hai, phir na ane wale ki chinta hoti hai, aisa to hua nahi ki aap bhabhiji ko nahi leke aaye to nikal diye gaye,ab ulta sochiye ki aap ghar aaye to aapke uttmardh puchhe ki kisi ne mujhe puchha kya ? ab aap kahenge ki nahi kisi ne nahi puchha, to kaisa lagega, sab shishta char hai,achha uttamardh ke bare main aapke alawa kisase puchhenge,
ReplyDeletekhush hoiye ki log abhi bhi puchhate hain dilli ki shadiyo main to kai bar yeh bhi nasib nahi,lifafa dijiye fir khana khaya ya nahi koi dekhane wala nahi(halanki intjaam bahut hi achchha hota hai.rakesh