ऐसे हैं हम

मेरे कक्षापाठी के बड़े भाई और सेवा निवृत्त प्राचार्य श्रीयुत सुरेशचन्द्रजी करमरकर रतलाम में ही रहते हैं और पत्रों के माध्यम से अपने अनुभव मुझे लिखते रहते हैं। इन अनुभवों में हमारे दैनन्दिन आचरण की विसंगतियाँ और अन्तर्विरोध अत्यधिक रोचकता और तीखेपन से उजागर होते हैं। पहली नजर में ‘मजा देनेवाले’ ये अनुभव हमारी कथनी और करनी के अन्तर को जिस तीखेपन से प्रकट करते हैं वह तिलमिलादेनेवाला और खुद से नजरें मिलाने में असुविधा पैदा करनेवाला होता है।

अभी दो दिन पहले मुझे करमरकरजी का ऐसा ही एक पत्र मिला है। करमरकरजी की हस्तलिपिवाला मूल पत्र तो यहाँ प्रस्तुत है ही, उसकी इबारत भी यहाँ प्रस्तुत है -


प्रिय श्री विष्णुजी,

नमस्ते,

बड़े दिन से पत्र लिख रहा हूँ।

मैं शासकीय कार्य से (सेवा निवृत्ति के बाद) जावरा जा रहा था। गाड़ी में दो सज्जनों की बातों ने सहसा मेरा ध्यान आकर्षित किया। एक बी. एस. एन. एल. में व एक शासकीय शिक्षक। बी. एस. एन. एल. कर्मचारी पूर्व में प्रायव्हेट नौकरी में थे। शिक्षक, जो सरकारी हैं, पहले प्रायव्हेट स्कूल में थे।

बी. एस. एन. एल. कर्मचारी के पास उनकी बी. एस. एन. एल. का मोबाइल नहीं था। शिक्षक महोदय के बच्चे प्रायव्हेट स्कूल में पढ़ते हैं।

इन्हें नौकरियाँ शासकीय चाहिए, मगर फोन और स्कूल प्रायव्हेट चाहिए। फिर, इनकी निन्दा पुराण की कथाएँ। श्रीमनमोहन सिंहजी से लेकर शिवराज सिंह से होते हुए पार्षद तक सब भ्रष्ट। ये दोनों तड़ी मारकर एक सन्त की सेवा में आ रहे थे।

कैसा ‘दो मुँहा’ व्यवहार पाले हैं लोग? सन्तों की भीड़ ऐसे लोगों से ही बनती है।

विष्णुपत्नी को नमस्ते।

- सुरेशचन्द्र करमरकर

10 comments:

  1. बैरागी जी,
    व्यक्तित्व का यह अंतर्विरोध हम रोज ही देखते हैं। करमाकर जी आप को लिख देते हैं और आप हम तक पहुँचा रहे हैं। हमें तो जूझना पड़ता है। पिछले दिनों एक न्यायालय को आवेदन लिख कर देना पड़ा कि न्यायालय के वर्तमान पीठासीन अधिकारी ने अब तक जो निर्णय किए हैं उन से परिलक्षित होता है कि वे कानून की ठीक ठाक समझ भी नहीं रखते और न समझने का प्रयत्न करते हैं। इस से न्यायार्थियों को हानि हो रही है। इस कारण प्रार्थी वर्तमान पीठासीन अधिकारी के रहते मुकदमे में बहस नहीं कराना चाहता। आवेदन पढ़ कर न्यायाधीश महोदय गुस्से से लाल हुए कहने लगे यह अवमानना है। मैं ने कहा आप प्रकरण संस्थित कीजिए, मैं सामना करने को तैयार हूँ। लाल रंग सफेद पड़ गया। फिर कहने लगे आप दूसरी अदालत में अपना मुकदमा स्थानान्तरित करवा लीजिए।
    लेकिन स्वयं में सुधार को तैयार नहीं।

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    1. आपने अपनी नहीं, मेरी बात कह दी। मुझे प्राय: प्रतिदिन ही ऐसी 'एकाधिकारवादी' मानसिकता से जूझना पड रहा है - कभी खुद के लिए तो कभी समूचे अभिकर्ता समुदाय के लिए। अधिकारीगण, समस्‍या को शिकायत और असहमति को विरोध मानते हैं और क्षणांश को भी मानने को तैयार नहीं होते कि वे उचित नहीं कर रहे। 'जूझने' के ऐसे ही एक प्रयास में मेरा अभिकरण निरस्‍त कर, मुझे परवर्ती (रीन्‍यूअल)कमीशन से वंचित करने की अन्तिम कार्रवाई कर दी गई थी जिसमें, अभिकर्ताओं के संगठन 'लियाफी' ने मुझे बचाया था।

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    2. Bhaijee ! 'Bhrashtaachaar' kewal maudrik/aarthik hi nahi hota , anek roopon me hota hai, yeh bhi unme se ak hai.

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  2. अच्‍छा उदाहरण.

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  3. हमारे आसपास ऐसे लोग भरे पड़े हैं ...
    आशा है कि हम यह गलती न करें ....आभार आपका !

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  4. गंदे लोग कहीं भी हो सकते है, कोतवाली में चोर भरे हो सकते है, न्याय के मन्दिर में अन्यायी जा बैठते है। शिक्षण प्रदाता विद्यार्थीओं को मार्ग च्यूत करने वाले होते है। फिर यह सर्वसाधारण ब्यान क्यों कि "सन्तों की भीड़ ऐसे लोगों से ही बनती है।"

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  5. यही हो रहा है, सबका जीवन स्वतन्त्र है, अपने ही रंग में।

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  6. "रंग दे चुनरिया" गाने का मन कर रहा है.

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  7. sixty five percent person are such type and we have
    we are facing day to day.let it come..........

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  8. खुद कॉंवेंट में पढकर अपने बच्चों को भी अंग्रेज़ी स्कूल में पढाते हुए भी हिन्दी, हिन्दू की सेवा का परचम लहराने वाले एक ब्लॉग की याद आ गयी। कथनी-करनी का अंतर न होता तो देश की दशा कुछ और ही होती। वैसे जिन्होने संत की सेवा में जाना शुरु किया है, क्या पता वे वहाँ से कुछ सीखकर ही लौटें।

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