ईश्वर मेरी समस्त आशंकाएँ निर्मूल करे और ‘वह’ और उसके भाई-भौजाई, बूढ़े माता-पिता (क्रमशः 68 वर्ष तथा 66 वर्ष) पूर्णतः स्वस्थ-प्रसन्न, सुरक्षित रहें।
आयु के लिहाज से तो वह मेरे लिए ‘पुत्रवत्’ ही है किन्तु व्यवहार में वह ‘मित्रवत्’ है। उसके और मेरे परिजन, हमारी इस ‘मित्रता’ पर आश्चर्य करते हैं। आईआईटी मुम्बई से एम. टेक. उपाधिधारी ‘वह’ अपने मित्रों में, ‘थ्री इडीयट्स’ के ‘रेंचो’ की तरह जाना-पहचाना जाता है - अतिरिक्त प्रतिभाशाली और मेधावी। अपने गृहनगर से सैंकड़ों किलोमीटर दूर, अहिन्दी प्रदेश के एम महानगर में, एक बहु राष्ट्रीय कम्पनी में, लगभग सवा सौ कर्मचारियों के समूह का नेतृत्व करनेवाला मेरा यह ‘पुत्रवत् मित्र’ जब-जब भी घर आता है, तब-तब अपना अधिकांश समय मेरे साथ ही व्यतीत करता है। हम दोनों देर रात तक गपशप करते हैं। इतनी देर तक कि उसके घर से आठ-दस फोन आ जाते हैं और मेरी उत्तमार्द्ध की नींद आधी हो जाती है।
उसके विवाह को दो बरस पूरे होने वाले हैं किन्तु ‘दाम्पत्य जीवन’ का एक क्षण भी वह अब तक नहीं जी पाया है। उसकी नवोढ़ा ब्याहता यूँ तो स्नातकोत्तर उपाधिधारिणी है किन्तु व्यवहार से वह या तो निरक्षर अनुभव होती है या फिर मनोरोगी। ‘वह’ चाहता है कि उसके बूढ़े माँ-बाप अपने पोते-पोतियों को अपनी गोद में खेलाएँ-दुलराएँ, उनसे तोतली बोली में बतियाएँ, घुटनों चलते अपने वंशजों को पकड़ने के लिए उनके पीछे भगते-दौड़ते थक जाएँ। किन्तु इस ‘चाहत’ के वास्तविकता में बदलना की ‘सम्भावना’ तो दूर रही, इसकी ‘आशंका’ भी दिखाई नहीं दे रही। इसके विपरीत, उसका जीवन नर्क हो गया है और स्थिति यह हो गई है कि उसे अपनी नौकरी से बचे समय में, उन संस्थाओं के कार्यालयों के चक्कर काटने पड़ रहे हैं जो दहेज अधिनियम में झूठे फँसाए लोगों को बचाने में मदद करती हैं। दिन में नौकरी और बचे वक्त में खुद को तथा अपने बूढ़े माता-पिता को जेल जाने से बचाने की पेशबन्दियाँ करना - यही उसके जीवन का लक्ष्य बन कर रह गया है। वह चौबीसों घण्टे, अपनी कल्पना में, अपने बूढ़े माता-पिता को जेल जाते देखने की आशंका से उपजे तनाव को जी रहा है। एक ओर अपनी, ऊँचे वेतनवाली नौकरी को और नौकरी में अपनी स्थिति और प्रतिष्ठा को बनाए रखने का तनाव और दूसरी ओर यह मानसिक संत्रास! इन्हीं बातों से मैं अत्यधिक आशंकित और भयभीत बना हुआ हूँ - मेरा यह प्रतिभावान और मेधावी नौजवान मित्र कहीं, कुछ कर न बैठे! हताशा का रोगी न बन जाए!
उसकी पत्नी और सास-सुसर का व्यवहार अविश्वसनीय रूप से अमानवीयता की सीमा तक क्रूर है। कोई माँ-बाप अपनी बेटी का घर बसने में भला इस तरह कैसे और क्यों बाधक बन सकते हैं? यदि यही सब करना था तो बेटी का ब्याह ही क्यों किया? न तो उनकी बेटी अपने पति के साथ रहना चाहती है न ही वे उसे भेजना चाहते हैं। विवाह के बाद आई पहली दीपावली पर वह, लाख अनुराधों के बाद भी अपनी सुसराल नहीं आई। मेरे इस नौजवान मित्र के माता-पिता को अपने पड़ौसियों को जवाब देते-देते थकान आ गई। वह चाहती है कि उसका पति (याने कि मेरा यह नौजवान मित्र) नौकरी भले ही ‘दूर-देस’ में करे किन्तु रहे उसके (पत्नी के) पास, अपने ससुराल में ही। यदि यह सम्भव न हो तो फिर वह अपनी नौकरी करे किन्तु उसे (अपनी पत्नी को) अपने माँ-बाप के पास ही रहने दे। स्थिति यह है कि प्रथमतः तो वह अपने पति के पास जाती नहीं और जब भी जाती है (या गई है) तब, अगले ही पल मायके लौटने की बात करने लगती है। वह घर से दफ्तर पहुँचता ही है कि पत्नी का फोन आ जाता है -‘ मेरी तबीयत खराब है।’ वह भाग कर उल्टे पाँवों लौटता है तो पत्नी को सकुशल पाता है। वह डॉक्टर को दिखाने की बात करता है तो मना कर देती है। ऐसी स्थितियों में वह जब-जब भी जबरन अपनी पत्नी को डॉक्टर के पास ले गया, तब-तब हर बार डॉक्टर ने, जाँच के बाद कहा कि उसे (पत्नी को) कुछ नहीं हुआ है। दो-एक बार तो डॉक्टर ने झुँझला कर उसकी पत्नी को डाँट दिया और कहा कि वह (पत्नी), शारीरिक नहीं, मानसिक रोगी है और उसे किसी मनःचिकित्सक को दिखाया जाना चाहिए।
उसकी पत्नी ने शायद तय कर लिया है कि न तो खुद चैन से जीएगी और न ही मेरे इस मित्र को चैन से जीने देगी। वह दफ्तर पहुँचता ही है कि पत्नी का फोन आता है। पूछती है - ‘मेरा वापसी का टिकिट करा दिया या नहीं?’ वह चौंकता है। अभी कल ही तो मायके से आई है! घर से निकला था तो ऐसी तो कोई बात ही नहीं हुई थी! फिर यह, टिकिट कराने की बात कहाँ से आ गई? टिकिट भी उसे हवाई यात्रा का ही चाहिए! कभी कहती है कि जिस मल्टी में फ्लेट लिया है वहाँ से वह ‘साइट सीईंग’ नहीं कर पाती। पत्नी की इस माँग के चलते वह एक बार फ्लेट बदल भी चुका है। लेकिन ऐसा कितनी बार करे?
वह देर रात, थका-हारा घर लौटता है। ‘रूखा-सूखा’ खाकर वह बिस्तर पर जाता है। रात तीन बजे उसकी पत्नी उसे उठाती है। कहती है - ‘मुझे घूमने जाना है।’ और तत्क्षण ही चल पड़ती है। वह जिस भी दशा में होता है, उसके पीछे-पीछे भागता है। अनजान शहर, देर रात के सन्नाटे में डूबी वीरान सड़कें। पत्नी मुँह उठाए कहीं तो भी चली जा रही है, किसी भी गली में घुस रही है, उससे बात करना तो दूर, देख भी नहीं रही कि वह उसके पीछे-पीछे, चिन्ता में डूबा, पागलों की तरह चल रहा है। वह जैसे-तैसे उसे घर लिवाता है। सोने की कोशिश करता है। रात में सोए कभी भी, नौकरी पर तो समय पर ही पहुँचना पड़ता है। वह नौकरी पर गया नहीं कि पत्नी का फोन आता है - ‘सात दिन में मेरे लिए नौकरी की व्यवस्था कर देना वर्ना ठीक नहीं होगा।’
अपने पति को परेशान करना, उसकी सार्वजनिक फजीहत करना, उसे संत्रस्त बनाए रखना ही मानो उसकी पत्नी ने अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया है। अपने इस ‘मनोरथ’ को पूरा करने के लिए वह सारी मर्यादाओं, सारी सीमाओं को पार कर देती है। क्या कोई नवोढ़ा पत्नी, अपने इस मकसद को पूरा करने के लिए लगभग निर्वस्त्र स्थिति में फ्लेट से बाहर आना तो दूर, बाहर आने की सोच सकती है? नहीं। किन्तु ऐसा वह एकाधिक बार कर चुकी है। उसे इस बात से अति सुख मिलता है कि पास-पड़ौसी, उसके पति को अजीब नजरों से देख रहे हैं और उसका पति नीची नजरें किए संकोचग्रस्त, शर्म से पानी-पानी हो रहा है।
लग रहा होगा कि मैं कुछ ज्यादा ही कह रहा हूँ। किन्तु सच मानिए, यह सब लिखने से पहले मुझे करोड़ों बार सोचना पड़ा है, खुद से सैंकड़ों सवाल करने पड़े हैं। दाम्पत्य सुख की चाहत में, अपनी गृहस्थी को बनाने के लिए और बचाए रखने के लिए मेरे इस मित्र ने अपने ससुर के सामने बार-बार गुहार लगाई। कहा - ‘आकर अपनी बेटी को समझाएँ।’ ससुर ने कहा - ‘ठीक है। आता हूँ।’ आने की तारीख दी। मेरे इस मित्र ने उनके लिए, राजधानी एक्सप्रेस में, सेकण्ड ए सी में उनके आने-जाने का आरक्षण करवाया। उन्होंने तारीख बदल दी तो आरक्षण निरस्त करवा कर दूसरी बार फिर आरक्षण करवाया। किन्तु उसके ससुर आज तक नहीं आए।
इन दिनों मेरा यह नौजवान मित्र चौबीसों घण्टे दहशत में जी रहा है। उसकी पत्नी ने धमकी दी है कि वह उसके छोटे भाई (याने, मेरे इस मित्र के साले) की शादी की प्रतीक्षा कर रही है। जैसे ही यह शादी हुई वैसे ही वह मेरे मित्र की और उसके परिजनों की जिन्दगी खराब कर देगी। ऐसा कुछ करेगी कि मेरा मित्र और उसके परिजन जिन्दगी भर याद रखेंगे। मेरा मित्र खुद को बचाए रखने और सामान्य बनाए रखने के लिए अपने आप से जूझ रहा है। उसे अपने बूढ़े माता-पिता की, नौकरी कर रहे अपने बड़े भाई की चिन्ता खाए जा रही है। वह अपराध बोध से ग्रस्त हो रहा है - उसके कारण उसके परिजन संकट में आ जाएँगे। वह क्या करे? नौकरी करे या अपने और अपने परिजनों के कानूनी बचाव की पेशबन्दियाँ?
मुझे नहीं पता कि अगले पल मुझे क्या खबर मिलेगी। देश के एक होनहार, प्रतिभाशाली और मेधावी नौजवान को इस तरह संकटग्रस्त होते देखते रहना मेरे लिए कठिन होता जा रहा है। मैं खुद को अभाग अनुभव कर रहा हूँ - उसकी कोई सहायता नहीं कर पा रहा हूँ। मुझे लग रहा है - मैं अपने पुत्र को कानूनी दाँव-पेंचों में फँसता देख रहा हूँ और कुछ भी नहीं कर पा रहा हूँ।
ऐसे में मैं ईश्वर से यही प्रार्थना कर रहा हूँ कि मेरी सारी आशंकाएँ निर्मूल करे। यदि मैंने अपने जीवन में कभी, कुछ अच्छा किया हो तो उसका पुण्य मेरे इस नौजवान मित्र को मिले और वह अपने परिजनों सहित पूर्णतः स्वस्थ-प्रसन्न, सकुशल रहे।
हे! ईश्वर, मेरी याचना सुनना और अपने बच्चों पर अपनी कृपा-वर्षा करना।
इस परिस्थितियों के सभी भुक्तभोगियों को मेरी सलाह - कानूनी रूप से इस दमनकारी रिश्ते से जितनी जल्दी बाहर आ सकें आयें। आपके मित्र की पत्नी को चिकित्सकीय/मानसिक जाँच की अर्जेंट आवश्यकता है। मगर किसी को भी दूसरों की ग़लतियों/बीमारियों का अतिरिक्त भुगतान करने की आवश्यकता नहीं है। जीवनसाथी की न्यूनतम अपेक्षायें पूर्ण करना तो दूर एक व्यक्ति (आपके मित्र) के जीवन को नर्क बनाने का अधिकार किसी को भी नहीं दिया जा सकता है।
ReplyDeleteत्रिया चरित्र शायद इसे ही कहते होंगें।
ReplyDeleteजाने क्यों लोग ऐसा करते हैं।
प्रणाम
ठीक ऐसी ही एक मनोरोगी स्त्री का साबिका मेरे मित्र के छोटे भाई से पड़ा था. कहानी पूरी तरह मिलती जुलती है. बस फर्क यह था कि उनके तो दो बच्चे भी हो गए थे. और जब बच्चे आठवीं-दसवीं क्लास में थे तो उस स्त्री ने आत्महत्या भी कर ली थी! सांत्वना की बात सिर्फ यह थी कि स्त्री का भाई बेहद समझदार था.
ReplyDeletekaash Mahila-Aayog ki tarj par Purushon ke liye bhi aisaa hi koi Aayog hota jo aise maamlon me sachchai ki tah tak pahunchane ka prayaas karta to nishchay hi aapke putrawat Mitra ko nyaay mil pata.Ishwar us kanya aur uske parijanon ko sadbuddhi de.
ReplyDeleteईश्वर इन बच्चों को सद्बुद्धि दे.
ReplyDeleteअगर आपका मित्र चाहे तो मेनसेल में अपनी परेशानी बता सकता है। मेनसेल का संचालन आर पी चुघ करते है। ये एक वकील है और केवल ऐसे ही केस लड़ते हैं जिसमें पुरुषों पर महिलाएं अत्याचार करती है। उनकी वेबसाइट पर भी आपको पुरुषों के अधिकार से जुड़ी क़ानूनी जानकारी मिल सकती है। ये दिल्ली में रहते है।
ReplyDeleteऔर भी पहलू संभव हैं.
ReplyDeletei think you should advise your friend to immediately contact the nearest police station and file a complaint against his wife .
ReplyDeleteThis way for future he will have a proof in case she takes some action
I think diptis comment is also valuable
जिन्हें जीवन में जोड़ने से अधिक तोड़ने में आनन्द आता है,भगवान उनसे सारे सज्जनों को बचाये।
ReplyDeleteHe should keep the record of Rajdhani 2nd AC tickets which he first booked and cancelled, more than once; he should make sure he has the names of the people who saw when his wife came out of the house without her clothes on; the watchman in the building must have seen her leave at 2am, or 3 am, alone and then the husband following - he should have that watchman's number (or other witnesses' details); also that doctor's version who scolded his wife and said she was mentally disturbed - with all this information, he should be able to show that she has a problem, and that would work in his favour if he tries to seek divorce. I hope this helps.
ReplyDeleteसार्थकता लिए हुए सटीक प्रस्तुति ।
ReplyDeleteकल 14/03/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.
आपके सुझावों का स्वागत है .. धन्यवाद!
सार्थक ब्लॉगिंग की ओर ...
he needs to report to the police / show doctor's statements / get neighbor's witness to her behavior. may be divorce would be a better option - rather than one of them killing oneself
ReplyDelete:(
ईश कृपा रहे बस!!
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